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Wednesday, May 4, 2011

डैडी – कहानी

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माँ जुटी हुई हैं संघर्ष में। रसोई की टोटी आज फिर से बहने लगी है शायद। घर चाहे कितना भी बड़ा हो। घर का मालिक भी चाहे जितना बड़ा हो। अमेरिका में यह सारे काम स्वयं ही करने होते हैं। यह टोटी पहले भी कभी खराब ज़रूर हुई होगी लेकिन सच यह है कि तब हमें कभी इसका पता न चला। डैडी यहाँ थे तब माँ को घर-बाहर किसी बात की चिंता करने की ज़रूरत ही नहीं थी। तब तो शायद माँ को यह भी पता नहीं था कि ये चीज़ें कभी खराब होती भी हैं।

जब तक माँ और मैं सोकर उठते थे, डैडी नहा-धोकर, ध्यान करके या तो अखबार पढ रहे होते थे या उसके बाद अपनी ईमेल आदि देखते थे। बोलते वे कम ही थे मगर अपनी सुबह की चाय बनाने से लेकर बाकी सब काम भी ऐसे दबे पाँव करते थे कि कहीं गलती से भी हमारी नींद में खलल न पडे।

जब मैं तैयार हो जाती तब वे मुझे अपनी कार में लेकर स्कूल छोड़ने जाते थे। उस समय मैं उनसे ढेर सारी बातें करती थी। उस समय वे भी अन्य वक़्तों जैसे शांत और चुप्पा नहीं रहते थे। लगता था जैसे डैडी किसी और आदमी से बदल गये हों। स्कूल की छुट्टी होने पर वे मुझे लेने आ जाते थे। मुझे घर छोड़कर वे वापस अपने काम पर चले जाते थे। डैडी अस्पताल में थे या स्टील मिल में? क्या करते थे? यह मुझे तब ठीक से नहीं पता था। लेकिन इतना पता था कि जब वे शहर में होते थे तब ज़रूरत पड़ने पर किसी भी समय उन्हें घर बुलाया जा सकता था। लेकिन बीच-बीच में वे काम के सिलसिले में नगर से बाहर की यात्रायें भी करते थे। कभी-कभी वे विदेश भी चले जाते थे और हफ्तों तक हमें दिखाई नहीं देते थे। उनकी कोई भी यात्रा पहले से तय नहीं होती थी। किसी भी दिन चले जाते थे और किसी भी दिन वापस आ जाते थे। उनकी वापसी के बाद ही ठीक से पता लगता था कि कहाँ-कहाँ गये थे।

डैडी यूरोप में कहीं गये हुए थे। पाँच साल की छोटी सी मैं खिड़की में बैठी अपनी गुड़ियों से खेल रही थी कि मुझे उनकी कोई बात याद आयी। मेरे मन में एकदम यह विचार आया कि मेरे डैडी हमारे घर के महात्मा बुद्ध हैं, जानकार और शांत। मैं यह बात सोच ही रही थी कि उन्होंने घर में प्रवेश किया। लपककर मुझे गोद में उठाया तो मैंने खुश होकर कहा, “डैडी, आप न, बिल्कुल भगवान बुद्ध ही हो। फर्क बस इतना है कि भगवान बुद्ध बहुत ज़्यादा बुद्धिमान हैं और आप उतने बुद्धिमान नहीं हैं।“

पिट्सबर्ग का एक दृश्य
डैडी ने वैरी गुड कहकर मुझे चूम लिया। कुछ ही देर में उनके सूटकेस से मेरे लिये उपहारों की झड़ी लगने लगी, जैसे कि हमेशा होता था। माँ कुछ खुश नहीं दिख रही थी। घर में कुछ तो ऐसा चलता था जिसे मैं समझ नहीं पाती थी। माँ शायद डैडी के जॉब से अप्रसन्न रहती थीं। वे चाहती थीं कि डैडी भी आस-पड़ोस के पुरुषों की तरह हमेशा शहर में ही रहने वाली कोई नौकरी करें।

डैडी जब फोन पर अपने काम की बात कर रहे होते थे तब कमरा अन्दर से बन्द रहता था। बाकी समय उनके कमरे में जाना एक रोमांचक अनुभव होता था। घर के अन्दर भी उनके कमरे की अलमारियाँ और दराजें सदैव तालाबन्द रहती थीं। कभी-कभी मैं उनका रहस्य जानने के लिये चुपके से उनके कमरे में चली जाती थी और वे अपना सब काम छोड़कर लपककर मुझे गोद में उठा लेते थे।

[क्रमशः]

Monday, February 14, 2011

टोड - कहानी - अंतिम भाग

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मैं चिंटू के साथ बाहर आया तो देखा कि लॉन के एक कोने में एक बड़े से टोड के सामने तीन छोटे टोड बैठे थे। नन्हें बच्चे की कल्पनाशीलता से होठों पर मुस्कान आ गयी। सचमुच बच्चों के सामने टोड मास्टर जी बैठे थे।

टोड कहानी का भाग एक पढने के लिये यहाँ क्लिक करें
अब आगे की कहानी:

दिन बीते, एक रविवार को मैं दातागंज में था। उसी जूनियर हाई स्कूल के बाहर जहाँ की एक एक ईंट किसी पशु का नाम ले-लेकर मेरी कल्पनाशीलता पर तंज़ कस रही थी। सुनसान इमारत। बाहर मैदान में कुछ आवारा पशु घूम रहे थे। मैं स्कूल के फ़ोटो ले रहा था तभी लाठी लिये एक बूढे ने पास आकर कहा, "हमरा भी एक फोटू ले ल्यो।"

मुझे तो बैठे-बिठाये एक अलग सा फ़ोटो मिल गया था। मैंने अपने नये सब्जेक्ट को ध्यान से देखा, "अरे, तुम मूखरदीन हो क्या?"

"हाँ मालिक, आपको कैसे पता लगो?

"मैं यहाँ पढता था, आरपी रंगत जी कहाँ रहते हैं आजकल?"

"आरपी... रंगत..." वह सोचने लगा, "अच्छा बेSSS, बे तौ टोड हैंगे।"

"अबे तू भी तो मुर्गादीन था" मैंने कहना चाहा परंतु उसकी आयु के कारण शब्द मुँह से बाहर नहीं निकल सके, "हाँ, वही। कहाँ रहते हैं?"

"साहूकारे मैं, उतै जाय कै, पकड़िया के उल्ले हाथ पै" उसने हाथ के इशारे से बताया। मैने उसका फ़ोटो कैमरा के स्क्रीन पर दिखाया तो वह अप्रसन्न सा दिखा, "निरो बेकार हैगो। ऐते बुढ़ाय गये का हम? कहूँ नाय, तुमईं धल्ल्यो जाय।"

मैं तेज़ कदमों से साहूकारे की ओर बढ़ा। कभी हमारा भी एक घर था वहाँ। आज तो शायद ही कोई पहचानेगा मुझे। चौकीदार के बताये पाकड़ के पेड के सामने कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। "आरपी रंगत" का नाम किसी ने नहीं सुना था। जब मैने बताया कि वे जूनियर हाई स्कूल में पढाते थे तो सभी के चेहरे पर अर्थपूर्ण मुस्कान आ गयी और वे एक दूसरे से बोले, "अबे, टोड को पूछ रहे हैं ये।"

एक लड़का मुझे पास की गली में एक जर्जर घर तक ले गया। कुंडी खटकाई तो मैली धोती में एक कृषकाय वृद्ध बाहर आया। अधनंगे बदन पर वही खुरदुरी त्वचा।

"किससे मिलना है?" आवाज़ में वही चिरपरिचित स्नेह था।

"नमस्ते सर! सकल पदारथ हैं जग माही..." मैने अदा के साथ कहा।

"अहा! होइहै वही जो राम रचि राखा..." उन्होने उसी अदा के साथ जवाब दिया, "अरे अन्दर आओ बेटा। तुम तो निरे गंजे हो गये, पहचानते कैसे हम?"

लगता था जैसे उनकी सारी गृहस्थी उसी एक कमरे में समाई थी। एक कुर्सी, एक मेज़, और ढेरों किताबें। कांपते हाथों से उन्होंने खटिया के पास एक कोने में पडे बिजली के हीटर पर चाय का पानी रखा और फिर निराशा से बोले, "अभी है नहीं बिजली।"

मैं एक स्टूल पर बैठा सोच रहा था कि बात कहाँ से शुरू करूँ कि उन्होंने ही बोलना शुरू किया। पता लगा कि उनके कोई संतान नहीं थी। पत्नी कबकी घर छोडकर चली गयीं क्योंकि वे जहाँ भी जातीं आवारा और उद्दंड लडकों के झुन्ड के झुन्ड उन्हें "मिसेज़ टोड" कहकर चिढाते रहते थे।

जब तक नौकरी रही, लड़कों के व्यंग्य बाण सुने-अनसुने करके विद्यालय जाते रहे। अब तो जहाँ तक सम्भव हो घर में ही रहते हैं।

"ज़िन्दगी नरक हो गयी है मेरी" उनका विषाद अब मुझे भी घेरने लगा था।

वे अपनी बात कह रहे थे कि एक गेंद खिड़की से अन्दर आकर गिरी। शायद उन्हीं लडकों की होगी जो बाहर नुक्कड़ पर क्रिकेट खेल रहे थे। गेन्द की आमद से उनकी कथा भंग हुई। उन्होंने एक क्षण के लिये गेन्द को देखा फिर उठकर मेरी ओर आये और बोले, "तुम तो सबके चहेते छात्र थे। तुम्हें ज़रूर पता होगा। बताओ, मेरे साथ यह गन्दा मज़ाक किसने किया?"

"मेरा नाम टोड किसने रखा था?"

