Thursday, August 8, 2013

मन गवाक्ष चित्रावली - इस्पात नगरी से [64]

कैनेडा, संयुक्त राज्य, जापान और भारत के कुछ अलग से द्वारों की पुरानी पोस्ट "मेरे मन के द्वार - चित्रावली" की अगली कड़ी प्रस्तुत है। प्रस्तुत सभी चित्र अमेरिका महाद्वीप में लिए गए हैं।
मन गवाक्ष फिर फिर खुल जाये, शीतल मंद समीर बहाये
(इस्कॉन मंदिर माउण्ड्सविल, वेस्ट वर्जीनिया)
पंथी पथ के बदल रहे पर पथ बेचारे वहीं रहे
(इस्कॉन मंदिर माउण्ड्सविल, वेस्ट वर्जीनिया)

मन की बात सुना भी डालो, यह दर आज खुला ही छोड़ो
(पैलेस ऑफ गोल्ड, इस्कॉन मंदिर माउण्ड्सविल, वेस्ट वर्जीनिया)

द्वार भव्य है भवन अनूठा, पर मेरा तो मन है झूठा
(पैलेस ऑफ गोल्ड, इस्कॉन मंदिर माउण्ड्सविल, वेस्ट वर्जीनिया)

प्यार का इज़हार करेंगे, रोज़ तेरे द्वार करेंगे
(मांटेगो बे, जमयिका) 

द्वार बंद कोई आ न पाता, मन मानस सूना रह जाता
(ओचो रिओस, जमयिका)

स्वागत है ओ मीत हमारे, चरण पड़े जो इधर तुम्हारे
(ओचो रिओस, जमयिका) 

सपने में हर रोज़ जगाते, खुली आँख वह द्वार न पाते
(परदेस के एक भारतीय ढाबे में भित्तिचित्र)  

दिल खुला दर भी खुला था, मीत फिर भी न मिला था
(नॉर्थ पार्क, पिट्सबर्ग)

वसुंधरा का प्यार है, खुला-खुला ये द्वार है
(नॉर्थ पार्क, पिट्सबर्ग) 

दस द्वारे को पिंजरा, तामे पंछी कौन, रहे को अचरज रहे, गए अचम्भा कौन। ~ (संत कबीर?)
(नॉर्थ पार्क, पिट्सबर्ग)

[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photos by Anurag Sharma]

* सम्बन्धित कड़ियाँ *
* इस्पात नगरी से - श्रृंखला
* मेरे मन के द्वार - चित्रावली

Friday, August 2, 2013

कैन्टन एवेन्यू, बीचव्यू - इस्पात नगरी से [63]

बरेली में थे तो सब कुछ समतल था। बिहारीपुर का ढलान, या कुल्हाड़ापीर की चढ़ाई से आगे यदि कोई सोचता तो शायद छावनी की हिलट्रेक रोड ही थी। हाँ, नैनीताल बहुत दूर नहीं था। सैर के लिए लोग गर्मियों में अक्सर वहाँ जाते थे। धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों के लिए पूर्णागिरी देवी का दर्शन पर्वत यात्रा का कारक बनाता था। इस शृंखला की पिछली कड़ी में हमने पिट्सबर्ग के हिमाच्छादित कुटिल पथों के नैसर्गिक सौन्दर्य को देखा था। आज फिर से हम पिट्सबर्ग की सैर पर निकले हैं। ऊंची, नीची, टेढ़ी मेढ़ी सड़कें। सावन के महीने में बर्फ तो नहीं है लेकिन टेढ़ापन मौसम से कहाँ बदलता है?


आपके साथ आज हम चलते हैं कैन्टन एवेन्यू (Canton Avenue) देखने जिसका ढलान (grade) 37% है। यह मामूली सी दिखने वाली संख्या किसी सड़क की चढ़ाई के लिए काफी बड़ी है, इतनी बड़ी कि सामान्यतः नज़रअंदाज़ रहने वाली मामूली सी सड़क कैन्टन एवेन्यू को आधिकारिक रूप से अमेरिका की सबसे ढलवां सड़क होने का गौरव प्राप्त है।

गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकोर्ड्स के अनुसार न्यूज़ीलैंड की बाल्डविन स्ट्रीट संसार की सबसे खड़ी चढ़ाई है। लेकिन जब उसके ढलान की बात आती है तब स्पष्ट होता है कि वास्तव में कैन्टन एवेन्यू ही संसार की सबसे खड़ी चढ़ाई वाली सड़क है। शुक्र है कि अमेरिका में वोट पाने के लिए इन मुद्दों की आक्रामक दूकानदारी का रिवाज नहीं है वरना ...  

कैन्टन एवेन्यू की कुल लंबाई 192 मीटर या 630 फुट है। इस पर तीन मीटर की क्षैतिज दूरी तय करने पर आप स्वतः ही 1.1 मीटर चढ़ लेते हैं। पिट्सबर्ग के लोगों को यह सड़क देखने पर कोई आश्चर्य नहीं होता क्योंकि बहुत से घरों के घास के मैदान भी इससे अधिक ढलवां होते हैं। लेकिन (ड्राइवेबल) सड़क की बात और है। सड़क के किनारे का फुटपाथ दरअसल सीढ़ियाँ हैं।

पिट्सबर्ग की "डर्टी दजन" साइकल रेस 12 चढ़ाइयों से गुजरती है जिनमें कैन्टन एवेन्यू सबसे महत्वपूर्ण है। इसी साइकिल दौड़ के कैन्टन एवेन्यू खंड की एक वीडियो क्लिप यूट्यूब के सौजन्य से प्रस्तुत है।


सम्बन्धित कड़ियाँ
* इस्पात नगरी से - श्रृंखला
* डर्टी दजन साइकल रेस
* कैन्टन एवेन्यू - विकीपीडिया
 

Monday, July 1, 2013

मार्जार मिथक गाथा

(अनुराग शर्मा)

बिल्लियाँ जब भी फुर्सत में बैठती हैं, इन्सानों की ही बातें करती हैं। यदि आप कभी सुन पाएँ तो जानेंगे कि उनके अधिकांश लतीफे मनुष्यों के बेढंगेपन पर ही होते हैं। कहा जाता है कि बहुत पहले बिल्लियों के चुटकुले भी बहुरंगी होते थे। फिर धीरे-धीरे आत्म-केन्द्रित इंसान प्रकृति के साथ-साथ बिल्लियों के हास्य-व्यंग्य पर भी कब्जा करता गया और अब तो कोई पढ़ी-लिखी बिल्ली इंसान की कल्पना किए बिना ढंग से हँस भी नहीं सकती है। बिल्लियों के विपरीत इन्सानों के चुट्कुले अपने और दूसरे के बीच के अंतर से उत्पन्न होते हैं। उनमें अक्सर दूसरे देश, धर्म, प्रांत या मज़हब के इन्सानों का ज़िक्र होता है। कभी-कभी उनमें गधे या कुत्ते जैसे सरल प्राणी शामिल होते हैं लेकिन अक्सर तो इंसानी साहित्य की अन्य विधाओं की तरह उनके लतीफों का दायरा भी सीमित ही रह गया है। लेकिन कुछ इंसान दूसरों से अलग हैं। वे इंसानी नस्ल के आगे भी सोचते हैं। मनुष्यमात्र की बात करना उनके लिए स्वार्थ का प्रतिमान है।

ऐसे टुन्नात्मिक प्रवृत्ति वाले लोगों का संसार बिल्ली-कुत्तों के दुख-दर्द, उनके राजनीतिक अधिकार, सरकार द्वारा मछलियों की अभिव्यक्ति के दमन और घोड़े-गदहे-जिराफ़ और गेहूँ-कमल-गुलाब की समानता के अधिकार के बारे में सोचता है। वे दुबले हुए जाते हैं इसीलिए आप सड़क पर खुजलाते आवारा कुत्तों को देख पाते हैं, वरना ज़ालिम नगर पालिका वाले उन्हें कब का पकड़ ले जाते। ये महात्मा लोग जीवित हैं इसीलिए गायें पोलीथीन की थैलियाँ खा सकती हैं, वरना तो भक्तजन गायों को भी पूजनीय देवी बनाकर मंदिरों और गौशालाओं में बांधकर रख देते। इन्हीं की दया से कर्तव्यनिष्ठ कसाई भेड़-बकरियों को मनुष्य की कैद से आज़ादी दिला पाते हैं। ये लोग आमतौर पर हम-आप जैसे अल्पज्ञ और नश्वर प्राणियों को घास नहीं डालते हैं। लेकिन थोड़ी पीने के बाद वे रहमदिल हो जाते हैं। ऊपर से अगर मुफ्त की मिल जाये फिर तो ये निस्वार्थ मनुष्य और भी दरियादिल दिखने लगते हैं।

ऐसी ही एक मुफ्तखोर पार्टी में जब दारूचन्द जी ने मेरे सलाम को इगनोर नहीं किया तो मेरा साहस बढ़ गया। मैं अपने कोला के गिलास को उनकी दारू के पास रखकर एक कुर्सी खींचकर उनके निकट बैठकर उनकी और उनकी मित्र मंडली की बातें ऐसे सुनता गया जैसे फेसबुक की मित्र-सूची से निकाला गया व्यक्ति अपने पुराने गैंग की वाल को पढ़ता है।

