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Saturday, February 12, 2011

याद तेरी आयी तो - कविता

(अनुराग शर्मा)


सुरमयी यादों की बात ही निराली है
भंडार है अनन्त जेब भले खाली है।

परदे के पीछे से झांक झांक जाती थी
हृदय में रहती वह षोडशी मतवाली है।

थामा था हाथ जो ओठों से चूमा था
रूमानी शाम थी आज भी हरियाली है।

याद तेरी आयी तो सहरा शीतल हुआ
चतुर्मास की सांझ घिरी घटा काली है।

दृष्टि क्षीण हो भले रजतमय केश हों
आज भी अधरों पे याद वही लाली है।

Thursday, February 10, 2011

आपकी गज़ल - इदम् न मम्

व्यवहारिकता शीर्षक से लिखी मेरी पंक्तियों पर आई आपकी सारगर्भित टिप्पणियों को देखकर मन प्रसन्न हो गया। आपने गलतियों को बडप्पन के साथ नज़रअन्दाज़ भी किया और ध्यान भी दिलाया गया तो उतने ही बडप्पन और प्यार से। साथ ही आप की टिप्पणियों से उस रचना के आगे की पंक्तियाँ भी मिलीं। आप सभी का धन्यवाद। सर्वश्री संजय अनेजा, संजय झा, राजेश नचिकेता, प्रतुल वसिष्ठ, सुज्ञ जी, राहुल जी, अली जी और वर्मा जी के योगदान से बनी नई रचना कहीं अधिक रोचक है| आइये आपकी सम्मिलित कृति का आनन्द लेते हैं।

वंचित फल सुगन्ध छाया से
तरु ऊँचा क्या और बौना क्या

जब ज़ाग़* देश को लूट रहे
तो आँख खोलकर सोना क्या

शबनम से क्षुधा मिटाता है
उसे सागर क्या और दोना क्या

काँटों का ताज लिया सिर पर
फिर कठिन घड़ी में रोना क्या

जिस नगर में हम बेभाव बिके
वहाँ माटी क्या और सोना क्या

बहता जल अनिकेत यायावर
वसुधा अपनी कोई कोना क्या

जग सत्य नहीं बस मिथ्या है
इसे पाना क्‍या और खोना क्‍या

जब कर्म की गठरी छूट गयी
खाली घट को संजोना क्या
(*ज़ाग़ = कौव्वे। अली जी, क्या ज़ाग़ शब्द और इसके प्रयोग के बारे में कुछ लिखेंगे?)

धन्यवाद!
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ये शाहिद कबीर कौन हैं?
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Tuesday, February 8, 2011

व्यावहारिकता - कविता


(अनुराग शर्मा)

वो खुद है खुदा की जादूगरी
फिर चलता जादू टोना क्या

जो होनी थी वह हो के रही
अब अनहोनी का होना क्या

जब किस्मत थी भरपूर मिला
अब प्यार नहीं तो रोना क्या

गर प्रेम का नाता टूट गया
नफरत के तीर चुभोना क्या

जज़्बात की ही जब क़द्र नहीं
तो मुफ्त में आँख भिगोना क्या

[क्रमशः]

Saturday, November 27, 2010

आपका आभार! काला जुमा, बेचारी टर्की - [इस्पात नगरी से - 33]

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आप लोग मेरी पोस्ट्स को ध्यान से पढते रहे हैं और अपनी विचारपूर्ण टिप्पणियों से उनका मूल्य बढाते रहे हैं इसका आभार व्यक्त करने के लिये आभार दिवस से बेहतर दिन क्या होगा।

घर के अन्दर तो ठंड का अहसास नहीं है मगर खिड़की के बाहर उड़ते बर्फ के तिनके अहसास दिला रहे हैं कि तापमान हिमांक से नीचे है। परसों आभार दिवस यानि थैंक्सगिविंग था, अमेरिका का एक बड़ा पारिवारिक मिलन का उत्सव। उसके बाद काला जुम्मा यानि ब्लैक फ़्राइडे गुज़र चुका है। बस अड्डे, हवाई अड्डे और रेलवे स्टेशन तो भीड़ से भरे हुए थे ही, अधिकांश राजपथ भी वर्ष का सर्वाधिक यातायात ढो रहे थे।

पहला थैक्सगिविंग सन 1621 में मनाया गया था जिसमें "इंग्लिश सैपरेटिस्ट चर्च" के यूरोपीय मूल के लोगों ने अमेरिकन मूल के 91 लोगों के साथ मिलकर भाग लिया था। थैंक्सगिविंग पर्व में आजकल का मुख्य आहार टर्की नामक विशाल पक्षी होता है परंतु किसी को भी यह निश्चित रूप से पता नहीं है कि 1621 के भोज में टर्की शामिल थी या नहीं। अक्टूबर 1777 में अमेरिका की सभी 13 कॉलोनियों ने मिलकर यह समारोह मनाया। 1789 में ज़ॉर्ज़ वाशिंगटन ने थैंक्सगिविंग को एक राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाने की घोषणा की परंतु तब इस बात का विरोध भी हुआ।

सारा जोसेफा हेल, बॉस्टन महिला पत्रिका और गोडी'ज़ लेडी'ज़ बुक के 40 वर्षीय अभियान के बाद अब्राहम लिंकन ने 1863 में आभार दिवस का आधुनिक रूप तय किया जिसमें नवम्बर के अंतिम गुरुवार को राष्ट्रीय पर्व और अवकाश माना गया। 1941 के बाद से नवम्बर मास का चौथा गुरुवार "आभार दिवस" बन गया।

दंतकथा है कि लिंकन के बेटे टैड के कहने पर टर्की को मारने के बजाय उसे राष्ट्रपति द्वारा क्षमादान देकर व्हाइट हाउस में पालतू रखा गया। ज़ोर्ज़ बुश के समय से राष्ट्रपति द्वारा क्षमादान की परम्परा को पुनरुज्जीवित किया गया और जीवनदान पायी यह टर्कीयाँ वर्जीनिया चिड़ियाघर और डिज़्नेलैंड में लैंड होती रही हैं। यह एक टर्की भाग्यशाली है परंतु इस साल के आभार दिवस के लिये मारी गयी साढे चार करोड टर्कियाँ इतनी भाग्यशाली नहीं थीं।

आभार दिवस के भोज के बाद लोगों को व्यायाम की आवश्यकता होती है और इसका इंतज़ाम देश के बडे चेन स्टोर करते हैं - साल की सबसे आकर्षक सेल के लिये अपने द्वार अलसुबह या अर्धरात्रि में खोलकर। इसे कहते हैं ब्लैक फ्राइडे! इन सेल आयोजनों में कभी कभी भगदड और दुर्घटनायें भी होती हैं। कुछ वर्ष पहले एक वालमार्ट कर्मी की मृत्यु भी हो गयी थी। इंटरनैट खरीदी का चलन आने के बाद से अब अगले सोमवार को साइबर मंडे सेल भी चल पडी हैं।
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इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
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Thursday, October 14, 2010

मुद्रित लेखन का भविष्य [इस्पात नगरी से - 31]

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चारिहु जुग को महातम, कहि के जनायो नाथ।
मसि-कागद छूयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ॥
(संत कबीर)
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भारत में ज्ञान श्रुति के रूप में एक पीढ़ी से दूसरी तक पहुँचाया जाता रहा है। इसलिये ज्ञानी होने के लिये लिपिज्ञान की आवश्यकता ही नहीं थी। परंतु लिखे बिना अक्षर अक्षर कैसे रहेंगे? लिपियाँ बनायी गईं और फिर शिलालेख, चर्म आदि से होकर भोजपत्र, ताड़पत्र आदि तक पहुँचे। और फिर मिस्र और चीन का कागज़ और उसके बाद पी-शेंग के छपाई के अक्षर - न जाने क्या क्या होता रहा। पन्द्रहवीं शताब्दी के मध्य में जब योहान गटैनबर्ग (1395-1468) ने छापेखाने का आविष्कार किया तब से अब तक दुनिया ही बदल गयी है। पत्र-पत्रिकाएँ-पुस्तकें पढ़कर बड़ी हुई मेरी पीढी तो शायद ऐसे समाज की कल्पना भी नहीं कर सकती है जिसमें कागज़ पर मुद्रित अक्षर न हों। 31 दिसम्बर 1999 के अंक (Y2K किसे याद है?) में टाइम पत्रिका ने रेडियो, फ़ोन, कम्प्यूटर, इंटरनैट आदि जैसे आविष्कारों को दरकिनार करते हुए जब गटैनबर्ग को "मैन ओफ द मिलेनियम" कहा तो मेरे जैसे एकाध लोगों को छोड़कर किसी को आश्चर्य (या आपत्ति) नहीं हुई।
बॉस्टन जन पुस्तकालय का मुखडा