तभी दरवाज़ा खुला और एक 7-8 वर्षीय लड़का अन्दर आकर बोला, "हमारी गेन्द अन्दर आ गयी है टोड।"

[समाप्त]

Sunday, February 13, 2011

टोड - कहानी - भाग एक

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"देखो, देखो, वह टोड मास्टर और उसकी क्लास!" चिंटू खुशी से उछलता हुआ अन्दर आया।

मैंने उसे देखा और मुस्करा दिया। वह इतने भर से संतुष्ट न हुआ और मेरा हाथ पकड़कर बाहर खींचने लगा।

"बस ये दो पन्ने खत्म कर लूँ फिर आता हूँ" मैंने मनुहार के अन्दाज़ में कहा।

"तब तक तो क्लास डिसमिस भी हो जायेगी..." उसने हाथ छोड़े बिना अपनी मीठी वाणी में कहा।

"देख आओ न, बच्चे कॉलेज चले जायेंगे तब अकेले बैठकर तरसोगे इन पलों के लिये..." चिंटू की माँ ने रसोई में बैठे-बैठे ही तानाकशी का यह मौका झट से लपक लिया।

"अकेले रहें मेरे दुश्मन! मैं तो तुम्हें सामने बिठाकर निहारा करूंगा" मैं भी इतनी आसानी से आउट होने वाला नहीं था।

"हाँ, मैं बैठी रहूंगी और बना बनाया खाना तो आसमान से टपका करेगा शायद" उन्होंने नहले पे दहला जड़ा।

मैं चिंटू के साथ बाहर आया तो देखा कि लॉन के एक कोने में एक बडे से टोड के सामने तीन छोटे टोड बैठे थे। नन्हें बच्चे की कल्पनाशीलता से होठों पर मुस्कान आ गयी। सचमुच बच्चों के सामने टोड मास्टर जी बैठे थे।

टोड मास्टर जी कक्षा के बाहर अपनी कुर्सी पर बैठे हैं। सभी बच्चे सामने घास पर बैठे हैं। मैं, दिलीप, संजय, प्रदीप, कन्हैया, सभी तो हैं। सर्दियों में कक्षा के अन्दर काफी ठंड होती है सो धूप होने पर कई अध्यापकगण अपनी कक्षा बाहर ही लगा लेते हैं। टोड जी भी ऐसे ही दयालुओं में से एक हैं। वैसे उनका वास्तविक नाम है आर.पी. रंगत मगर आजकल वे सारे स्कूल में अपने नये नाम से ही पहचाने जाने लगे हैं।

प्रायमरी स्कूल की ममतामयी अध्यापिकाओं की स्नेहछाया से बाहर निकलकर इस जूनियर हाई स्कूल के खडूस, कुंठित और हिंसक मास्टरों के बीच फंस जाना कोई आसान अनुभव नहीं था। गेंडा मास्साब ने एक बार संटी से मार-मारकर एक छात्र को लहूलुहान कर दिया था। छिपकल्ली ने एक बार जब डस्टर फेंककर मारा तो एक बच्चे की आंख ही जाती रही थी।

सारे बच्चे इन राक्षसों से आतंकित रहते थे। डरता तो मैं भी था परंतु रफी हसन के साथ मिलकर मैंने बदला लेने का एक नया तरीका निकाल लिया था। हम दोनों ने इस जंगलराज के हर मास्टर को एक नया नाम दे दिया था। उनके नाक-नक्श, चाल-ढाल और जालिम हरकतों के हिसाब से उन्हें उनके सबसे नज़दीकी जानवर से जोड़ दिया था।

जब हमारे रखे हुए नाम हमारी आशा से अधिक जल्दी सभी छात्रों की ज़ुबान पर चढने लगे तो हमारा जोश भी बढ गया। आरम्भ में तो हमने केवल आसुरी प्रवृत्ति के शिक्षकों का नामकरण किया था परंतु फिर धीरे-धीरे सफलता के जोश में आकर हमने एक सिरे से अब तक बचे हुए भले मास्टरों को भी नये नामों से नवाज़ दिया। हमारे अभियान के इसी दूसरे चरण में श्रीमान आरपी रंगत भी अपनी खुरदुरी त्वचा के कारण मि. टोड हो गये।

तालियाँ बजाते चिंटू के उत्साह को दिल की गहराइयों तक महसूस करने के बावज़ूद न जाने क्यों मुझे आरपी रंगत के प्रति किये हुए अपने बचपने पर एक शिकायत सी हुई। उस हिंसक जूनियर हाई स्कूल के परिसर में एक वे ही तो थे जो एक आदर्श अध्यापक की तरह रहे। अन्य अध्यापकों की तरह मारना-पीटना तो दूर उन्होंने अपने घर कभी भी ट्यूशन नहीं लगाई। विद्यार्थी कमरुद्दीन की किताबों का खर्च हो चाहे चौकीदार मूखरदीन की टॉर्च की बैटरी हो, सबको पता था कि ज़रूरत के समय उनकी सहायता ज़रूर मिलेगी।

राम का गायन हो, आफताब की कला प्रतिभा, कृष्ण का अभिनय या मेरी वाक्शैली, इन सब को पहचानकर विभिन्न समारोहों का आकर्षण बनाने का काम भी उन्होंने ही किया था। अधिक विस्तार में जाने की ज़रूरत नहीं है परंतु एक बार जब परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि निरपराध होते हुए भी मुझे विद्यालय से रस्टीकेट होने का समय आया तो मेरी बेगुनाही पर उनके विश्वास के चलते ही मैं बच सका था। यह सब ध्यान आते ही मुझे अपने ऊपर क्रोध आने लगा। अगर मेरे पास उनका फोन नम्बर आदि होता तो शायद मैं उसी समय उनसे अपनी करनी की क्षमा मांगता। परंतु नम्बर होता कैसे? मैने तो वह स्कूल छोड़ने के बाद वहाँ की किसी भी निशानी पर दोबारा नज़र ही नहीं डाली थी।

चिंटू की माँ कहती है कि मेरा चेहरा मेरे मन का हर भाव आवर्धित कर के दिखाता रहता है। पूछने लगी तो मैंने सारी कहानी कह डाली। उन्होंने तुरंत ही यह ज़िम्मेदारी अपने सर ले ली कि इस बार भारत जाने पर वे मुझे अपने पैतृक नगर अवश्य भेजेंगी, केवल रंगत जी से मिलकर क्षमा मांगने के लिये।

[क्रमशः]

Wednesday, September 8, 2010

पागल – लघु कथा

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पुरुष: “तुम साथ होती हो तो शाम बहुत सुन्दर हो जाती है।”

स्त्री: “जब मैं ध्यान करती हूँ तो क्षण भर में उड़कर दूसरे लोकों में पहुँच जाती हूँ!”

पुरुष: “इसे ध्यान नहीं ख्याली पुलाव कहूंगा मैं। आँखें बंद करते ही बेतुके सपने देखने लगती हो तुम।”

स्त्री: “नहीं! मेरा विश्वास करो, साधना से सब कुछ संभव है। मुझे देखो, मैं यहाँ हूँ, तुम्हारे सामने। और इसी समय अपनी साधना के बल पर मैं हरिद्वार के आश्रम में भी उपस्थित हूँ स्वामी जी के चरणों में।”

पुरुष: “उस बुड्ढे की तो...”

स्त्री: “तुम्हें ईर्ष्या हो रही है स्वामी जी से?”

पुरुष: “मुझे ईर्ष्या क्यों कर होने लगी?”

स्त्री: “क्योंकि तुम मर्द बड़े शक़्क़ी होते हो। याद रहे, शक़ का इलाज़ तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं है।”

पुरुष: “ऐसा क्या कह दिया मैंने?”

स्त्री: “इतना कुछ तो कहते रहते हो हर समय। मैं अपना भला-बुरा नहीं समझती। मेरी साधना झूठी है। योग, ध्यान सब बेमतलब की बातें हैं। स्वामीजी लम्पट हैं।”

पुरुष: “सच है इसलिये कहता हूँ। तुम यहाँ साधना के बल पर नहीं हो। तुम यहाँ हो, क्योंकि हम दोनों ने दूतावास जाकर वीसा लिया था। फिर मैंने यहाँ से तुम्हारे लिए टिकट खरीदकर भेजा था। और उसके बाद हवाई अड्डे पर तुम्हें लेने आया था। कल्पना और वास्तविकता में अंतर तो समझना पडेगा न!”

स्त्री: “हाँ, सारी समझ तो जैसे भगवान ने तुम्हें ही दे दी है। यह संसार एक सपना है। पता है?”

पुरुष: “सब पता है मुझे। पागल हो गई हो तुम।”

बालक: “यह आदमी कौन है?”

बालिका: “पता नहीं! रोज़ शाम को इस पार्क में सैर को आता है। हमेशा अपने आप से बातें करता रहता है। पागल है शायद।”

Wednesday, August 4, 2010

सम्बन्ध - लघुकथा

कल शनिवार की छुट्टी थी लेकिन वे तरणताल में नहीं थे। पूरा दिन कम्प्यूटर पर बैठकर अपने बचपन के चित्र लेकर उनके सम्पादन और छपाई पर हाथ साफ करते रहे। आज भी कल का बचा काम पूरा किया है। घर होता तो माँ अब तक कई बार कमरे से बाहर न निकलने का उलाहना दे चुकी होती। शायद चाय भी बनाकर रख गयी होती। अब यहाँ परदेस में है ही कौन उनका हाल पूछने वाला। कितनी बार तो कहा है माँ-बाबूजी को कि बस एक बार आकर देख तो लीजिये कैसा लगता है। किस तरह वसंत में पेड़ों से इतने फूल झड़ते हैं जैसे कि आकाश से देव पुष्प वर्षा कर रहे हों। और सड़क के दोनों ओर के हरे-भरे जंगलों से अचानक बीच में आ गये हरिणों के झुंड देखकर बचपन में पढे तपोवनों के वर्णन साक्षात हो जाते हैं। गर्मियों की दोपहरी में लकडी की डैक पर बैठ जाओ तो कृष्णहंस से लेकर गरुड तक हर प्रकार का पक्षी दिखाई दे जाता है। ऐसा मनोरम स्थल है। लेकिन कोई फायदा नहीं। बाबूजी हंसकर कहते हैं, "जंगल में मोर नाचा, किसने देखा?" माँ कहेंगी कि बाबूजी के बिना अकेले कैसे आयेंगी। और घूमफिर कर बात वहीं पर आ जाती है जहाँ वे इस समय अकेले बैठकर काम कर रहे हैं।