"मुहल्ले में चोरियाँ होने लगीं तो सबने कहा कि एक कुत्ता पाल लो।" ये सुरासिंह थे।
"अच्छा! फिर?" बाकियों ने समवेत स्वर में पूछा।
"चोर तो चोर, कुत्ते भी जब मेरे गली से गुज़रते थे, तो अपनी दुम दबाकर दूसरी ओर की दीवार से चिपककर चलते थे, ऐसे गरजता था मेरा टॉम।"
"गोल्डेन रिट्रीवर था कि जर्मन शेपर्ड?"
"बुलडॉग या लेब्रडोर होगा ... "
"अजी बिलकुल नहीं, मेरा टॉम तो शेर का मौसा है, एक खतरनाक बिलौटा।"
"आँय!" कुत्तापछाड़ बिलाव की बात सुनकर मेरा मुँह खुला का खुला रह गया लेकिन बाकी मंडली को कोई खास आश्चर्य नहीं हुआ। बल्कि यह किस्सा सुनकर पियक्कड़ कुमार "पीके" को अपनी बिल्ली याद आ गई।

पीके की बिल्ली का पिंजरा
"मेरी बिल्ली तो बहुत मक्कार है। रात में अपना पिंजरा छोडकर मेरे बिस्तर में घुस जाती थी" पीके ने कहा।
"अच्छा! फिर?" बाकियों ने समवेत स्वर में पूछा।
"फिर क्या? मैंने कुछ दिन बर्दाश्त क्या किया उसकी तो हिम्मत बढ़ती ही गई। अब तो वह मुझे धकिया कर पूरे बिस्तर पर ही कब्जा करने लगी।"
"ऐसे ही होता है। लोग आते हैं आव्रजक बनकर, फिर देश के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति बन जाते हैं।
"आप चुप रहिये! हर बात में राजनीति ले आते हैं ...", लोगों ने सुरासिंह को झिड़का, "फिर? आगे क्या हुआ"
"अब तो मैं सोते समय 10-12 तकिये लेकर सोता हूँ। बिल्ली के पास आते ही एंटी-एयरक्रेफ्ट मिसाइल की तरह एक-एक करके उस पर फेंकना शुरू कर देता हूँ। अकल ठिकाने आ जाती है।

सब सुना रहे थे तो भला अंगूरी प्यारी कैसे चुप रहतीं? अपनी ज़ुल्फें झटककर बोलीं, "मेरी दुलारी तो बस गायब ही हो गई थी!"
"आपसे डरकर?"
"शटअप!"
"अरे इसे छोड़िए, नादान है। आप अपना किस्सा सुनाये" दारूचन्द ने बात सम्भाली।
"कई दिन से लापता थी। पुलिस में रिपोर्ट भी लिखाई। जब कुछ नहीं हुआ तो एक प्राइवेट डिटेक्टिव रखा। उसकी कई हफ्तों की खोज के बाद पड़ोसी नगर के रेसकोर्स में मिली। पड़ोसियों के कुत्ते को भगाकर ले गई थी।
"अरेSSS गज़्ज़ब!" सभी ने आश्चर्य व्यक्त किया।

"आप तो काफी पिछड़े हुए लगते हैं। आपके पास तो बिल्ली नहीं होगी विलायत खाँ जी।"
"पिछड़े होंगे आप। हमारा तो पूरा खानदान ही बिल्लीपालक है। पुरखे शेर-चीते पालते थे। आज के जमाने में उन्हें खिलाने को गरीब लोग कहाँ ढूंढें, सो बिल्ली पालकर शौक पूरा कर रहे हैं।
"तो बिल्ली को खिलाने के लिए चूहे कहाँ ढूंढते हैं?"
"इत्ता टाइम कहाँ है अपने पास। पहले दूध पिलाते थे। अब तो हम कभी चाय पिला देते हैं कभी कॉफी। घटिया नस्ल की बिल्लियाँ कोक-पेप्सी भी पी लेती हैं लेकिन आला दर्जे की बिल्लियाँ रोज़ एक-दो पैग वोदका न पियें तो उन्हें नींद ही नहीं आती है।
"अच्छा! ये बात!" बाकियों ने समवेत स्वर में कहा।
"कभी ज़्यादा तंग करें तो मैं अपनी नशे की गोली भी खिला देता हूँ सुसरियों को।"
"क्या ज़माना आ गया है, आदमी तो आदमी, बिल्लियाँ भी नशा करती हैं।" सभी ने आश्चर्य व्यक्त किया।

"आप बड़े चुप-चुप हैं, आपके घर में बिल्ली नहीं है क्या?"
"जी नहीं! गुज़र गई!"
"कैसे?" सभी ने आश्चर्य से एकसाथ पूछा।
"बड़ी महत्वाकांक्षी थी"
"अच्छा! कैसे गुज़री?" सभी ने आश्चर्य व्यक्त किया।
"खबर फैली हुई थी कि चुनाव आ रहे हैं। सो अपने बच्चों को मुँह में दाबकर ..."
"इलेक्शन में खड़ी हो रही है?"
"चुनाव प्रचार को निकली?"
"ट्रक से कुचल गई?"
अरे नहीं, पूरी बात कहने तो दीजिये।"
"जी!"
"बाल बच्चों समेत गुजरात के लिए गुज़री है। सुना है कि मोदी पीएम बनेंगे तब सीएम की सीट खाली होगी न। हमारी बिल्ली की नज़र उसी पर है।"

[समाप्त]

Saturday, June 22, 2013

चाफ़ेकर बंधु - पहले क्रांतिकारी

1857 के स्वाधीनता संग्राम को कुचले हुए अर्ध-शताब्दी नहीं गुज़री थी। कुछ लोग अंग्रेजों की उपस्थिति से संतुष्ट थे, कुछ का गुज़ारा ही भ्रष्ट साम्राज्यवाद से चल रहा था लेकिन कुछ दिलों में क्रान्ति की ज्वाला अभी भी सुलग रही थी।

दामोदर, बालकृष्ण और वासुदेव चापेकर
अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद की नीतियों में लूटपाट के अलावा जबरिया विश्व व्यापार के जरिये अकूत धनोत्पादन भी शामिल था। इसके लिए अनेक अवांछित करों के अलावा भारत की परंपरागत कृषि के बजाय नकदी फसलों का उत्पादन कराया जा रहा था। भोले-भाले किसानों को विदेश में गन्ने की खेती शुरू करने के उद्देश्य से बंधुआ मजदूर बनाकर जलपोतों की तलहटी में ठूँसकर निर्यात किया जा रहा था। देश में अफीम, तंबाकू, नील आदि की खेती के कारण दुर्भिक्ष और भुखमरी सामान्य हो गए थे। क्रूर जमींदारों और सामंतों को सरकारी संरक्षण था लेकिन सामान्यजन का बुरा हाल था। फैक्टरी निर्मित कपड़े को दिये जा रहे सरकारी उकसावे के कारण बुनकरों की हालत खराब थी। कमोबेश यही हाल अन्य शिल्पकारों का भी था।

सन 1897: भारत का बड़ा भाग प्लेग की चपेट में था। अंग्रेज़ शासक अपने शाही ठाठ में डूबे हुए थे। समाचार थे कि बीमारों के इलाज के बजाय, सरकारी महकमा बीमारी सीमित करने के नाम पर पीड़ित क्षेत्रों की बलपूर्वक घेराबंदी (quarantine/isolation) में जूटा था। अनेक नगरों में बीमारों के दमन के लिए सेना बुला ली गई थी। पुणे में असिस्टेंट कलेक्टर चार्ल्स वाल्टर रैंड (Charles Walter Rand, ICS) द्वारा संचालित "स्पेशल प्लेग कमिटी" के अधिकारी डरहम लाइट इनफेंटरी के गोरे सैनिकों के साथ घर-घर में घुसकर सतही लक्षणों के आधार पर परिवार की संपत्ति का नाश करके परिजनों, महिलाओं, बच्चों को पकड़कर ले जाने लगे। सामान जलाए गए, मूर्तियाँ तोड़ी गईं। पवित्र स्थल जूतों और संगीनों से अपवित्र किए गए। शवयात्रा और बिना आज्ञा दाह संस्कार अपराध घोषित कर दिया गया। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के प्रति अपने प्रेम और प्रतिबद्धता के लिए प्रसिद्ध भारतीय यह सब नहीं सह सके। स्पेशल प्लेग कमिटी, सैनिक दमन, सड़ती लाशों और प्लेग से आसन्न मृत्यु की आशंका के बीच पुणे की जनता तड़प रही थी। गोपाल कृष्ण गोखले ने गोरे सिपाहियों द्वारा किए गए दो बलात्कारों का ज़िक्र भी किया है जिनमें से एक की परिणति आत्महत्या में हुई।

इस दुष्काल मे भी जब अंग्रेजों ने मानव जीवन के प्रति पूरी निष्ठुरता दिखाकर रानी विक्टोरिया के राज्याभिषेक के हीरक जयंती समारोह मनाने शुरू कर दिये तो जनता का खून खौलने लगा। चिंचवाड़ निवासी श्रीमती द्वारका और श्री हरि विनायक चाफेकर के पुत्रों ने ऐसा कुछ करने की ठानी जो दशकों में नहीं हुआ था। 22 जून 1897 को मुख्य सरकारी समारोह की शाम को दो भाई, दामोदर हरि चाफेकर और बालकृष्ण हरि चाफेकर समारोह स्थल के निकट गणेशखिंड रोड (वर्तमान: सेनापति बापट मार्ग) पर एक-एक तलवार और पिस्तौल के साथ खड़े होकर रैंड के आने का इंतज़ार करने लगे।

