Sunday, September 18, 2011

नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 4

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आपके सहयोग से एक छोटा सा प्रयास कर रहा हूँ, नायकत्व को पहचानने का। तीन कड़ियाँ हो चुकी हैं, पर बात अभी रहती है। भाग 1; भाग 2; भाग 3; अब आगे:

वीरांगना दुर्गा भाभी
नायकों को सुपर ह्यूमन दर्शाना मेरा उद्देश्य नहीं है। वे भी हमारे-आपके बीच से ही आते हैं लेकिन कुछ अंतर के साथ। जैसा कि हमने पहले देखा कि वे अपनी नहीं दूसरों की सोचते हैं। कार्य कितना भी कठिन हो वे अपनी सोच को कार्यरूप करने का साहस रखते हैं और बाधा कैसी भी आयें, सफल कार्य-निष्पादन की क्षमता और कुशलता रखते हैं। और यह सब काम वे सबको साथ लेकर करते हैं। नायक स्पूनफ़ीड नहीं करते बल्कि समाज को सक्षम बनाते हैं। वे विघ्नसंतोषी नहीं बल्कि सृजनकारी होते हैं। वे न्यायप्रिय होते हैं और सत्यनिष्ठा को अन्य निष्ठाओं के ऊपर रखते हैं। इन सबके साथ उनका चरित्र पारदर्शी होता है क्योंकि वे मन-वचन-कर्म से ईमानदार होते हैं। जो होते हैं, वही दिखते हैं, वही कहते हैं, वही करते हैं। उनका उद्देश्य सत्तारोहण नहीं बल्कि जनसेवा होता है। वे समाज पर अपनी विचारधारा और तानाशाही थोपते नहीं। खलनायकों को उनके चमचे भले ही विश्व का सबसे बड़ा विचारक बताते हों, नायकों का सम्मान जनता स्वयं करती है क्योंकि वे जनसामान्य के सपनों को साकार करने की राह बनाते हैं।
सूरा सोहि सराहिये जो लड़े दीन के हेत, पुरजा-पुरजा कट मरे तऊँ न छाँड़े खेत ~संत कबीर

रानी लक्ष्मीबाई (ब्रिटिश लाइब्रेरी)
झांसी की रानी अबला नहीं थीं। आज़ाद हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठे। भारत के अधिसंख्य क्रांतिकारियों ने जीवन के तीन दशक भी नहीं छुए। हम सब जीवन भर सीखते हैं, फिर भी सर्वस्व न्योछावर करना नहीं सीख पाते। कुछ लोग तो मानो बात-बात पर आहत होने, शिकायत करने की कसम ही खाकर बैठे होते हैं। नायक घुलने वाली मिट्टी के नहीं बनते। वे अपने साथ दूसरों के जीवन को भी आकार देते हैं।  उम्र के साथ हम सभी के अनुभव बढते हैं, परंतु नायक ज्ञानपिपासु होते हैं। ज्ञान महत्वपूर्ण है इसलिये बहुत कुछ जानते हुए भी नायक जीवन भर सीखते हैं। वे हमसे बेहतर सीखते हैं क्योंकि वे परस्पर विरोधी विचारधाराओं में से भी जनोपयोगी बिन्दु चुन पाते हैं। उनके साहस और उदारता जैसे गुण उनसे असम्भव कार्य निष्पादित करा पाते हैं। साहस को पूर्ण करने के लिये नायकों के पास धैर्य भी बहुतायत में होता है और उन्हें इन गुणों का संतुलन भी आता है। नायकों की आँकलन क्षमता उनकी एक विशेषता है। वे अपनी क्षमता का सही आँकलन कर पाते हैं और साथ ही अपने सामने रखी चुनौतियों का भी। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहाँ नायक के कर्म का फल उसके जीवनकाल में समाज को नहीं मिल पाता है। इससे उनका आँकलन ग़लत सिद्ध नहीं होता। वे जानते हैं कि कार्यसिद्धि में समय लगेगा परंतु यदि वे आरम्भिक आहुति न दें तो शायद वह कार्य असम्भव ही रह जाये। कुल मिलाकर नायक असम्भव को सम्भव बनाने की प्रक्रिया जानते हैं।
अष्टादशपुराणानां सारं व्यासेन कीर्तितम् परोपकार: पुण्याय पापाय परपीड़नम्।।
(परोपकार पुण्य है और परपीड़ा पाप है)

कठिन समय = नायक की पहचान
कठिन समय नायक उत्पन्न तो नहीं करता परंतु कठिन समय में एक नायक की परीक्षा आसानी से हो जाती है। भारत का स्वाधीनता संग्राम हो, विभाजन या देश पर कम्युनिस्ट चीन का अक्रमण, जीवन में कठिन समय आते ही हैं। सभ्य समाज को खलनायक अपना ऐसा निकृष्टतम रूप दिखाते हैं कि आम आदमी बेबसी महसूस करता है। ऐसे समय पर नायकों की पहचान आसानी से हो जाती है। जिनकी तैयारी है, जो सक्षम भी हैं और इच्छुक भी, वे ऐसे समय पर स्वतः ही आगे आ जाते हैं। इसके अतिरिक्त, कई बार ऐसे अवसर भी आते हैं जब नायक अपना समय चुनते हैं। वे धैर्य और संयम के साथ सही समय की प्रतीक्षा करते हैं। वे जोश से नहीं होश से संचालित होते हैं। नायक प्रकाश-दाता भी हैं और पथ-निर्माता भी। नायकों के विभिन्न स्तर हो सकते हैं और नायकों के अपने नायक भी होते हैं। हम चाहें तो उनकी इस व्यक्तिगत रुचि में उनसे असहमत भी हो सकते हैं। रामायण से उदाहरण लें तो हनुमान जी अपने आप में एक नायक भी हैं पर उनके नायक श्रीराम हैं। इसी प्रकार गांधी को नायक न मानने वाला कोई व्यक्ति विनोबा भावे या नेताजी सुभाष को अपना नायक मानता रह सकता है, भले ही वे दोनों ही गांधीजी को जीवनपर्यंत अपना नायक मानते रहे।

विद्या विवादाय धनं मदाय शक्ति: परेषां परिपीडनाय खलस्य साधोर्विपरीतमेतज्ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय।।
(साधु का ज्ञान, धन व शक्ति जनसामान्य के विकास, समृद्धि व रक्षा के लिये होती है)

जगप्रसिद्ध जननायक महात्मा गांधी
जहाँ खलनायकों के बहुत से गुण आनुवंशिक हो सकते हैं वहीं नायकों के गुणों के पीछे अभी तक ऐसी कोई जानकारी नहीं है। तो भी स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मन हमें अपनी छोटी-मोटी चिंताओं से ऊपर उठने का अवसर देता है। जो व्यक्ति हर बात को अपने ऊपर आक्षेप समझेगा, जिसकी दुनिया "मैं" से आगे नहीं हो वह एक साधारण मानव भी बन पाये तो ग़नीमत है। नायक जन-गण के हित के बारे में सोचते हैं । पिछली कडी में हमने देखा कि जब नेताजी अपनी बेटी को छोडकर गये तब वह मात्र चार सप्ताह की थी। अनिता ने अपने पिता को नहीं देखा लेकिन उन्होंने अपने को भाग्यशाली बताते हुए अन्य भारतीयों की पीडा को बड़ा बताया। भगत सिंह के परिवार में उनसे पहले कई क्रांतिकारी हो चुके थे। चन्द्रशेखर आज़ाद का परिवार भूखे रहकर भी अपनी ईमानदारी से कोई समझौता करने को तैयार नहीं हुआ। गांधी जी अपनी जमी-जमाई प्रैक्टिस छोडकर आये परंतु आज़ादी के बाद अपनी संतति के लिये भी कोई पद लेने की आवश्यकता नहीं समझी। इन सब उदाहरणों से नायक के विकास में उसके परिवेश की भूमिका दिखाई देती है।
नाक्षरं मंत्ररहितं नमूलंनौषधिम् अयोग्य पुरूषं नास्ति योजकस्तत्रदुर्लभ:।।
(नायक हर व्यक्ति में छिपी सम्भावना देख सकते हैं)

चिड़ियन ते मैं बाज तुड़ाऊँ
दूसरों का नायकत्व स्वीकार पाना भी सबके बस की बात नहीं है। नायकों में कमी ढूंढना बडा आसान है। वे भी इंसान हैं। वक्र दृष्टि फेंकिये कोई न कोई कमी नज़र आ जायेगी। नायकों को हममें कमी नहीं दिखती, तभी तो वे हमें अंगीकार कर पाते हैं। जहाँ खलनायक अक्सर भेदवादी होते हैं और समाज को बाँटने के लिये नये-नये "वाद" उत्पन्न करते हैं वहीं नायक समन्वय में विश्वास करते हैं। उनके लिये समाज के एक अंग के विकास का अर्थ दूसरे अंग का ह्रास नहीं होता। नायक की क्रांति में नरसंहार नहीं होता है बल्कि उसका उद्देश्य नरसंहार जैसे दानवी कृत्यों को यथासम्भव रोकना होता है। परशुराम ने निरंकुश और निर्दय शासकों की हिंसा को रोका और चन्द्रशेखर आज़ाद और रामप्रसाद बिस्मिल ने ब्रिटिश राज की हिंसा को रोका। गांधी का मार्ग भले ही भगतसिंह से भिन्न रहा हो परंतु अहिंसा के प्रति उनके विचार एकसमान थे। एक आस्तिक के शब्दों में कहूँ तो खलनायक समाज को विभक्त करते हैं जबकि नायक भक्त होते हैं। वे अपने को समाज का अभिन्न अंग मानकर समाज में रहते हुए, उसकी अच्छाइयों का विस्तार करते हुए उसके उत्थान की बात करते हैं। खलनायक असंतोष और विद्वेष भड़काते हैं जबकि नायक दूसरे पक्ष को समझने की दृष्टि प्रदान करते हैं। खलनायक संकीर्ण होते हैं जबकि नायक "सर्वे भवंतु सुखिनः ..." के मार्ग पर चलते हैं।
वीर सावरकर - प्रथम दिवस आवरण

ऐसा लगता है कि नायकों में परोपकार की प्रवृत्ति होती है। लेकिन यह प्रवृत्ति एक सामान्य मानवीय प्रवृत्ति है। अनुकूल वातावरण उत्पन्न करके हम इसे बढावा दे सकते हैं। इसी प्रकार विभिन्न कौशल सीखकर और बच्चों को सिखाकर हम अपनी और उनकी क्षमतायें और आत्मविश्वास बढा सकते हैं।  मुझे लगता है कि नायकत्व के निम्न गुण सीखे जा सकते हैं और उनकी उन्नति और प्रसार के लिये हमें वातावरण बनाना ही चाहिये: स्वास्थ्य, साहस, करुणा, परोपकार, दान, उदारता, समन्वय, सामाजिक ज़िम्मेदारी, विभिन्न कौशल।

इस विषय पर विमर्श के लिये इतना कुछ है कि कभी पूरा न हो परंतु अपनी सीमाओं को ध्यान में रखते हुए मैं अगली दो कड़ियों में इस शृंखला के समापन का वायदा करके यहाँ से विदा लेता हूँ। चलते-चलते बस एक प्रश्न: क्या आपने अपने आस-पास बिखरे नायकत्व को पहचाना है?

[क्रमशः]
[सभी चित्र/स्कैन अनुराग शर्मा द्वारा :: Snapshots by Anurag Sharma]

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* प्रेरणादायक जीवन-चरित्र
* नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 1
* नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 2
* नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 3
* डॉक्टर रैंडी पौष (Randy Pausch)
* महानता के मानक

Friday, September 16, 2011

अब कुपोस्ट से आगे क्या होगा?