चालीस के होने को हैं लेकिन अभी तक अकेले। अमेरिका में कोई आश्चर्य की बात नहीं है। उनके जैसे कितने ही हैं यहाँ पर। किसी ने एक बार भी शादी नहीं की और किसी ने कुछ साल शादीशुदा रहकर आपसी सहमति से अलग होने का निर्णय ले लिया बिना किसी चिकचिक के। वे कभी-कभी सोचते हैं तो आश्चर्य होता है कि भारतीय समाज में विवाह कितना ज़रूरी है। रिश्वती, चोर-डाकू, हत्यारे, बलात्कारी, जीवन भर चाहे कितने भी कुकर्म करते रहें कोई बात नहीं मगर जहाँ किसी को अविवाहित देखा तो सारे मुहल्ले में अफवाहों का बाज़ार गर्म हो जाता है। यहाँ भी उनके भारतीय परिचित जब भी मिलते हैं, एक ही सवाल करते हैं, "शादी कब कर रहे हो? कब का मुहूर्त निकला है? किसी गोरी को पकड़ लो। अबे इंडिया चला जा ..." आदि-आदि।

शुरू-शुरू में वे सफाई देते थे। वैसे सफाई की कोई आवश्यकता नहीं थी। उनके एक मामा और एक चाचा भी अविवाहित रहे थे। नानाजी के एक भाई तो गांव भर में ब्रह्मचारी के नाम से प्रसिद्ध थे। बुआ-दादी मरने तक अविवाहित रहीं। जिस लड़के को दिल दिया था वह भारी दहेज़ के लोभ में तोताचश्म हो गया। किसी दूसरे के साथ रहने को मन नहीं माना। "मिले न फूल तो कांटों से दोस्ती कर ली" गाते-गाते ही जीवन बिता दिया।

प्रारम्भ में सोचा था कि कुछ पैसा इकट्ठा करके वापस चले जायेंगे। लेकिन दूसरे बहुत से सपनों की तरह यह सपना भी जल्दी ही टूट गया। एक साल भी वहाँ रह नहीं सके। दिन रात सरकारी-अर्धसरकारी विभागों और अखबारों के चक्कर काटने के बावजूद घर के दरवाज़े पर यमलोक के द्वार की तरह खुले पड़े मैनहोल भी बन्द नहीं करवा सके। मकान मालिक के घर में चोरी हुई तो इलाके के थानेदार ने उन्हें सिर्फ इस बात पर चोरों की तरह जलील किया कि उन्होने कोई आहट क्यों नहीं सुनी। और फिर जब स्कूल जाती बच्चियों से छेड़छाड़ करने से रोकने पर कुछ गुंडों ने बीच बाज़ार में ब्लेड से उनकी कमर पर चीरा लगा दिया और रोज़ दुआ सलाम करने वाले दुकानदारों और राहगीरों ने उस समय बीच में पड़ने के बजाय बाद में बाबूजी को समझाना शुरू किया कि इसे वापस भेज दो, विदेश में रहकर सनक गया है, हमारी दुकानदारी चौपट कराएगा तो भयाक्रांत माता-पिता ने भी यही उचित समझा। अब तक उनका मन भी काफी खट्टा हो चुका था सो बिना स्यापा किये वापस आ गये।

खुश ही है यहाँ। अपना घर है, नौकरी भी ठीक-ठाक सी ही है। हाँ, माँ-बाबूजी साथ होते तो उल्लास ही उल्लास होता। छोटी सी कम्पनी है। कुल जमा पांच लोग। पूरे दफ्तर में वह अकेले मर्द हैं। एक बार भारत में चार लड़कियों के बीच काम करना पडा था तो हमेशा सचेत रहना पड़ता था। कभी अंजाने में मुँह से कुछ गलत न निकल जाये। यहाँ ऐसा कुछ चक्कर नहीं है। सच कहूँ तो पांचों के बीच उन्हीं की भाषा सबसे संयत है। यहाँ की संस्कृति भारत-पाक से एकदम अलग है। न ऑनर किलिंग है, न खाप अदालतें। लड़कोंकी तरह लड़कियाँ भी कभी भी अकेले घर से बाहर निकलने में सुरक्षित महसूस करतई हैं। अपना जीवन साथी भी स्वयम ही ढूँढना पड़ता है। स्वयँवर – वैदिक स्टाइल? कई बार लड़कियों ने उनसे भी इस बाबत बात की है परंतु जब उन्होने अरुचि दिखाई तो अपना रास्ता ले लिया।

दिन यूं ही गुज़र रहे थे मगर अब कुछ तो बदलाव आया है। पिछली नौकरी में पाकिस्तानी सहकर्मी करीना के साथ अच्छा अनुभव नहीं रहा था सो वहाँ से त्यागपत्र देकर यहाँ आ गये। यहाँ किसी को भी उनकी वैवाहिक स्थिति के बारे में पता नहीं है। फिर भी पिछ्ले कुछ दिनों से सोन्या उनके साथ बैठने का कोई न कोई बहाना ढूंढती रहती है, वह भी अकेले में। जब कोई साथ न हो तो उनके पास आकर अपने पति की शिकायत सी करती रहती है। शुरू में तो उन्होने अपने से आधी आयु की लड़की की बात को सामान्य बातचीत समझा। वैसे भी बचपने की दोस्ती में प्यार कम शिकायतें ज़्यादा होती हैं। बाबूजी हमेशा कहते हैं, "नादान की दोस्ती, जी का जंजाल"। जब उन्होने भारतीय अन्दाज़ में सोन्या को समझाया कि बच्चा होने पर घर गुलज़ार हो जायेगा तो सोन्या भड़क गयी, "मुझे उसका बच्चा नहीं पैदा करना है, उसके जैसा ही होगा।"

एक दिन सुबह जब कोई नहीं था तो उनके पास आकर कहने लगी, "आप तो इतने सुन्दर और बुद्धिमान हैं, आपके बच्चे भी बहुत होशियार होंगे।" वह तो अच्छा हुआ कि तभी उनको छींक आ गयी और वे बहाने से गुसलखाने की ओर दौड़ लिये। बात आयी गयी हो गयी। परसों कहने लगी, "आपमें कितना सब्र है, आप बहुत अच्छे पिता सिद्ध होंगे।" तब से उनका दिल धक-धक कर रहा है। दो दिन लगाकर तीन चार चित्र छापे हैं। सुन्दर चौखटों में जड़कर लैप्टॉप के थैले में रख लिये हैं। सोमवार को सोन्या कोई प्रश्न करे इससे पहले ही मेज़ पर धरे यह चित्र स्वयम ही उनका पितृत्व स्थापित कर देंगे और साथ ही एक नये रिश्ते में अनास्था भी। उन्होने मुस्कराकर शाबाशी की एक चपत खुद ही अपनी गंजी होती चान्द पर लगा ली और सोने चल दिये।

Thursday, July 15, 2010

तहलका तहलका तहलका

नोट: उत्खनन क्षेत्र की साईट १९२.३ बी पर मिले एमु के चर्मपत्र पर लिखे इस वार्तालाप से दक्षिण अमेरिकी महाद्वीप की प्राचीन मय सभ्यता के कुछ रहस्य उजागर होते हैं. इस चर्मपत्र का रहस्य अब तक उसी प्रकार से गुप्त रखा गया है जैसे कि आज तक किसी भी मानव के चन्द्रमा पर और हिमालय की एवेरेस्ट चोटी पर न पहुँच पाने का रहस्य. छद्म-वैज्ञानिकों के अनुसार इस चर्मपत्र पर इंसानी रक्त से लिखी गयी इबारत एक प्रोडिजी बालक "वंशबुद्धि अखबार पौलिसी" और एक युवक "सतर्कवीर कटहल दिलजला" का वार्तालाप है जो किसी सम्राट के गुप्तचर द्वारा छिपकर् दर्ज किया गया मालूम होता है. सुविधा के लिए हम इन्हें क्रमशः वंश और वीर के नाम से पुकारेंगे. आइये पढ़ते हैं इस दुर्लभ प्रतिलिपि का अकेला हिन्दी अनुवाद केवल आपके लिए. सरलता के उद्देश्य से अनुवाद के भाषा और सन्दर्भ सम्पादित किये गये हैं. कृपया इसे सीरियसली न लें, धन्यवाद!

वीर: यार तू हर समय क्या सोचता रहता है?
वंश: यह भारत कहाँ है?
वीर: धरती के नीचे, पाताल में.
वंश: वहां कैसे जाते हैं?
वीर: पानी से?
वंश: पानी में ज़िंदा कैसे रहते हैं?
वीर: अरे पानी के अन्दर नहीं जाते, पानी के जहाज़ से जाते हैं. सीधे चलते जाते हैं और भारत आ जाता है.
वंश: जब ज़मीन के नीचे है तो सीधे चलते जाने से कैसे आ जाता है.
वीर: अरे आजकल विज्ञान का युग है. गुरूजी कहते हैं कि अब दुनिया गोल हो गयी है. सीधे चलते रहो तो धरातल से पाताल पहुँच जाते हैं. भारत, हमारे ठीक नीचे.
वंश: यकीन नहीं होता.
वीर: Ripley's! Believe it.