मुद्रित शब्द बहुत समय तक आम आदमी की पहुँच से बाहर रहे हैं। सारे विश्व में एक समय ऐसा भी था जब पुस्तक एक विलासिता की वस्तु थी जिसे अति-धनाढ्य वर्ग ही रख सकता था। ऐसे ही समय अमेरिकी नगर बॉस्टन में कुछ लोगों को विचार आया कि क्यों न एक ऐसी संस्था बनाई जाये जो उन लोगों को किताबें छूने, देखने और पढ़ने का अवसर प्रदान करे जिनमें इन्हें खरीदने की सामर्थ्य नहीं है। सन 1848 में बॉस्टन की नगर पालिका के सौजन्य से अमेरिका का पहला जन-पुस्तकालय बना जिसमें से पुस्तक निशुल्क उधार लेने का अधिकार हर वयस्क को था। लगभग सवा दो करोड़ पुस्तकों/दृश्य/श्रव्य माध्यम के साथ यह पुस्तकालय आज भी अमेरिका के विशालतम पुस्तकालयों में से एक है।

मुद्रित शब्दों के इसी गर्वोन्मत्त संग्रहालय के बाहर मुझे मुद्रित शब्दों की एक और गति के दर्शन हुए। एक पंक्ति में लगे हुए धातु और प्लास्टिक के यह बूथ विभिन्न मुद्रित संस्करणों को निशुल्क बाँट रहे हैं। वैसे अमेरिका में समाचार पत्र और पत्रिकाएँ अभी भी आ रहे हैं परंतु कई बन्द होने के कगार पर हैं और कई ऑनलाइन संस्करणों की ओर अधिक ध्यान दे रहे हैं। पिछले वर्ष एक पत्रिका ने कागज़ों के साथ एक विडियो  विज्ञापन लगाने का अनोखा प्रयोग भी किया था। सोचता हूँ कि टाइम पत्रिका के सम्पादकों ने आज के समय को 10 साल पहले चुनौती देना शुरू किया था मगर हम अक्सर भूल जाते हैं कि जब रस्साकशी काल के साथ होती हो तो जीत किसकी होगी?
बॉस्टन जन पुस्तकालय की बगल में निशुल्क पत्रों के खोखे

ज्ञातव्य है कि कुछ सप्ताह पहले एक बडी विडियो लाइब्रेरी "ब्लॉकबस्टर" ने दिवालियेपन की अर्ज़ी दी है। एक बडे पुस्तक विक्रेता के दिवाले की अफवाह भी गर्म है। हम लोग सचमुच एक बहुत बड़े परिवर्तन के गवाह हैं।
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इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
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[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा - All photographs by Anurag Sharma]
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Tuesday, September 28, 2010

बुरे काम का बुरा नतीज़ा [इस्पात नगरी से - 30]

अदा जी ने हाल ही में कैनाडा में अपने अनुभवों के बारे में एक-दो पोस्ट लिखीं जिनपर काफी रोचक प्रतिक्रियायें पढने को मिलीं। साथ ही आजकल गोपालकृष्ण विश्वनाथ जी की कैलिफोर्निया यात्रा का वर्णन भी काफी मानसिक हलचल उत्पन्न कर रहा है। इसी बीच में अमेरिका के बैल नगर पालिका से कुछ लोगों की गिरफ्तारी की खबर आयी। दोनों बातों का क्या सम्बन्ध है? कोई खास तो नहीं मगर यह गिरफ्तारी यह भी दर्शाती है कि भ्रष्टाचारी तो हर जगह हो सकता है, परंतु किसी देश का चरित्र बहुत हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि उसके भ्रष्टाचारी अंततः किस गति को प्राप्त होते हैं।

कैलिफोर्निआ राज्य की बैल नगरी में आठ नये-पुराने वरिष्ठ अधिकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया है। गिरफ्तार लोगों में नगर के मेयर और उप-मेयर भी शामिल हैं। मज़े की बात यह है कि वे रिश्वत नहीं ले रहे थे और न ही उनमें से किसी ने अपनी गाडी पर लाल बत्ती लगाकर अपनी जल्दी के लिये सारा ट्रैफिक रुकवाया था। उन्होने किसी सरकारी कर्मचारी को धमकाया भी नहीं था। अपने विरोधी दल वालों को घर से उठवा लेने की धमकी दी हो, ऐसा भी नहीं है। न ही उनके सम्बन्ध दुबई या कराची में बैठे अंडरवर्ड के किसी डॉन से थे। किसी व्यक्ति के शोषण या किसी से दुर्व्यवहार की शिकायत भी नहीं है। नेताजी के जन्मदिन के लिये कम चन्दा भिजाने वाले इंजीनियर की हत्या का आरोप भी नहीं है। उन्होंने सत्ता के दम्भ में न तो संरक्षित प्राणियों का शिकार किया था और न ही शराब पीकर गरीब मज़दूरों पर गाडी चढा दी थी। उनके नगर में धनी ठेकेदारों के लिये सीवर की सफाई करने के लिये उतरे मुफ्त जान गंवाते गरीब मज़दूरों के बच्चे भीख भी नहीं मांग रहे थे।

इन अधिकारियों के अपराध के लिये जमानत की राशि एक लाख तीस हज़ार अमेरिकी डॉलर से लेकर बत्तीस लाख डॉलर तक तय हुई है। और इनका अपराध यह है कि इनके वेतन और भत्ते इनके नगर की औसत मासिक आय के अनुपात में कहीं ज़्यादा है। उदाहरण के लिये नगर प्रबन्धक रॉबर्ट रिज़ो की वार्षिक तनख्वाह आठ लाख डॉलर थी। भारी तनख्वाह लेने के अलावा इन लोगों द्वारा सिर्फ भत्ते लेने के उद्देश्य से की गयी मीटिंगें भी आरोप सूची में हैं। बेल नगर के पार्षदों की वार्षिक तनख्वाह 96,000 थी जिसे जनकर्मियों के हिसाब से काफी अधिक माना जा रहा है क्योंकि अमेरिका में इसी आकार के नगरों के पार्षद सामान्यतः केवल 4800 डॉलर वार्षिक मानदेय पर काम करते हैं।

इन लोगों की करतूत से नगर और बाहर के लोगों के बीच काफी नाराज़गी है। राज्य के गवर्नर ने इस गलती को सही करने के उद्देश्य से एक ऐसे बिल पर हस्ताक्षर किये हैं जिसके द्वारा बेल नगर में जनता से वसूला गया कर उन्हें उचित अनुपात में वापस किया जायेगा।

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इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ

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Wednesday, September 8, 2010

पागल – लघु कथा

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पुरुष: “तुम साथ होती हो तो शाम बहुत सुन्दर हो जाती है।”

स्त्री: “जब मैं ध्यान करती हूँ तो क्षण भर में उड़कर दूसरे लोकों में पहुँच जाती हूँ!”

पुरुष: “इसे ध्यान नहीं ख्याली पुलाव कहूंगा मैं। आँखें बंद करते ही बेतुके सपने देखने लगती हो तुम।”

स्त्री: “नहीं! मेरा विश्वास करो, साधना से सब कुछ संभव है। मुझे देखो, मैं यहाँ हूँ, तुम्हारे सामने। और इसी समय अपनी साधना के बल पर मैं हरिद्वार के आश्रम में भी उपस्थित हूँ स्वामी जी के चरणों में।”

पुरुष: “उस बुड्ढे की तो...”

स्त्री: “तुम्हें ईर्ष्या हो रही है स्वामी जी से?”

पुरुष: “मुझे ईर्ष्या क्यों कर होने लगी?”

स्त्री: “क्योंकि तुम मर्द बड़े शक़्क़ी होते हो। याद रहे, शक़ का इलाज़ तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं है।”

पुरुष: “ऐसा क्या कह दिया मैंने?”

स्त्री: “इतना कुछ तो कहते रहते हो हर समय। मैं अपना भला-बुरा नहीं समझती। मेरी साधना झूठी है। योग, ध्यान सब बेमतलब की बातें हैं। स्वामीजी लम्पट हैं।”

पुरुष: “सच है इसलिये कहता हूँ। तुम यहाँ साधना के बल पर नहीं हो। तुम यहाँ हो, क्योंकि हम दोनों ने दूतावास जाकर वीसा लिया था। फिर मैंने यहाँ से तुम्हारे लिए टिकट खरीदकर भेजा था। और उसके बाद हवाई अड्डे पर तुम्हें लेने आया था। कल्पना और वास्तविकता में अंतर तो समझना पडेगा न!”

स्त्री: “हाँ, सारी समझ तो जैसे भगवान ने तुम्हें ही दे दी है। यह संसार एक सपना है। पता है?”

पुरुष: “सब पता है मुझे। पागल हो गई हो तुम।”

बालक: “यह आदमी कौन है?”