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क्या कहा? आपको नई पोस्ट लिखने का आइडिया नहीं मिल रहा? हमें भी नहीं मिल रहा। आइये ब्लॉग भ्रमण पदयात्रा पर निकलते हैं एक से एक नायाब आइडिया लेने। यह पोस्ट "अपोस्ट से आगे - कुपोस्ट तक" का विस्तार ही है। किसी भी ब्लॉग, ब्लॉगर, बेनामी, अनामी, पोस्ट, प्रविष्टि, टिप्पणी, व्यवहार, लक्षण, बीमारी, कविता, कहानी, व्यंग्य आदि से समानता संयोग  मात्र है। आलोचनाओं और आपत्तियों का स्वागत है। हाँ, सोते समय मैं टिप्पणियाँ मॉडरेट नहीं कर सकूंगा। मेरे जागने तक कृपया धैर्य रखें। जो पाठक "सैंस ओफ़ ह्यूमर" को साँप की जाति का प्राणी समझते हों, वे "अपोस्ट से कुपोस्ट तक" के इस सफ़र को न पढें तो उनकी अगली "प्रतिक्रियात्मक" पोस्ट के पाठकों का बहुमूल्य समय नष्ट होने से बच जायेगा।  
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[रश्मि जी, शिल्पा जी के सुझाव और सद्भावना का आदर करते हुए इस पोस्ट पर टिप्पणी का प्रावधान बन्द कर दिया गया है। आपकी असुविधा के लिये खेद है।]

- आज फिर पत्नी ने हमें बेलन से पीटा। हमने भी कह दिया कि अगर एक बार भी और मारा तो हम ... ... ... ... प्यार से फिर पिट लेंगे पर ब्लॉगिंग नहीं छोड़ेंगे।

- हम पागल नहीं हैं। आप लोग हमें पागल न समझें। हमारी नौकरी हमारे पागलपन के कारण नहीं छूटी है।  काम-धाम तो हम अपनी मर्ज़ी से नहीं करते हैं ताकि कीबोर्ड-सेवा कर सकें। वर्ना हम तो पीएचडी हैं, डॉ फ़ुर्सत लाल, ... "आवारा" तो हमारा तखल्लुस है यूँ ही धोखा देने के लिये। कहावत भी है, भूत के लात, लगाने के और, चलाने के और।

- आज हमारी पत्नी ने पूछा, "आज भी खाना खायेंगे क्या?" हमने जवाब नहीं दिया और उनके विरोध में यह पोस्ट लिख दी। आखिर हम अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी तो नहीं छोड़ सकते न!

- आज एक पत्नी ने पति से पूछा, "सुनते हो! आज साड़ी धुला लूँ क्या? मैली हो गयी है।"

- आज एक पति ने पत्नी से पूछा, "सुनती हो! आज दाढी बना लूँ क्या? नाई की दुकान बन्द है।"

- आज एक फलवाले ने ग्राहक से पूछा, "दीदी जी? आखिरी बचा है, मुफ़्त में दे दूंगा। क्या कहती हैं जी?"

- आज एक बिना नहाये गन्धाते टिप्पणीकार ने एक ओवर-पर्फ़्यूम्ड ब्लॉगर से कहा, "कब तक अपना रोना रोते रहोगे? आखिरी टिप्पणी दे तो दी, फिर भी कहते हो, सुधरने का मौका नहीं मिला।"

- एक बोगस साइट ने हमारे ब्लॉग का मूल्य एक मिलियन डॉलर आंका है। अफ़सोस कि अमेरिकी संस्था के प्लैटफॉर्म/सर्वर पर बने इस ब्लॉगर का पैसा भी अमेरिका ही जाता है। क्या हमारे स्विस खाते में नहीं जा सकता?

- यह हमारी सांख्यिकीय पोस्ट है। हमने दो साल में अपने ब्लॉग पर 20 लोगों को 2000 गालियाँ दीं और 200 को बैन किया।

- हिन्दी ब्लॉगिंग में काफ़ी गुटबन्दी है। कुछ सीनियर डॉक्टर ब्लॉगर ऐसा कहते हैं कि हमारा क्लिनिकल डिप्रैशन और बाइपोलर डिसऑर्डर इलाज के बिना ठीक नहीं हो सकता है। हमने भी दृढ प्रतिज्ञा कर ली है कि हम अपनी बीमारियाँ ब्लॉगिंग से ही ठीक करके दिखायेंगे। एक पाठक ने अपना स्कीज़ोफ़्रीनिया भी ऐसे ही ठीक किया था। और फिर हम तो आत्माकल्प वाली मृत-संजीवनी बूटी भी पीते हैं।

- पिछले 250 आलेखों की तरह इस आलेख को भी हमारा अंतिम आलेख समझा जाये। पिछले सौ हफ़्तों की तरह इस हफ़्ते फ़िर हम टंकी पर उछलेंगे। आप मनायेंगे तो हम उतर आयेंगे। किसी ने नहीं मनाया तो हम अपनी बेनामी पहचानों का प्रयोग कर लेंगे।

 - ज़िन्दगी और मौत से लड़ते एक ब्लॉगर से जब हमने हमारे ब्लॉग पर टिप्पणी न करने के लिये कई बार शिकायत की तो उन्होंने यह बात एक पोस्ट में लगा दी। हमेशा की तरह हम यहाँ भी बुरा मान गये। हमने उन्हें कह दिया कि हमारे लिये आप जीते जी मर चुके। वैसे बुज़ुर्गों के लिये हमारे दिल में बड़ा सम्मान है। अगर कभी हम अपनी गुस्से की बीमारी के कारण उनका अपमान करते भी हैं तो दवा खाने पर सामान्य होते ही उनके सम्मान में एक पोस्ट लिखकर माफ़ी भी मांग लेते हैं। दवा का असर निकलते ही फिर से उन्हें बुरी-भली कह देते हैं।

 - हम एक लिस्ट बना रहे हैं जिसमें उन लोगों का नाम लिखेंगे जो कहते हैं कि हम जल्दी और बेबात भड़क जाते हैं। जो हमें गुस्सैल कहते हैं उन सब के खिलाफ़ हम पाँच-पाँच पोस्ट लिखेंगे। इससे हमारी पोस्ट संख्या भी बढ़ जायेगी।

 - किस-किस को बैन करें हम?! हर ब्लॉगर हमसे जलता है? जिसने हमें ब्लॉगिंग सिखाई वह भी, जो हमें अपनी शिक्षा का सदुपयोग करने को कहता है वह भी, और जिसका ईमेल खाता हमने खुलाया वह भी।

 - समाज सेवा के लिये हम अपने ऐक्स मित्र के सम्मान में "गप्पू पसीना खास हो गया" शीर्षक से एक नई पोस्ट लिखेंगे।

 - कुछेक ब्लॉगर मन्दिरों और ऐतिहासिक बिल्डिंगों के अरोचक लेख लिखते हैं। हमने उन्हें आगाह करके वहाँ जाना बन्द कर दिया है। आशा है कि वे अपना अन्दाज़ बदलेंगे।

 - पोस्ट ग्रेजुएट हकीम तो हम पहले से हैं, अब तो नीम चढ़ा करेला भी खाते हैं।

कुत्ता-पालकों की सहायतार्थ
 - एक ब्लॉगर ने "अपने कुत्ते कैसे चरायें" शीर्षक से एक पोस्ट लिखी है। हमें लगता है कि यह हमारे खिलाफ़ एक साज़िश है। इससे पहले हम "अपना ड्रैगन ट्रेन कैसे करें" फ़िल्म पर भी अपनी आपत्ति दर्ज़ करा चुके हैं।

- मेरे ब्लॉग पर हिन्दी की बात न करें, अच्छी हिन्दी पढनी है तो किसी हिन्दी पीएचडी के ब्लॉग पर तशरीफ़ ले जायें। आप भी यहाँ बैन किये जाते हैं। और आप भी ... और आप भी।

- और कोई ब्लॉगर होता तो आपकी टिप्पणी मॉडरेट करके तलने के लिये छोड़ देता लेकिन हम उसका उपयोग रॉंग-इंटरप्रिटेशन करके अपने अति-उत्साही पाठकों को आपके खिलाफ़ भड़काने के लिये करेंगे।

- आजकल हम भाषा की शालीनता पर आलेख लिख रहे हैं, इसी शृंखला में दूसरे गुटों के बदतमीज़, बेहया, बेशर्म, बेग़ैरत, नालायक, नामाकूल, नामुराद ब्लॉगर की शान में मेरा विनम्र आलेख पढिये।

 - " विरोधीपक्ष के प्राणियों को बार्कीकरण करने दीजिये। आप तो अपने आँख-कान बन्द करके हमारी भाषा की तारीफ़ कीजिये वरना ... एक और बैन।

 - क्या कहा? आप राइट थे? तो लैफ़्ट टर्न लेकर निकल लीजिये और अपनी ऊर्जा इस ब्लॉग पर बर्बाद मत कीजिये।

 - हमारे भेजे में बचपन से मियादी डाइबिटीज़ है। हमारे कड़वे लेख पर आयी टिप्पणियों में इतनी मिठास थी कि हमारे बर्दाश्त की क्षमता के बाहर थी। आज हमें इंसुलिन की अतिरिक्त डोज़ लेनी पड़ी। अगली पोस्ट पर हम कमेंट ऑप्शन बन्द करने पर विचार करेंगे।

 - बहुत कम ब्लॉगर हैं जो हमारी तरह सीरियस ब्लॉगिंग करते हैं। हम तो हर टिप्पणी पढकर सीरियस हो जाते हैं और एक जवाबी पोस्ट लिख कर कान के नीचे "झन्नाट" मारते हैं ताकि हिन्दी ब्लॉगिंग का स्तर इसी प्रकार ऊँचा उठता रहे।

 - सारा ब्लॉग जगत सैडिस्टिक हो गया है। जिन्हें हमने रोज़ अपशब्द कहे उनमें से कुछ की हिम्मत बढती जा रही है। सब लोग हमारी व्यथा और अपमान पर व्यंग्यात्मक प्रविष्टियाँ लिखते हैं। उनकी कक्षा शीघ्र ही ली जायेगी।

- हम ब्लॉगिंग का तूफ़ान हैं, कहीं आप भी खुद को आंधी तो नहीं समझ रहे?

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* कहें खेत की सुनैं खलिहान की
* हिन्दी ब्लॉगिंग में विश्वसनीयता का संकट
* अंतर्राष्ट्रीय निर्गुट अद्रोही सर्व-ब्लॉगर संस्था
* अपोस्ट से आगे - कुपोस्ट तक

Friday, September 9, 2011

11 सितम्बर के बहाने ...

न्यू यॉर्क अग्निशमन दस्ता

11 सितम्बर के आतंकवादी आक्रमण की दशाब्दी निकट है। इसी दिन 2001 में हम धारणा, धर्म और विचारधारा के नाम पर निर्दोष हत्याओं के एक दानवी कृत्य के गवाह बने थे। इसी दिन खलनायकों ने अपना रंग दिखाकर साढे तीन हज़ार निर्दोष नागरिकों की जान ली थी, वहीं दूसरी ओर नायकों की भी कमी नहीं थी। न्यूयॉर्क प्रशासन, विशेषकर पुलिस व अग्निशमन विभाग ने उस दिन जो अदम्य साहस दिखाया था वह आज भी प्रेरणा देता है। 11 सितम्बर 2001 को जिस प्रकार अमेरिका की जनता ने एकजुट होकर अपनी अदम्य इच्छा-शक्ति का प्रदर्शन किया था वह अनुकरणीय है। साढे तीन हज़ार निर्दोष लोगों की हत्या, लेकिन बदले की कोई कार्यवाही नहीं। न दंगे न हिंसा, न किसी समुदाय के विरुद्ध दुष्प्रचार। लोग चुपचाप सहायता कार्यों में जुट गये। लगभग सभी नगरों में रक्तदाता, चिकित्सक ऐवम स्वयंसेवक आदेश के इंतज़ार के लिये तैयार खडे थे। वह एक घटना संसार में बहुत से बदलाव लाई। आज न ओसामा न सद्दाम है, न तालेबान और न ही पाकिस्तान का सैनिक तानाशाह। भारत और अमेरिका के सम्बन्ध भी अब वैसे हैं जैसे कि विश्व के दो महानतम और स्वतंत्र लोकतन्त्रों के आरम्भ से ही होने चाहिए थे। मानवता पर 9-11 जैसे संकट आते रहे हैं परंतु हमने सदा ही सिर ऊंचा करके कठिन समयों का सामना किया है। 9-11-2001 के शहीदों को मेरा नमन।