गाड़ी पहचानने के बाद वे भीड़ के कारण अपनी तलवारें पीछे छोडकर समारोह स्थल की भीड़, बैंड और आतिशबाज़ी के बीच होते हुए भवन के निकट रैंड की गाड़ी के वापस आने के इंतज़ार मे खड़े हुए। गाड़ी आने पर दामोदर ने संकेत दिया, "गोंड्या आला रे!" बालकृष्ण ने गोलियां चलाईं तो गाड़ी पलट गई। भाइयों को पता लगा कि गोली रैंड को नहीं बल्कि उसके अंगरक्षक लेफ्टिनेंट चार्ल्स एगर्टन अरस्ट (Lt. Charles Egerton Ayerst) को लगी थी। इस बार बालकृष्ण की गोली चली और रैंड को लगी जो कि बाद में (3 जुलाई 1897 को) ससून अस्पताल में मर गया।

दामोदर हरि चाफेकर को 18 अप्रैल 1898 को तथा अन्य बंधुओं और साथी महादेव रानाडे को बाद में फांसी दे दी गई। एक बालक विष्णु साठे को दस वर्ष का कठोर कारावास दिया गया। लेकिन इस कृत्य ने विदेशी साम्राज्यवाद के सशस्त्र विद्रोह की बुझती चिंगारी को पुनरुज्ज्वलित कर दिया जो अंततः स्वतंत्र भारत के रूप में चमकी।

हुतात्माओं की जय! अमर हो स्वतन्त्रता!

संबन्धित कड़ियाँ
रामवाड़ी राम मंदिर - क्रांतिवीर चाफ़ेकर बंधु राष्ट्रीय स्मारक
* क्रांतिवीर चापेकरांचे समूहशिल्प पूर्ण होणार तरी कधी?

Monday, June 17, 2013

खूब लड़ी मर्दानी...

रानी लक्ष्मीबाई "मनु" (१९ नवम्बर १८३५ - १७ जून १८५८)
मणिकर्णिका दामोदर ताम्बे
(रानी लक्ष्मी गंगाधर राव*)
आज से डेढ़ सौ साल पहले उस वीरांगना ने अपना पार्थिव शरीर छोडा था। जिनसे देशहित में सहायता की उम्मीद थी उनमें से बहुतों ने साथ में या पहले ही जान दे दी। जब नाना साहेब, तात्या टोपे, रानी लक्ष्मी बाई, और खान बहादुर आदि खुले मैदान में अंग्रेजों से लोहा ले रहे थे तब तात्या टोपे ने इस बात को समझा कि युद्ध में सफल होने के लिए उन्हें ग्वालियर जैसे सुरक्षित किले की ज़रूरत है। अंग्रेजों के वफादार सिंधिया ने अपनी तोपों का मुँह रानी की सेना की ओर मोड़ दिया परन्तु अंततः आज़ादशाही सेना ने किले पर कब्ज़ा कर लिया। सिंधिया ने भागकर आगरा में अंग्रेजों की छावनी में शरण ली। युद्ध चलता रहा। बाद में १७ जून १८५८ को रानी वीरगति को प्राप्त हुईं। ध्यान देने की बात है कि मृत्यु के समय इस वीर रानी की आयु सिर्फ़ २३ वर्ष की थी।

रानी की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने तात्या टोपे को पकड़ लिया। विद्रोह को कुचल दिया गया और तात्या को बार फाँसी चढाया गया। यद्यपि तात्या टोपे पर उनके वंशजों द्वारा किये शोध के अनुसार अंग्रेजों द्वारा पकड़े गए तात्या असली नहीं थे और असली तात्या टोपे की मृत्य एक छापामार युद्ध में गोली लगने से हुई थी। स्वतन्त्रता सेनानियों के परिवारजन दशकों तक अँगरेज़ और सिंधिया के सिपाहियों से छिपकर दर-बदर भटकते रहे। रानी के बारे में सुभद्रा कुमारी चौहान के गीत "बुंदेले हरबोलों के मुँह..." से बेहतर श्रद्धांजलि तो क्या हो सकती है? अपनी वीरता से रानी लक्ष्मीबाई ने फिर से यह सिद्ध किया कि अन्याय से लड़ने के लिए महिला होना या अल्पायु होना कोई बाधा नहीं है।

ज्ञातव्य हो कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज में पहली महिला रेजिमेंट का नामकरण रानी लक्ष्मीबाई के सम्मान में किया था।

(~ अनुराग शर्मा)
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* 1857 की मनु - झांसी की रानी लक्ष्मीबाई
* झांसी की रानी रेजिमेंट
* सुभद्रा कुमारी चौहान
* यह सूरज अस्त नहीं होगा
* खुदीराम बासु
* रानी लक्ष्मी बाई की जीवनी
* The Rani of Jhansi - Time Specials

[मूल आलेख की तिथि: 18 जून 2009; Thursday, June 18, 2009; *चित्र ब्रिटिश लायब्रेरी से]

Friday, June 7, 2013

सुखांत - एक छोटी कहानी

(कथा व चित्र: अनुराग शर्मा)

इंडिया शाइनिंग के बारे में ठीक से नहीं कह सकता लेकिन इतना ज़रूर है कि गांव बदल रहे हैं। धोती-कुर्ते की जगह पतलून कमीज़, चुटिया की जगह घुटे सिर से लेकर फ़िल्मस्टार्स के फ़ैशनेबल इमिटेशन तक, घोड़े, इक्के, बैलगाड़ी की जगह स्कूटर, मोटरसाइकिल और चौपहिया वाहन। किसी-किसी हाथ में दिखने वाले मरफ़ी या फिलिप्स के ट्रांज़िस्टर की जगह हर हाथ में दिखने वाले किस्म-किस्म के मोबाइल फोन।  अनजान डगर, तंग गलियाँ छोटा सा कस्बा। क्या ढूंढने जा रहा है? क्या खोया था? मन? क्या इतने वर्ष बाद सब कुछ वैसा ही होगा? बारह साल बाद तो कानूनी अधिकार भी समाप्त हो जाते हैं शायद। तो क्या लम्बे समय पहले खोया हुआ मन कभी वापस मिलेगा? न मिले, एक बार देख तो लेगा।

मुकेश का परिवार पास ही रहता था। तब वे दोनों बारहवीं कक्षा में एकसाथ ही पढते थे। मनोज अपने घर में अकेला था पर मुकेश की एक छोटी बहन भी थी, नीना। वह कन्या विद्यालय में दसवीं कक्षा में जाती थी। शाम को तीनों साथ बैठकर होमवर्क भी करते और दिनभर का रोज़नामचा भी देखते। प्राइवेसी की आज जैसी धारणा उनके समाज में नहीं थी। उनकी उम्र ज़्यादा नहीं थी, वही जो हाई स्कूल-इंटर के औसत छात्र की होती है लेकिन नीना के लिये रिश्ता ढूंढा जा रहा था। ऊँची जाति लेकिन ग़रीब घर की बेटी का रिश्ता हर बार जुड़ने से पहले ही दहेज़ की बलि चढ जाता।

एक शाम मनोज से गणित के सवाल हल करने में सहायता मांगते हुए अचानक ही पूछ बैठी मासूम। दादा, आप भी अपनी शादी में दहेज़ लेंगे क्या?

"कभी नहीं। क्या समझा है मुझे?"

"तो फिर आप ही क्यों नहीं कर लेते मुझसे शादी?"

यह क्या कह दिया था नीना तुमने? विचारों का एक झंझावात सा उठ खडा हुआ था। वह ज़माना आज के ज़माने से एकदम अलग था। उस ज़माने के नियमों के हिसाब से तो मुकेश की बहन मनोज की भी बहन होती थी। बल्कि पिछले रक्षाबन्धन पर तो वह राखी बांधने भी आयी थी, गनीमत यह थी कि मनोज उस दिन मौसी के घर गया हुआ था।

"यह सम्भव नहीं है नीना।"

"सब कुछ सम्भव है, आपमें साहस ही नहीं है।"

"पता है क्या कह रही हो? जो मुँह में आया बोल देती हो।"

"मुझे अच्छी तरह पता है, तभी कहा है। इतनी पागल भी नहीं हूँ मैं। आप तो वहीं करना जहाँ मोटा दहेज़ मिले।"

समय बीता। नीना की शादी भी हुई, पर हुई एक दुहाजू लड़के से। लड़का कहना शायद ठीक न हो। वर की आयु मनोज और नीना के पिता की आयु का औसत रही होगी। वर की आर्थिक स्थिति शायद नीना के पिता से भी गिरती हुई थी। हाँ दहेज़ का प्रश्न बीच में नहीं आया। एकाध बार मनोज के मन में कुछ चुभन सी हुई लेकिन छोटी जगह का भाग्यवादी माहौल। मनोज ने यही सोचकर मन को समझा लिया कि नसीब से अधिक किसे मिलता है।

कई वर्ष गुज़र गये। बीए करके मनोज को साधारण बीमा में पद मिल गया। माँ को साथ ही बुला लिया। गाँव का घर बेचकर कुछ पैसे भी मिल गये, जो माँ के नाम से बैंक में जमा करा दिये। पिछले दिनों मौसेरे भाई की शादी में गाँव जाने पर मुकेश मिला। पुराने किस्से खुले। पता लगा कि लम्बी बीमारी के बाद नीना के पति की मृत्यु हो गयी थी। तभी से दिल बेचैन था उसका ...