वीर: आज का फ़ुटबाल का खेल बढ़िया था, खूब मज़ा आया?
वंश: फ़ुटबाल के नियमों में कभी कोई परिवर्तन होगा क्या?
वीर: तुम हमेशा परिवर्तन की बात क्यों करते हो? हमारे काट मार कमरकस बाबा के बनाए हुए नियम अपने आप में सम्पूर्ण हैं. उनमें रंचमात्र परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है.
वंश: क्या बात करते हो? गेंद...
वीर: फिर वही गेंद की बात. इतनी कड़ी क्यों होती है? खिलाड़ियों के पैर लहूलुहान हो जाते हैं. [हंसता है] अरे हम असुरवीर हैं. हमारे कपडे, भोजन, ज़मीन, झंडा सब लहू से लाल है, पैरों का क्या है?
वंश: मैं कड़ेपन की बात नहीं कर रहा हूँ.
वीर: फिर क्या बात है?
वंश: पिछले खेल में जीते हुए कप्तान के सर को गेंद की तरह प्रयोग क्यों करते हैं हम? यह मानवता के विरुद्ध है.
वीर: तुम्हें क्या हो गया है? अव्वल तो हम मानव नहीं हैं.... और फ़ुटबाल खेलना कहीं से भी मानवता के विरुद्ध नहीं है.

वंश: अच्छा यह बताओ कि हम लोग मानवों से ज़्यादा क्यों जीते हैं?
वीर: क्योंकि वे मूर्ख हैं.
वंश: मूर्खता का अल्पायु से क्या सम्बन्ध है?
वीर: सम्बन्ध है. उन मूर्खों ने अपने पंचांग में हर वर्ष ३६० दिनों का रखा है. जबकि हमारे दार्शनिकों ने साल को २०० दिन का बनाया है.
वंश: उससे क्या?
वीर: इस प्रकार ३६००० दिनों में वे केवल १०० साल ही जीते हैं जबकि हम लोग १८० साल के हो जाते हैं.
वंश: हमारा पंचांग किसने बनाया?
वीर: मयासुर बाबा ने. देखा नहीं, वे प्रस्तर शिलाओं पर कुछ खोदकर रखते जाते हैं और हमारे गुलाम उनका ढेर लगाते जाते हैं.
वंश: हाँ, देखा तो है. वे कब तक यह पंचांग लिखते रहेंगे?
वीर: जब तक जीवित हैं. उनकी गणना के अनुसार अपने देहांत से पहले वे २०१२ ईसवी तक के पंचांग लिख लेंगे.
वंश: और अगर २०१२ ईसवी के प्राणी आगे के पंचांग न पाकर यह सोचने लगे कि आगे उनका समय समाप्त हो गया है, या ब्रह्माण्ड का अंत होने वाला है, तब तो अफरातफरी मच जायेगी न?
वीर: मुझे नहीं लगता कि भविष्य के लोग ऐसे मूर्ख होंगे. लेकिन भविष्य के बारे में कुछ कहा भी नहीं जा सकता है.
वंश: Ripley's! Believe it.

[समाप्त]

The description of the Mesoamerican ballgame from Harvard museum of natural history
मय सभ्यता की कन्दुक क्रीडा का वर्णन - हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय से
[चित्र अनुराग शर्मा द्वारा. Photo by Anurag Sharma]

Sunday, June 20, 2010

एक शाम बार में - कहानी

एलन
आजकल हर रोज़ रात को सोते समय सुबह होने का इंतज़ार रहता है। जाने कितने दिनों के बाद जीवन फिर से रुचिकर लग रहा है. और यह सब हुआ है मेगन के कारण। मेगन से मिलने के बाद ज़िन्दगी की खूबसूरती पर फिर से यक़ीन आया है। वरना जेन से शादी होने से लेकर तलाक़ तक मेरी ज़िन्दगी तो मानो नरक ही बन गयी थी। विश्वास नहीं होता है कि मैंने उसे अपना जीवनसाथी बनाने की बेवक़ूफी की थी। उसकी सुन्दरता में अन्धा हो गया था मैं।

मेगन
उम्रदराज़ है, मोटा है, गंजा है और नाटा भी। चश्मिश है, फिर भी आकर्षक है। चतुर, धनी और मज़ाकिया तो है ही, मुझ पर मरता भी है। हस्बैंड मैटीरियल है। बेशक मुझे पसन्द है।

एलन
बहुत प्रसन्न हूँ। आजकल मज़े लेकर खाना खाता हूँ। बढ़िया गहरी नीन्द सोता हूँ। सारा दिन किसी नौजवान सी ताज़गी रहती है। मेगन रूपसी न सही सहृदय तो है। पिछ्ले कुछ दिनों से अपनी तरफ से फोन भी करने लगी है। और आज शाम तो मेरे साथ डिनर पर आ रही है।

मेगन
पिछले कुछ दिनों में ही मेरे जीवन में कितना बड़ा बदलाव आ गया है? हम दोनों कितना निकट आ गये हैं। और आज हम डिनर भी साथ ही करेंगे। अगर आज वह मुझे सगाई की अंगूठी भेंट करता है तो मैं एक समझदार लड़की की तरह बिना नानुकर किये स्वीकार कर लूंगी।

एलन
आज की शाम को तो बस एक डिसास्टर कहना ही ठीक रहेगा। शहर का सबसे महंगा होटल। मेगन ने तो ऐसी जगह शायद पहली बार देखी थी। कितनी खुश थी वहाँ आकर। पता नहीं कैसे इतनी सुन्दर शाम खराब हो गयी?

मेगन
वैसे तो वह इतना पढा लिखा और सभ्य है। उसको इतना भी नहीं पता कि एक लडकी को सामने बिठाकर खाने पर इंतज़ार करते हुए बार-बार फोन पर लग जाना या उठकर बाथरूम की ओर चल पडना असभ्यता है।

एलन
पता नहीं कौन बदतमीज़ था जो बार-बार फोन करता रहा। न कुछ बोलता था और न ही कोई सन्देश छोडा। वैसे मैं उठाता भी नहीं लेकिन माँ जिस नर्सिंग होम में गयी है वहाँ से फोन कालर आइडी के बिना ही आता है। और फिर बडी इमारतों में कभी-कभी सिग्नल भी कम हो जाता है। यही सब सोचकर... खैर छोडो भी। लेकिन मेगन तो ऐसी नकचढी नहीं लगती थी। मगर जिस तरह बिना बताये खाना छोडकर चली गयी... और अब फोन भी नहीं उठा रही है। इस सब का क्या अर्थ है?

मेगन
मैं तो इतनी सरल हूं कि अपने आप शायद इस बात को भी नहीं समझ पाती। भगवान भला करे उन बुज़ुर्ग महिला का जो दूर एक टेबल पर बैठकर यह तमाशा देख रही थीं और एक बार जब वह फोन लेकर दूर गया तब अपने आप ही मेरी सहायता के लिये आगे आयीं और चुपचाप एक सन्देश दे गयीं।

जेन
मुझे घर से निकालकर जवान छोकरियों के साथ ऐश कर रहा है। मेरी ज़िन्दगी में आग लगाकर वह चूहा कभी खुश नहीं रह सकता है। मैं जब भी मुँह खोलूंगी, उसके लिये बद्दुआ ही निकलेगी। अगर वह मजनू मेरा फोन पहचान लेता तो एक बार भी उठाता क्या? मैने भी उस छिपकली से कह दिया, "आय ओवरहर्ड हिम। एक साथ कई लैलाओं से गेम खेलता यह लंगूर तुम्हारे लायक नहीं है।"

(अनुराग शर्मा)

Thursday, May 27, 2010

माय नेम इज खान [कहानी]

अट्ठारह घंटे तक एक ही स्थिति में बैठे रहना कितनी बड़ी सजी है इसे वही बयान कर सकता है जिसने भारत से अमेरिका का हवाई सफ़र इकोनोमी क्लास में किया हो. अपन तो इस असुविधा से इतनी बार गुज़र चुके हैं कि अब यह सामान्य सी बात लगती है. मुश्किल होती है परदेस में हवाई अड्डे पर उतरने के बाद आव्रजन कार्यवाही के लिए लम्बी पंक्ति में लगना.

आम तौर पर कर्मचारी काफी सभ्य और विनम्र होते हैं. खासकर भारतीय होने का फायदा तो हमेशा ही मिल जाता है. कई बार लोग नमस्ते कहकर अभिवादन भी कर चुके हैं. फिर भी, हम लोग ठहरे हिन्दुस्तानी. वर्दी वाले को देखकर ही दिल में धुक-धुक सी होने लगती है. खैर वह सब तो आसानी से निबट गया. अब एक और जांच बाकी थी. हुआ यह कि इस बार साम्बाशिवं जी ने बेलपत्र लाने को कहा था जो हमने दिल्ली में कक्कड़ साहब के पेड़ से तोड़कर एक थैले में रख लिए थे. यहाँ आकर डिक्लेर किये तो पता लगा कि आगे अपने घर की फ्लाईट पकड़ने से पहले फूल-पत्ती-जैव विभाग की जांच और क्लियरेंस ज़रूरी है. अरे वाह, यहाँ तो अपना भारतीय बन्दा दिखाई दे रहा है. चलो काम फ़टाफ़ट हो जाएगा.

नेम प्लीज़

शर्मा

कैसे हैं शर्मा जी? नेपाल से कि हिन्दुस्तान से?

दिल में आया कहूं कि हिन्दी बोल रहा है और पासपोर्ट देखकर भी देश नहीं पहचानता, कमाल का आदमी है. मगर फिर बात वहीं आ गयी कि हुज्जतियों से बचकर ही रहना चाहिए, खासकर जब वे अधिकारी हों.

कितने साल से हैं यहाँ?

कोई सात-आठ साल से

सात या आठ

हूँ... सात साल आठ महीने...

तो ऐसा कहिये न.

कब गए थे हिन्दुस्तान?

एक महीना पहले.

अब कब जायेंगे?

पता नहीं... अभी तो आये हैं.

हाँ यहाँ आके वहाँ कौन जाना चाहेगा?

भंग पीते हैं क्या?

नहीं तो!

तो ये पत्ते किसलिए लाये हैं? क्या देसी बकरी पाली हुई है?

किसी ने पूजा के लिए मंगाए हैं.

नशीले हैं?

नहीं बेल के हैं

कौन सी बेल?

एक फल होता है. थोड़ा जल्दी कर लीजिये, मेरी फ्लाईट निकल जायेगी.

एक घंटे की हुज्जत के बाद साहब को दया आ गयी.

चलो छोड़ दे रहा हूँ आपको. क्या याद करेंगे किस नरमदिल अफसर से पाला पडा था.