खतरे रहेंगे और सामना करने वाले नायक भी
अग्निशमन दस्ते की बात पर याद आया कि अमेरिका में अधिकांश नगरों के अग्निशमन दस्ते कर्मचारियों से नहीं बल्कि समाजसेवकों से संचालित होते हैं। अपने जीवनयापन के लिये कोई नौकरा या व्यवसाय करने वाले स्वयंसेवी आवश्यकता के समय फ़ायरट्रक लेकर चल पड़ते हैं। वास्तव में यहाँ जनसेवा का कार्य काफी व्यवस्थित और संगठित है। लोकोपकार की आर्थिक व्यवस्था तो सुदृढ़ है ही, जनसेवा के अन्य भी अनेक रूप हैं। यथा मरीज़ों की शारीरिक अंगों की आवश्यकता और उसे प्रकार दाताओं की राष्ट्रीय सूचियाँ उपलब्ध रहती हैं। अंगदान को सहमत वयस्कों के ड्राइवर्स लाइसेंस पर यह बात अंकित होती है ताकि दुर्घटना की स्थिति में अंगों को इंतज़ार करते मरीजों तक यथासंभव शीघ्रता से पहुचाया जा सके और अंग प्रत्यारोपण का कार्य आवश्यकतानुसार सुचारु रूप से चलता रहे। यह व्यवस्था दो-चार दिन में तो नहीं बनी होगी। पीढियाँ लगी हैं। आज कुछ कुंठित लोग भले ही अमेरिका को विश्व का दादा कहकर हल्ला मचा लें लेकिन कोई भी यह नकार नहीं सकता कि इस राष्ट्र के पीछे शताब्दियों का चरित्र निर्माण छिपा है। चरित्र निर्माण की यह प्रक्रिया बचपन से ही अमेरिकी जीवन का अंग बन जाता है। जहाँ जीवन में नैतिकता का स्तर ही ऊँचा हो वहाँ सम्भावनायें प्रबल होंगी ही।

लॉक्स ऑफ़ लव - बच्चों द्वारा केशदान
अमेरिका से तुलना करता हूँ तो भारत में बच्चों में समाजकार्य की चेतना की कमी दिखती है। अमेरिका में छोटे-छोटे बच्चे भी अपनी शैक्षिक या धार्मिक संस्थाओं के सहारे सेवाकार्य से जुडे रहते हैं जिनमें अनाथालयों में समय देने से लेकर वृद्धगृहों में एकाकी लोगों से जाकर मिलना और सांस्कृतिक कार्यक्रम करने जैसे कार्य शामिल हैं। वृक्षारोपण, रक्तदान, पक्षियों को दाना देना जैसी बातें तो यहाँ सामान्य जीवन का भाग ही लगती हैं। छोटे बच्चे कुछ और नहीं तो अपने सिर के बाल ही लम्बे करके फिर दान दे देते हैं ताकि उनसे कैंसर पीड़ितों के विग बन सकें। पुरानी पुस्तकों से लेकर नये खिलौनों तक, दान की प्रवृत्ति बचपन से ही प्रोत्साहित की जाती है।

वह दिन याद रहे
यहाँ शारीरिक श्रम का भी बहुत महत्व है। लोग अपने घर के अधिकांश कार्य स्वयं ही करते हैं। मज़दूरों को अच्छी दिहाड़ी भी मिलती है और श्रम को सम्मान भी। हमारे देश में भी त्याग, साहस, करुणा, प्रेरणा और प्रेम की कोई कमी नहीं है। बल्कि भारत की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि के कारण यह बहुत आसान है। लेकिन हमें ऐसी व्यवस्था का निर्माण तो करना होगा जहाँ बच्चे आरम्भ से ही समाज के प्रति सकारात्मक दायित्वों से जुड़ सकें।

दूसरी बात जो देखने को मिलती वह है नेतृत्व की दृढ इच्छाशक्ति. हमारा जहाज़ कंधार में खड़ा था। तालेबान के पास कोई वायुसेना नहीं थी। पाकिस्तान के अलावा उसे किसी राष्ट्र की मान्यता भी प्राप्त नहीं थी परन्तु हमने कमांडो कार्यवाही करने के बजाय उन खूंख्वार आतंकवादियों को छोड़ा जिन्होंने बाद में और अधिक नृशंस कार्यवाहियाँ कीं। इसके विपरीत अमेरिका को 9-11 के बाद निर्णय लेने में एक मिनट भी नहीं लगा। हमें भी अपने नेताओं में नेतृत्व क्षमता और दृढनिश्चय की मांग करनी चाहिए।

[चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photos by Anurag Sharma]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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911 स्मारक 

नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 3

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पिछली दो कड़ियों में हमने देखा कि नायक निर्भय और उदार होते हैं, साहस रखते हैं और त्याग के लिये तत्पर रहते हैं। दोनों प्रविष्टियों पर आयी टिप्पणियों से विचारों की अन्य बहुत सी खिडकियाँ खुलीं। हमने देखा कि नायक होने का दिखावा देर तक नहीं चलता। जीवन में नायक बनने का अवसर आने पर खरा टिकता है और खोटा साफ़ हो जाता है। नायक गढ़े नहीं जा सकते, वे अपने कर्म के बल पर टिकते हैं। मढ़े या गढ़े हुए नायक का पहले अगर गलती से सम्मान हो भी गया हो तो बाद में और अधिक छीछालेदर होती है। विमर्श में नायकों द्वारा दूसरों के सम्मान, शरणागत-वत्सलता और क्षमा का ज़िक्र भी आया और यह भी स्पष्ट हुआ कि नायक अहं को पीछे छोडकर बहुजन हिताय बहुजन सुखाय कर्म करते हैं। अभिषेक ओझा ने दूरदर्शिता की बात की। गौरव अग्रवाल और सलिल वर्मा ने क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल, उद्यम, साहस, धैर्यं, बुद्धि, शक्ति, और पराक्रम की बात की। संजय अनेजा ने वीरता और बर्बरता का अंतर स्पष्ट किया। स्वामिभक्ति पर जहाँ दोनों प्रकार के विचार मिले वहीं शिल्पा जी ने कहा कि "वीरता, साहस, निर्भयता त्याग" किसी नायक में अपेक्षित होते हुए भी अनिवार्य नहीं हैं। मैने इस बात पर काफ़ी विचार किया लेकिन अब तक ऐसा कोई नायक सोच नहीं पाया जिसमें इन गुणों का अभाव रहा हो। क्या आप ऐसे कुछ लोकनायकों का नाम याद दिला सकते हैं?
भाग 1भाग 2अब आगे:
नायक, नायक बन ही नहीं पाए यदि उसमें क्षमाभाव नहीं हो। नायक समूह का नेतृत्व करता है, समूह में सभी प्रकार के दृष्टिकोण होते है। विरोधी संशय, प्रतिघात और परिक्षण भी। क्षमायुक्त समाधान ही उसे नायक पद प्रदान करने में समर्थ है। महानता की आभा का स्रोत क्षमा ही है। ~ हंसराज सुज्ञ
अनिता बोस (आभार: हिन्दुस्तान)
सप्ताहांत में कुछ मित्रों से बात हुई। जिन्होंने अपने-अपने नायक में वचन और कर्म की ईमानदारी देखी। ऐसा लगता है कि नायकों में एक प्रकार की पारदर्शिता पाई जाती है। हमारे एक परिचित संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों को कपोल-कल्पना कहते हैं लेकिन कई बार देखा है कि वे दूसरों की बात काटने के लिये उन्हीं ग्रंथों के सन्दर्भ देते हैं जिन्हें वे झूठा बताते हैं। ऐसे कृत्य में बेईमानी छिपी है। इसी प्रकार यदि ईश्वर और नैतिकता में विश्वास न रखने वाला व्यक्ति अपने लाभ के लिये धर्म के ऊपरी चिह्न तिलक आदि लगा ले किसी धार्मिक ट्रस्ट का नियंत्रक बन जाये तो यह भी एक प्रकार का छल ही हुआ। नायक की कथनी और करनी एक होती है। हो सकता है कि समय के साथ नायक के विचार बदलें, तब उसके वचन और कर्म भी उसी प्रकार बदलते हैं परंतु किसी भी क्षण उसके वचन और कर्म में भेद नहीं होता। मसलन यदि मैं किसी व्यक्ति से मुफ़्त में कुछ न लेने की बात करता हूँ तो मैं अपने नियोक्ता से बिना ब्याज़ मिलने वाला ऋण भी नहीं लूंगा। इसी प्रकार भ्रष्टाचारियों से घिरे रहकर स्वयं को स्वच्छ बताने में ईमानदारी नहीं दिखती।
जब पिता मुझे छोडकर गये तब मैं चार सप्ताह की थी। स्वतंत्रता संग्राम में अनेक लोगों ने त्याग करने के साथ कष्ट भी भोगे हैं, हम तो भाग्यशाली थे। ~ अनिता बोस फ़ैफ़ (नेताजी की पुत्री)
नायक का जीवन दूसरों के उत्थान को समर्पित होता है। उसे दूसरों के विकास की, उनकी आवश्यकताओं की समझ और उन्हें साथ लेने की व्यवहार-कुशलता भी होती है। वानर भालू तो राम के साथ चले ही, नन्ही गिलहरी भी चल पडी, राम के विराट व्यक्तित्व के सामने उसे कोई क्षुद्रत्व महसूस नहीं हुआ। गांधी और अन्ना इस मामले में समान हैं कि उनके साथ वे लोग भी आसानी से जुड सके जो किसी अन्य आन्दोलन में भागीदारी नहीं कर पाते। ऐसे नायक व्यापक जनसमूह को अपने साथ बान्ध पाते हैं, यहाँ तक कि परस्पर विरोधी विचारधारायें भी उनके सामने मिलकर चलती हैं। बादशाह खान और मौलाना आज़ाद को गांधीजी के अहिंसावाद में बौद्ध, जैन, हिन्दू या सिख विचारधारा का प्रक्षेपण नहीं दिखाई दिया।

नायक असम्भव को सम्भव कर दिखाते हैं। वे अति-सक्षम होते हैं। नायक सोने के दिल से संतुष्ट होने वाला जीव नहीं है उसे कुशल हाथ और सुदृढ पाँव भी चाहिये। उनमें ज्ञान के साथ दूरदृष्टि भी होती है। अधिक काम करने के बजाय वे कुशल काम कर दिखाते हैं। शिवाजी की सेना बहुत छोटी थी, न उतने अस्त्र थे न धन। तो उन्होंने छापामार युद्ध किये। तात्या टोपे को भारतीय सैनिकों की रसद की चिंता थी इसलिये उन्होंने उनके कूच के मार्ग में पडने वाले सभी ग्राम-प्रमुखों को आस-पास के ग्रामों की सहायता से रोटी का इंतज़ाम करने की ज़िम्मेदारी पहले ही विचार करके सौंपी। हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के छोटे से संगठन ने अंग्रेज़ों की सेना, पुलिस और खुफ़िया संस्थाओं की नाक में दम कर दिया था।

उद्यमेन हि सिध्यंति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशंति मुखे मृगाः॥

सोते शेर के मुख में हिरण नहीं घुसते। इसी प्रकार मनोरथ सिद्धि कर्म से होती है। नायक स्वयं कर्म करते हैं और अपने साथियों और अनुगामियों से असम्भव को सम्भव करा लेते हैं। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त जैसे शहीदों के आदर्श गुरु गोविन्द जब कहते हैं, "चिड़ियन ते मैं बाज तुड़ाऊँ, तब गोविन्द सिंह नाम कहाऊँ" तो वे ऐसा असम्भव कर दिखाने की क्षमता रखते हैं। मानवाधिकार विहीन समाज और अपनी बर्बरता के लिये मशहूर तुर्क, अफ़ग़ान बाज़ों को मासूम चिड़ियों से तुड़ाकर, सतलज से काबुल तक निशान साहिब फ़हरा देना क्या किसी आम आदमी के लिये सम्भव होता?