ज़्यादा ढूंढना नहीं पड़ा। नीना के पति का नाम बताने भर से काम हो गया। गन्दी गली का जर्जर घर। दरवाज़े की जगह टाट का पर्दा। सूखकर कांटा हो रही थी नीना लेकिन उस चिर-परिचित मासूम चेहरे को पहचानना बिलकुल भी कठिन न था। बड़ी-बड़ी आँखें कुछ और बड़ी हो गई थीं। बिना डंडी के कप में चाय पीते हुए मनोज बात कम कर रहा था, नीना उत्साह में भरी बोलती जा रही थी और मनोज उसके चेहरे में उसका खोया हुआ कैशोर्य और अपना खोया हुआ भाग्य ढूंढ रहा था। तभी वह आया, "नमस्ते!"

"जुग जुग जियो!" कहते कहते कराह सा उठा मनोज, "क्या हुआ है इसे?"

"बचपन से ही ऐसा है, चल नहीं सकता" नीना ने सहजता से कहा।

"गली भर में सबसे तेज़ दौड़ता हूँ मैं ..." कहते ही बच्चे ने उस छोटे से कमरे में हाथों के सहारे से तेज़ी से एक चक्कर लगाया और फिर मनोज को देख कर मुस्कुराया ।

शहर वापस तो आना ही था। काम-धाम तो छोड़ा नहीं जा सकता। मन कहीं भी फंसा हो, द शो मस्ट गो ऑन।
...
खंडहर भी महल हो जाते हैं कभी? बीते लम्हे मिल पाते हैं कभी?


अध्यापिका ने पूछा, "बच्चे का नाम?"

"रतन"

"माता पिता का नाम?"

मनोज के चेहरे पर मुस्कुराहट तैर गयी जब बड़ी-बड़ी आँखें बोलीं, "नीना और मनोज कुमार।"


[समाप्त]

Thursday, May 30, 2013

माओवादी नक्सली हिंसा हिंसा न भवति*

अज्ञानी, धृष्ट और भ्रष्ट संसद तब होती है जब जनता अज्ञान, धृष्टता और भ्रष्टाचार को बर्दाश्त करती है ~जेम्स गरफील्ड (अमेरिका के 20वें राष्ट्रपति) जुलाई 1877
बस्तर का शेर
25 मई 2013 को छत्तीसगढ़ की दरभा घाटी में 200 माओ-नक्सल आतंकियों द्वारा किए गए नरसँहार की घटना की खबर मिलते ही व्यापक जनविरोध की आशंका के चलते फेसबुक आदि सोशल साइटों पर आतंकवाद समर्थकों का संगठित प्रोपेगेंडा अभियान तेज़ी से चालू हो गया जिसमें इस हत्याकांड में शामिल अङ्ग्रेज़ी और तेलुगुभाषी आतंकवादियों को स्थानीय आदिवासी बताने से लेकर संगठित हत्यारों के "दरअसल" भूखे-नंगे और मजबूर आदिवासी होने जैसे जुमले फिर से दोहराए गए। कई कथाकारों ने नियमित फिरौती वसूलने वाले हत्यारों को रक्तचूषक समाज की देन भी बताया।

कुछ लोग यह भी कहने लगे कि आदिवासी क्षेत्रों में विकास न होना या उसका धरातल तक नहीं पहुँचना, हत्यारे माओवादियों के उत्थान का कारण है। यदि यह बात सच होती तो नक्सली किताबों मे विकास की हर मद पर वसूली के रेट फ़िक्स न किए गए होते। सच यह है कि दुर्गम क्षेत्रों मे होने वाले हर विकासकार्य पर माओवादी माफिया रंगदारी करता है और मनमर्जी मुताबिक अपहरण, हत्या और फिरौती भी अपने तय किए भाव पर वसूलता है। अपने अपराधी स्वार्थ के चलते सड़कमार्ग अवरुद्ध करने से लेकर उन्हें यात्रियों व वाहनों समेत बारूदी सुरंगों से उड़ा देना इन आतंकवादियों के लिए चुटकी बजाने जैसा सामान्य कर्म है। सच यह है कि आदिवासी क्षेत्रों में विकास के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा माओवाद/नक्सलवाद के नाम पर चल रहा हिंसक व्यवसाय ही है। गंदा है, खूँख्वार है, दानवी है लेकिन उनके लिए मुनाफे का धंधा है।

एक बंधु बताने लगे कि आदिवासी मूल के निहत्थे महेंद्र कर्मा के हाथ पीछे बांधकर उन पर डंडे और गोली चलाने के साथ-साथ धारदार हथियार से 78 घातक वार करने वाले "निर्मल हृदय" आतंकियों ने उसी जगह मौजूद एक डॉक्टर को मारने के बजाय मरहम पट्टी करके छोड़ दिया। यह सच है कि आम आदमी को कीड़े-मकौड़े की तरह मसलने को आतुर माओवादी अब तक सामान्यतः स्वस्थ्य कर्मियों - विशेषकर डॉक्टरों - के प्रति क्रूर नहीं दिखते हैं। लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि बस इस वजह से वे देवता हो जाएंगे। दुर्गम जंगलों में दिन-रात रक्तपात करने वाले गिरोहों के लिए चिकित्सकीय जानकारी रखने वाले व्यक्ति भगवान से कम नहीं होते। माओवादी जानते हैं कि जिस दिन वे स्वास्थ्यकर्मियों के प्रति अपना पेटेंटेड कमीनापन दिखाएंगे उस दिन उनके आतंक की उम्र आधी रह जाएगी।
नक्सल हमले में बचे डॉक्टर संदीप दवे ने बताया कि नक्सलियों के पास बंदूकें तो थी हीं, लैपटॉप और आईपैड जैसे आधुनिक उपकरण भी थे। वो बोतलबंद पानी पी रहे थे। नक्सली आपस में अंग्रेजी में बात कर रहे थे। इनमें महिला आतंकवादी भी शामिल थीं। ये लोग बातचीत के लिए वॉकी-टॉकी का भी इस्तेमाल कर रहे थे। पिंडारी ठगों की जघन्यता को शर्मिन्दा करने वाले इन दानवों ने शवों पर खड़े होकर डांस किया, मृत शरीरों को गोदा और आंखें निकाल कर अपने साथ ले गए।
माओवादियों को स्थानीय आदिवासी बताने वाले भूल जाते हैं कि उनके बाहर से थोपे जाने के सबूत उनकी हर कार्यवाही में मिलते रहे हैं। इस घटना में भी विद्याचरण शुक्ल के ड्राइवर द्वारा आतंकियों से तेलुगू में संवाद करके उन्हें अतिरिक्त हिंसा से बचा लेना यही दर्शाता है कि यह गिरोह स्थानीय नहीं था। इसी तरह कर्मा व अन्य लोगों द्वारा कर्मा की पहचान करने के बावजूद वे 200 आतंकवादी देर तक तय नहीं कर पा रहे थे कि नेताओं के दल में कर्मा कौन है। आदिवासी क्षेत्र में पीढ़ियों से स्थापित प्रसिद्ध आदिवासी नेता को पहचान तक न पाना इस गिरोह के बाहर से आए होने का एक और सबूत है। बाहर से आने पर भी उन लोगों को अपने निशाने की पहचान समाचार पत्रों आदि के माध्यम से कराये जाना कोई कठिन बात नहीं लगती। लेकिन तानाशाही व्यवस्थायेँ अपने दासों के हाथ में रेडियो, अखबार आदि नहीं पहुँचने देती हैं। उन्हें केवल वही खबर मिलती है जो आधिकारिक प्रोपेगेंडा मशीनरी बनाती है।

माओवाद का प्रोपेगेंडा सुनने वालों को जानना होगा कि पकड़े गए आतंकवादियों के अनुसार पिछले पांच वर्षों में माओ-नक्सली पूंजी का वार्षिक कारोबार 1400 करोड़ रुपए से बढ़कर लगभग चार हजार करोड़ रुपए हो गया है। फिरौती, अपहरण और उगाही की दरें हर वर्ष बढ़ाई जाती रही हैं। माओवादियों के आश्रय तले ठेकेदार वर्ग फल-फूल रहा है और छत्तीसगढ़ में भ्रष्टाचार और शोषण में बाधक बनने वाले आदिवासियों को माओवादियों द्वारा मौत के घाट उतारा जाता रहा है। आदिवासियों को सशक्त करने का कोई भी प्रयास चाहे जन-जागृति के रूप में हो चाहे सलवा-जुड़ूम जैसे हो, माओवादियों को अपने धंधे के लिए सबसे बड़ा खतरा महसूस होता है।