फ्लाईट तो निकल चुकी थी. चलते-चलते मैंने पूछा, "क्या नाम है आपका? भारत में कहाँ से हैं आप?"

"माय नेम इज खान... सलीम खान! इस्लामाबाद से."
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इस व्यंग्य का ऑडियो आवाज़ पर उपलब्ध है. सुनने के लिए कृपया यहाँ क्लिक करें.

Sunday, October 11, 2009

लित्तू भाई - गदा का रहस्य [कहानी - अन्तिम किस्त]

भोले-भाले लित्तू भाई पर ह्त्या का इल्जाम? न बाबा न! लित्तू भाई की कथा के पिछले भाग पढने के लिए समुचित खंड पर क्लिक कीजिये:भाग १; भाग २; भाग ३; भाग ४; एवं भाग ५ और अब, आगे की कहानी:]
भाभी ने यह भी बताया कि भारतीय समुदाय में दबे ढंके रूप में और स्थानीय अखबारों में खोजी पत्रकारिता के रूप में लित्तू भाई के कुछ गढ़े मुर्दों को उखाड़ने का प्रयास भी काफी जोशो-खरोश से चल रहा था।

पिट्सबर्ग में एकाध दिन और रूककर मैं वापस चला आया और जिंदगी फिर से रोज़मर्रा के कामों में व्यस्त हो गयी। कभी-कभार भोले-भाले से लित्तू भाई का रोता हुआ सा चेहरा याद आ जाता, कभी उनकी शेरो-शायरी। मैंने उनके घर में मिली बड़ी-बड़ी हस्तियों को भी याद किया और मन ही मन उस भारतीय छात्रा की तकलीफ़ को भी महसूस किया। इतना सब होने पर भी, जिन्दगी की चाल में कोई गतिरोध नहीं आया। काम-काज, लिखना-पढ़ना सब कुछ सुचारू रूप से चलता रहा।

फिर एक दिन स्मार्ट इंडियन डॉट कॉम की तरफ से पिट्सबर्ग के मंदिरों और भारतीय समुदाय पर कुछ लिखने का प्रस्ताव आया तो मैंने एक सप्ताहांत में पिट्सबर्ग जाने का कार्यक्रम बनाया। किसी परिचित को इस यात्रा के बारे में नहीं बताया ताकि बिना किसी व्यवधान के अपना काम जल्दी से निबटाकर वापस आ जाऊं।

सुबह को कार्नेगी पुस्तकालय पहुँचकर जल्दी से वहाँ के अभिलेखागार के अखबारों में डुबकी लगाई और भारत, भारतीय और मंदिरों से सम्बंधित अखबार चुनकर उनकी फोटोस्टेट कॉपी करके इकट्ठा करता रहा ताकि अपने साथ ले जाकर फ़ुर्सत से एक खोजपरक आलेख लिख सकूं। [यह बात अलग है कि छपने से पहले सम्पादकों ने आलेख में से सारी खोज सेंसर कर दी]

सुबह की फ्लाईट से आया था, नाश्ता भी नहीं किया था। दोपहर होने तक तेज़ भूख लगने लगी। सोचा कि पुस्तकालय के जलपान गृह में बैठकर कुछ खा लेता हूँ और अब तक जितना काम हुआ है उतनी क्लिपिंग्स को जल्दी से साथ-साथ पढ़कर कुछ नोट्स भी बना लूंगा। दो कागजों पर टिप्पणियाँ लिखने के बाद तीसरा कागज़ खोला ही था कि किसी ने कंधे पर धौल जमाकर कहा, "चश्मा कब से लग गया हीरो? पहले कह देते तो हम लिमुजिन लेकर आ जाते हवाई अड्डे पर!"

मैंने अचकचा कर मुँह उठाकर देखा तो एक बिज़नेस सूट में लित्तू भाई को खड़े पाया। वही सरलता, वही मुस्कराहट। फ़र्क बस इतना था कि इस बार बाल काले रंगे हुए और बड़े करीने से कढे हुए थे। वैसे सूट उन पर बहुत फ़ब रहा था। मैंने आदर में खड़े होकर उन्हें सामने वाली कुर्सी पर बैठने को कहा और फिर बातों का सिलसिला शुरू हो गया, मैं खाता रहा और वे एक ठंडा पेय पीते रहे। मैंने उनकी जेल-यात्रा की बात ज़ुबां पर न लाने के लिए विशेष प्रयास किया मगर बाद में उन्होंने ही बात शुरू की।

"तुम्हारी उस गदा ने तो मुझे घातक इंजेक्शन दिलाने में कोई कसर नहीं छोडी थी।"

"अरे, क्या बात करते हैं लित्तू भाई? ऐसा क्या हो गया?" मैंने अनजान बनते हुए कहा।

लित्तू भाई ने बताया कि उस दिन उनके फेंकने के बाद किसी हत्यारे ने कूड़ेदान से गदा उठाकर उनकी एक पूर्व-कर्मचारी की ह्त्या कर दी और पुलिस ने गलती से उन्हें फंसा दिया। न तो गदा पर उनकी उँगलियों के निशान थे और न ही कोई चश्मदीद गवाह, पर पुलिस तो पुलिस है। हत्यारा ढूँढने की अपनी नाकामी के चलते उन्हें लपेटती रही। बहुत परेशानी हुई मगर उनका वकील बहुत ही प्रभावी था।

"आखिर में मैं बेदाग़ बच गया... पिछले महीने ही छूटा हूँ। मगर इस घटना से दोस्त-दुश्मन का अंतर पता लग गया।"

"..."

"जो लोग दिन रात मेरे टुकड़े तोड़ते थे, उन्होंने ही मेरे खिलाफ माहौल बनाया, भगवान उन्हें उनके कर्मों का दण्ड अवश्य देगा। कई लोगों ने तो कहा कि मैंने पहले भी बहुत से बलात्कार और हत्याएं की हैं।"

"अंत भला तो सब भला! उन अज्ञानियों को माफ़ भी कर दीजिये अब!" मैंने माहौल की बोझिलता को कम करने का प्रयास किया, " ... मगर ये कुरते पजामे से टाई-शाई तक? बात क्या है?"

"अरे भैया, अच्छे दिखना चाहिए वरना पुलिस पकड़ लेती है" वे अपने पुराने स्वाभाविक अंदाज़ में हँसे। मानो बदली छँट गयी हो और सूरज निकल आया हो। थोड़ी बातचीत और एकाध काव्य के बाद उन्होंने उठने का उपक्रम किया।

"काम है, निकलता हूँ, फिर मिलेंगे" उन्होंने मुझसे विदा ली और चलते चलते मुस्कुराकर कहा, "हाँ, मगर ग्रंथों की बात सही है, सत्यमेव जयते!"

मैंने उन्हें गले लगकर विदा किया और उनके इमारत से बाहर होने तक खड़ा-खड़ा उन्हें देखता रहा। कितना कुछ सहा होगा इस आदमी ने। सारी दुनिया के काम आने वाले आदमी ने इतना अन्याय अकेले सहा, अगर शादी की होती तो शायद उनकी पत्नी तो साथ खड़ी होती उनके बचाव के लिए। उनके बाहर निकलते ही मैं खुशी-खुशी बाकी अखबार देखने बैठ गया। दस साल पुरानी अगली खबर की सुर्खी थी, "अपनी पत्नी का सर कुचलनेवाला निर्मम हत्यारा ललित कुमार सबूतों के अभाव में बाइज्ज़त बरी।"

तब से आज तक जब भी किसी को "सत्यमेव जयते" कहते सुनता हूँ लित्तू भाई, उनकी गदा और अंधा कानून याद आ जाते हैं।

[समाप्त]

Tuesday, October 6, 2009

लित्तू भाई [कहानी भाग ५]

[नोट: देरी के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ. पहले सोचा था कि लित्तू भाई की कहानी इस कड़ी में समाप्त हो जायेगी मगर लिखना शुरू किया तो लगा कि मुझे एक बैठक और लगानी पड़ेगी, मगर इस बार का व्यवधान लंबा नहीं होगा, इस बात का वादा है इसलिए विश्वास से कह रहा हूँ कि "अगले अंक में समाप्य."
लित्तू भाई की कथा के पिछले भाग पढने के लिए समुचित खंड पर क्लिक कीजिये:
भाग १; भाग २; भाग ३ एवं भाग ४ और अब, आगे की कहानी:]

कई वर्ष पहले जिस दिन मैंने लित्तू भाई और मित्रों से विदा लेकर पिट्सबर्ग छोड़ा था उसके कुछ दिन बाद मेरे पड़ोस में भारतीय मूल की एक छात्रा का शव मिला था। पड़ोसियों द्वारा एक अपार्टमेन्ट से दुर्गन्ध आने की शिकायत पर जब प्रबंधन ने उस अपार्टमेन्ट में रहने वाली छात्रा से संपर्क करने की कोशिश की तो असफल रहे। एक कर्मचारी ने आकर दोहरी चाबी से ताला खोला तो दरवाज़े के पास ही उस युवती का मृत शरीर पाया। ऐसा लगता था जैसे मृत्यु से पहले वहां काफी संघर्ष हुआ होगा. शराब की एक बोतल मेज़ पर रखी थी। एक गिलास मेज़ पर रखा था और एक फर्श पर टूटा हुआ पडा था। युवती का सर फटा हुआ था और फर्श पर जमे हुए खून के साथ ही एक भारतीय गदा भी पडी हुई थी।