नेताजी और राजनेता (आभार: पीटीआइ)
नायक जन-गण के बीच आशा और उल्लास का संचार करते हैं। वे उन्हें मृत्यु से छुड़ाकर अमृत्व की ओर ले जाते हैं। रोज़ घुट-घुटकर मरने, अपनी अंतरात्मा के विरुद्ध काम करने से बचाकर सत्यनिष्ठा के उस मार्ग पर लाते हैं जहाँ व्यक्ति अपना सर्वस्व त्यागकर भी अपने को भाग्यशाली समझता है। नायकों की विशेषता यह है कि वे जिसका जीवन छू लेते हैं वही बदल जाता है। राम अपने साथ हनुमान को भी भगवान बना देते हैं। नेताजी गांधीजी से अनेक मतभेद होते हुए भी उन्हें राष्ट्रपिता की उपाधि दे देते हैं। फूलमाला पहनकर बैंड बजवाकर जेल जाने वाले कॉंग्रेसियों पर हँसने वाले चन्द्रशेखर आज़ाद मोतीलाल नेहरू की शवयात्रा में शरीक़ होते हैं और अहिंसावादी गान्धी के अनुयायी चन्द्रशेखर आज़ाद की शवयात्रा में इलाहाबाद की गलियों में तिल भर की जगह नहीं छोडते हैं। दूसरे शब्दों में, नायक व्यक्तिगत मतभेदों को ताख पर रखकर व्यापक उद्देश्यों के लिये काम करते हैं और अपने साथियों का भी निरंतर विकास करते रहते हैं। यदि कोई निरंतर अपना या अपने सीमित गुट का विकास कर रहा हो तो वह तानाशाह हो सकता है मगर नायक हरगिज़ नहीं। ऐसे व्यक्ति सत्ता भले ही हथिया लें सम्मान के अधिकारी नहीं होते, उनका बारूद खत्म होते ही उनका तख्ता और उनकी मूर्तियाँ उखाड़ दी जाती हैं। इसके उलट, नायकों का यश न केवल स्थायी होता है, वह लोगों के हृदय से आता है। उनमें किसी प्रकार का दवाब नहीं होता। माओवादी और जिहादी रोज़ गले काट रहे हैं तो भी उन्हें जन-समर्थन नहीं मिलता जबकि नेताजी की आवाज़ पर 50,000 से अधिक लोग अंग्रेज़ी सेना का मुकाबला करने आज़ाद हिन्द सेना में शामिल हो गये थे। ऐसे जननायकों के तत्कालीन विरोधी भी एक दिन अपनी भूल का प्रायश्चित कर उन्हें फूल-माला चढाते हैं।
कम्युनिस्टों द्वारा नेताजी के ग़लत आंकलन के लिये मैं क्षमा मांगता हूँ ~ बुद्धदेव भट्टाचार्य (कोलकाता, 23 जनवरी 2003)
यह तो स्पष्ट है कि नायक अकेले नहीं पडते। उनके साथ जनता होती है। उनके साथ अन्य नायक भी होते हैं। नायकों के साथ आने पर जनता का विकास तो होता ही है, नायक स्वयं भी एक दूसरे के आलोक से आलोकित होते हैं। नायकों की छत्रछाया में दूसरी पंक्ति सदा तैयार रहती है, "बिस्मिल" गये तो "आज़ाद" आ गये। नायक प्रतियोगिता नहीं करते, वे संरक्षक होते हैं। वे रत्नाकर को महर्षि वाल्मीकि और विभीषण को लंकेश बनाते हैं। उनका भी कोई प्रेरणा पुंज होता है और वे भी चाणक्य की तरह नये चन्द्रगुप्त मौर्य विकसित करते हैं।

विजेतव्या लंका चरणतरणीयो जलनिधिः
विपक्षः पौलस्त्य रणभुवि सहायाश्च कपयः ।
तथाप्येको रामः सकलमवधीद्राक्षसकुलम
क्रियासिद्धिः सत्त्वे भवति महता नोपकरणे॥

सवा लाख से एक लड़ाने की बात हो या वानरों से राक्षस तुड़ाने की, नायकों की कार्यसिद्धि में अस्त्र-शस्त्र से अधिक महत्वपूर्ण भूमिका उनके मनोबल की होती है। संकल्प और दृढ इच्छाशक्ति के बिना नायक बन पाना असम्भव सा ही है। गृहमंत्री के रूप में सरदार पटेल आज तक याद किये जाते हैं क्योंकि भारत के एकीकरण में उनकी इच्छाशक्ति का बडा योगदान रहा। अशिक्षा, ग़रीबी, आतंकवाद, भेद-भाव, सूखा, बाढ, कश्मीर आदि के मुद्दे आज तक हमें सता रहे हैं क्योंकि नेतृत्व में इच्छाशक्ति न होने पर सब संसाधन बेकार हैं। जब एक नगर के लिये पूरे राज्य सरीखा मंत्रिमण्डल हो और वह सदन भी सुरक्षा व्यवस्था सुधारने के बजाय अपने वेतन भत्ते बढ़ाने में ज़्यादा रुचि रखता हो तब अदालत परिसर में बम फ़टने से दुख कितना भी हो आश्चर्य नहीं होता है। राष्ट्र को शासक मंत्रिमण्डलों की नहीं नायकों की आवश्यकता है, क्षमता, साहस, उदारता, ईमानदारी और इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। यह कमी कैसे पूरी हो?

अब तक हमने नायकों के निम्न गुणों पर दृष्टि डाली है: निर्भयता, उदारता, साहस, त्याग, निस्स्वार्थ भाव, निर्लिप्तता, सत्यनिष्ठा, मानवता, क्षमा/करुणा, उदात्तमन, ईमानदारी, व्यवहार-कुशलता, जनता का साथ। असम्भव को सम्भव करने की क्षमता, परस्पर विकास, संरक्षण/मेंटॉर, बिना दवाब के जनसमर्थन, उद्देश्य की व्यापकता, दृढ इच्छाशक्ति/मनोबल। आपकी टिप्पणियों में वर्णित कई गुण अभी भी छूट गये हैं। उन पर भी बात होगी। मुझे लगता है कि ज्ञान/समझ/अनुभव भी नायकों का गुण होना चाहिये। आपको क्या लगता है? क्या एक सफल नायक के लिये शक्ति भी आवश्यक है?
[क्रमशः]

Saturday, September 3, 2011

नायक किस मिट्टी से बनते हैं - भाग 2

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अन्ना बनना है तो शब्द और कृति को एक करो ... शुद्ध आचार, निष्कलंक जीवन, त्याग करना सीखो, कोई कुछ कहे तो अपमान सहना सीखो ~अन्ना हज़ारे (27 अगस्त 2011, रामलीला मैदान)

पिछली प्रविष्टि और आपकी टिप्पणियों में हमने नायकत्व की नीँव के कुछ रत्नों का अवलोकन किया। देवेन्द्र जी ने स्पष्ट किया कि सर्वगुण सम्पन्न होते हुए भी यदि व्यक्ति मैं और मेरे में ही सिमटा हुआ है तो उसके नायक हो पाने की सम्भावना नहीं है। शिल्पा जी ने भी यही बात एक उदाहरण के साथ प्रस्तुत की और अली जी ने भी कल्याण या फिर लोक कल्याण कहकर इसी बिन्दु को उभारा। "बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय" की भावना के बिना बड़ा बनना वाकई कठिन है।

साहस, निर्भयता, उदारता और त्याग पर कुछ बात हुई। निस्वार्थ प्रवृत्ति, दूसरों के सम्मान की रक्षा, कर्मयोग आदि जैसे सद्गुणों का ज़िक्र आया। आगे बढने से पहले आइये उदारता, त्याग और निस्वार्थ भावना के अंतर पर एक नज़र डालते हैं।

निस्वार्थ होने का अर्थ है स्वार्थरहित होकर काम करना। अच्छी भावना है। हम सब ही सत्कार्य के लिये अपना समय, श्रम ज्ञान और धन देना चाहते हैं। कोई नियमित रक्तदान करता है और किसी ने नेत्रदान या अंगदान का प्रण लिया है। विनोबा ने एक इंच भूमि का स्वामित्व रखे बिना ही विश्व के महानतम भूदान यज्ञ का कार्य सम्पन्न कराया। भारत में लोग गर्मियों में प्याऊ लगाते हैं और पिट्सबर्ग में मेरे पडोसी पक्षियों के लिये विशेषरूप से बने बर्डफ़ीडर में खरीदकर दाना रखते हैं। हृदय में उदारता हो तो निस्वार्थ भाव से कर्म करना नैसर्गिक हो जाता है। उदारता और त्याग का सम्बन्ध भी गहन है। दिल बड़ा हो तो त्याग आसान हो जाता है। याद रहे कि सत्कार्य के लिये भी चन्दा मांगना उदारता नहीं हैं, आगे बढकर दान देना अवश्य उदारता हुई। चन्दा इकट्ठा करना, चन्दा देना या उसका सदुपयोग करना, यह सभी निस्वार्थ हो सकते हैं। त्याग अनेक प्रकार के हो सकते हैं। स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने सुखी भविष्य के साथ अपने तन, मन, धन सबका त्याग राष्ट्रहित में कर दिया। विनोबा जेल में थे तब भी उस समय का सदुपयोग उन्होंने अपराधी कैदियों के लिये गीता के नियमित प्रवचन करने में किया।

माता-पिता अक्सर अपनी संतति के लिये छोटे-बडे त्याग करते हैं। लोग अपने सहकर्मियों, पडोसियों, अधिकारियों के लिये भी छोटे-मोटे त्याग कर देते हैं लेकिन उसमें अक्सर स्वार्थ छिपा होता है। मंत्री जी ने चुनाव से ठीक पहले सारे प्रदेश के इंजीनियर बुलाकर अपने शहर में बडे निर्माणकार्य कराये। सरकारी पैसा, सरकारी कर्मचारी, सरकारी समय का दुरुपयोग हुआ और अन्य नगरों के साथ अन्याय भी हुआ। लेकिन यदि मंत्री जी कहें कि उन्होंने अपने व्यक्तिगत समय का त्याग तो किया तो उसके पीछे चुनाव जीतने का स्वार्थ था। कुछ लोग सदा प्रबन्धन की कमियाँ गिनाते रहते हैं, उन्हें हर शिक्षित, धनी या सम्पन्न व्यक्ति शोषक लगता है। वे हर समिति की निगरानी चाहते हैं। वे कहते हैं कि उनका उद्देश्य जनता को जागरूक करना है। लेकिन यदि ये लोग जनता के असंतोष को भड़काकर अपनी कुंठा निकालते हों या हिंसा फ़ैलाकर अपनी स्वार्थसिद्धि करें तो उसमें स्वार्थ भी है और उदारता व त्याग का अभाव भी। ऐसे खलनायकों के मुखौटे लम्बे समय तक टिकते नहीं। क्योंकि निस्वार्थ कर्म के बिना सच्चा नायक बना ही नहीं जा सकता।

आचार्य विनोबा भावे
(11 सितम्बर, 1895 - 15 नवंबर, 1982)
भारत में जातिगत, धर्मगत दंगे तो होते ही हैं, कई बार हिंसा के पीछे क्षेत्र, भाषा और आर्थिक कारण भी होते हैं। हिन्दुओं को मुस्लिम बस्ती से गुज़रते हुए भय लगता है। कानपुर के दंगों में जब हिन्दू-मुसलमान एक दूसरे से डरकर भाग रहे थे, गणेश शंकर विद्यार्थी दंगे की आग में कूदकर निर्दोष नागरिकों की जान बचा रहे थे। 25 मार्च 1931 को धर्मान्ध दंगाइयों ने उनकी जान ले ली परंतु उनकी उदार भावना को न मिटा सके। जब आम लोग डरकर छिप रहे थे तब विद्यार्थी जी अपना आत्म-त्याग करने सामने आये क्योंकि उनके पास नायकों का एक अन्य स्वाभाविक गुण निर्भयता भी था। उदारता का पौधा निर्भयता की खाद पर पलता है। माओवाद से सताये जा रहे इलाकों में रात में ट्रेनें तक नहीं निकलतीं। वर्तमान नेता अपने लाव-लश्कर के साथ भी ऐसे स्थानों की यात्रा की कल्पना नहीं कर सकते। 18 अप्रैल 1951 को नलगोंडा (आन्ध्रप्रदेश) में भूदान आन्दोलन की नींव रखने से पहले और बाद में विनोबा ने निर्भयता से न केवल कम्युनिस्ट आतंकवाद से प्रभावित क्षेत्रों की पदयात्रायें कीं और जनता से मिले बल्कि ज़मीन्दारों को भी अपनी पैतृक भूमि को भूमिहीनों को बांटने के लिये मनाया। विनोबा को न भूपतियों के आगे हाथ फैलाने में झिझक थी और न ही आतंकियों की बन्दूकों का डर। अपनी जान की सलामती रहने तक कोई भी जन-नायक होने का भ्रम उत्पन्न कर सकता है, लेकिन भय और नायकत्व का 36 का आंकड़ा है।

बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह ब्रिटिश सरकार की निर्दयता को अच्छी प्रकार पहचानते हुए भी आत्मसमर्पण करते हैं। शांतिकाल में भर्ती हुआ कोई सैनिक युद्धकाल में शांति की चाह कर सकता है परंतु उन लाखों भारतीयों के बारे में सोचिये जो द्वितीय विश्व युद्ध में भारत की प्रत्यक्ष भागीदारी या ज़िम्मेदारी न होने पर भी भारत की आज़ादी की शर्त पर जान हथेली पर रखकर एशिया और यूरोप के मोर्चों पर निकल पडे। उनमें से न जाने कितने कभी वापस नहीं आये। वे सभी वीर हमारे नायक हैं।

दो महानायक: नेताजी और बादशाह खान
कभी परम्परा की आड में, कभी धर्म के बहाने से, कभी वैचारिक प्रतिबद्धता के नाम पर और कभी राजनीतिक सम्बन्ध की ओट में कापुरुष अपने खलनायकत्व का औचित्य सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति पर पकडे गये बहुत से जर्मन युद्धापराधियों ने अपने क्रूरकर्म को स्वामिभक्ति कहकर सही ठहराने का प्रयास किया था। स्वामिभक्ति का यह बहाना भी कायरता का एक नमूना है। क्या स्वामिभक्ति सत्यनिष्ठा के आडे आ सकती है या यह भय और कायरता को छिपाने का बहाना मात्र है?