निहत्थे निर्दोष आदिवासी परिवारों पर नियमित रूप से हो रही माओवादी हिंसा का जवाब था सलवा जुड़ूम जिसके तहत चुने हुए ग्रामों के आदिवासियों को सशस्त्र किया गया था और यह आंदोलन आतंकियों की आँख की किरकिरी बन गया। जिन्हें वे निर्बल समझकर जब चाहे भून डालते थे जब वे उनके सामने खड़े होकर मुक़ाबला करने लगे तो आतंकियों की बौखलाहट स्वाभाविक ही थी। मैं यह नहीं कहता कि सलवा जुड़ूम आतंकी समस्या का सम्पूर्ण हल था क्योंकि आतंकी समस्या के सम्पूर्ण हल में प्रशासनिक व्यवस्था की वह स्थिति होनी चाहिए जिसमें हर नागरिक निर्भय हो और किसी को भी व्यक्तिगत सुरक्षा की आवश्यकता न पड़े। लेकिन ऐसी स्थिति के अभाव में आदिवासियों को माओवादियों से आत्मरक्षा करने का अवसर और अधिकार मिलना ही चाहिए था, वह चाहे सलवा जूडूम के रूप में होता या किसी अन्य बेहतर रूप में। चूंकि महेंद्र कर्मा कम्युनिस्ट विचारधारा छोड़ चुके थे और अब आदिवासी सशक्तीकरण से जुड़े थे, माओवादियों की हिटलिस्ट में उनका नाम सबसे ऊपर था। उनके आदिवासी परिवार के अनेक सदस्य पहले ही माओवादियों की क्रूर जनविनाशकारी पद्धतियों के शिकार बन चुके थे।

माओवाद के कुछ लाभार्थी, स्वार्थी या/और भयभीत लोग इन आतंकवादियों के पक्ष में खड़े होकर फुसफुसाते हैं कि "माओवाद एक मजबूरी है" या फिर, "नक्सली भी हमारे में से ही भटके हुए लोग हैं"। क्या ऐसे लोग यही कुतर्क अपने बीच के भटके हुए अन्य चोरों, बलात्कारियों, हत्यारों, रंगदारों, बस-ट्रेन में बम फोड़ने वाले हलकट आतंकवादियों के पक्ष में भी देते हैं? यदि हाँ, तो आप अपना भय लोभ, लाभ और स्वार्थ अपनी जेब में रखिए। सच यह है कि वर्तमान माओवाद/नक्सलवाद कोई क्रांतिकारी विचारधारा नहीं बल्कि आतंकवाद और क्रूर हिंसा के दम पर चलने वाली शोषक और निरंकुश तानाशाही है जो कि दुर्गम क्षेत्रों के निहत्थे आदिवासियों का खून चूसकर वहाँ की अराजकता, प्रशासनिक अव्यवस्था और भ्रष्टाचार का सहारा लेकर विषबेल की तरह फलफूल रही है।
लोकतन्त्र का एक ही विकल्प है - बेहतर लोकतन्त्र
माओवाद में दो धाराओं का सम्मिश्रण दिखता है, आतंकवाद और कम्यूनिज़्म। इसलिए माओवाद की हक़ीक़त पर एक नज़र डालते समय इन दोनों को ही परखना पड़ेगा।

संसार की हर समस्या के लिए पूंजीवाद की आड़ लेकर लोकतन्त्र को कोसते हुए माओवादी आतंक का समर्थन करने वाले भूल जाते हैं उधार की विचारधारा, बारूद और फिरौती के दम पर आदिवासियों को गुलाम बनाकर उनकी ज़मीन और जीवन पर जबरिया कब्जा करने वाले माओवादियों के पूंजीवाद से अधिक शोषक रूप पूंजीवाद कभी ले नहीं पाएगा। जिस लोकतन्त्र व्यवस्था को पूंजीवाद का नाम देकर माओवादी और उनके भोंपू रक्तचूषक बता रहे हैं, वह लोकतान्त्रिक व्यवस्था न केवल जीवन के प्रति सम्मान, बराबरी, शिक्षा और अन्य मूल मानवाधिकारों की समर्थक है बल्कि अधिकांश जगह व्यवस्था बनाए रखने का प्रयास भी करती है। जबकि माओवाद, नक्सलवाद और दूसरे सभी तरह के आतंकवाद हत्या, लूट, जमाखोरी और प्रोपेगंडा के अलावा कुछ भी रचनात्मक नहीं करते। लोकतन्त्र के मूलभूत अधिकारों का लाभ उठाते हुए कुछ लोग माओवादियों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की बात भी करते हैं। लेकिन ऐसी मक्कारी दिखाते समय वे यह तथ्य छिपा लेते हैं कि व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, जीवन और अभिव्यक्ति का सम्मान तभी तक टिकेगा जब तक लोकतन्त्र बचेगा। माओवाद सहित कम्युनिज़्म की सभी असहिष्णु विचारधाराओं में इलीट शासकवर्ग की बंदूक और टैंकों के सामने निरीह जनता को व्यक्तिगत संपत्ति और अभिव्यक्ति दोनों का ही अधिकार नहीं रहता।

यहाँ यह याद दिलाना ज़रूरी है कि नेपाल के सबसे बड़े नव-धनिकों में आज सबसे ऊपर के नाम माओवादी नेताओं के ही हैं। पूंजीवाद को दिन में सौ बार गाली निकालने वाले माओवादी काठमाण्डू के सबसे महंगे आवासों में तो रहते ही हैं, देश-विदेश में उनका निवेश चल रहा है और व्यवसाय पनप रहे हैं। उनके परिजनों का भ्रष्टाचार जगज़ाहिर है। भारत में भी कम्युनिस्टों सहित अधिकांश सांसदों की पूंजी लाखों में नहीं करोड़ों में है। बेशक, भारतीय माओवाद के सबसे ऊपर के लाभान्वित वर्ग के नाम अभी भी एक रहस्य हैं, लेकिन इतना साफ है कि ये लोग जो भी हैं, इनका हित आतंक, हिंसा, दमन, भ्रष्टाचार और अव्यवस्था में निहित है और ये पीड़ित क्षेत्रों में हर कीमत पर यथास्थिति बनाए रखना चाहेंगे।
माओ-नक्सल आतंकवाद के रूप में भारत के आदिवासी क्षेत्र के मजबूर नागरिक कम्यूनिज़्म के क्रूर चेहरे से रोजाना दो-चार हो रहे हैं। कम्यूनिज़्म पूंजीवाद का निकृष्टतम रूप है जिसमें एक चांडाल चौकड़ी देश भर के संसाधनों की बंदरबाँट करती है और आम आदमी से व्यक्तिगत धन-संपत्ति तो क्या व्यक्तिगत विश्वास रखने का अधिकार तक छीन लिया जाता है। एक बार लोकतन्त्र का स्वाद चख चुकी जनता किसी भी तानाशाही को बर्दाश्त नहीं करेगी, चाहे वह राजतंत्र, साम्यवाद, धार्मिक, सैनिक तानाशाही या किसी अन्य रूप में हो।
येन-केन प्रकारेण सत्ता हथियाने की जुगत में लगे रहकर लाल चश्मे से बारूदी स्वर्ग के ख्वाब देखने-दिखाने वाले खलनायक अपनी असलियत कब तक छिपाएंगे? असली कम्यूनिज़्म के चार हाथ हैं - आतंक, दमन, जमाखोरी और प्रोपेगेंडा। जनता की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, संपत्ति, विश्वास, अधिकार छीनने वाली अमानवीय (अ)व्यवस्था कभी टिक नहीं सकती। जहां-जहां भी जबरिया थोपी गई वहीं के किसान-मजदूरों ने उसे उखाड़ फेंका। आतंक के बल पर गिनती के तीन देश अभी बचे हैं, बाकी जगह माओवाद, नक्सलवाद या मार्क्सवाद के नाम पर पैसा वसूली और आतंक फैलाने का काम ज़ोरशोर से चल रहा है। वर्तमान कम्युनिस्ट शासनों की त्वरित झलकियाँ:
  • चीन - साम्राज्यवाद और पूंजीवाद का निकृष्टतम रूप, भ्रष्टाचार का बोलबाला, किसान-मजदूर के लिए दमनकारी
  • नक्सलवाद/माओवाद - क्रूर हिंसा, फिरौती, अपहरण, तस्करी, यौन-शोषण, सत्ता-मद और आतंकवाद में गले तक डूबा
  • क्यूबा - जनता के लिए गरीबी, रोग,हताशा और सत्ताधारी कम्युनिस्टों के लिए वंशवादी राजतंत्र
  • उत्तर कोरिया - कम्युनिस्ट शासकों के लिए वंशवादी राजतंत्र, पड़ोसियों के लिए गुंडागर्दी, जनता को भुखमरी व मौत
अंडरवर्ड आज नए रूपों में एवोल्व हुआ है जिसमें तस्करी और हत्या के पुराने तरीकों के साथ दास-व्यापार, यौन-शोषण, फिरौती और आतंकवाद समाहित हुआ है। कश्मीर में कार्यरत मुजाहिदीन हों या श्रीलंका के टाइगर, दक्षिण का तस्कर वीरप्पन हो या पश्चिम का दाऊद इब्रहीम, नृशंसता से मुनाफाखोरी में रत इन दानवों का किसी भी विचारधारा से कोई संबंध नहीं है। विचारधाराएँ इनके लिए आड़ से अधिक महत्व नहीं रखतीं ताकि तात्कालिक लाभ देखने वाले स्वार्थी मूर्ख इनके दुष्कृत्यों का समर्थन करते रहे हैं। दुर्भाग्य से देश में तात्कालिक लाभ देखने वाले स्वार्थी मूर्खों की कोई कमी नहीं है। लेकिन जिस प्रकार कश्मीर में मुजाहिदों ने हिंदुओं से अधिक हत्यायेँ मुसलमानों की की हैं और खलिस्तानियों ने सिखों को लगातार अपना निशाना बनाया उसी प्रकार माओवादी भी आदिवासियों के नाम का प्रयोग अपने आतंक की आड़ के लिए कर रहे हैं। सब जानते हैं कि उनके कुकर्मों से सबसे अधिक प्रभावित तो आदिवासी वर्ग ही हुआ है।