बालिका: “पता नहीं! रोज़ शाम को इस पार्क में सैर को आता है। हमेशा अपने आप से बातें करता रहता है। पागल है शायद।”

Thursday, September 2, 2010

अई अई आ त्सुकू-त्सुकू

(अनुराग शर्मा की त्सुकुबा जापान यात्रा संस्मरण)

सृजनगाथा पर जापान के अपने यात्रा संस्मरण में मैंने त्सुकुबा पर्वत की यात्रा का वर्णन किया था। इसी पर्वत की तलहटी में, टोक्यो से ५० किलोमीटर की दूरी पर शोध और तकनीकी विकास के उद्देश्य से सन १९६३ में त्सुकुबा विज्ञान नगर परियोजना ने जन्म लिया और १९८० तक यहाँ ४० से अधिक शोध, शिक्षा और तकनीकी संस्थानों की स्थापना हो गयी थी। जापान के भीड़भरे नगरों की छवि के विपरीत त्सुकूबा (つくば?) एक शांत सा नगर है जो भारत के किसी छावनी नगर जैसा शांत और स्वच्छ नज़र आता है।

त्सुकुबा विश्वविद्यालय सहित कई राष्ट्रीय जांच और शोध संस्थान यहाँ होने के कारण जापान के शोधार्थियों का ४० प्रतिशत आज त्सुकुबा में रहता है। त्सुकुबा में लगभग सवा सौ औद्योगिक संस्थानों की शोध इकाइयाँ कार्यरत हैं। सड़कों के जाल के बीच ३१ किलोमीटर लम्बे मार्ग केवल पैदल और साइकिल सवारों के लिए आरक्षित हैं। और इन सबके बीच बिखरे हुए ८८ पार्क कुल १०० हेक्टेयर के क्षेत्र में फैले हुए हैं। ऐसे ही एक पार्क में मेरा सामना हुआ त्सुकुबा के अधिकारिक पक्षी त्सुकुत्सुकू (Tsuku-tsuku) से।

जापान में दो लिपियाँ एक साथ चलती हैं - कांजी और हिरागाना। कांजी लिपि चीन की लिपि का जापानी रूप है जबकि हिरागना जापानी है। नए नगरों के नाम हिरागना में ही लिखे जाते हैं। त्सुकुबा का नाम भी हिरागना में ही लिखा जाता है और यहाँ के अधिकारिक पक्षी का नाम त्सुकुत्सुकू जब हिरागना में लिखा जाए तो उसका अर्थ होता है असीमित विकास एवं समरसता।

सोचता हूँ कि भारत में यदि ज्ञान की नगरी के लिए कोई राजपक्षी चुना जाता तो वह क्या होता? राजहंस, शुक, सारिका, वक या कुछ और? परन्तु त्सुकुबा का त्सुकुत्सुकू नामक राजपक्षी है एक उल्लू। वैसे तो जापान में पशु-पक्षी अधिक नहीं दिखते हैं, उस पर उल्लू तो वैसे भी रात में ही निकलते हैं सो हमने वहां सचमुच का एक भी उल्लू नहीं देखा मगर फिर भी वे थे हर तरफ। दुकानों, पार्कों, रेल और बस के अड्डे पर - चित्र, मूर्ति और कलाकृतियों के रूप में त्सुकुत्सुकू हर ओर मौजूद था।

विश्व विद्यालय परिसर का एक पार्क तो ऐसा लगता था जैसे उसी को समर्पित हो। इस उपवन में विचरते हुए शायर की निम्न पंक्तियाँ स्वतः ही जुबां पर आ गईं: हर शाख पे उल्लू बैठा है, अंजामे गुलिस्ताँ क्या होगा?

आइये देखें कुछ झलकियाँ त्सुकुबा के उलूकराज श्रीमान त्सुकुत्सुकू की।


1. परिवहन अड्डे पर श्रीमान त्सुकुत्सुकू

2. उलूकराज

3. विनम्र उल्लू

4. भोला उल्लू

5. दार्शनिक उल्लू

6. उल्लू परिवार

7. उल्लू के पट्ठे

8. जापान की दुकान में "मेड इन चाइना" उल्लू

9. और अंत में - दुनिया भर में प्रसिद्ध काठ के उल्लू

[Photographs by Anurag Sharma || सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा]

Wednesday, August 18, 2010

चोर - कहानी [भाग 4]

पिछले अंकों में आपने पढा कि प्याज़ खाना मेरे लिये ठीक नहीं है। डरावने सपने आते हैं। ऐसे ही एक सपने के बीच जब पत्नी ने मुझे जगाकर बताया कि किसी घुसपैठिये ने हमारे घर का दरवाज़ा खोला है।
...
मैंने कड़क कर चोर से कहा, “मुँह बन्द और दांत अन्दर। अभी! दरवाज़ा तुमने खोला था?”
...
“फिकर नास्ति। शरणागत रक्षा हमारा राष्ट्रीय धर्म और कर्तव्य है” श्रीमती जी ने राष्ट्रीय रक्षा पुराण उद्धृत करते हुए कहा।
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[भाग 1] [भाग 2] [भाग 3] अब आगे की कहानी:
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“कल रात एक सफेद कमीज़ यहाँ टांगी थी, तुमने देखी क्या?” सुबह दफ्तर जाते समय जब कमीज़ नहीं दिखी तो मैंने श्रीमती जी से पूछा।

“वह तो भैया ले गये।“

“भैया? भैया कब आये?”

“केके कस्साब भैया! कल रात ही तो आये थे। जिन्होंने मुझे राखी बांधी थी।“

“मेरी कमीज़ उस राक्षस को कहाँ फिट आयेगी?” पत्नी को शायद मेरी बड़बड़ाहट सुनाई नहीं दी। जल्दी से एक और कमीज़ पर इस्त्री की। तैयार होकर बाहर आया तो देखा कि ट्रिपल के भैया मेरी कमीज़ से रगड़-रगड़कर अपने जूते चमका रहे थे। मैं निकट से गुज़रा तो वह बेशर्मी से मुस्कराया, “ओ हीरो, तमंचा देता है क्या?”

मेरा सामान गायब होने की शुरूआत भले ही कमीज़ से हुई हो, वह घड़ी और ब्रेसलैट तक पहुँची और उसके बाद भी रुकी नहीं। अब तो गले की चेन भी लापता है। मैंने सोचा था कि तमंचे की गुमशुदगी के बाद तो यह केके कस्साब हमें बख्श देगा मगर वह तो पूरी शिद्दत से राखी के पवित्र धागे की पूरी कीमत वसूलने पर आमादा था।

शाम को जब दफ्तर से थका हारा घर पहुँचा तो चाय की तेज़ तलब लगी। रास्ते भर दार्जीलिंग की चाय की खुश्बू की कल्पना करता रहा था। अन्दर घुसते ही ब्रीफकेस दरवाज़े पर पटककर जूते उतारता हुआ सीधा डाइनिंग टेबल पर जा बैठा। रेडियो पर “हार की जीत” वाले पंडित सुदर्शन के गीत “तेरी गठरी में लागा चोर...” का रीमिक्स बज रहा था। देखा तो वह पहले से सामने की कुर्सी पर मौजूद था। सभ्यता के नाते मैंने कहा, “जय राम जी की!”

”सारी खुदाई एक तरफ, केके कसाई एक तरफ” केके कसाई कहते हुए उसने अपने सिर पर हाथ फेरा। उसके हाथ में चमकती हुई चीज़ और कुछ नहीं मेरा तमंचा ही थी।

“खायेगा हीरो?” उसने अपने सामने रखी तश्तरी दिखाते हुए मुझसे पूछा।

“राम राम! मेरे घर में ऑमलेट लाने की हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी?” तश्तरी पर नज़र पड़ते ही मेरा खून खौल उठा।

“दीदीऽऽऽ” वह मेरी बात को अनसुनी करके ज़ोर से चिल्लाया।

जब तक उसकी दीदी वहाँ पहुँचतीं, मैंने तश्तरी छीनकर कूड़ेदान में फेंक दी।

“मेरे घर में यह सब नहीं चलेगा” मैंने गुस्से में कहा।

“मैने तो आपके खाने को कभी बुरा भला नहीं कहा, आप मेरा निवाला कैसे छीन सकते हैं?”

“भैया, मैं आपके लिये खाना बनाती हूँ अभी ...” बहन ने भाई को प्यार से समझाया।

“मगर दीदी, किसी ग्रंथ में ऑमलेट को मना नहीं किया गया है” वह रिरिआया, “बल्कि खड़ी खाट वाले पीर ने तो यहाँ तक कहा है कि आम लेट कर खाने में कोई बुराई नहीं है”।

“ऑमलेट का तो पता नहीं, मगर अतिथि सत्कार और शरणागत-वात्सल्य का आग्रह हमारे ग्रंथों में अवश्य है” कहते हुए श्रीमती जी ने मेरी ओर इतने गुस्से से देखा मानो मुझे अभी पकाकर केकेके को खिला देंगी।

चाय की तो बात ही छोड़िये उस दिन श्रीमान-श्रीमती दोनों का ही उपवास हुआ।

और मैं अपने ही घर से “बड़े बेआबरू होकर...” गुनगुनाता हुआ जब दरी और चादर लेकर बाहर चबूतरे पर सोने जा रहा था तब चांदनी रात में मेरे घर पर सुनहरी अक्षरों से लिखे हुए नाम “श्रीनगर” की चमक श्रीहीन लग रही थी।

[समाप्त]

यूँ ही याद आ गये, अली सिकन्दर "जिगर" मुरादाबादी साहब के अल्फाज़:
ये इश्क़ नहीं आसाँ, इतना तो समझ लीजे
इक आग का दरिया है, और डूब के जाना है

Monday, August 16, 2010

चोर - कहानी [भाग 3]

पिछले अंकों में आपने पढा कि प्याज़ खाना मेरे लिये ठीक नहीं है। डरावने सपने आते हैं। ऐसे ही एक सपने के बीच जब पत्नी ने मुझे जगाकर बताया कि किसी घुसपैठिये ने हमारे घर का दरवाज़ा खोला है।

मैंने कड़क कर चोर से कहा, “मुँह बन्द और दाँत अन्दर। अभी! दरवाज़ा तुमने खोला था?”