मदर टेरेसा
26 अगस्त 1910 - 5 सितम्बर 1997
दो विश्व युद्धों में 1070 जीवन न्योछावर करने वाली गढवाल रेजिमेंट के पेशावर में तैनात सत्यनिष्ठ सिपाहियों ने अप्रैल 1930 में खान अब्दुल गफ़्फ़ार खाँ की गिरफ़्तारी का विरोध कर रहे निहत्थे पठान सत्याग्रहियों पर गोली चलाने के आदेश को मानने से इनकार कर दिया था। इस काण्ड में चन्द्र सिंह गढवाली के नेतृत्व में 67 भारतीय सिपाहियों का कोर्टमार्शल हुआ था जिनमें से कई को आजीवन कारावास की सज़ा हुई थी। और इससे पहले 1857 की क्रांति में भी वीर भारतीय सैनिकों ने सत्यनिष्ठा को स्वामिभक्ति से कहीं ऊपर रखा।

क्या आप सहमत हैं कि साहस, निर्भयता, उदारता और त्याग वीरों के अनिवार्य गुण हैं? क्या वीर नायक सदैव ही सत्यनिष्ठा को अन्ध स्वामिभक्ति से ऊपर रखते हैं? एक नायक में और क्या ढूंढते हैं आप? परोपकार, समभाव, करुणा, प्रेम, दृढता, ज्ञान?  एक अन्य भारतीय कथन है, "क्षमा वीरस्य भूषणं", क्या आपको लगता है कि क्षमा भी नायकों का गुण हो सकता है?

[क्रमशः]

Saturday, August 27, 2011

नायक किस मिट्टी से बनते हैं?

कुछ लोगों की महानता छप जाती है, कुछ की छिप जाती है।

28 अगस्त 1963 को मार्टिन लूथर किंग
(जू) ने प्रसिद्ध "मेरा स्वप्न" भाषण दिया था

उडीसा का चक्रवात हो, लातूर का भूकम्प, या हिन्द महासागर की त्सुनामी, लोगों का हृदय व्यथित होता है और वे सहायता करना चाहते हैं। बाढ़ में किसी को बहता देखकर हर कोई चाहता है कि उस व्यक्ति की जान बचे। कुछ लोग तैरना न जानने के कारण खड़े रह जाते हैं और कुछ तैरना जानते हुए भी। कुछ तैरना जानते हैं और पानी में कूद जाते हैं, कुछ तैरना न जानते हुए भी कूद पड़ते हैं।

भारत का इतिहास नायकत्व के उदाहरणों से भरा हुआ है। राम और कृष्ण से लेकर चाफ़ेकर बन्धु और खुदीराम बसु तक नायकों की कोई कमी नहीं है। भयंकर ताप से 60,000 लोगों के जल चुकने के बाद बंगाल का एक व्यक्ति जलधारा लाने के काम पर चलता है। पूरा जीवन चुक जाता है परंतु उसकी महत्वाकान्क्षी परियोजना पूरी नहीं हो पाती है। उसके पुत्र का जीवनकाल भी बीत जाता है। लेकिन उसका पौत्र भागीरथ हिमालय से गंगा के अवतरण का कार्य पूरा करता है। एक साधारण तपस्वी युवा सहस्रबाहु जैसे शक्तिशाली राजा के दमन के विरुद्ध खड़ा होता है और न केवल आततायियों का सफ़ाया करता है बल्कि भारत भर में आततायी शासनों की समाप्ति कर स्वतंत्र ग्रामीण सभ्यता को जन्म देता है, कुल्हाड़ी से जंगल काटकर नई बस्तियाँ बसाता है, समरकलाओं को विकसित करके सामान्यजन को शक्तिशाली बनाता है और ब्रह्मपुत्र जैसे महानद का मार्ग बदल देता है।

भारत के बाहर आकर देखें तो आज भी श्रेष्ठ नायकत्व के अनेक उदाहरण मिल जाते हैं। दक्षिण अफ़्रीका की बर्बर रंगभेद नीति खत्म होने की कोई आशा न होते हुए भी बिशप डेसमंड टुटु उसके विरोध में काम करते रहे और अंततः भेदभाव खत्म हुआ। अमेरिका में मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने भी भेदभावरहित विश्व का एक ऐसा ही स्वप्न देखा था। पोलैंड के दमनकारी कम्युनिस्ट शासन द्वारा किये जा रहे गरीब मज़दूरों के शोषण के विरुद्ध एक जननेता लेख वालेसा आवाज़ देता है और कुछ ही समय में जनता आतताइयों का पटरा खींच लेती है। चेन रियेक्शन ऐसी चलती है कि सारे यूरोप से कम्युनिज़्म का सूपड़ा साफ़ हो जाता है।

महाराणा प्रताप हों या वीर शिवाजी, एक नायक एक बड़े साम्राज्य को नाकों चने चबवा देता है, एक अकेला चना कई भाड़ फोड़ देता है। एक तात्या टोपे, एक मंगल पाण्डेय, एक लक्ष्मीबाई, ईस्ट इंडिया कम्पनी का कभी अस्त न होने वाला सूरज सदा के लिये डुबा देते हैं।

हमारे नये आन्दोलन की प्रेरणा गुरु गोविन्द सिंह, शिवाजी, कमाल पाशा, वाशिंगटन, लाफ़ायत, गैरीबाल्डी, रज़ा खाँ और लेनिन हैं।
~ भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त
कुछ लोग सत्कर्म न कर पाने का दोष धन के अभाव को देते हैं जबकि कुछ लोग धन के अभाव में (या धन-दान के साथ-साथ) नियमित रक्तदान करते हैं। कुछ लोग बिल गेट्स द्वारा विश्व भर में किये जा रहे जनसेवा कार्यों से प्रेरणा लेते हैं और कुछ लोग उसे पूंजीवाद की गाली देकर अपनी अकर्मण्यता छिपा लेते हैं। स्वतंत्रता सेनानियों को ही देखें तो दुर्गा भाभी, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद सरीखे लोगों को शायद हर कोई नायक ही कहे लेकिन कुछ नेता ऐसे भी हैं जिनका नाम सुनते ही लोग तुरंत ही दो भागों में बँट जाते हैं।

सहस्रबाहु, हिरण्यकशिपु, हिटलर, माओ, लेनिन, स्टालिन, सद्दाम हुसैन, मुअम्मर ग़द्दाफ़ी जैसे लोगों को भी कुछ लोगों ने कभी नायक बताया था। वे शक्तिशाली थे, उन्होंने बडे नरसंहार किये थे और जगह-जगह पर अपनी मूर्तियाँ लगाई थीं। शहरों के नाम बदलकर उनके नाम पर किये गये थे। लेकिन अंत में हुआ क्या? बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले। उनके पाप का घड़ा भरते ही इनकी मूर्तियाँ खंडित करने में महाबली जनता ने क्षण भर भी न लगाया।
नायकत्व की बात आते ही बहुत से प्रश्न सामने आते हैं। नायकत्व क्या है? क्या एक का नायक दूसरे का खलनायक हो सकता है? और सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न, नायक कैसे बनते हैं? और खलनायक कैसे बनते हैं?
खलनायक बनने के बहुत से कारण होते हैं। अहंकार, असहिष्णुता, स्वार्थ, कुंठा, विवेकहीनता, स्वामिभक्ति, ग़लत विचारधारा, अव्यवस्था, कुसंगति, संस्कारहीनता, ... सूची बहुत लम्बी हो जायेगी। आपको भी खलनायकों के कुछ अन्य दुर्गुण याद आयें तो अवश्य बताइये।

बहुत सी बातें ऐसी भी हैं जो खलनायकत्व का कारण तो नहीं हैं पर इस दुर्गुण को हवा अवश्य दे सकती हैं। इनमें से एक है अनोनिमिटी। डाकू अपना चेहरा ढंककर निर्भय महसूस करते हैं और आभासी जगत में कई लोग बेनामी होने की सुविधा का दुरुपयोग करते हैं। कुछ अपना सीमित परिचय देते हुए भी अपनी राजनीतिक विचारधारा को कुटिलता से छिपाकर रखते हैं ताकि उनकी विचारधारा के प्रचार और विज्ञापनों को भी लोग निर्मल समाचार समझकर पढते रहें।

निरंकुश शक्ति भी खलनायकों की दानवता को कई गुणा बढ़ा देती है। सभ्यता के विकास के साथ ही समाज में सत्ता की निरंकुशता के दमन की व्यवस्था करने के प्रयास होते रहे हैं। राजाओं पर अंकुश रखने के लिये मंत्रिमण्डल बनाना हो या श्रम, ज्ञान और पूंजी पर से सत्ता का नियंत्रण हटाना हो, आश्रम व्यवस्था द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक ज़िम्मेदारियों से जोड़ना हो या उससे भी आगे बढ़कर राजाविहीन गणराज्यों की प्रणाली बनानी हो, भारतीय परम्परा द्वारा सुझाये और सफलतापूर्वक अपनाये गये ऐसे कई उपाय हैं जिनसे तानाशाही के बीज को अंकुरित होने से पहले ही गला दिया जाता था। आसुरी व्यवस्था में जहाँ शासक सर्वशक्तिमान होता था वहीं सुर/दैवी व्यवस्था में मुख्य शासक की भूमिका केवल एक प्रबन्धक की रह गयी। सभी विभाग स्वतंत्र, सभी जन स्वतंत्र। सबके व्यक्तित्व, गुण और विविधता का पूर्ण सम्मान और निर्बन्ध विकास। असतो मा सद्गमय की बात करते समय सबकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बात याद रखना बहुत ज़रूरी है। तानाशाही की बात करने वाली विचारधारा में अक्सर व्यक्तिगत विकास, व्यक्तिगत सम्मान, व्यक्तिगत सम्पत्ति, और व्यक्तिगत स्वतंत्रता, सम्बन्ध, और विचारों के दमन की ही बात होती है। मरने के लिये मज़दूर, किसान और नेतागिरी के लिये कलाकार, लेखक, वकील, पत्रकार और बन्दूकची? सत्ता हथियाने के बाद उन्हीं का दमन जिनके विकास के नाम पर सत्ता हथियायी गयी हो? यह सब चिह्न खलनायकत्व की, दानवी और तानाशाही व्यवस्थाओं की पहचान आसान कर देते हैं। आसुरी व्यवस्था की पहचान अपने पराये के भेद और परायों के प्रति घृणा, असहिष्णुता और अमानवीय दमन से भी होती है।

जहाँ खलनायकत्व और तानाशाही को पहचानना आसान है वहीं नायकत्व को परिभाषित करना थोडा कठिन है। दो गुण तो मुझे अभी याद आ रहे हैं। पहला तो है निर्भयता। निर्भय हुए बिना शायद ही कोई नायक बना हो। परशुराम से लेकर बुद्ध तक, चाणक्य से लेकर मिखाइल गोर्वचोफ़ तक, पन्ना धाय से रानी लक्ष्मीबाई तक, जॉर्ज वाशिंगटन से एब्राहम लिंकन तक, बुद्ध से गांधी तक सभी नायक निर्भय रहे हैं। क्या आपको कोई ऐसा नायक याद है जो भयभीत रहता हो?

मेरी नज़र में नायकत्व का दूसरा महत्वपूर्ण और अनिवार्य गुण है, उदारता। उदार हुए बिना कौन जननायक बन सकता है। हिटलर, माओ या स्टालिन जैसे हत्यारे अल्पकाल के लिये कुछ लोगों द्वारा भले ही नायक मान लिये गये हों, आज दुनिया उनके नाम पर थू-थू ही करती है। निर्भयता और उदारता के साथ साहस और त्याग स्वतः ही जुड जाते हैं।

मिलजुलकर नायकत्व के अनिवार्य और अपक्षित गुणों को पहचानने का प्रयास करते हैं अगली कड़ी में। क्या आप इस काम में मेरी सहायता करेंगे?