पुलिस की जांच पड़ताल के दौरान अपार्टमेन्ट के कैमरे से यह पता लगा कि उस दिन दोपहर में केवल एक बाहरी व्यक्ति उस परिसर में आया था और वह भी एक बार नहीं बल्कि दो बार। लडकी की मृत्यू का समय और उसकी दूसरी आगत का समय लगभग एक ही था। आगंतुक का चेहरा साफ़ नहीं दिखा मगर बिखरे बालों और ढीले ढाले कपडों से वह कोई बेघर नशेडी जैसा मालूम होता था। दूसरी बार उसके हाथ में वह गदा भी थी जो घटनास्थल से बरामद हुई थी। हत्यारे को जल्दी पकड़ने के लिए भारतीय समुदाय का भी काफी दवाब था। प्रशासन का भी प्रयास था कि जल्दी से ह्त्या के कारणों का खुलासा करके यह निश्चित किया जाए कि यह एक नस्लभेदी ह्त्या नहीं थी। स्थानीय मीडिया ने इस घटना को काफी कवरेज़ दिया था और दद्दू और भाभी भी इन ख़बरों को बहुत ध्यान से देखते रहे थे।

पुलिस के पास गदा की भारतीयता और सुरक्षा कैमरा की धुंधली तस्वीर के अलावा कोई भी इशारा नहीं था सो उन्होंने छात्रा के परिचितों से मिलना शुरू किया। इसी सिलसिले में यह पता लगा कि छात्रा रात और सप्ताहांत में जिस पेट्रोल पम्प पर काम करती थी उसके मालिक श्री ललित कुमार ने एक सप्ताह पहले ही उसे एक कड़वी बहस के बाद काम से निकाला था। यह ललित कुमार और कोई नहीं बल्कि हमारे लित्तू भाई ही थे। उनसे मुलाक़ात करते ही जांच अधिकारी को यह यकीन हो गया कि सुरक्षा कैमरा में दिखने वाला आदमी वही है जो उसके सामने खड़ा है। कुछ ही दिनों में संदेह के आधार पर अधिक जानकारी के लिए लित्तू भाई को अन्दर कर दिया गया।

इसके साथ ही पिट्सबर्ग का भारतीय समुदाय दो दलों में बाँट गया। एक तो वे जो लित्तू भाई को हत्याकांड में जबरिया फंसाए जाने के धुर विरोधी थे और दूसरे वे जिन्हें लित्तू भाई के रूप में भेड़ की खाल में छिपा एक भेड़िया नज़र आ रहा था। बहुत से लोगों का विश्वास था की जब लित्तू भाई द्वारा गदा कूड़े में फेंक दिये जाने के बाद किसी व्यक्ति ने उसे उठाकर प्रयोग किया होगा। इत्तेफ़ाक़ से मृतका लित्तू भाई की पूर्व-परिचित निकली। वहीं ऐसे लोगों की कमी नहीं थी जो यह मानने लगे थे कि इस एक घटना से पहले भी ऐसी या मिलती-जुलती घटनाओं में लित्तू भाई जैसे सफेदपोश दरिंदों का हाथ हो सकता है।

मैंने भाभी की बातों को ध्यान से सुना मगर इस पर अपनी कोई भी राय नहीं बना सका। जब मैं लित्तू भाई से आखिरी बार मिला था तो उस दिन वे आम दिनों से काफी फर्क लग रहे थे। मगर फ़िर भी मेरे दिल ने उन्हें हत्यारा मानने से इनकार कर दिया। भाभी ने बताया कि मुकदमा अभी भी चल रहा था।


[क्रमशः]

Thursday, September 17, 2009

लित्तू भाई - कहानी [भाग 4]

[अगले अंक में समाप्य]

लित्तू भाई की कथा के पिछले भाग पढने के लिए समुचित खंड पर क्लिक कीजिये: भाग १; भाग २ एवं भाग ३ और अब, आगे की कहानी:

एक-एक करके सभी आगंतुक रवाना हो गए। लित्तू भाई सबके बाद घर से निकले। जाते समय गदा उनके हाथ में थी और एक अनोखी चमक उनकी आँखों में। वह अनोखी चमक मुझे अभी भी आश्चर्यचकित कर रही थी। चलते समय मुझसे नज़रें मिलीं तो वे कुछ सफाई देने जैसे अंदाज़ में कहने लगे, "फेंक दूंगा मैं, इसे मैं बाहर जाते ही फेंक दूंगा।"

उनके इस अंदाज़ पर मुझे हंसी आ गयी। मुझे हंसता देखकर वे उखड गए और। बोले, "शर्म नहीं आती, बड़ों पर हंसते हुए, नवीन (दद्दू) के भाई हो इसका लिहाज़ है वरना मुझ पर हंसने का अंजाम अच्छा नहीं होता है..."

माहौल में अचानक आये इस परिवर्तन ने मुझे हतप्रभ कर दिया। न तो मैंने लित्तू भाई से ऐसे व्यवहार की अपेक्षा थी और न ही मेरी हँसी में कोई बुराई या तिरस्कार था। मैं तो कभी सपने में भी नहीं सोच सकता था कि लित्तू भाई एक सहज नैसर्गिक मुस्कान से इस तरह विचलित हो सकते हैं। उनकी आयु का मान रखते हुए मैंने हाथ जोड़कर क्षमा माँगी और वे दरवाज़े को तेजी से मेरे मुँह पर बंद करके बडबडाते हुए निकल गए। शायद उस दिन उन्होंने ज़्यादा पी ली थी। तारीफों के पुल बाँधने के उनके उस दिन के तरीके से मुझे तो लगता है कि वे पहले से ही टुन्न होकर आये थे और बाद में समय गुजरने के साथ उनकी टुन्नता बढ़ कर अपने पूरे शबाब पर आ गयी थी।

खैर, बात आयी गयी हो गयी। पिट्सबर्ग छूट गया और पुराने साथी भी अपनी-अपनी दुनिया में मस्त हो गए। बातचीत के सिलसिले कम हुए और फिर धीरे-धीरे टूट भी गए। सिर्फ दद्दू से संपर्क बना रहा। दद्दू की बेटी की शादी में मैं पिट्सबर्ग गया तो सोचा कि सभी पुराने चेहरे मिलेंगे। और यह हुआ भी। दद्दू के अनेकों सम्बन्धियों के साथ ही मेरे बहुत से पूर्व-परिचित भी मौजूद थे। एक दुसरे के बारे में जानने का सिलसिला जो शुरू हुआ तो फिर तभी ख़त्म हुआ जब हमने एक-दुसरे की जिंदगी के अब तक टूटे हुए सूत्रों को फिर से पूरा बिन लिया।

दद्दू और भाभी दोनों ही बड़े प्रसन्न थे। लड़के वालों का अपना व्यवसाय था। लड़का भी उनकी बेटी जैसा ही उच्च-शिक्षित और विनम्र था। इतना सुन्दर कि शादी के मंत्रों के दौरान जब पंडितजी ने वर में विष्णु के रूप को देखने की बात कही तो शायद ही किसी को कठिनाई हुई हो। शादी बड़ी धूमधाम से संपन्न हुई। शादी के इस पूरे कार्यक्रम के दौरान लित्तू भाई की अनुपस्थिति मुझे बहुत विचित्र लगी। शादी के बाद जब सब महमान चले गए तो मुझसे रहा नहीं गया। हम सब मिलकर घर को पुनर्व्यवस्थित कर रहे थे तब मैंने दद्दू से पूछा, "लित्तू भाई नज़र नहीं आये, क्या भारत में हैं?"

"नाम मत लो उस नामुराद का, मुझे नहीं पता कि जहन्नुम में है या जेल में" यह कहते हुए दद्दू ने हाथ में पकड़े हुए चादर के सिरे को ऐसे झटका मानो लित्तू भाई का नाम सुनने भर से उन्हें बिजली का झटका लगा हो।

भाभी उसी समय हम दोनों के लिए चाय लाकर कमरे में घुसी ही थीं। उन्होंने दद्दू की बात सुनी तो धीरज से बोलीं, "मैं बताती हूँ क्या हुआ था।"

और उसके बाद भाभी ने जो कुछ बताया उस पर विश्वास करना मुश्किल था।

[क्रमशः]

Tuesday, September 8, 2009

लित्तू भाई - कहानी [भाग ३]


लित्तू भाई की कथा के पिछले भाग पढने के लिए समुचित खंड पर क्लिक कीजिये: भाग १ एवं भाग २ और अब, आगे की कहानी:

एक एक करके दिन बीते और युवा शिविर का समय नज़दीक आया। सब कुछ कार्यक्रम भली-भांति निबट गए। लित्तू भाई का गतका कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय रहा। अलबत्ता आयोजकों ने विजेताओं को पुरस्कार के रूप में एक भारी गदा के बजाय हनुमान जी की छोटी-छोटी मूर्तियाँ देने की बात तय की। शिविर पूरा होने पर बचे सामानों के साथ लित्तू भाई की भारी भरकम गदा भी हमारे साथ पिट्सबर्ग वापस आ गयी और मेरे अपार्टमेन्ट के एक कोने की शोभा बढाती रही। न तो लित्तू भाई ने उसके बारे में पूछा और न ही मैंने उसका कोई ज़िक्र किया।

समय के साथ मैं भी काम में व्यस्त हो गया और लित्तू भाई से मिलने की आवृत्ति काफी कम हो गयी। उसके बाद तो जैसे समय को पंख लग गए। जब मुझे न्यू यार्क में नौकरी मिली तो मेरा भी पिट्सबर्ग छोड़ने का समय आया। जाने से पहले मैंने सभी परिचितों से मिलना शुरू किया। इसी क्रम में एक दिन लित्तू भाई को भी खाने पर अपने घर बुलाया। एकाध और दोस्त भी मौजूद थे। खाने के बाद लित्तू भाई थोडा भावुक हो गए। उन्होंने अपनी दो चार रोंदू कवितायें सुना डालीं जो कि मेरे मित्रों को बहुत पसंद आयीं। कविता से हुई तारीफ़ सुनकर उन्होंने मेरे सम्मान में एक छोटा सा विदाई भाषण ही दे डाला।

दस मिनट के भाषण में उन्होंने मुझमें ऐसी-ऐसी खूबियाँ गिना डाली जिनके बारे में मैं अब तक ख़ुद ही अनजान था। लित्तू भाई की तारीफ़ की सूची में से कुछ बातें तो बहुत मामूली थीं और उनमें से भी बहुत सी तो सिर्फ़ संयोगवश ही हो गयी थीं। प्रशंसा की शर्मिंदगी तो थी मगर छोटी-छोटी सी बातों को भी ध्यान से देखने के उनके अंदाज़ ने एक बार फिर मुझे कायल कर दिया।