“जी जनाब! अब मेरे जैसा लहीम-शहीम आदमी खिड़की से तो अन्दर आ नहीं सकता है।”

“यह बात भी सही है।”

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[भाग 1] [भाग 2] अब आगे की कहानी:
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उस रात मुझे लग रहा था कि मेरे हाथ से हिंसा हो जायेगी। यह आशा बिल्कुल नहीं थी कि इतना भारी-भरकम आदमी कोई प्रतिरोध किये बिना इतने आराम से धराशायी हो जायेगा। जब पत्नी ने विजयी मुद्रा में हमारे कंधे पर हाथ रखा तो समझ में आया कि बन्दा धराशायी नहीं हुआ था बल्कि उन्हें देखकर दण्डवत प्रणाम कर रहा था।

“ममाSSS, ... नहीं नहीं दीदी!” ज़मीन पर पड़े उस पहलवान ने बनावटी रुदन के साथ जब श्रीमती जी को चरण स्पर्श किया तो मुझे उसकी धूर्तता स्पष्ट दिखी।

“मैं आपकी शरण में हूँ ममा, ... नहीं, नहीं... मैं आपकी शरण में हूँ दीदी!” मुझपर एक उड़ती हुई विजयी दृष्टि डालते हुए वह शातिर चिल्लाया, “कई दिन का भूखा हूँ दीदी, थाने भेजने से पहले कुछ खाने को मिल जाता तो अच्छा होता... पुलिस वाले भूखे पेट पिटाई करेंगे तो दर्द ज़्यादा होगा।”

मैं जब तक कुछ कहता, श्रीमती जी रसोई में बर्तन खड़खड़ कर रही थीं। उनकी पीठ फिरते ही वह दानव उठ बैठा और तमंचे पर ललचाई दृष्टि डालते हुए बोला, “ये पिस्तॉल मुझे दे दे ठाकुर तो अभी चला जाउंगा। वरना अगर यहीं जम गया तो...” जैसे ही उसने श्रीमतीजी को रसोई से बाहर आते देखा, बात अधूरी छोड़कर किसी कुशल अभिनेता की तरह दोनों हाथ जोड़कर मेरे सामने सर झुकाये घुटने के बल बैठकर रोने लगा।

“मुझे छोड़ दो! इतने ज़ालिम न बनो! मुझ ग़रीब पर रहम खाओ।” पत्नी के बैठक में आते ही रोन्दू पहलवान का नाटक फिर शुरू हो गया।

“इनसे घबराओ मत, यह तो चींटी भी नहीं मार सकते हैं। लो, पहले खाना खा लो” माँ अन्नपूर्णा ने छप्पन भोगों से सजी थाली मेज़ पर रखते हुए कहा, “मैं मिठाई और पानी लेकर अभी आयी।”

“दीदी मैं आपके पाँव पड़ता हूँ, मेरी कोई सगी बहन नहीं है...” कहते कहते उसने अपने घड़ियाली आँसू पोंछते हुए जेब से एक काला धागा निकाल लिया। जब तक मैं कुछ समझ पाता, उसने वह धागा अपनी नई दीदी की कलाई में बांधते हुए कहा, “जैसे कर्मावती ने हुमायूँ के बांधी थी, वैसी ही यह राखी आज हम दोनों के बीच कौमी एकता का प्रतीक बन गयी है।”

“आज से मेरी हिफाज़त का जिम्मा आपके ऊपर है” मुझे नहीं लगता कि श्रीमती जी उसकी शरारती मुस्कान पढ़ सकी थीं। मगर मेरी छाती पर साँप लोट रहे थे।

“फिकर नास्ति। शरणागत रक्षा हमारा राष्ट्रीय धर्म और कर्तव्य है” श्रीमती जी ने राष्ट्रीय रक्षा पुराण उद्धृत करते हुए कहा।

आगे की कहानी पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें

यह कड़ी लिखते समय यूँ ही फिराक़ गोरखपुरी साहब के शब्द याद आ गये, बांटना चाहता हूँ:

मुझे कल मेरा एक साथी मिला
जिस ने यह राज़ खोला
के अब जज़्बा-ओ-शौक़ की
वहशतों के ज़माने गये
फिर वो आहिस्ता-आहिस्ता
चारों तरफ देखता
मुझ से कहने लगा
अब बिसात-ए-मुहब्बत लपेटो
जहाँ से भी मिल जाये,
दौलत समेटो
गर्ज़ कुछ तो तहज़ीब सीखो।
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विनम्र निवेदन: क्षमाप्रार्थी हूँ। छोटे-छोटे खंडों को पढने से होने वाली आपकी असुविधा मुझे दृष्टिगोचर हो रही है, परंतु अभी उतना समय नहीं निकाल पा रहा हूँ कि एक बड़ी कड़ी लिख सकूँ। समय मिलते ही पूरा करूंगा। भाई संजय, आपका अनुरोध भी व्यस्तता के कारण ही पूरा नहीं हो सका है।
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Sunday, August 15, 2010

चोर - कहानी [भाग 2]

चोर - कहानी [भाग 1] में आपने पढा कि प्याज़ खाना मेरे लिये ठीक नहीं है। डरावने सपने आते हैं। ऐसे ही एक सपने के बीच जब पत्नी ने मुझे जगाकर बताया कि किसी घुसपैठिये ने हमारे घर का दरवाज़ा खोला है।
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अब आगे की कहानी:
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मैंने तकिये के नीचे से तमंचा उठाया और अन्धेरे में ही बिस्तर से उठकर दबे पाँव अपना कमरा और बैठक पार करके द्वार तक आया। छिपकर अच्छी तरह इधर-उधर देखा। जब कोई नहीं दिखाई दिया तो दरवाज़ा बेआवाज़ बन्द करके वापस आने लगा। इतनी देर में आँखें अन्धेरे में देखने की अभ्यस्त हो चुकी थीं। देखा कि बैठक के एक कोने में कई सूटकेस, अटैचियाँ आदि खुली पड़ी थीं।

काला कुर्ता और काली पतलून पहने एक मोटे-ताज़े पहलवान टाइप महाशय तन्मयता के साथ एक काले थैले में बड़ी सफाई से कुछ स्वर्ण आभूषण, चान्दी के बर्तन और कलाकृति आदि सहेज रहे थे। या तो वे अपने काम में कुछ इस तरह व्यस्त थे कि उन्हें मेरे आने का पता ही न चला या फिर वे बहरे थे। अपने घर में एक अजनबी को इतने आराम से बैठे देखकर एक पल के लिये तो मैं आश्चर्यचकित रह गया। आज के ज़माने में ऐसी कर्मठता? आधी रात की तो बात ही क्या है मेरे ऑफिस के लोगों को पाँच बजे के बाद अगर पाँच मिनट भी रोकना चाहूँ तो असम्भव है। और यहाँ एक यह खुदा का बन्दा बैठा है जो किसी श्रेय की अपेक्षा किये बिना चुपचाप अपने काम में लगा है। लोग तो अपने घर में काम करने से जी चुराते हैं और एक यह समाजसेवी हैं जो शान्ति से हमारा सामान ठिकाने लगा रहे हैं।

अचानक ही मुझे याद आया कि मैं यहाँ उसकी कर्मठता और लगन का प्रमाणपत्र देने नहीं आया हूँ। जब मैंने तमंचा उसकी आँखों के आगे लहराया तो उसने एक क्षण सहमकर मेरी ओर देखा। और फिर अचानक ही खीसें निपोर दीं। सभ्यता का तकाज़ा मानते हुए मैं भी मुस्कराया। दूसरे ही क्षण मुझे अपना कर्तव्य याद आया और मैंने कड़क कर उससे कहा, “मुँह बन्द और दाँत अन्दर। अभी! दरवाज़ा तुमने खोला था?”