[क्रमशः]

[मार्टिन लूथर किंग (जूनियर) का चित्र नोबल पुरस्कार समिति के वेबपृष्ठ से साभार]

Sunday, August 21, 2011

कोकिला, काक और वो ... लघुकथा

काक
खुदा जब बरक्कत देता है तो आस-औलाद के रूप में देता है। पिछले बरस काकिनी ने 5 अंडे दिये थे। शाम को जब हम भोज-खोज से वापस आये तो अंडे अपने-आप बढकर दस हो गये। कोई बेचारी शायद फ़ॉस्टर-पेरेंट्स की तलाश में थी। हम दोनों ने सभी को अपने बच्चों जैसे पाला। इस बरस दूसरे पाँच तो उड गये, खुदा उन्हें सलामत रखे। हमारे पाँच सहायता के लिये वापस आ गये हैं, हम तो इसी में खुश हैं।

कोकिला
कैसे मूर्ख होते हैं यह कौवे भी। पिछले बरस भी मैं अपने अंडे छोड आयी थी। बेवक़ूफ अपने समझकर पालते रहे। कितना श्रम व्यर्थ किया होगा, नईं? खैर, अपनी-अपनी किस्मत है। अब इस साल फिर से ... अब अण्डे सेना, बच्चे पालना, कोई बुद्धिमानों के काम तो हैं नहीं। कुछ हफ़्तों में जब पले पलाये उड जायेंगे तब मिल आऊंगी। मुझे तो दूसरे कितने बडे-बडे काम करने हैं इस जीवन में। पंछीपुर के मंत्रिमंडल के लायक भी तो बनाना है अपने बच्चों को। चलो, आज के अण्डे रखकर आती हूँ मूर्खों के घर में।

हंस
पंछीपुर तो बस अन्धेरनगरी में ही बदलता जा रहा है अब धीरे-धीरे। गरुडराज को तो अन्धाधुन्ध शिकार के अलावा किसी काम-धाम से कोई मतलब ही नहीं रहा है अब। मंत्रिमंडल में सारे के सारे मौकापरस्त भर गये हैं। आम जनता भी भ्रष्ट होती जा रही है। कोकिला तक केवल ज़ुबान की मीठी रह गयी है। मुझ जैसे ईमानदार तो किसी को फ़ूटी आँख नहीं सुहाते। सच बोलना तो यहाँ पहले भी कठिन था, लेकिन अब तो खतरनाक भी हो गया है। मैं तो कल की फ़्लाइट से ही चला मानसरोवर की ओर ...

गरुड
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम, दास मलूका कह गये सबके दाता राम। काम करने के लिये तो चील-कौवे हैं ही। राज-काज का भार कोयल और मोर सम्भाल लेते हैं। अपन तो बस शिकार के लिये नज़रें और पंजे तेज़ करते हैं और जम के खाते हैं। और कभी कभी तो शिकार की ज़रूरत भी नहीं पडती। आज ही किस्मत इतनी अच्छी थी कि घोंसला महल में अपने आप ही पाँच अंडे आ गये। पेट तो तीन में ही भर गया, दो तो सांपों के लिये फेंकने पडे। आडे वक्त में काम तो वही आते हैं न!

[समाप्त]

प्रसन्नमना मोर, नववृन्दावन मन्दिर वैस्ट वर्जीनिया में  

Thursday, August 18, 2011

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की पुण्यतिथि

आज़ाद हिन्द फ़ौज़
द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटेन और मित्र राष्ट्रों की विजय के बाद जापान से वायुमार्ग से रूस की ओर जाते हुए महान स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु 18 अगस्त, 1945 को ताईवान के ताईहोकू में एक विमान दुर्घटना में हुई। उस विमान दुर्घटना के बाद नेताजी का अंतिम संस्कार ताईहोकू में ही हुआ और उसके बाद उनकी अस्थियों को तोक्यो ले जाकर रेनकोजी मंदिर में ससम्मान सुरक्षित रखा गया। मुझे रेनकोजी मन्दिर की रज छूने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। इस बारे में कुछ जानकारी यहाँ है। हर वर्ष 18 अगस्त को इस मन्दिर में नेताजी के अस्थिकलश वाले कक्ष को श्रद्धांजलि के लिये खोला जाता है।


नेताजी जर्मनी में
समय-समय पर नेताजी को देखे जाने के दावे किये गये। अनेक लोगों का यह मानना है कि द्वितीय विश्व युद्ध में जापान और जर्मनी के साथ खडे होने के कारण उनकी पराजय के बाद नेताजी पर भी युद्ध अपराधों का मुकदमा चलने की काट के तौर पर जापान सरकार द्वारा उनकी झूठी मौत का नाटक रचा गया। अनेक कयासों के चलते भारत सरकार ने समय समय पर नेताजी की मृत्यु या कथित अज्ञातवास की सत्यता जाँचने के लिए तीन समितियां व आयोग गठित किये: शाहनवाज समिति, खोसला आयोग और जस्टिस मुखर्जी आयोग। शाहनवाज समिति और खोसला आयोग ने ताईहोकू विमान दुर्घटना में नेताजी के निधन को पूर्णरूप से सत्य माना जबकि जस्टिस मुखर्जी आयोग इस बारे में शंकित था।

मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा
नेताजी का जन्म 23 जनवरी 1897 को कटक, उडीसा में प्रभावती और रायबहादुर जानकीनाथ बोस के घर हुआ था। फ़ॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना करने से पहले नेताजी ने स्वराज पार्टी और कॉंग्रेस में लम्बे समय तक काम किया और कॉंग्रेस के अध्यक्ष भी रहे। अपने राजनीतिक जीवन में वे ग्यारह बार जेल गये और फिर अंग्रेज़ों को गच्चा देकर भारत से बाहर निकल गये।

उनके साथियों का कहना था कि आज़ाद हिन्द फ़ौज़ में काम करते हुए वे मानते थे कि वे भारत को अंग्रेज़ों से स्वतंत्र कराने में सफल होंगे और तब उन्हें अगर जापान व जर्मनी से लडना पडेगा तो वे लडेंगे। वे अपने साथ एक फ़िल्म रखते थे जिसे भारत वापस आने पर गांधीजी को दिखाना चाहते थे।

रेनकोजी मन्दिर का मुख्य द्वार
आज़ाद हिन्द फ़ौज़ की निर्वासित सरकार ने विदेशों में रह रहे भारतीय मूल के 18,000 लोगों के अतिरिक्त ब्रिटिश भारतीय सेना के 35,000 युद्धबन्दियों को स्वीकार किया, और अपनी करेन्सी व टिकट भी चलाये। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 1944 में बर्मा-भारत के मोर्चे पर आज़ाद हिन्द फौज़ के सैनिकों ने जापानी सैनिकों के साथ मिलकर ब्रिटिश सेनाओं का सामना किया। उन्हीं दिनों नेताजी जापानी सैनिकों के साथ अंडमान भी आये थे।

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* नेताजी के दर्शन - तोक्यो के मन्दिर में
* तोक्यो के रेनकोजी मन्दिर का विडियो
* रेनकोजी मन्दिर के चित्र - तुषार जोशी
* नेताजी सुभाषचन्द्र बोस - विकीपीडिया
* Japan's unsung role in India's struggle for independence

Saturday, August 13, 2011

हिंदुस्थान हमारा है

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बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' (8 दिसम्बर 1897 :: 29 अप्रैल 1960)

कोटि-कोटि कंठों से निकली आज यही स्वरधारा है
भारतवर्ष हमारा है यह, हिंदुस्थान हमारा है।

जिस दिन सबसे पहले जागे, नव-सृजन के स्वप्न घने
जिस दिन देश-काल के दो-दो, विस्तृत विमल वितान तने
जिस दिन नभ में तारे छिटके जिस दिन सूरज-चांद बने
तब से है यह देश हमारा, यह अभिमान हमारा है।

जबकि घटाओं ने सीखा था, सबसे पहले घिर आना
पहले पहल हवाओं ने जब, सीखा था कुछ हहराना
जबकि जलधि सब सीख रहे थे, सबसे पहले लहराना
उसी अनादि आदि-क्षण से यह, जन्म-स्थान हमारा है।

जिस क्षण से जड़ रजकण, गतिमय होकर जंगम कहलाए
जब विहंसी प्रथमा ऊषा वह, जबकि कमल-दल मुस्काए
जब मिट्टी में चेतन चमका, प्राणों के झोंके आए
है तब से यह देश हमारा, यह मन-प्राण हमारा है।

कोटि-कोटि कंठों से निकली आज यही स्वर-धारा है
भारतवर्ष हमारा है यह, हिंदुस्थान हमारा है।
.-=<>=-.
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BalKrishna Sharma Naveen
8 दिसम्बर 1897 :: 29 अप्रैल 1960

देशभक्त कवि, स्वतंत्रता सेनानी बालकृष्ण शर्मा "नवीन" की यह ओजस्वी रचना मेरे प्राथमिक विद्यालय की प्रार्थना का अंश थी। प्रतिदिन गाते हुए कब मेरे व्यक्तित्व और जीवन का अंश बन गयी पता ही नहीं चला।

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी

आप सब को स्वतंत्रता दिवस की मंगलकामनायें!
भारत माता की जय! वन्दे मातरम!

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* अमर क्रांतिकारी भगवतीचरण वोहरा
हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोशिएशन का घोषणा पत्र
महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद"
शहीदों को तो बख्श दो
नेताजी के दर्शन - तोक्यो के मन्दिर में
1857 की मनु - झांसी की रानी लक्ष्मीबाई
* मंगल पाण्डे - यह सूरज अस्त नहीं होगा
* श्रद्धांजलि - खुदीराम बासु
* Pandit Balkrishna Sharma "Navin"
* सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा
* जननी जन्मभूमि स्वर्ग से महान है

Thursday, August 11, 2011

अपोस्ट से आगे - कुपोस्ट तक

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ब्लॉगिंग में आने से सबसे बडा लाभ मुझे यह हुआ कि ऐसे बहुत से अनुभवीजनों से परिचय हुआ जिनकी प्रतिभा को शायद वैसे कभी जान ही न पाता। शुरुआत के ब्लॉग-मित्रों में से बहुत से अब अनियमित हैं। लेकिन फिर भी बहुत कुछ अच्छा लिखा जा रहा है। छतीसगढ के राहुल सिंह जी को पढते हुए मुझे बहुत समय नहीं हुआ है परंतु उनके लेखन से प्रभावित हूँ। उनकी ब्लॉग प्रविष्टियाँ अक्सर गम्भीर आलेख होते हैं। लेकिन अभी उनके यहाँ प्रॉलिफ़िक लेखन पर एक रोचक "अपोस्‍ट" पढा। पढने के बाद ब्लॉग-जगत के भ्रमण पर निकला तो मेरी इस अपोस्ट/कुपोस्ट/कम्पोस्ट के लिये विद्वत-ब्लॉगरी के कुछ क्लासिक उदाहरण देखने को मिले। आपके साथ साझा कर रहा हूँ।
तारीफ़ उस खुदा की जिसने जहाँ बनाया
आभार गूगल का जिसने जहाँ दिखाया
संपादकीय नोट: मेरी इस अपोस्ट/कुपोस्ट् में मौलिकता ढूंढने की कोशिश शायद बेकार ही जाये। जनहित में सभी पात्रों के नाम और घटनाओं के स्थान बदल दिये गये हैं। अभिव्यक्ति का मूल स्वरूप बरकरार रखने का पूरा प्रयास किया है। जहाँ भाषा इतनी जर्जर थी कि उठ न सके केवल वहीं उसे ममीफ़ाई किया गया है इसलिये, कृपया वर्तनी, मात्रा आदि पर टिप्पणी न करें :)
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- आज जब लिखने बैठे तो हमेशा की तरह कोई विषय तो था नहीं, लेकिन जब दिल से लिखना हो तो किसी विषय की जरुरत नही पडती! हम जो कुछ लिख दें वही विषय बन जाता है।

- आज सुबह हमने लेखक ज़, घ, क और ग को ईमेल करके बता दिया है कि जिस विषय को हमने कभी पढा ही नहीं उस विषय के बारे में उनकी लिखी हर बात ग़लत है।

- हमें तीन दिन से ज़ुकाम था, आज हमारी नाक 73.43971 बार बही। प्लमर मित्र से एक टोटी मुफ़्त लगवाने की सोच रहे हैं।

- शादियों का सीज़न है, सो चाट-पकोडी ज़्यादा खा लिये हम। आज सुबह सवा चार कप कॉफ़ी पीने के बाद भी नित्यक्रिया नहीं हुई। चाय हम पीते नहीं, उसमें टेनीन नामक नशीला पदार्थ होता है

- आज एक डॉक्टर ने लाइन तोडकर अन्दर आ जाने के लिये हमें फ़टकार दिया। अब हम अगली तीन पोस्ट ऐलोपथी के साइड-इफ़ैक्ट्स पर लिखेंगे।

- बचपन में हमारे योगा-टीचर ने हमें डांटा था, तब से हम योग और योगाचार्यों के खिलाफ़ हो गये हैं। घुटने में दर्द है, याद्दाश्त बढाने की गोली लेने लगे हैं।

- हमारी पोस्ट "क" पढने के लिये हमारी पोस्ट "ज़" पर चटका लगायें और इस प्रकार कभी न टूटने वाला चक्र चलायें।

- पिछले महीने हम प्यारेलाल जी से मिले थे। तब से उन्होने इस मुलाकात पर 7 पोस्ट लिख डाली हैं। अब हम भी उनसे मुलाकात पर 77 पोस्ट लिखेंगे।

- सब जानना चाहते हैं कि हम इतनी सारी ब्लॉग पोस्ट कैसे लिख लेते हैं। उन्हें पता नहीं है कि हमारे पास टिप्पणियों की संख्या बढ़ाने की भी कई तरकीब है। हम उन्हें इस्तेमाल भी करते हैं। लेकिन आपको बताने से हमें क्या फायदा?