लाभ और लोभ के लिए कत्ल करने, इंसान खरीदने, बेचने और अपना ज़मीर खुद बेचने वाले हर देश-काल में थोक में मिलते रहे हैं। जरूरत है इस प्रवृत्ति पर लगाम लगाने की, और उसके लिए ज़रूरत है सक्षम प्रशासन की जो कि हमारे देश में - खासकर दुर्गम क्षेत्रों में - लगभग नापैद है। आतंकवादियों के साथ तो कड़ाई ज़रूरी है ही, बारूदी सपने से सम्मोहित और लाभान्वित लोग जो आम जनता के बीच रहते हुए भी दानवी विचारधारा के प्रचार-प्रसार में लगे हैं और आतंक को आश्रय भी दे रहे हैं। अर्थ-बल-सत्ता के इन लोभियों पर भी समुचित कार्यवाही होनी चाहिए ताकि कोई भी इन समाजविरोधी हिंसक अत्याचारों का वाहक न बने।

दरभा घाटी की घटना के बाद काँग्रेस दल की सुरक्षा में चूक के मद्देनजर पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई कि खबरें आने से एक और बात साफ होती है। वह है सरकार की संकीर्ण दृष्टि और अदूरदर्शिता। यह सच है कि इन क्षेत्रों में स्थानीय प्रशासन का अभाव है इसलिए दल को सुरक्षा की ज़रूरत थी। लेकिन लोकतन्त्र में सरकार जनता की प्रतिनिधि होती है और हमारे नेताओं को समझना चाहिए कि यहाँ की जनता को भी प्रशासन और सुरक्षा की ज़रूरत है। जब तक आम आदमी सुरक्षित महसूस नहीं करेगा, आतंकवाद का नासूर पनपता रहेगा। अपनी प्रतिनिधि सरकार चुनते समय जनता यह अपेक्षा करती है कि वे उसके हित की बात करेंगे, उसे प्रशासन, व्यवस्था, मूल अधिकार और निर्भयता और स्वतन्त्रता से जीने का वातावरण प्रदान करेंगे न कि केवल वहाँ सुरक्षा भेजेंगे जहां नेताओं कि टोली अपना प्रचार करने निकले।

महेंद्र कर्मा की हत्या आतंकवादियों द्वारा आदिवासी समुदाय के गौरव और आत्मविश्वास पर एक गहरी चोट तो है ही, एक बड़ी प्रशासनिक असफलता को भी उजागर करती है। इसके साथ ही यह जनता द्वारा अपने प्रतिनिधि आप चुनने के अधिकार पर बड़ा कुठराघात है। कम से कम इस घटना के बाद सरकारें जागें और नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने को अपनी प्राथमिकता मानें। यदि उनके वर्तमान कर्मचारी इस कार्य में उपायुक्त या सक्षम नहीं हैं तो अनुभवी और सक्षम सलाहकारों की नियुक्ति की जाये।

माओवाद प्रभावित राज्यों को भारत में आतंकवाद के सफल मुक़ाबले के लिए प्रसिद्ध केपीएस गिल जैसे व्यक्तियों के अनुभव का पूरा लाभ उठाना चाहिए। देश में यदि उच्चस्तरीय रणनीतिकारों की कमी है तो जैसे सरकार ने पहले सैम पित्रोड़ा जैसे विशेषज्ञों को विशिष्ट कार्यों के लिए बुलाया था उसी प्रकार इस क्षेत्र में विख्यात विशेषज्ञों को आमंत्रित करके समयबद्ध कार्यक्रम चलाया जाए। कई लोग चीन जैसी तानाशाही के क्रूर तरीके अपनाने की दुहाई देते हैं, उन्हें याद रखना चाहिए कि एक लोकतान्त्रिक परंपरा में कम्युनिस्ट देशों द्वारा अपनाई गई दमनकारी और जनविरोधी नीतियों के लिए कोई स्थान नहीं है। जब छोटा सा लोकतन्त्र श्रीलंका अपने उत्तरी क्षेत्रों में दुर्दांत एलटीटीई का सफाया कर सकता है तो भारत इन माओवादियों से क्यों नहीं निबट सकता?

केंद्रीय बलों को जंगलों के बीच वर्षों से जमे माओवादियों का मुक़ाबला करने के लिए निपट अनजान जगहों पर भेजने से पहले स्थानीय पुलिस को जिम्मेदार, सक्षम और चपल बनाने के गंभीर प्रयास होने चाहिए। राजनेता, पुलिस, प्रशासन, और जनता के काइयाँ वर्ग की मिलीभगत से पनप रहे भ्रष्टाचार का कड़ाई से मुक़ाबला हो और (कम से कम) आपराधिक मामलों में न्याय व्यवस्था को सस्ता और त्वरित बनाया जाए। ऐसी समस्याओं के पूर्णनिदान में थानों और अदालतों के नैतिक पुनर्निर्माण के महत्व को नकारा नहीं जा सकता है।

देखा गया है कि नरसँहार की जगहों पर माओवादी अक्सर बड़ी संख्या में मौजूद होते हैं, ऊंची पहाड़ियाँ आदि सामरिक स्थलों पर होते हैं और बारूदी सुरंगों से लेकर अन्य मारक हथियारों समेत मौजूद होते हैं। यह सारी बातें स्थानीय प्रशासन की पूर्ण अनुपस्थिति दर्शाती हैं। सैकड़ों के झुंड में माओवादी दल अपने हथियारों के साथ सामरिक स्थलों पर बार-बार कैसे इकट्ठे हो सकते हैं? इतने सालों में अब तक प्रशासन ऐसे स्थल चिन्हित करके उन पर नियंत्रण भी नहीं बना सका, इनके मूवमेंट को पकड़ नहीं सका, यह समझना कठिन है। जनता तो पहले ही माओवादी आतंक से त्राहि कर रही है। उनके खात्मे के लिए आमजन थोड़ी असुविधा सहने के लिए आराम से तैयार हो जाएँगे। जिन अपराधियों के धंधे माओवाद की सरपरस्ती में हो रहे हैं, उनकी बात और है, पर उन्हें भी चिन्हित करके कानून के हवाले किया जाना चाहिए। पीड़ित जनता को सरकार की ओर से इच्छाशक्ति की अपेक्षा है।

खूनखराबे में जीने-मरने वाले आतंकियों को मरहम-पट्टी, इलाज, अस्पताल की ज़रूरत रोज़ ही पड़ती होगी। नेपाली माओवादी अपने इलाज के लिए बरेली, दिल्ली आदि आया करते थे। झारखंड के माओवादी कहाँ जाते हैं इसकी जानकारी बड़े काम की साबित हो सकती है। आतंकवाद और अन्य अपराधों की रोकथाम के लिए जिस प्रकार होटलों में क्लोज्ड सर्किट कैमरे आदि से संदिग्ध गतिविधियों पर नज़र रखी जाती है उसी तरह आतंकवाद प्रभावित और निकटवर्ती क्षेत्रों के अस्पतालों की मॉनिटरिंग की व्यवस्था की जानी चाहिए।
नक्सलवाद के बारे में एक आम धारणा है कि ये आदिवासियों को हक दिलाने की लड़ाई है. लेकिन आजतक ने यहां आकर पाया कि नक्सलवाद का स्वरूप बदल चुका है. नक्सलवाद के नाम पर इलाके से गुजरने वाली बसों, जंगल में काम करने वाले मजदूरों और खदान मालिकों से वसूली हो रही है. इलाके में मैगनीज और तांबे का भंडार है. लेकिन, खदान मालिकों से मोटा पैसा लेकर नक्सली आदिवासी हकों से आंख मूंदे हुए हैं. यहां बेरोजगारों की समस्या बहुत है. यहां ताम्बा की मात्रा बहुत है, यहां इंडस्ट्री लग सकती है. लेकिन नक्सली उद्योगपतियों को डरा धमका कर यहां विकास नहीं होने दे रहे हैं. यही वजह है कि एक बड़ा तबका नक्सलियों को आतंकवादी मानने लगा है. ~आज तक ब्‍यूरो
संसार के सबसे खतरनाक आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को उसके घर में घुसकर मारने से पहले अमेरिका ने उसके धंधे की कमर तोड़ी थी। 911 की आतंकी घटना के बाद से अमेरिका ने बहुत से काम किए थे जिनमें एक था आतंकियों की अर्थव्यवस्था को तबाह करना। आतंक के व्यवसाय में आने-जाने वाले हर डॉलर की लकीर का दुनिया भर में पीछा करते हुए एक-एक कर के उसके धंधेबाजों को कानून का मार्ग दिखाया था। उनके तस्करी और हवाला रैकेट आदि अवैधानिक मार्ग तो बंद किए ही गए साथ ही गरीब देशों में जनसेवा कार्य और ज़कात आदि के बहाने से अमेरिका में पैसा इकट्ठा कर रही संस्थाओं को भी पड़ताल करके बंद किया गया और आतंकियों से किसी भी प्रकार का संबंध रखने वालों को समुचित सजाएँ दी गईं।