“जी जनाब! अब मेरे जैसा लहीम-शहीम आदमी खिड़की से तो अन्दर आ नहीं सकता है।”

“यह बात भी सही है।”

उसकी बात सुनकर मुझे लगा कि मेरा प्रश्न व्यर्थ था। उसके उत्तर से संतुष्ट होकर मैंने उसे इतना मेहनती होने की बधाई दी और वापस अपने कमरे में आ गया। पत्नी ने जब पूछा कि मैं क्या अपने आप से ही बातें कर रहा था तो मैंने सारी बात बताकर आराम से सोने को कहा।

“तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है। घर में चोर बैठा है और तुम आराम से सोने की बात कर रहे हो। भगवान जाने किस घड़ी में मैने तुमसे शादी को हाँ की थी।”

“अत्ता मी काय करा?” ये मेरी बचपन की काफी अजीब आदत है। जब मुझे कोई बात समझ नहीं आती है तो अनजाने ही मैं मराठी बोलने लगता हूँ।

“क्या करूँ? अरे उठो और अभी उस नामुराद को बांधकर थाने लेकर जाओ।”

“हाँ यही ठीक है” पत्नी की बात मेरी समझ में आ गयी। एक हाथ में तमंचा लिये दूसरे हाथ में अपने से दुगुने भारी उस चोर का पट्ठा पकड़कर उसे ज़मीन पर गिरा दिया।”

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Saturday, August 14, 2010

स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएँ! [इस्पात नगरी से- 28]

हमारा गणतंत्र फले फूले और हम सब भारत माता की सच्ची सेवा में अपना तन मन धन लगा सकें और मन, वचन, कर्म से सत्य के मार्ग पर चलें। सैनिकों की तरह आतंकवादियों का सामना करते हुए जीवनदान न भी कर सकें तो ब्लड बैंक जाकर रक्तदान तो कर ही सकें। सीमा पर लड़ न सकें किंतु इतना ध्यान तो रख ही सकते हैं कि ब्लॉग पर लगाये हुए मानचित्र में देश की सीमायें प्रामाणिक और आधिकारिक हों। अमानवीयता के विभिन्न रूपों से दो-दो हाथ करने का अवसर न भी मिले मगर उनका महिमामंडन तो रोक ही सकें। अपने को कभी भी क्षुद्र न समझें, कवि ने ठीक ही कहा है, "जहाँ काम आवै सुई, कहा करै तरवार..."

तो उठिये, देश के नवनिर्माण का व्रत लीजिये और जुट जाइये काम में!

एक बार फिर हार्दिक शुभकामनायें!
वन्दे मातरम! जय भारत!

संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी भारत मेडल  

पिट्सबर्ग में भारत का राष्ट्रीय ध्वज

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सम्बन्धित कड़ियाँ
झंडा ऊँचा रहे हमारा (ऑडिओ)
यह सूरज अस्त नहीं होगा!
श्रद्धांजलि - १०१ साल पहले
चंद्रशेखर आज़ाद का जन्म दिन
सेनानी कवयित्री की पुण्यतिथि
माओवादी इंसान नहीं, जानवर से भी बदतर!
बॉस्टन में भारत
स्वतंत्रता दिवस (2009) की शुभकामनाएं!
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इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
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[चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photos by Anurag Sharma]

Tuesday, August 10, 2010

चोर - कहानी

प्याज़ खाना मेरे लिये ठीक नहीं है। पहले तो इतनी तेज़ महक, ऊपर से आँख में आँसू भी लाता है। जैसे तैसे खा भी लूँ तो मुझे पचता नहीं है। अन्य कई दुष्प्रभाव भी है। गला सूख जाता है और रात में बुरे-बुरे सपने आते हैं। एक बार प्याज़ खाकर सोया तो देखा कि दस सिर वाली एक विशालकाय मकड़ी मुझे अपने जाल में लपेट रही है।

एक अन्य बार जब प्याज़ खाया तो सपना देखा कि सड़क पर हर तरफ अफ़रातफ़री मची हुई है. ठेले वाले, दुकानदार आदि जान बचाकर भाग रहे हैं। सुना है कि माओवादियों की सरकार बन गयी है और सभी दुकानदारों और ठेला मालिकों को पूंजीवादी अनुसूची में डाल दिया गया है। सरकारी घोषणा में उन्हें अपनी सब चल-अचल सम्पत्ति छोड़कर देश से भागने के लिये 24 घंटे की मोहलत दी गयी है। दो कमरे से अधिक बड़े मकानों को उसमें रहने वाले शोषकों समेत जलाया जा रहा है। सरकारी कब्रिस्तान की लम्बी कतारों में अपनी बारी की प्रतीक्षा करते शांतचित्त मुर्दों के बीच की ऊँच-नीच मिटाने के उद्देश्य से उनके कफन एक से लाल रंग में रंगे जा रहे हैं। रेल की पटरियाँ, मन्दिर-मस्जिद, गिरजे, गुरुद्वारे तोड़े जा रहे हैं। सिगार, हँसिये और हथौड़े मुफ्त बंट रहे हैं और अफ़ीम के खेत काटकर पार्टी मुख्यालय में जमा किये जा रहे हैं। सभी किसान मज़दूरों को अपना नाम पता और चश्मे के नम्बर सहित पूरी व्यक्तिगत जानकारी दो दिन के भीतर पोलित ब्यूरो के गोदाम में जमा करवानी है। कितने ही बूढ़े किसानों ने घबराकर अपने चश्मे तोड़कर नहर में बहा दिये हैं कि कहीं उन्हें पढ़ा-लिखा और खतरनाक समझकर गोली न मार दी जाये। आंख खुलने पर भी मन में अजीब सी दहशत बनी रही। कई बार सोचा कि सुरक्षा की दृष्टि से अपना नाम भगवानदास से बदलकर लेनिन पोलपोट ज़ेडॉङ्ग जैसा कुछ रख लूँ।

पिछ्ली बार का प्याज़ी सपना और भी डरावना था। मैंने देखा कि हॉलीवुड की हीरोइन दूरी शिक्षित वृन्दावन गार्डन में “धक धक करने लगा” गा रही है। अब आप कहेंगे कि दूरी शिक्षित वाला सपना डरावना कैसे हुआ, तो मित्र सपने में वह अकेली नहीं थी। उसके हाथ में हाथ डाले अरबी चोगे में कैनवस का घोडा लिये हुए नंगे पैरों वाला एक बूढ़ा भी था। ध्यान से देखने पर पता लगा कि वह टोफू सैन था। जब तक मैं पास पहुँचा, टोफू ने अपने साँप जैसे अस्थिविहीन हाथ से दूरी की कमर को लपेट लिया था। दूरी की तेज़ नज़रों ने दूर से ही मुझे आते हुए देख लिया था। किसी अल्हड़ की तरह शरमाते हुए उसने उंगलियों से अपना दुपट्टा उमेठना शुरू कर दिया। वह कुछ कहने लगी मगर पता नहीं शर्म के कारण या अचानक रेतीले हो गये उस बाग में फैलती मुर्दार ऊँट की गन्ध की वजह से वह ऐसे हकलाने लगी कि मैं उसकी बात ज़रा भी समझ न सका।

जब मैंने अपना सुपर साइज़ हीयरिंग एड लगाया तो समझ में आया कि वह अपने पति फाइटर फ़ेणे को तलाक देने की बात कर रही थी। मुझे गहरा धक्का लगा मगर वह कहने लगी कि वह भारत की हरियाली और खुलेपन से तंग आकर टोफू के साथ किसी सूखे रेगिस्तान में भागकर ताउम्र उसके पांव की जूती बनकर सम्मानजनक जीवन बिताना चाहती है।

“लेकिन फाइटर फेणे तो इतना भला है” मैं अभी भी झटका खाये हुए था।

“टोफू जैसा हैंडसम तो नहीं है न!” वह इठलाकर बोली।

“टोफू और सुन्दर? यह कब से हो गया?” मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं थी, “उसके मुँह में तो दांत भी नहीं हैं।”

“यह तो सोने में सुहागा है” वह कुटिलता से मुस्कुराई।

मैं कुछ कहता कि श्रीमती जी बिना कोई अग्रिम सूचना दिये अचानक ही प्रकट हो गयीं। मुझे तनिक भी अचरज नहीं हुआ। मुल्ला दो प्याज़ी सपनों में ऐसी डरावनी बातें तो होती ही रहती हैं।

“घर का दरवाज़ा बन्द नहीं किया था क्या?” श्रीमती जी बहुत धीरे से बोलीं।

“फुसफुसा क्यों रही हो सिंहनी जी? तुम्हारी दहाड़ को क्या हुआ? गले में खिचखिच?”