- अब हम भी ताऊ की तरह पहेली पूछा करेंगे। प्रस्तुत है आज की गुणा-भाग पहेली, भागकर भूले की प्रसिद्द पुस्तक भ्रम जादू पहेली से निराभार। एक साल में यह मेरी 5000 वीं पोस्ट है, मतलब हर रोज़ एक पोस्ट। क्या आपको पता है कि तीन सप्ताह में कितने अंडे होते हैं?

- आज हमने अम्मा से कह दिया कि हम उनकी एक नहीं सुनेंगे। वे टोकती रहीं लेकिन हम ड्राइक्लीन करे हुए नीले सूट के साथ भूरे बरसाती बूट और मजगीली कमीज़ पहनकर ही दफ़्तर गये। ग़नीमत थी कि बॉस छुट्टी पर था वर्ना हमारी भी छुट्टी हो जाती।

- मुद्दत बाद आज हमारा रोल्स रॉयस चलाने का सपना पूरा हो गया। हमने अपनी साइकिल पर ऍटलस का नाम खुरचवाकर रोल्स रॉयस लिखवा लिया है।

- पिछली पोस्ट में हमने बताया था कि मन खट्टा होने के कारण आजकल हम ब्लॉगर मिलन में नहीं जाते लेकिन ब्लॉगर सम्मान समिति का ईमेल आने पर कल हम चले तो गये परंतु वहाँ की अव्यवस्था से कुपित होकर हमने अपना भाषण नहीं पढा। उनके छोले-भटूरे भी एकदम बेस्वाद थे। अब हम अगले ब्लॉगर मिलन में बिल्कुल नहीं जायेंगे क्योंकि इस बार हमें वीआइपी सीट भी नहीं दी गयी थी और मुख्य अतिथि चुनने से पहले हमसे सलाह भी नहीं की गयी थी।

- कामवाली बाई की अम्मा मर जाने के कारण आज वह काम पर नहीं आयी, सो आज अपनी किताबों को हमने खुद ही झाड़ लिया।

- आज हमने सरकारी बैंक में लाइन में लगकर पैसा निकाला जबकि ब्रांच मैनेजर हमसे जूनियर ब्लॉगर है। दूर खडा देखता रहा मगर पास नहीं आया। हमने भी ऐसे जताया जैसे हम उसे जानते ही न हों। अब हम उसके ब्लॉग पर टिप्पणी नहीं किया करेंगे।

- वैसे धर्म-कर्म को तो हम पाखण्ड ही मानते हैं लेकिन ब्लॉग जगत में अपने गुट की मजबूती के लिये आज हम लस्सी-उपवास पर हैं। वैसे भी दिसम्बर में लस्सी की दुकान बन्द रहती है।

- पडोस में रहने वाली एक लडकी ने आज हमे अंग्रेज़ी में ईमेल किया। ग़नीमत है कि टिल्लू की अम्मा को अंग्रेज़ी नहीं आती है।

- अपने को विद्वान समझने वाला एक शख्स ने बताया कि ईमेल, ब्लॉगिंग और इंटरनैट शब्द हिन्दी के नहीं हैं। तब हमने उसकी बात नहीं मानी लेकिन अब हमें लगता है कि ईमेल, ब्लॉगिंग और इंटरनैट हिन्दी को असंगत और महत्वहीन बनाने की अमरीकी साजिश है।

- आजकल हम भी अपने नाम से एक किताब छपाने की सोच रहे हैं, सामग्री के लिये टिल्लू को अखबारों की कतरनें इकट्ठी करने के काम पर लगा दिया है। जब तक सामग्री तैयार हो, आप लोग एक टॉप-क्लास बेस्ट सेलर टाइटल सुझाइये शुद्ध हिन्दी में।

- कल अजब इत्तफ़ाक़ हो गया, आप सुनेंगे तो जल भुन के राख हो जायेंगे। हमारी मुलाकात महान ब्लॉगर माधुरी दीक्षित नेने से हुई थी, सपने में।

- आजकल हम मॉडर्न हो गये हैं। अपने ब्लॉग पर कंटेंट कम और विज्ञापन अधिक लगाते हैं।

- कल हमने सस्ता स्वास्थ्य का प्रवेशांक पढा। आज हम जल्दी सो जायेंगे और कल सुबह देर से उठेंगे।

- कल तो वाकई कमाल हो गया। इलाके के सफ़ाई कर्मचारी ने हमें सलाम करके पूछा, कैसे हैं नेता जी। बाद में 50 रुपये पेशगी ले गया।

- आजकल हम गान्धीवादी हो गये हैं। अपने विरोधियों के ब्लॉग से असहयोग और उनकी टिप्पणियों की सविनय अवज्ञा करते रहते हैं। फिर भी नहीं मानेंगे तो गान्धीगिरी करते हुए उन्हें गूलर के फूल भेंटेंगे। अगर फिर भी नहीं मानेंगे तो उन्हें जम के पीटेंगे।

- वैसे तो बाबू सकुचाया लाल की तुकबन्दी हमारी तुकबन्दी से बेकार ही होती है। फिर भी उसने पाँच सौ में हारमोनियम वाले का आयोजन करवाकर अपना सम्मान समारोह करवा लिया है। अब हमने भी तय कर लिया है कि ब्लॉगर कोटा से काग़ज़ खरीदकर अपने सम्मानपत्र खुद छपवाकर खुद ही हस्ताक्षर कर लेंगे।

- आजकल हमारी कार का दरवाज़ा चर्र-मर्र की आवाज़ करता है, पता नहीं क्यों? मिस्त्री से पूछा तो उसने बताया कि हमारी शायरी पर इरशाद-इरशाद कहता है।

- पाठकों की बहुत शिकायतें आ रही हैं कि आजकल हमारे ब्लॉग पर भूत,पलीत, जिन्नात वगैरा के किस्से नहीं होते। हम उन्हें बताना चाहते हैं कि पिछले हफ्ते से यहाँ भी विज्ञान का ज़माना शुरू हो गया है। आगे से सारे आलेख विज्ञान-विकीपीडिया से हूबहू टीपीकृत होंगे।

- हम तीसमारखाँ ब्लॉगर अवार्ड के पक्ष में नहीं हैं। तीसमारखाँ होने में क्या बडी बात है? हमने तो ब्लॉगिंग के पहले दिन ही तीस पोस्ट लिख मारी थीं।

- सम्पादक-शिरोमणि श्री चिर्कुट लाल जी की हर नई पोस्ट पर पहली टिप्पणी हमारी ही होती है। सुना है इस बार का चिरकुट-टिप्पणी पुरस्कार हमें ही मिलने वाला है। वैसे हमारे मित्र होने के नाते अगर आप भी इस बारे में उनसे सिफ़ारिश लगा दें तो यह काम आसानी से हो जायेगा।

- इस बाल दिवस / लेबर डे पर हमें बाल-श्रम विरोध समारोह में भाषण देने जाना था मगर जा नहीं सके। कम्बख्त छोटू ने हमारी लकी कमीज़ जला दी थी। उसके बाप से पैसे की भरपाई में काफ़ी टाइम बेकार हो गया और मूड भी खराब हो गया।

[आभार: राहुल सिंह जी, सुनील कुमार जी, ब्‍लागाचार्य जी, टिप्पणीमारकर जी, उस्ताद जी और विद्वान व/वा बुद्धिजीवी हिन्दी ब्लॉगरों का]

[क्रमशः]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* कहें खेत की सुनैं खलिहान की
* हिन्दी ब्लॉगिंग में विश्वसनीयता का संकट
* अंतर्राष्ट्रीय निर्गुट अद्रोही सर्व-ब्लॉगर संस्था

Tuesday, August 9, 2011

बॉस्टन का ईथर डोम – इस्पात नगरी से-45

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MGHअमेरिका के नव-इंग्लैंड क्षेत्र में 200 वर्ष पुराना एक ऐतिहासिक चिकित्सालय है। बॉस्टन के मैसैचुसैट्स जनरल हॉस्पिटल ने इस वर्ष अपनी द्विशताब्दी मनाई। 12 जनवरी 1965 में इस चिकित्सालय के चार्ल्स बुलफ़िंच भवन को अमेरिका की ऐतिहासिक धरोहरों में एक स्थान मिला। इस भवन के ऊपरी तल में सूर्य से प्रकाशित गुम्बद में एक छोटा सा गोल थियेटर जैसा हॉल है जो सन 1821 से 1876 तक इस चिकित्सालय का शल्यक्रिया कक्ष था।

Ether.Dome.MGH.Boston.9
उन दिनों शल्यक्रिया का काम बहुत कठिन होता था, क्योंकि मरीज़ अपने पूरे होशो-हवास में होता था। विभिन्न चिकित्सा संस्थान अनेक रसायनों के साथ ऐसे प्रयोग करते जा रहे थे जिनसे मरीज़ की पीडा कम की जा सके। इसी आशा के साथ 16 अक्टूबर 1846 में इस जगह पर गुम्बद की छत से आते सूर्य के प्रकाश में एक ऐसी शल्यक्रिया हुई जिसने नया इतिहास रचा।

उस दिन ऑपरेशन से पहले एक स्थानीय दंत चिकित्सक विलियम मॉर्टन (William Thomas Green Morton) द्वारा मरीज़ ऐडवर्ड गिल्बर्ट ऐबट को मुख द्वारा ईथर दिया गया। सर्जरी के बाद जब मरीज़ ने बताया कि उसे सर्जरी के दौरान कुछ भी पता नहीं चला, न कोई पीडा हुई तो हारवर्ड मेडिकल स्कूल के मुख्य शल्यकार जॉन कॉलिंस वारैन ने गर्व से घोषणा की, "सज्जनों, यह पाखण्ड नहीं है!" यह बयान अकारण नहीं था।  ईथर के इस सफल प्रयोग से पहले अनेक असफल प्रयोग हुए जिन्हें आलोचकों द्वारा पाखण्ड कहा गया था।

Ether.Dome.MGH.Boston.7ईथर डोम आज भी प्रयोग में लाया जाता है और जब उपलब्ध हो तब जनता द्वारा इसका दर्शन किया जा सकता है। इस कक्ष में एक ममी और अपोलो की भव्य मूर्ति के अतिरिक्त वारैन और लुसिया प्रोस्पैरी नामक कलाकारों द्वारा बनाया गया उस ऐतिहासिक सर्जरी का भव्य चित्र आज भी दीवार पर टंगा है।





[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Ether Dome pictures by Anurag Sharma]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
* Ether Dome

Sunday, August 7, 2011

अमर क्रांतिकारी भगवतीचरण वोहरा

ज़ालिम फ़लक ने लाख मिटाने की फ़िक्र की
हर दिल में अक्स रह गया तस्वीर रह गयी
भगवती चरण (नागर) वोहरा
4 जुलाई 1904 - 28 मई 1930