माओवादियों का मुक़ाबला करने के लिए भी ऐसी ही इच्छाशक्ति और योजना की ज़रूरत पड़ेगी। सत्ता की कामना और उसके लिए आतंक फैलाकर दोनों हाथ से पैसा बटोरना, माओवाद के ये दो बड़े प्रेरक तत्व "अर्थ" और "काम" है। माओवाद रोकने के लिए यह दोनों ही नसें पकड़ना ज़रूरी है। प्रभावित क्षेत्रों में व्याप्त रंगदारी रोकी जाये। देश-विदेश से एनजीओ संस्थाओं द्वारा आदिवासी सेवा, धर्मप्रचार या किसी भी बहाने से आने वाली पूंजी, वाहकों और संचालकों की पूरी जांच हो और साथ ही यह पहचान हो कि माओ-आतंकवाद का पैसा किन लोगों द्वारा कहाँ निवेश हो रहा है और अंततः किसके उपयोग में लाया जा रहा है।

पूंजी किसी भी तंत्र की रक्त-संचार व्यवस्था होती है। यह व्यवस्था बंद होते ही तंत्र अपने आप टूट जाते हैं। ईमानदार जांच में कई चौंकानेवाले तथ्य सामने आएंगे, बहुत से मुखौटे हटेंगे लेकिन देशहित में यह खुलासे होने ही चाहिए। सौ बात की एक बात कि एक समयबद्ध कार्यक्रम बनाकर इन अपराधियों को इनकी औकात दिखाना किसी भी गंभीर सरकार के लिए कोई असंभव कार्य नहीं है। सच ये है कि देश ने आतंकवाद पहले भी खूब देखा है और मिज़ोरम, नागालैंड जैसे दुर्गम इलाकों से लेकर पंजाब जैसी सघन बस्तियों तक सभी जगह उनका सफाया किया है। और सफाया तो इस बार भी होगा ही, ढुलमुल सरकारों के रहते राजनीतिक इच्छाशक्ति, प्रशासनिक कुशलता और आर्थिक-पारदर्शिता की कमी के कारण कुछ देर भले ही हो जाय। क्या कहते हैं आप?

*शीर्षक के लिए आचार्य रामपलट दास का आभार
संबन्धित कड़ियाँ
* नक्सलियों ने बढ़ाई उगाही की दरें
* वे आदिवासियों के हितैषी नहीं
* Human rights of Naxals
* The rise and fall of Mahendra Karma – the Bastar Tiger
* माओवादी इंसान नहीं, जानवर से भी बदतर!
* शेर को,घेर के करी दुर्दशा, कुत्ते करते जिंदाबाद -सतीश सक्सेना

माओवाद पर एक वृत्तचित्र (चेतावनी: कुछ चित्र आपको विचलित कर सकते हैं)

Wednesday, May 29, 2013

दूरभाष वार्ता मुखौटों से

चेहरे पर चेहरा

- ट्रिङ्ग ट्रिङ्ग 

- हॅलो?

- नमस्ते जी!

- नमस्ते की ऐसी-तैसी! बात करने की तमीज़ है कि नहीं?

- जी?

- फोन करते समय इतना तो सोचना चाहिए कि भोजन का समय है

- क्षमा कीजिये, मुझे पता नहीं था

- पता को मारिए गोली। पता तो चले कि आप हैं कौन?

- जी ... मैं ... अमर अकबर एंथनी, ट्रिपल ए डॉट कॉम लिटरेरी ग्रुप से ...

- ओह, सॉरी जी, आपने तो हमें पुरस्कृत किया था ... हैलो! आप पहले बता देते, तो कोई ग़लतफ़हमी नहीं होती,  हे हे हे!

- जी, वो मैं ... आपके तेवर देखकर ज़रा घबरा गया था

- अजी, जब से आपने सम्मानित किया, अपनी तो किस्मत ही खुल गई। उस साल जब आपके समारोह गया तो वहाँ कुछ ऐसा नेटवर्क बना कि पिछले दो साल में 12 जगह से सम्मानपत्र मिल चुके हैं, दो प्रकाशक भी तैयार हो गये हैं, अभी - मैंने अग्रिम नहीं दिया है बस ...

- यह तो बड़ी खुशी की बात है। मैं यह कहना चाह रहा था कि ...

- इस साल के कार्यक्रम की सूची बन गई?

- जी, बात ऐसी है कि ...

- मेरा नाम तो इस बार और बड़े राष्ट्रीय सम्मान के लिये होगा न? इसीलिये कॉल किया न आपने?

- जी, इस बार मैं राष्ट्रीय पुरस्कार समिति में नहीं हूँ ...

- ठीक तो है, आप इस लायक हैं ही नहीं ...

- जी?

- रत्ती भर तमीज़ तो है नहीं, भद्रजनों को लंच के समय डिस्टर्ब करते हैं आप?

- लेकिन मैंने तो क्षमा मांगी थी

- मांगना छोड़िए, अब थोड़ा शिष्टाचार सीखिये

- हैलो, हैलो!

- कट, कट!

- लगता है कट गया। बता ही नहीं पाया कि इस बार मैं अंतरराष्ट्रीय सम्मान समिति (अमेरिका) का जज हूँ। अच्छा हुआ इनका नखरीलापन पहले ही दिख गया। अब किसी सुयोग्य पात्र को सम्मानित कर देंगे।

Thursday, May 23, 2013

सच्चे फांसी चढ़दे वेक्खे - कहानी

ग्राहक: कोई नई किताब दिखाओ भाई
विक्रेता: यह ले जाइये, मंत्री जी की आत्मकथा, आधे दाम में दे दूंगा
ग्राहक: अरे, ये आत्मकथाएँ सब झूठी होती हैं
विक्रेता: ऐसा ज़रूरी नहीं, इसमें 25% सच है, 25% झूठ
ग्राहक: तो बाकी 50% कहाँ गया?
विक्रेता: उसी के लिये 50% की छूट दे रहा हूँ भाई...
बैंक में हड़बड़ी मची हुई थी। संसद में सवाल उठ गए थे। मामा-भांजावाद के जमाने में नेताओं पर आरोप लगाना तो कोई नई बात नहीं है लेकिन इस बार आरोप ऐसे वित्तमंत्री पर लगा था जो अपनी शफ़्फाक वेषभूषा के कारण मिस्टर "आलमोस्ट" क्लीन कहलाता था। आलमोस्ट शब्द कुछ मतकटे पत्रकारों ने जोड़ा था जिनकी छुट्टी के निर्देश उनके अखबार के मालिकों को पहुँच चुके थे। बाकी सारा देश मिस्टर शफ़्फाक की सुपर रिन सफेदी की चमकार बचाने में जुट गया था।

सरकारी बैंक था सो सामाजिक बैंकिंग की ज़िम्मेदारी में गर्दन तक डूबा हुआ था। सरकारी महकमों और प्रसिद्धि को आतुर राजनेताओं द्वारा जल्दबाज़ी में बनाई गई किस्म-किस्म की अधकचरी योजनाओं को अंजाम तक पहुँचाने की ज़िम्मेदारी ऐसे बैंकों पर ही थी। एक रहस्य की बात बताऊँ, चुनावों के नतीजे उम्मीदवार के बाहुबल, सांप्रदायिक भावना-भड़काव, पार्टी की दारू-पत्ती वितरण क्षमता के साथ-साथ इस बात पर भी निर्भर करते थे कि इलाके की बैंक शाखा ने कितने छुटभइयों को खुश किया है।

पैसे बाँटने की नीति सरकारी अधिकारी और नेता बनाते थे लेकिन उसे वापस वसूलने की ज़िम्मेदारी तो बैंक के शाखा स्तर के कर्मचारियों (भारतीय बैंकिंग की भाषा के विपरीत इस कथा में "कर्मचारी" शब्द में अधिकारी भी शामिल हैं) के सिर पर टूटती थी। पुराने वित्तमंत्री आस्तिक थे सो जब कोई त्योहार आता था, अपने लगाए लोन-मेले में अपनी पार्टी और अपनी जाति के अमीरों में बांटे गए पैसे को लोन-माफी-मेला लगाकर वापसी की परेशानी से मुक्त करा देते थे। लेकिन "आस्तिक" दिखना नए मंत्री जी के गतिमान व्यक्तित्व और शफ़्फाक वेषभूषा के विपरीत था। उनके मंत्रित्व कल में बैंक-कर्मियों की मुसीबतें कई गुना बढ़ गईं क्योंकि नए लोन-मेलों के बाद की नियमित लोन-माफी की घोषणा होना बंद हो गया। बेचारे बैंककर्मियों को इतनी तनख्वाह भी नहीं मिलती थी कि चन्दा करके देश के ऋण-धनी उद्योगपतियों के कर्जे खुद ही चुका दें।