वे फिर से फुसफुसाईं, “श्शशशश! आधी रात है और घर के दरवाज़े भट्टे से खुले हैं, इसका मतलब है कि कोई घर में घुसा है।”

अब मैं पूर्णतया जागृत था।

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Tuesday, June 22, 2010

ग्राहक मेरा देवता [इस्पात नगरी से - 25]

जब मैं पहली बार अमेरिका आया तो नयी जगह पर सब कुछ नया सा लगा। मेरे एक सहकर्मी बॉब ने मुझे बहुत सहायता की। उनकी सहायता से ही मैंने पहला अपार्टमेन्ट ढूँढा और उन्होंने ही अपनी कार से मुझे एक स्टोर से दूसरे स्टोर तक ले जाकर सारा ज़रूरी सामान और फर्नीचर खरीदने में मदद की। हम लोग हर शाम को दफ्तर से सीधे बाज़ार जाते और जितना सामान उनकी कार में फिट हो जाता ले आते थे।

एक दिन मैं उनके साथ जाकर परदे और चादरें आदि लेकर आया। बहुत सारे पैकेट थे। घर आकर जब समान देखना शुरू किया तो पाया कि बेडशीट का एक पैकेट नहीं था। जब रसीद चेक की तो पाया कि भुगतान में वह पैकेट भी जोड़ा गया था मगर किसी तरह मेरे पास नहीं आया। मुझे ध्यान आया कि सेल्सगर्ल मेरा भुगतान कराने के बीच में कई बार फ़ोन भी अटेंड कर रही थी। हो न हो उसी में उसका ध्यान बंटा होगा और वह भूल कर बैठी होगी। मैंने रसीद पर छपे फ़ोन नंबर से स्टोर को फ़ोन किया। सारी बात बताई तो स्टोर प्रतिनिधि ने स्टोर में आकर अपना छूटा हुआ पैकेट ले जाने को कहा। अगले दिन मैं फिर से बॉब के साथ वहाँ गया। स्टोर प्रतिनिधि ने मेरा पैकेट देने के बजाय मुझे स्टोर में जाकर वैसी ही दूसरी बेडशीट लाने को कहा। मैं ले आया तो उसने क्षमा मांगते हुए उसे पैक करके मुझे दे दिया।

मैं अमरीकी व्यवसायी की इस ग्राहक-सेवा से अति-प्रसन्न हुआ और हम दोनों राजी खुशी वापस आ गए। भारत में अगर किसी कमी की वजह से भी बदलना पड़ता तो भी वह कभी आसान अनुभव नहीं था, गलती से दूकान में ही छूट गए सामान का तो कहना ही क्या।

मगर बात यहाँ पर ख़त्म नहीं हुई। करीब सात-आठ महीने बाद बॉब ने एक नयी कार ख़रीदी और अपनी पुरानी कार को ट्रेड-इन किया। जब उसने पुरानी कार देने से पहले उसके ट्रंक में से अपना सामान निकाला तो पाया कि मेरा खोया हुआ बेडशीट का पैकेट उसमें पड़ा था। मतलब यह कि स्टोर ने पहली बार में ही हमें पूरा सामान दिया था।

ग्राहक के कथन का आदर और दूसरों पर विश्वास यहाँ एक आम बात है। बहुत से राज्यों में इसके लिए विशेष क़ानून भी हैं। मसलन मेरे राज्य में अगर आपको नयी ख़रीदी हुई कार किसी भी कारण से पसंद नहीं आती है तो आप पहले हफ्ते में उसे "बिना किसी सवाल के" वापस कर सकते हैं।

एक बार मेरी पत्नी का बटुआ कहीं गिर गया। अगले दिन किसी का फ़ोन आया और उन्होंने बुलाकर सब सामान चेक कराकर बटुआ हमारे सुपुर्द कर दिया। जब हमने यह बात एक भारतीय बुजुर्ग को बताई तो उन्होंने अपना किस्सा सुनाया। जब वे पहली बार अमेरिका आए तो एअरपोर्ट आकर उन्होंने टेलीफोन बूथ से कुछ फ़ोन किए और फिर अपने मेजबान मित्र के साथ उनके घर चले गए। जाते ही सो गए अगले दिन कहीं जाकर उन्हें याद आया कि उन्होंने अपना बटुआ फ़ोन-बूथ पर ही छोड़ दिया था। उन्होंने तो सोचा कि अब तो गया। मित्र के अनुग्रह पर वे वापस हवाई अड्डे आए और बटुआ वहीं वैसे का वैसा ही रखा हुआ पाया।

ईमानदारी यहाँ के आम जीवन का हिस्सा है। आम तौर पर लोग किसी दूसरे के सामान, संपत्ति आदि पर कब्ज़ा करने के बारे में नहीं सोचते हैं। भारत में अक्सर दुकानों पर "ग्राहक मेरा देवता है" जैसे कथन लिखे हुए दिख जाते हैं मगर ग्राहक की सेवा उतनी अच्छी तरह नहीं की जाती है। ग्राहक को रसीद देना हो या क्रेडिट कार्ड के द्वारा भुगतान लेना हो, सामान बदलना हो या वापस करना हो - आज भी ग्राहक को ही परेशान होना पड़ता है। काश हम ग्राहक-सेवा का संदेश दिखावे के कागज़ पर लिखने के बजाय आचरण में लाते।

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इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
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[यह लेख दो वर्ष पहले सृजनगाथा में प्रकाशित हो चुका है।]

Monday, June 21, 2010

१९ जून, दास प्रथा और कार्ल मार्क्स [इस्पात नगरी से - २४]

आज वर्ष का सबसे बड़ा दिन है। जून का महीना चल रहा है। पूर्वोत्तर अमेरिका में गर्मी के दिन बड़े सुहावने होते हैं। जो पेड़ सर्दियों में ठूँठ से नज़र आते थे आजकल हरियाली की प्रतिमूर्ति नज़र आते हैं। हर तरफ फूल खिले हुए हैं। चहकती चिडियों के मधुर स्वर के बीच में किसी बाज़ को चोंच मार-मारकर धकेलते हुए क्रंदन करके हुए माता कौवे का करुण स्वर कान में पड़ता है तो प्रकृति के नैसर्गिक सौंदर्य के पीछे छिपी कुई क्रूरता का कठोर चेहरा अनायास ही सामने आ जाता है।

जून मास अपने आप में विशिष्ट है। इस महीने में हमें सबसे अधिक धूप प्राप्त होती है। आश्चर्य नहीं कि वर्ष का सबसे बड़ा दिन भी इसी महीने में पड़ता है। गर्मियों की छुट्टियाँ हो गयी हैं। बच्चे बड़े उत्साहित हैं। यहाँ पिट्सबर्ग में तीन-नदी समारोह की तय्यारी शुरू हो गयी है। अमेरिका में उत्सवों की भारत जैसी प्राचीन परम्परा तो है नहीं। कुछ गिने-चुने ही समारोह होते हैं। हाँ, धीरे-धीरे कुछ नए त्यौहार भी जुड़ रहे हैं। पितृ दिवस (Father’s day) भी ऐसा ही एक पर्व है जो हमने कल ही १०० वीं बार मनाया। सोनोरा नाम की महिला ने १९ जून १९१० को अपने पिता के जन्मदिन पर उनके सम्मान में पहली बार पितृ दिवस का प्रस्ताव रखा। सन १९२६ में न्यूयार्क नगर में राष्ट्रीय पितृ दिवस समिति बनी और १९७२ में राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने पितृ दिवस को जून मास के तीसरे रविवार को मनाने का ऐलान किया। तब से पितृ-सम्मान की यह परम्परा अनवरत चल रही है।
जूनटींथ ध्वज

रोचक बात यह है कि पितृ दिवस १९ जून को मनाया जाने वाला पहला पर्व नहीं है। एक और पर्व है जो इस दिन हर साल बड़ी गर्मजोशी से मनाया जाता है। जून्नीस या जूनटीन्थ (Juneteenth) नाम से मनाये जाने वाले इस पर्व का इतिहास बहुत गौरवपूर्ण है। जूनटीन्थ दरअसल जून और नाइनटीन्थ का ही मिला हुआ रूप है अर्थात यह १९ जून का ही दूसरा नाम है। मगर इसकी तहें इतिहास के उन काले पन्नों में छिपी हैं जहां इंसानों के साथ पशुओं जैसा बर्बर व्यवहार किया जाता था और पशुओं की तरह उनका भी क्रय-विक्रय होता था। जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ दास प्रथा की।

१९ जून १८६५ को इसी घर के छज्जे से दास प्रथा के अंत और मानव-समानता की घोषणा की गयी थी
सन १८६३ में अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने गुलाम प्रथा को मिटा देने का वचन दिया था। १९ जून १८६५ में जब जनरल गोर्डन ग्रेंगर के नेतृत्व में २००० अमेरिकी सैनिक उस समय के विद्रोही राज्य टैक्सस के गैलवेस्टन नगर में पहुँचे तब टैक्सस राज्य के दासों को पहली बार अपनी स्वतन्त्रता के आदेश का पता लगा। पहले अविश्वास, फिर आश्चर्य के बाद गुलामों में उल्लास की लहर ऐसी दौडी कि तब से यह उत्सव हर वर्ष मनाया जाने लगा। कुछ ही वर्षों में यह परम्परा आस-पास के अन्य राज्यों में भी फ़ैल गयी और इसने धीरे-धीरे राष्ट्रीय समारोह का रूप धारण कर लिया। समय के साथ इस उत्सव का रूप भी बदला है और आजकल इस अवसर पर खेल-कूद, नाच-गाना और पिकनिक आदि प्रमुख हो गए हैं।

आज जब पहली बार एक अश्वेत राष्ट्रपति का पदार्पण श्वेत भवन (White house) में हुआ है, पहले जूनटीन्थ को देखा हुआ सम्पूर्ण समानता का स्वप्न सच होता हुआ दिखाई देता है। आज जब अब्राहम लिंकन जैसे महान नेताओं के अथक प्रयासों से दास प्रथा सभ्य-समाज से पूर्णतयः समाप्त हो चुकी है, यह देखना रोचक है कि तथाकथित साम्यवाद का जन्मदाता कार्ल मार्क्स अपने मित्र पैवेल वसील्येविच अनंकोव (Pavel Vasilyevich Annenkov) को १८४६ में लिखे पत्र में दास प्रथा को ज़रूरी बता रहा है:

"दास प्रथा एक अत्यधिक महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधि है. दास प्रथा के बिना तो विश्व का सबसे प्रगतिशील देश अमेरिका पुरातनपंथी हो जाएगा. दास प्रथा को मिटाना विश्व के नक़्शे से अमेरिका को हटाने जैसा होगा. अगर नक़्शे से आधुनिक अमेरिका को हटा दो तो आधुनिक सभ्यता और व्यापार नष्ट हो जायेंगे और दुनिया में अराजकता छा जायेगी. एक आर्थिक गतिविधि के रूप में दास प्रथा अनादिकाल से सारी दुनिया में रही है."