चलने से पहले मुझे ध्यान आया कि कोने की मेज़ पर सजी हुई लित्तू भाई की गदा उनको लौटा दूँ। उन्होंने थोड़ी नानुकर के बाद उसे ले लिया। हाथ में उठाकर इधर-उधर घुमाया, और बोले, "आप ही रख लो।"

"अरे, आपने इतनी मेहनत से बनाई है, ले जाइए।"

"मेरे ख्याल से इसे फैंक देना चाहिए, इसके रंग में ज़रूर सीसा मिला होगा... स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है।"

चीन से आए रंग तो क्या, खाद्य पदार्थों में भी सीसा और अन्य ज़हरीले पदार्थ होते हैं, यह तथ्य तब तक जग-ज़ाहिर हो चुका था। बहुत सी दुकानों ने चीनी खिलौने, टूथ पेस्ट, कपडे आदि तक बेचना बंद कर दिया था। मुझे यह समझ में नहीं आया कि लित्तू भाई कब से स्वास्थ्य के प्रति इतने सचेत हो गए। मगर मैंने कोई प्रतिवाद किए बिना कहा, "आपकी अमानत आपको मुबारक, अब चाहे ड्राइंग रूम में सजाएँ, चाहे डंपस्टर में फेंके।"

लित्तू भाई ने कहा, "चलो मैं फेंक ही देता हूँ।"

उन्होंने अपनी जेब से रुमाल निकाला और बड़ी नजाकत से गदा की धूल साफ़ करने लगे। मुझे समझ नहीं आया कि जब फेंकना ही है तो उसे इतना साफ़ करने की क्या ज़रूरत है। मैंने देखा कि गदा चमकाते समय उनके चेहरे पर एक बड़ी अजीब सी मुस्कान तैरने लगी थी।
[क्रमशः]

[गदा का चित्र अनुराग शर्मा द्वारा: Photo by Anurag Sharma]

Wednesday, August 12, 2009

लित्तू भाई - भाग २

कथा की भुमिका पढने के लिए यहाँ क्लिक करे.
लित्तू भाई की सप्ताहांत गोष्ठियां बहुत खुशनुमा होती थीं। मेरे अलावा लगभग सभी आगंतुक या तो कलाकार थे या लेखक, शायर, गीतकार, संगीतकार - किसी न किसी कला के माहिर। एक साहब तो गणित पहेलियों और ताश के जादू के माहिर थे। अगर आप देश के बाहर रहते हुए भी तमाम बड़े-बड़े लोगों से सहजता से मिलना चाहते हों तो लित्तू भाई के घर से बेहतर कोई जगह हो ही नहीं सकती है। उनकी महफिलों में मैं एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री के बेटे से भी मिला और और एक सेनाध्यक्ष की बेटी से भी। छोटे-मोटे नौकरशाह तो मामूली बात थे। भारतीय ही नहीं पाकिस्तानी डॉक्टर, प्रोफ़ेसर आदि सब से उनका दोस्ताना था।

पहले तो मुझे आश्चर्य होता था कि अंग्रेजी के तीन वाक्य भी सही न बोल सकने वाला यह साधारण सा व्यक्तित्व इतना मशहूर कैसे हुआ। फिर सोचता, "खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान।" इन गोष्ठियों में लगातार जाते रहने से उनके प्रति मेरी धारणा में धीरे-धीरे परिवर्तन आने लगा। मैंने पहचाना कि लित्तू भाई में कई दुर्लभ गुण थे। शायर तो वे थे ही साथ ही एक ज़बरदस्त किस्सागो भी थे। कैसा भी मौका हो, लित्तू भाई के पास उसके हिसाब का एक किस्सा ज़रूर मिल जाएगा। अपने चुटकुलों में वे अक्सर अपना ही मज़ाक उडाया करते थे। उनमें किसी रोते हुए व्यक्ति को पल भर में हंसा देने की अद्भुत क्षमता थी।
उनका व्यक्तित्व इतना हल्का लगता था कि पहली नज़र में कोई भी नज़रंदाज़ कर दे। मगर उनकी बातों में कुछ ऐसी कशिश थी की एक बार सुनने वाला फिर-फिर सुनना चाहेगा। भले ही उच्च शिक्षित न हों मगर उन्होंने पढा बहुत था। खासकर धर्म और अध्यात्म पर वे घंटों बोल सकते थे। बच्चों में उन्हें खासी रूचि थी और बच्चे भी उनसे एकदम हिल-मिल जाते थे। खेल-खेल में ही बच्चों को अच्छी बातें सिखाने में उनका कोई सानी नहीं था। लित्तू भाई साथ हों तो माँ-बाप अपने बच्चों के बारे में बेफिक्र होकर जो चाहे कर सकते थे।

जैसा मैंने देखा लित्तू भाई बहुत चतुर व्यक्ति थे। उनका नज़रिया भी सबसे अलग कुछ ऐसा था कि कैसी भी समस्या हो, वे उसका हल ढूंढ ही निकालते थे। लोग अक्सर अपनी परेशानियां उनसे बांटते थे और वे उन सबका कुछ न कुछ हल निकाल ही लेते थे। मुझे यकीन है कि उनके कंधे को बहुत आँखों ने गीला किया होगा। मजाल है लित्तू भाई ने कभी किसी की व्यक्तिगत बात का ज़िक्र कभी किसी और से किया हो।

कह नहीं सकता कि उन्हें बागवानी ज़्यादा पसंद थी या गायन मगर मेरा ऐसा ख्याल है कि वे कुछ भी करते रचनात्मक ज़रूर होते थे। उनके पैदाइशी कलाकार होने की वजह से ही जब "संस्कार" द्वारा गर्मियों की छुट्टियों में चलाये जाने वाले "युवा शिविर" के संचालक के रूप में जब पहली बार मेरा चयन हुआ तो कला और साज-सज्जा के काम के लिए मैंने उनकी सहायता मांगी। इस शिविर में हर साल देश भर से किशोर और युवा वर्ग के चार-पांच सौ लोग भाग लेते थे। जैसी कि उम्मीद थी लित्तू भाई ने मेरा आमंत्रण बड़े गरिमा से स्वीकार कर लिया।

हम सात-आठ स्वयं-सेवक हर शाम को एक कुंवारे मित्र के खाली पड़े घर में इकट्ठे होने लगे। वहीं बैठकर हम शिविर परिसर और मंच की सज्जा आदि के बारे में विचार करते थे। लित्तू भाई हर शाम बिला-नागा हमारे बीच आते और पारस की तरह अपने सुझावों से हर काम को बेहतर बना देते। शिविर में भाग लेने वाले बच्चों को भेजे जाने वाले प्रवेश-पत्रों की जगह उन्होंने पुराने सम्राटों के लिखे पत्रों की तरह लिपटे हुए कागज़ का मुट्ठा बनाने का सुझाव दिया। जब हमने छपे हुए कागज़ को उनके बताये तरीके से चाय के भीगे पानी से निकालकर उसके किनारे मोमबत्ती से जलाकर सिरकी चिपकाईं तो वह सचमुच में एक अति प्राचीन पत्र जैसा लगने लगा। इसी तरह से शिविर के द्वार, तोरण आदि बनाने में उन्होंने बहुत सहायता की। यूं समझिये कि विचार उनके थे हमने तो बस उनके विचारों की मजदूरी की थी। बच्चों के नाम की तख्तियों से लेकर टी-शर्ट के डिजाइन तक हर काम में लित्तू भाई की कला झलक रही थी।

सम्राट के पत्र से हमारा काम अनजाने ही कुछ ऐसी दिशा में मुडा कि सजावट का काम पूरा होते-होते उस बार के शिविर की थीम ही राजपुताना हो गयी। इसलिए जब फुर्सत के प्रतियोगितात्मक खेलों की बारी आयी तो उसमें लित्तू भाई का सुझाया हुआ गदका का खेल अपने आप ही आ गया। लित्तू भाई के सरल निर्देशों का अनुसरण करके हमने आनन-फानन में कई हल्की गदाएँ बना कर उन्हें सुनहरे रंग से रंग दिया। इस खेल में इनाम देने के लिए उन्होंने एक आला दर्जे की गदा अपने कुशल हाथों से स्वयं ही बनाई।
[क्रमशः]
कुछ अन्य कहानियाँ और संस्मरण नीचे दिए लिंक्स पर क्लिक करके पढ़े जा सकते हैं:

खाली प्याला
जावेद मामू
वह कौन था
सौभाग्य
सब कुछ ढह गया
करमा जी की टुन्न-परेड
गरजपाल की चिट्ठी
लागले बोलबेन
तरह तरह के बिच्छू
ह्त्या की राजनीति
मेरी खिड़की से इस्पात नगरी
हिंदुत्वा एजेंडा
केरल, नारी मुक्ति और नेताजी
दूर के इतिहासकार
सबसे तेज़ मिर्च - भूत जोलोकिया
हमारे भारत में
मैं एक भारतीय
नसीब अपना अपना
संस्कृति के रखवाले
एक ब्राह्मण की आत्मा

Tuesday, August 11, 2009

लित्तू भाई - गदा का रहस्य - कहानी - भाग 1

शायद इन लोगों की बुद्धि में ही कोई कमी है। या तो इन्हें घटना की पूरी जानकारी ही नहीं है या फिर यह लित्तू भाई को बदनाम करने की एक गहरी साजिश है। ये लोग जैसा चाहें कहें और जो चाहे यकीन करें। मगर मैं इनकी बातों में क्यों आऊँ? मैं तो लित्तू भाई को बहुत करीब से जानता हूँ। वे ऐसा नहीं कर सकते - कभी भी - किसी भी हालत में। इंसान गलतियों का पुतला है। इस पूरे घटनाक्रम में भी कहीं कोई बड़ी गलती ज़रूर हुई है वरना लित्तू भाई का नाम ऐसे जघन्य अपराध से नहीं जुड़ सकता था।