लाहौर कांग्रेस में बांटा गया "हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोशिएशन का घोषणा पत्र" हो या क्रांतिकारियों का दृष्टिकोण बताता हुआ "बम का दर्शन-शास्त्र (फ़िलॉसॉफ़ी ओफ़ द बॉम)" नामक पत्र हो, भगवतीचरण वोहरा अपने समय के क्रांतिकारियों के प्रमुख विचारक और लेखक रहे थे। पंडित रामप्रसाद बिस्मिल और साथियों की फ़ांसी के बाद चन्द्रशेखर आज़ाद ने जब हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के पुनर्गठन का बीडा उठाया तब नई संस्था हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसियेशन (हि.सो.रि.ए.) में पंजाब की ओर से शामिल होने वाले क्रांतिकारियों में भगवतीचरण वोहरा, सरदार भगत सिंह और सुखदेव थापर का नाम प्रमुख था। नौजवान भारत सभा के सह-संस्थापक श्री भगवतीचरण वोहरा "नौजवान भारत सभा" के प्रथम महासचिव भी थे।

वोहरा परिवार
हि.सो.रि.ए. के एक प्रमुख सदस्य और पंजाब के दल के संरक्षक श्री भगवती चरण वोहरा का जन्म 4 जुलाई सन 1904 को आगरा के प्रतिष्ठित राष्ट्रभक्त और सम्पन्न परिवार में श्री शिवचरण नागर वोहरा के घर हुआ था। इस ब्राह्मण परिवार का मूल कुलनाम नागर होते हुए भी अपनी सम्पन्नता के कारण वे लोग वोहरा कहलाते थे। वोहरा परिवार स्वतंत्र भारत के सपने में पूर्णतया सराबोर था। देशप्रेम, त्याग और समर्पण की भावना समस्त परिवारजनों में कूट-कूट कर भरी थी। विदेशी उत्पाद और मान्यताओं से बचने वाले इस परिवार में केवल खादी के वस्त्र ही स्वीकार्य थे। देश की राजनैतिक और देशवासियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिये इस परिवार का हर सदस्य जान न्योछावर करने को तैयार रहता था।

भाई के अंतिम क्षण
मात्र चौदह वर्ष की आयु में, सन् 1918 में श्री भगवती चरण वोहरा का पाणिग्रहण संस्कार इलाहाबाद की पाँचवीं कक्षा उत्तीर्ण ग्यारह वर्षीया सौभाग्यवती दुर्गावती देवी से हुआ। पति के उद्देश्य में सदा कन्धे से कन्धा मिलाकर चलने वाली यही वीरांगना दुर्गावती बाद में दुर्गा भाभी के नाम से विख्यात हुईं। खादी के वस्त्र धारण कर दुर्गावती ने पढाई जारी रखी और समय आने पर प्रभाकर की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसी बीच वोहरा जी ने नेशनल कॉलेज लाहौर से बी.ए. की उपाधि ली। यहीं पर उन्होने एक अध्ययन मण्डल (स्टडी सर्कल) की स्थापना भी की। 1925 में उन्हें एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम महान क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल के सम्मान में शचीन्द्रनाथ रखा गया। वोहरा परिवार लाहौर के क्रांतिकारियों का दिशा-निर्देशक रहा। क्रांतिकारियों के बीच वे क्रमशः "भाई" व "भाभी" के नाम से पहचाने जाते थे। उस समय में भी लाखों की सम्पत्ति और हज़ारों रुपये के बैंक बैलैंस के उत्तराधिकारी भाई भगवतीचरण ने अपने देशप्रेम हेतु अपने लिये साधारण और कठिन जीवन चुना परंतु साथी क्रांतिकारियों के लिये अपने जीते-जी सदा धन-साधन सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति निस्वार्थ भाव से की। प्रसिद्ध नाटककार उदय शंकर भट्ट के साथ वे बरेली में भी रहे थे। लाहौर में तीन मकानों के स्वामी भाई भगवती चरण ने अपने क्रांतिकर्म के लिये उसी लाहौर की कश्मीर बिल्डिंग में एक कमरा किराये पर लेकर वहाँ बम-निर्माण का कार्य आरम्भ किया था।

9-10 सितम्बर 1928 को फ़ीरोज़शाह कोटला में हुई हि.सो.रि.ए. की गुप्त प्रथम राष्ट्रीय पंचायत में झांसी को मुख्यालय, चन्द्रशेखर "आज़ाद" को मुख्य सेनापति और भगवतीचरण वोहरा को प्रमुख सलाहकार चुना गया और उन्होंने ही संस्था के घोषणा पत्र का प्रारूप तैयार किया था। तभी नवनिर्मित संस्था द्वारा आज़ादी के उद्देश्य के लिये बमों के निर्माण और प्रयोग का निश्चय हुआ था। समझा जाता है कि भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त द्वारा दिल्ली सेशन कोर्ट में पढा गया संयुक्त बयान भाई भगवतीचरण के निर्देशन में ही तैयार हुआ था।
हमें ऐसे लोग चाहिये जो आशा की अनुपस्थिति में भी भय और झिझक के बिना युद्ध जारी रख सकें। हमें ऐसे लोग चाहिये जो आदर-सम्मान की आशा रखे बिना उस मृत्यु के वरण को तैयार हों, जिसके लिये न कोई आंसू बहे और न ही कोई स्मारक बने।
~ भगवतीचरण वोहरा
यंग इंडिया में जब गांधीजी ने क्रांतिकारियों को कायर कहकर उनके कार्य की निन्दा करते हुए "कल्ट ऑफ़ द बम" आलेख लिखा तब चन्द्रशेखर "आज़ाद" के प्रोत्साहन के साथ भगवती भाई ने "फ़िलॉसॉफ़ी ऑफ़ द बम" का प्रभावशाली और चर्चित आलेख लिखा था। यह आलेख जनता के बीच बहुत अच्छी तरह वितरित हुआ परंतु पुलिस अपने पूरे प्रयास के बाद भी इसके उद्गम का पता न लगा सकी।
मेरे पति की मृत्यु 28 मई 1930 में रावी नदी के किनारे बम विस्फोट के कारण हुई थी। उनके न रहने से भैया (आज़ाद) कहते थे कि उनका दाहिना हाथ कट चुका है। ~ दुर्गा भाभी
इस पत्र के बाद ही पण्डित मोतीलाल नेहरू ने क्रांतिकारियों की दृष्टि को पहचाना और आनन्द भवन (इलाहाबाद) में गांधीजी के साथ क्रांतिकारियों की भेंट कराई। दोनों पक्ष ही एक-दूसरे को समझाने में असफल रहे परंतु भाई भगवतीचरण की लेखनी के कारण क्रांतिकारियों को कॉंग्रेस में मोतीलाल नेहरू के रूप में एक पक्षकार अवश्य मिला।
युद्ध हमारे साथ आरम्भ नहीं हुआ है और हमारे जीवन के साथ समाप्त नहीं होगा। हमारे तुच्छ बलिदान उस श्रृंखला की कडी मात्र होंगे जिसका सौन्दर्य कामरेड भगवतीचरण के दारुण पर गर्वीले आत्म त्याग और हमारे प्रिय योद्धा आजाद की गरिमामय मृत्यु से निखर उठा है। ~ सरदार भगत सिंह (3 मार्च 1931)
लाहौर षडयंत्र काण्ड में शहीदत्रयी को मृत्युदंड की घोषणा के बाद हि.सो.रि.ए. ने तय किया कि क़ैद क्रांतिकारियों को लाहौर जेल से न्यायालय ले जाते समय नये और अधिक शक्तिशाली बमों का प्रयोग करके उन्हें छुड़ा लिया जाये। सुखदेव, राजगुरू और भगत सिंह को छुड़ाने के प्रयास के लिये बनाये गये बमों के परीक्षण के समय 28 मई 1930 को रावी तट पर हुई दुर्घटना में वोहरा जी का असामयिक निधन हो गया। उनके अंतिम समय में विश्वनाथ वैशम्पायन और सुखदेव राज उनके साथ थे। यही सुखदेव राज संयोगवश आज़ाद के अंतिम समय में भी साथ रहे थे।
आज आज़ाद का कोई क्रांतिकारी साथी जीवित नहीं है। स्वतंत्र भारत में एक-एक कर उनके सारे साथियों की मौत हो गयी और किसी ने नहीं जाना। वे सब गुमनाम चले गये। उनके न रहने पर किसी ने आंसू नहीं बहाये, न कोई मातमी धुन बजी। किसी को पता ही न लगा कि ज़मीन उन आस्मानों को कब कहाँ निगल गयी।
~ सुधीर विद्यार्थी
बम विस्फ़ोट से भाई का एक हाथ कलाई से आगे पूरा उड गया और दूसरे की उंगलियाँ नष्ट हो गयीं। पेट में इतना बडा घाव हुआ कि आंतें बाहर निकल आयीं। सुखदेव राज जब तक अन्य साथियों व चिकित्सक की तलाश में गये तब तक भाई की कोख से लगातार बहते खून को रोकने के लिये विश्वनाथ ने पहने हुए वस्त्रों की पट्टियाँ बनाकर प्रयोग कीं। शरीर को रक्त की कमी से सूखने से बचाने के लिये विश्वनाथ उनके मुँह में संतरे निचोडते रहे जोकि वे लोग पहले ही अपने साथ लेकर आये थे। अपने अंत से पहले भाई ने मुस्कराकर विश्वनाथ से कहा कि अच्छा ही हुआ कि घाव उनको ही हुए, यदि सुखदेव राज या विश्वनाथ वैशम्पायन को कुछ हो जाता तो वे भैय्या (आज़ाद) को क्या जवाब देते?

प्रणम्य है उनका त्याग। कोटि-कोटि नमन है उन्हें और उनके जज़्बे को!

[इस आलेख में प्रस्तुत सभी स्कैन क्रांतिकारियों से सम्बन्धित दुर्लभ मुद्रित आलेखों की जानकारी के प्रसार के सदुद्देश्य से सादर और साभार लिये गये हैं। चित्रों पर क्लिक करके उनका बडा प्रतिरूप देखा जा सकता है। स्वर्गीय भगवतीचरण वोहरा के अंतिम क्षणों का चित्रण उनके अंतिम क्षणों के साथी विश्वनाथ वैशम्पायन की लेखनी से लिया गया है।]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोशिएशन का घोषणा पत्र
* महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद"
* शहीदों को तो बख्श दो
* नेताजी के दर्शन - तोक्यो के मन्दिर में
* 1857 की मनु - झांसी की रानी लक्ष्मीबाई

Thursday, August 4, 2011

नव फ़्रांस में गांधी - इस्पात नगरी से - 44

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अंग्रेज़ों के कब्ज़े से पहले पिट्सबर्ग के किले फ़ोर्ट पिट का नाम फ़ोर्ट ड्यूकेन था और वह फ़्रांसीसी अधिकार क्षेत्र में था। जिस प्रकार भारत में अंग्रेज़ों ने फ़्रांसीसियों को निबटा दिया था उनका लगभग वैसा ही हाल अमेरिका में हुआ। यहाँ तक कि ब्रिटेन से स्वतंत्रता पाने के बाद भी अमेरिका में अंग्रेज़ी का साम्राज्य बना रहा। इसके उलट कैनैडा का एक बडा भाग आज भी फ़्रैंचभाषी है। जिस तरह संयुक्त राज्य के उत्तरपूर्वी तटीय प्रदेश का एक भाग न्यू इंगलैंड कहलाता है उसी तरह कैनैडा का एक क्षेत्र अपने को नव-फ़्रांस कहता है। आजकल (तीन अगस्त से सात अगस्त तक) कैनैडा के क्यूबैक नगर में नव-फ़्रांस महोत्सव चल रहा है। फ़्रांस में आज भले ही लोग आधुनिक वस्त्र पहनते हों, परंतु क्यूबैक में इस सप्ताह आप कहीं भी निकल जायें, आपको हर वय के लोग पुरा-फ़्रांसीसी या अमेरिकी-आदिवासी वस्त्र पहने मिल जायेंगे।

आइये, आपके साथ क्यूबैक की गलियों का एक चक्कर लगाकर देखते हैं कि यहाँ चल क्या रहा है।
आदिवासी ऐवम् फ़्रांसीसी

बच्चे, संगीतकार और तपस्वी

फ़्रैंच कुलीन का हैट पहने आदिवासी बच्ची 

दुकान के आगे तलवार भांजते सज्जन

फ़्रांसीसी भाषा में कोई ऐतिहासिक एकपात्री नाटक

हमारा तम्बू यहीं गढेगा


जॉर्ज वाशिंगटन से लेकर नेपोलियन तक जो पिस्टल चाहिये मिलेगी

सैनिक की आड में छिपा पाइरेट ऑफ़ दि कैरिबियन 

शाम की सैर

एक परिवार

सैकाजेविया?
आदिवासी और उसकी मित्र

The smartest Indian
शताब्दी का सबसे स्मार्ट भारतीय क्यूबैक संसद में  

सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Quebec photos by Anurag Sharma
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