कार्ल मार्क्स एक गोरा नस्लवादी था

कैसी विडम्बना है कि कार्ल मार्क्स की कब्र एक देश-विहीन शरणार्थी के रूप में इंग्लैण्ड में है जहां से उन दिनों साम्राज्यवाद, रंगभेद और दासप्रथा का दानव सारी दुनिया में कहर बरपा रहा था.

इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ

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इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
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(इस पोस्ट के सभी चित्र - इंटरनेट से उठाईगीरीकृत)

Sunday, June 20, 2010

एक शाम बार में - कहानी

एलन
आजकल हर रोज़ रात को सोते समय सुबह होने का इंतज़ार रहता है। जाने कितने दिनों के बाद जीवन फिर से रुचिकर लग रहा है. और यह सब हुआ है मेगन के कारण। मेगन से मिलने के बाद ज़िन्दगी की खूबसूरती पर फिर से यक़ीन आया है। वरना जेन से शादी होने से लेकर तलाक़ तक मेरी ज़िन्दगी तो मानो नरक ही बन गयी थी। विश्वास नहीं होता है कि मैंने उसे अपना जीवनसाथी बनाने की बेवक़ूफी की थी। उसकी सुन्दरता में अन्धा हो गया था मैं।

मेगन
उम्रदराज़ है, मोटा है, गंजा है और नाटा भी। चश्मिश है, फिर भी आकर्षक है। चतुर, धनी और मज़ाकिया तो है ही, मुझ पर मरता भी है। हस्बैंड मैटीरियल है। बेशक मुझे पसन्द है।

एलन
बहुत प्रसन्न हूँ। आजकल मज़े लेकर खाना खाता हूँ। बढ़िया गहरी नीन्द सोता हूँ। सारा दिन किसी नौजवान सी ताज़गी रहती है। मेगन रूपसी न सही सहृदय तो है। पिछ्ले कुछ दिनों से अपनी तरफ से फोन भी करने लगी है। और आज शाम तो मेरे साथ डिनर पर आ रही है।

मेगन
पिछले कुछ दिनों में ही मेरे जीवन में कितना बड़ा बदलाव आ गया है? हम दोनों कितना निकट आ गये हैं। और आज हम डिनर भी साथ ही करेंगे। अगर आज वह मुझे सगाई की अंगूठी भेंट करता है तो मैं एक समझदार लड़की की तरह बिना नानुकर किये स्वीकार कर लूंगी।

एलन
आज की शाम को तो बस एक डिसास्टर कहना ही ठीक रहेगा। शहर का सबसे महंगा होटल। मेगन ने तो ऐसी जगह शायद पहली बार देखी थी। कितनी खुश थी वहाँ आकर। पता नहीं कैसे इतनी सुन्दर शाम खराब हो गयी?

मेगन
वैसे तो वह इतना पढा लिखा और सभ्य है। उसको इतना भी नहीं पता कि एक लडकी को सामने बिठाकर खाने पर इंतज़ार करते हुए बार-बार फोन पर लग जाना या उठकर बाथरूम की ओर चल पडना असभ्यता है।

एलन
पता नहीं कौन बदतमीज़ था जो बार-बार फोन करता रहा। न कुछ बोलता था और न ही कोई सन्देश छोडा। वैसे मैं उठाता भी नहीं लेकिन माँ जिस नर्सिंग होम में गयी है वहाँ से फोन कालर आइडी के बिना ही आता है। और फिर बडी इमारतों में कभी-कभी सिग्नल भी कम हो जाता है। यही सब सोचकर... खैर छोडो भी। लेकिन मेगन तो ऐसी नकचढी नहीं लगती थी। मगर जिस तरह बिना बताये खाना छोडकर चली गयी... और अब फोन भी नहीं उठा रही है। इस सब का क्या अर्थ है?

मेगन
मैं तो इतनी सरल हूं कि अपने आप शायद इस बात को भी नहीं समझ पाती। भगवान भला करे उन बुज़ुर्ग महिला का जो दूर एक टेबल पर बैठकर यह तमाशा देख रही थीं और एक बार जब वह फोन लेकर दूर गया तब अपने आप ही मेरी सहायता के लिये आगे आयीं और चुपचाप एक सन्देश दे गयीं।

जेन
मुझे घर से निकालकर जवान छोकरियों के साथ ऐश कर रहा है। मेरी ज़िन्दगी में आग लगाकर वह चूहा कभी खुश नहीं रह सकता है। मैं जब भी मुँह खोलूंगी, उसके लिये बद्दुआ ही निकलेगी। अगर वह मजनू मेरा फोन पहचान लेता तो एक बार भी उठाता क्या? मैने भी उस छिपकली से कह दिया, "आय ओवरहर्ड हिम। एक साथ कई लैलाओं से गेम खेलता यह लंगूर तुम्हारे लायक नहीं है।"

(अनुराग शर्मा)

Saturday, June 19, 2010

जन्म दिवस की शुभ कामनाएँ





19 जून - इन सब का अपना विशेष दिन - शुभ कामनाएँ

पितृ दिवस की शुभकामना
एँ

(इस पोस्ट के सभी चित्र - इंटरनेट से उठाईगीरीकृत)

Wednesday, June 16, 2010

बांधों को तोड़ दो - एक कहानी

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"ये लोग होते कौन हैं आपको रोकने वाले? ऐसे कैसे बन्द कर देंगे? उन्होने कहा और आप सब ने मान लिया? चोर, डाकू, जेबकतरे सब तो खुलेआम घूमते रह्ते हैं इन्हीं सडकों पर... सारी दुश्मनी सिर्फ रिक्शा से निकाल रहे हैं? इसी रिक्शे की बदौलत शहर भर में हज़ारों गरीबों के घर चल रहे हैं। और उनका क्या जो अपने स्कूल, दुकान, और दफ्तर तक रिक्शा से जाते हैं? क्या वे सब लोग अब कार खरीद लेंगे?"

छोटा बेटा रामसिंह बहुत गुस्से में था। गुस्से मे तो हरिया खुद भी था परंतु वह अब इतना समझदार था कि अपने आंसू पीना जानता था। लेकिन बेचारे बच्चों को दुनिया की समझ ही कहाँ होती है? वे तो सोचते हैं कि संसारमें सब कुछ न्याय के अनुसार हो। और फिर रामसिंह तो शुरू से ही ऐसा है। कहीं भी कुछ भी गलत हो रहा हो, उसे सहन नहीं होता है, बहुत गुस्सा आता है।

इस दुख की घड़ी में जब हरिया बडी मुश्किल से अपनी हताशा को छिपा रहा है, उसे अपने बेटे पर गर्व भी हो रहा है और प्यार भी आ रहा है। हरिया को लग रहा है कि बस दो चार साल रिक्शा चलाने की मोहलत और मिल गयी होती तो इतना पैसा बचा लेता कि रामसिंह को स्कूल भेजना शुरू कर देता। अब तो लगता है कि अपना सब सामान रिक्शे पर लादकर किसी छोटे शहर का रास्ता पकडना पडेगा।

“अगर सभी रिक्शेवाले एक हो जायें और यह गलत हुक्म मानने से मना कर दें तो सरकार चाहे कितनी भी ज़ालिम हो उन्हें रोक नहीं पायेगी” अभी चुप नहीं हुआ है रामसिंह।

उसे इस तरह गुस्से मे देखकर हरिया को तीस साल पुरानी बात याद आती है। हरिया यहाँ नहीं है, इतना बडा भी नहीं हुआ है। वह बिल्कुल अपने छोटे से राम के बराबर है, बल्कि और भी छोटा। गांव की पुरानी झोंपडी मे खपडैल के बाहर अधनंगा खडा है। पिताजी मुँह लटकाये चले आ रहे हैं। वह हमेशा की तरह खुश होकर उनकी गोद में चढने के लिये दौडता हुआ आगे बढता है। उसे गोद में लेने के बजाय पिताजी खुद ही ज़मीन पर उकडूँ बैठ जाते हैं। पिताजी की आंख में आंसू है। माँ तो खाना बनाते समय रोज़ ही रोती है मगर पिताजी तो कभी नहीं रोते। तो आज क्यूं रो रहे हैं। वह अपने नन्हें हाथों से उनके आंसू पोछ्कर पूछ्ता है, “क्या हुआ बाबा? रोते क्यों हो?”