अपने घर से बाहर जितने भी लोगों को मैं जानता हूँ, उन सबमें, लित्तू भाई सबसे भले और सच्चे इंसान हैं। उम्र में मुझसे दो-एक साल बड़े हैं मगर लगते कहीं उम्रदराज़ हैं। अपने कपड़े-लत्ते और दिखावे के प्रति बिल्कुल बेपरवाह लित्तू भाई का नफासत से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। उन्होंने कभी किसी इंसान की औकात उसके कपडों से नहीं लगाई। इसके उलट वे "सादा जीवन उच्च विचार" के सच्चे अनुयायी हैं।

लित्तू भाई से मेरी पहली मुलाक़ात दद्दू के घर पर हुई थी। दद्दू मेरे चचाजात भाई की ससुराल वालों के दूर के रिश्तेदार हैं। रिश्ता तो वैसे काफी दूर का है मगर अमेरिका में वे मेरे अकेले रिश्तेदार हैं इसलिए किसी अपने सगे से भी बढ़कर हैं। दद्दू का मिजाज़ थोडा फ़ल्सफ़ाना सा है। लित्तू भाई का भी ज़मीनी हकीकत में कोई ख़ास भरोसा नहीं है। आर्श्चय नहीं कि इन दोनों की खूब छनती है।

शुरू में तो अपनी छितरी मूँछें, बिखरे बाल और बेतुके कपडों की वजह से लित्तू भाई ने मुझे विकर्षित ही किया था मगर जब धीरे-धीरे मैंने उन्हें पहचानना शुरू किया तो उनसे दोस्ती सी होने लगी। हँसोड़पन तो उनकी खूबी थी ही, मुझे वे बुद्धिमान भी लगे। अनजाने में ही मैं उनके अन्तरंग समूह का हिस्सा बन गया। आलम यह था कि मेरे सप्ताहांत भी लित्तू भाई के घर पर जमने वाली बैठकों में ही गुजरने लगे।
[क्रमशः]

Tuesday, August 12, 2008

मैं एक भारतीय

शाम छः बजे के करीब कुछ दोस्तों के साथ नेहरू प्लेस में दफ्तर के बाहर खड़ा चाय पकौड़ोोंोकक का आनंद ले रहा था कि एक सज्जन पास आकर मुझसे कुछ बात करने लगे। मुझे तो समझ नहीं आया मगर जब कमलाकन्नन ने उनकी बात समझ कर उनसे बात करना शुरू किया तो लगा कि तमिलभाषी ही होंगे। कुछ देर बात करने के बाद मेरी तरफ़ मुखातिब होकर अंग्रेजी में क्षमा मांगते हुए चले गए। कमला कन्नन ने बाद में बताया कि न सिर्फ़ वे मुझे तमिल समझ रहे थे बल्कि उनका पूरा विश्वास था कि मैं कोयम्बत्तूर में उनके मोहल्ले में ही रह चुका हूँ।

बात आयी गयी हो गयी लेकिन मुझे कुछ और मिलती-जुलती घटनाओं की याद दिला गयी। बैंगलूरू में मुझे देखते ही कुछ ज्यादा ही गोरे-चिट्टे लोगों के समूह में से एक बहुत खुशमिजाज़ बुजुर्ग लगभग दौड़ते हुए से मेरे पास आए और हाथ मिलाकर कुछ कहा जो मेरी समझ में नहीं आया। कई वर्षों से कर्णाटक जाना होता था मगर कभी कन्नड़ भाषा सीखने की कोशिश भी नहीं की, संयोग भी नहीं बना। मुझे शर्मिंदगी के साथ उन महाशय से कहना पडा कि मैं उनकी भाषा नहीं समझता हूँ। तब उन्होंने निराश भाव से अंग्रेजी में पूछा कि क्या मैं कश्मीरी नहीं हूँ। और मैंने सच बताकर उनका दिल सचमुच ही तोड़ दिया।

बरेली में मेरे सहपाठियों की शिकायत थी कि मेरी भाषा आम न होकर काफी संस्कृतनिष्ठ है जबकि जम्मू में हमारे सिख पड़ोसी मेरी साफ़ उर्दू जुबान की तारीफ़ करते नहीं थकते थे। लेकिन भाषा के इस विरोधाभास के बावजूद इन दोनों ही जगहों पर लोगों ने हमेशा मुझे स्थानीय ही माना।

लगभग चार महीने के लिए लुधियाना में भी रहा। होटल के एक नेपाली कर्मचारी ने यूँ ही बातों में पूछा कि मैं कहाँ का रहने वाला हूँ तो मैंने भी उस पर ही सवाल फैंक दिया, "अंदाज़ लगाओ।" उसके जवाब ने मुझे आश्चर्यचकित नहीं किया, "मुझे तो आप अपने नेपाल के ही लगते हैं।"

धीरे-धीरे मुझे पता लग गया कि मेरे साधारण से व्यक्तित्व को आसपास के माहौल में मिल जाने में आसानी होती है। इसलिए जब मुम्बई में एक लंबे-चौडे व्यक्ति ने एक अनजान भाषा में कुछ कहा तो मैं समझ गया कि यह भी मुझे अपने ही गाँव का समझ रहा है। मैंने अंग्रेजी में उसके प्रदेश का नाम पूछा तो उसने कहा कि वह तो मुझे अरबी समझा था मैं तो हिन्दी निकला।

यहाँ पिट्सबर्ग में लिफ्ट का इंतज़ार कर रहा था तो दो महिलाएँ आपस में बात करती हुई आयीं। वेशभूषा से मुसलमान लग रही थीं और उर्दू में बात कर रही थीं। उनमें से एक ने मुझसे पंजाबी उच्चारण की उर्दू में पूछा कि मैं कहाँ से हूँ। मैं कुछ कह पाता, इसके पहले ही दूसरी चहकी, "अपने पाकिस्तान से हैं, और कहाँ से होंगे?"

मेरे मुँह से बेसाख्ता निकला, "मैं एक भारतीय।"

पुनश्च: मैंने हाल ही में जब यह कहानी अपने गुजराती मित्र को सुनाई तो वे मुझे दूसरे पैराग्राफ पर ही रोककर अनवरत हँसने लगे, "अरे, तुम्हें कश्मीरी कौन समझेगा? तुम तो पक्के गुजराती लगते हो।"

Monday, July 21, 2008

पाकिस्तान में एक ब्राह्मण की आत्मा

कुछ वर्ष पहले तक जिस अपार्टमेन्ट में रहता था उसके बाहर ही हमारे पाकिस्तानी मित्र सादिक़ भाई का जनरल स्टोर है। आते जाते उनसे दुआ सलाम होती रहती थी। सादिक़ भाई मुझे बहुत इज्ज़त देते हैं - कुछ तो उम्र में मुझसे छोटे होने की वजह से और कुछ मेरे भारतीय होने की वजह से। पहले तो वे हमेशा ही बोलते थे कि हिन्दुस्तानी बहुत ही स्मार्ट होते हैं। फिर जब मैंने याद दिलाया कि हमारा उनका खून भी एक है और विरासत भी तब से वह कहने लगे कि पाकिस्तानी अपनी असली विरासत से कट से गए हैं इसलिये पिछड़ गए।

धीरे-धीरे हम लोगों की जान-पहचान बढ़ी, घर आना-जाना शुरू हुआ। पहली बार जब उन्हें खाने पर घर बुलाया तो खाने में केवल शाकाहार देखकर उन्हें थोड़ा आश्चर्य हुआ फ़िर बाद में बात उनकी समझ में आ गयी। इसलिए जब उन्होंने हमें बुलाया तो विशेष प्रयत्न कर के साग-भाजी और दाल-चावल ही बनाया।

एक दिन दफ्तर के लिए घर से निकलते समय जब वे दुकान के बाहर खड़े दिखाई दिए तो उनके साथ एक साहब और भी थे। सादिक़ भाई ने परिचय कराया तो पता लगा कि वे डॉक्टर अनीस हैं। डॉक्टर साहब तो बहुत ही दिलचस्प आदमी निकले। वे मुहम्मद रफी, मन्ना डे, एवं लता मंगेशकर आदि सभी बड़े-बड़े भारतीय कलाकारों के मुरीद थे और उनके पास रोचक किस्सों का अम्बार था। वे अमेरिका में नए आए थे। उन्हें मेरे दफ्तर की तरफ़ ही जाना था और सादिक़ भाई ने उन्हें सकुशल पहुँचाने की ज़िम्मेदारी मुझे सौंप दी।

खैर, साहब हम चल पड़े। कुछ ही मिनट में डॉक्टर साहब हमारे किसी अन्तरंग मित्र जैसे हो गए। उन्होंने हमें डिनर के लिए भी न्योत दिया। वे बताने लगे कि उनकी बेगम को खाना बनाने का बहुत शौक है और वे हमारे लिए, कीमा, मुर्ग-मुसल्लम, गोश्त-साग आदि बनाकर रखेंगी। मैंने बड़ी विनम्रता से उन्हें बताया कि मैं वह सब नहीं खा सकता। तो छूटते ही बोले, "क्यों, आपमें क्या किसी बाम्भन की रूह आ गयी है जो मांस खाना छोड़ दिया?"

उनकी बात सुनकर मैं हँसे बिना नहीं रह सका। उन्होंने बताया कि उनके पाकिस्तान में जब कोई बच्चा मांस खाने से बचता है तो उसे मजाक में बाम्भन की रूह का सताया हुआ कहते हैं। जब मैंने उन्हें बताया कि मुझमें तो बाम्भन की रूह (ब्राह्मण की आत्मा) हमेशा ही रहती है तो वे कुछ चौंके। जब उन्हें पता लगा कि न सिर्फ़ इस धरती पर ब्राह्मण सचमुच में होते हैं बल्कि वे एक ब्राह्मण से साक्षात् बात कर रहे हैं तो पहले तो वे कुछ झेंपे पर बाद में उनके आश्चर्य और खुशी का ठिकाना न रहा।