“हमें अपना घर, यह गांव छोडकर जाना पडेगा बेटा हरिराम” पिताजी ने बताया ।

पूछ्ने पर पता लगा था कि उनके गांव और आसपास के सारे गांव डुबोकर बांध बनाया जाने वाला था।
नन्हा हरिया नहीं जानता था कि बांध क्या होता है। लेकिन उस वय में भी उसे यह बात समझ आ गयी थी कि यह उसके घर-द्वार, कोठार, नीम, शमी, खेत और गाँव को डुबोने की योजना है। कोई उसके घर को डुबोने वाला है, यह ख़याल ही उसे गुस्सा दिलाने के लिए काफी था। फिर भी उसने पिताजी से कई सवाल पूछे।

"ये लोग कौन हैं जो हमारा गाँव डुबो देंगे?"

"ये सरकार है बेटा, उनके ऊपर सारे देश की ज़िम्मेदारी है।"

"ज़िम्मेदार लोग हमें बेघर क्यों करेंगे? वे हत्यारे कैसे हो सकते हैं?" हरिया ने पूछा।

"वे हत्यारे नहीं हैं, वे सरकार हैं। बाँध से पानी मिलेगा, सिंचाई होगी, बिजली बनेगी, खुशहाली आयेगी।"

"सरकार कहाँ रहती है?"

"बड़े-बड़े शहरों में - कानपुर, कलकत्ता, दिल्ली।"

"बिजली कहाँ जलेगी?

"उन्हीं बड़े-बड़े शहरों में - कानपुर, कलकत्ता, दिल्ली।"

"तो फिर बांध के लिए कानपुर कलकत्ता दिल्ली को क्यों नहीं डुबाते हैं ये लोग? हमें ही क्यों जाना पडेगा घर छोड़कर?"

"ये त्याग है बेटा। अम्मा ने दधीचि और पन्ना धाय की कहानियाँ सुनाई थी, याद है?"

"सरकार त्याग क्यों नहीं करती है? तब भी हमने ही किया था। अब भी हम ही करें?"

पिताजी अवाक अपने हरिराम को देख रहे थे। ठीक वैसे ही जैसे आज वह अपने रामसिंह को देख रहा है। हरिया ने अपनी बाँह से आँख पोंछ ली. रामसिंह अभी भी गुस्से में बोलता जा रहा था। रधिया एक कोने में बैठकर खाने के डब्बों को पुरानी चादर में बांध रही थी। ठीक वैसी ही दुबली और कमज़ोर जैसे अम्मा दिखती थी तीस साल पहले।

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सम्बन्धित आलेख
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(बांधों को तोड़ दो - ऑडियो)

जल सत्याग्रह - मध्य प्रदेश का घोगल ग्राम
संता क्लाज़ की हकीकत
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बांधों को तोड़ दो (उपन्यास अंश)

Sunday, June 13, 2010

देव लक्षण - देवासुर संग्राम ७


उत देव अवहितम देव उन्नयथा पुनः
उतागश्चक्रुषम देव देव जीवयथा पुनः

हे देवों, गिरे हुओं को फिर उठाओ!
(ऋग्वेद १०|१३७|१)

देव (और दिव्य) शब्द का मूल "द" में दया, दान, और (इन्द्रिय) दमन छिपे हैं। कुछ लोग देव के मूल मे दिव या द्यु (द्युति और विद्युत वाला) मानते है जिसका अर्थ है तेज, प्रकाश, चमक। ग्रीक भाषा का थेओस, उर्दू का देओ, अंग्रेज़ी के डिवाइन (और शायद डेविल भी) इसी से निकले हुए प्रतीत होते हैं। भारतीय संस्कृति में देव एक अलग नैतिक और प्रशासनिक समूह होते हुए भी एक समूह से ज़्यादा प्रवृत्तियों का प्रतीक है। तभी तो "मातृदेवो भवः, पितृदेवो भवः, आचार्यदेवो भवः सम्भव हुआ है। यह तीनों देव हमारे जीवनदाता और पथ-प्रदर्शक होते हैं। यही नहीं, मानवों के बीच में एक पूरे वर्ण को ही देवतुल्य मान लिया जाना इस बात को दृढ करता है कि देव शब्द वृत्तिमूलक है, जातिमूलक नहीं।

देव का एक और अर्थ है देनेवाला। असुर, दानव, मानव आदि सभी अपनी कामना पूर्ति के लिये देवों से ही वर मांगते रहे हैं। ब्राह्मण यदि ज्ञानदाता न होता तो कभी देव नहीं कहलाता। सर्वेषामेव दानानाम् ब्रह्मदानम् विशिष्यते! ग्रंथों की कहानियाँ ऐसे गरीब ब्राहमणों के उल्लेख से भरी पडी हैं जिनमें पराक्रम से अपने लिये धन सम्पदा कमाने की भरपूर बुद्धि और शक्ति थी परंतु उन्होने कुछ और ही मार्ग चुना।

द्यु के एक अन्य अर्थ के अनुसार देव उल्लसितमन और उत्सवप्रिय हैं। स्वर्गलोक में सदा कला, संगीत, उत्सव चलता रह्ता है। वहां शोक और उदासी के लिये कोई स्थान नहीं है। देव पराक्रमी वीर हैं। जैसे असुर जीना और चलना जानते हैं वैसे ही जिलाना और चलाना देव प्रकृति है।

असुर शब्द का अर्थ बुरा नही है यह हम पिछ्ली कड़ियों में देख चुके हैं। परंतु पारसी ग्रंथो में देव के प्रयोग के बारे में क्या? पारसी ग्रंथ इल्म-ए-क्ष्नूम (आशिष का विज्ञान) डेविल और देओ वाले विपरीत अर्थों को एक अलग प्रकाश में देखता है। इसके अनुसार अवेस्ता के बुरे देव द्यु से भिन्न "दब" मूल से बने हैं जिसका अर्थ है छल। अर्थात देव और देओ (giant) अलग-अलग शब्द है।

आइये अब ज़रा देखें कि निरीश्वरवादी धाराओं के देव कैसे दिखते हैं:
अमरा निर्जरा देवास्त्रिदशा विबुधाः सुरा:
सुपर्वाणः सुमनसस्त्रिदिवेशा दिवौकसः।
आदितेया दिविषदो लेखा अदितिनन्दनाः
आदित्या ऋभवोस्वप्ना अमर्त्या अमृतान्धसः।
बहिर्मुखाः ऋतुभुजो गीर्वाणा दानवारयः
वृन्दारका दैवतानिम पुंसि वा देवतास्त्रियाम।

[अमरकोश स्वर्गाधिकान्ड - 7-79]

संसार के पहले थिज़ॉरस ग्रंथ अमरकोश के अनुसार देव स्वस्थ, तेजस्वी, निर्भीक, ज्ञानी, वीर और चिर-युवा हैं। वे मृतभोजी न होकर अमृत्व की ओर अग्रसर हैं। वे सुन्दर लेखक है और तेजस्वी वाणी से मिथ्या सिद्धांतों का खन्डन करने वाले हैं। इसके साथ ही वे आमोदप्रिय, सृजनशील और क्रियाशील हैं।

कुल मिलाकर, देव वे हैं जो निस्वार्थ भाव से सर्वस्व देने के लिये तैय्यार हैं परंतु ऐसा वे अपने स्वभाव से प्रसन्न्मन होकर करते हैं न कि बाद में शिकवा करने, कीमत वसूलने या शोषण का रोना रोने के लिये। वे सृजन और निर्माणकारी हैं। जीवन का आदर करने वाले और शाकाहारी (अमृतान्धसः) हैं तथा तेजस्वी वाणी के साथ-साथ उपयोगी लेखनकार्य में समर्थ हैं। इस सबके साथ वे स्वस्थ, चिरयुवा और निर्भीक भी हैं। वे आदितेया: हैं अर्थात बन्धनोँ से मुक्त हैँ। अगली कड़ी में हम देखेंगे असुरों के समानार्थी समझे जाने वाले भूत, पिशाच और राक्षस का अर्थ।

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Saturday, June 12, 2010

एक अंतर-राष्ट्रीय वाहन

भारत में भले ही कुछ नगरों के प्रशासन को रिक्शे और रिक्शा चालक अपनी शान में गुस्ताखी लग रहे हों परन्तु अमेरिका के कुछ शहरों में रिक्शा पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है. यहाँ प्रस्तुत हैं दो बड़े नगरों न्यू योर्क व वाशिंगटन डीसी से रिक्शा के चित्र:


श्री रत्न सिंह शेखावत जी ने बैट्री चलित रिक्शा के बारे में सुन्दर आलेख लिखा है, ज़रूर देखिये.


सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा
[Rickshaw in USA: Photos of by Anurag Sharma]