बैंकर दुखी थे। मामला गड़बड़ था। वित्तमंत्री ने न जाने किस धुन में आकर सरकारी बैंकों  की घाटे में जाने की प्रवृत्ति पर एक धांसू बयान दिया था और लगातार हो रहे घाटे पर कड़ाई से पेश आने की घोषणा कर डाली। जोश में उन्होने घाटे वाले खाते बंद करने पर बैंकरों को पुरस्कृत करने की स्कीम भी घोषित कर दी। इधर नेता का मुस्कराता हुआ चेहरा टीवी पर दिखा और उधर कुछ सरफिरे पत्रकारों की टोली ने बैंक का पैसा डकारकर कान में तेल डालकर सो जाने वाले उस नगरसेठ के उन दो खातों की जानकारी अपने अखबार में छाप दी जो संयोग से नेताजी का मौसेरा भाई होता था।

विदेश में अर्थशास्त्र पढे मंत्री जी को बैंकों के घाटे के कारणों जैसे कि बैंकों की सामाजिक-ज़िम्मेदारी, उन पर लादी गई सरकारी योजनाओं की अपरिपक्वता, नेताओं और शाखाओं की अधिकता, स्टाफ और संसाधनों की कमी, क़ानूनों की ढिलाई और बहुबलियों का दबदबा आदि के बारे में जानकारी तो रही होगी लेकिन शायद उन्हें अपने भाई भतीजों के स्थानीय अखबारों पर असर की कमी के बारे में पूरी जानकारी नहीं थी। अखबार का मामला सुलट तो गया लेकिन साढ़े चार  साल से हाशिये पर बैठे विपक्ष के हाथ ऐसा ब्रह्मास्त्र लग गया जिसका फूटना ज़रूरी था।
 
संसद में प्रश्न उठा। सरकारी अमला हरकत में आ गया। पत्रकारों की नौकरी चली गई। एक के अध्यापक पिता नगर पालिका के प्राइमरी स्कूल में गबन करने के आरोप में स्थानीय चौकी में धर लिए गए। दूसरे की पत्नी पर अज्ञात गुंडों ने तेज़ाब फेंक दिया। नेताजी के भाई ने उसी अखबार में अपने देशप्रेम और वित्तीय प्रतिबद्धता के बारे में पूरे पेज का विज्ञापन एक हफ्ते तक 50% छूट पर छपवाया।

बैंक के ऊपर भाईसाहब के घाटे में गए दोनों ऋणों को तीन दिन में बंद करने का आदेश आ गया। जब बैंक-प्रमुख की झाड़ फोन के कान से टपकी तो शाखा प्रमुख अपने केबिन में सावधान मुद्रा में खड़े होकर रोने लगे। उसी वक़्त प्रभु जी प्रकट हुए। बेशकीमती सूट में अंदर आए भाईसाहब के साथ आए सभी लोग महंगी वेषभूषा में थे। उनके दल के पीछे एक और दल था जो इस बैंक के कर्मियों जैसा ही सहमा और थका-हारा दीख रहा था।

डील तय हो चुकी थी। भाईसाहब ने एक खाता तो मूल-सूद-जुर्माना-हर्जाना मिलाकर फुल पेमेंट करके ऑन द स्पॉट ही बंद करा दिया। इस मेहरबानी के बदले में बैंक ने उनका दूसरा खाता बैंक प्रमुख और वित्त मंत्रालय प्रमुख के मूक समझौते के अनुसार सरकारी बट्टे-खाते में डालकर माफ करने की ज़िम्मेदारी निभाई। शाखा-प्रमुख को बैंक के दो बड़े नॉन-परफोरमिंग असेट्स के कुशल प्रबंधन के बदले में प्रोन्नति का उपहार मिला और अन्य कर्मियों को मंत्रालय की ताज़ा मॉरल-बूस्टर योजना के तहत सर्वश्रेष्ठ कर्मचारी का नकद पुरस्कार। मौसेरे भाई के तथाकथित अनियमितताओं वाले दोनों खातों के बंद हो जाने के बाद मंत्री जी ने भरी संसद में सिर उठाकर बयान देते हुए विपक्ष को निरुत्तर कर दिया।

एक मिनट, इस कहानी का सबसे प्रमुख भाग तो छूट ही गया। दरअसल एक और व्यक्ति को भी प्रोन्नति पुरस्कार मिला। भाईसाहब के साथ बैंक में पहुँचे थके-हारे दल का प्रमुख नगर के ही एक दूसरे सरकारी बैंक का शाखा-प्रमुख था। उसे नगर में उद्योग-विकास के लिए ऋण शिरोमणि का पुरस्कार मिला। भाई साहब के बंद हुए खाते का पूरा भुगतान करने के लिए उसकी शाखा ने ही उन्हें एक नया लोन दिया था।
[समाप्त]

Saturday, May 11, 2013

अक्षय तृतीया की शुभकामनायें

अस्यां तिथौ क्षयमुर्पति हुतं न दत्तं। तेनाक्षयेति कथिता मुनिभिस्तृतीया॥
उद्दिष्य दैवतपितृन्क्रियते मनुष्यैः। तत् च अक्षयं भवति भारत सर्वमेव॥
(मदनरत्न)
सोने की ख़रीदारी ज़ोरों पर है और शादियों की तैयारी भी। क्यों न हो, साल का सबसे शुभ मुहूर्त जो है। वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि चिरंजीवी भगवान परशुराम का जन्मदिन है। माना जाता है कि भगवान विष्णु के नर-नारायण और हयग्रीव रूपों का अवतरण भी इसी दिन हुआ था। ऐसी मान्यता है कि आज किए गए कार्य स्थायित्व को प्राप्त होते हैं। दया, दान और अन्य सत्कार्यों को विशेष महत्व देने वाली हमारी संस्कृति में आज का दिन व्रत, तप, पूजन और दान के लिए विशिष्ट है क्योंकि वह अनंतगुणा फल देने वाला समझा जाता है। स्थायित्व और वृद्धि की कामना से आज के दिन पुण्यकार्य किए जाते हैं। प्राचीन राज्यों में शासक किसानों को नई फसल की बुवाई के लिए बीजदान करते थे। उत्तर-पश्चिम के कई क्षेत्रों में किसान इस दिन घर से खेत तक जाकर मार्ग के पशु-पक्षियों को देखकर अपनी फसलों के लिए वर्षा के शकुन पहचानते हैं। कुछ समुदायों में आज सामूहिक विवाह सम्पन्न कराने की रीति है। अनेक गाँवों में बच्चे इस दिन अपने गुड्‌डे-गुड़िया का विवाह रचाते हैं। और जो ये सब नहीं भी करते हैं, उनके लिए शादी का सबसे बड़ा मुहूर्त तो है ही दावतें खाने के लिए।
संसार में जितने बड़े आदमी हैं, उनमें से अधिकतर ब्रह्मचर्य-व्रत के प्रताप से बड़े बने और सैंकड़ों-हजारों वर्ष बाद भी उनका यशगान करके मनुष्य अपने आपको कृतार्थ करते हैं। ब्रह्मचर्य की महिमा यदि जानना हो तो परशुराम, राम, लक्ष्मण, कृष्ण, भीष्म, ईसा, मेजिनी, बंदा, रामकृष्ण, दयानन्द तथा राममूर्ति की जीवनियों का अध्ययन करो। ~ अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल
जम्बूद्वीप में अक्षय तृतीया को ग्रीष्मऋतु का आधिकारिक उदघाटन भी माना जा सकता है। बद्रीनारायण धाम के कपाट अक्षय तृतीया के आगमन पर खुलते हैं। पौराणिक मान्यता के अनुसार अक्षय तृतीया को किये गये पितृतर्पण, पिन्डदान सहित किसी भी प्रकार का दान अक्षय फलदायी होता है। श्वेत पुष्प का दान किया जा सकता है। कुछ स्थानों में 9 कुछ में 7 और कुछ में 3 प्रकार के धान्य के दान का रिवाज है। भगवान ऋषभदेव ने 400 दिन के निराहार तप के बाद ‘अक्षय तृतीया’ के दिन ही हस्तिनापुर के राजकुमार के हाथों इक्षु (ईख = गन्ना) के रस का पारायण किया था। उसी परंपरा में कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी से आरम्भ वर्षीतप का उपवास ‘अक्षय तृतीया’ को सम्पन्न होता है। तपस्वियों के सम्मान में भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है और उपहार "प्रभावना" दिये जाते हैं। विष्णु पुराण के अनुसार ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम पर ही हमारे राष्ट्र का नाम भारतवर्ष पड़ा। यहाँ यह दृष्टव्य है कि भगवान राम का वंश भी ईक्ष्वाकु ही कहलाता है और गन्ने और शर्करा के उत्पादन का रहस्य आज भले ही संसार भर को ज्ञात हो परंतु हजारों साल तक यह रहस्य भारत के बाहर पूर्ण अज्ञात था। (कुछ परम्पराओं में भारतवर्ष के नामकरण का श्रेय दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र भरत को भी जाता है।)
ऋषभो मरुदेव्याश्च ऋषभात भरतो भवेत्। भरताद भारतं वर्षं, भरतात सुमतिस्त्वभूत्
ततश्च भारतं वर्षमेतल्लोकेषुगीयते। भरताय यत: पित्रा दत्तं प्रतिष्ठिता वनम
(विष्णु पुराण)
एक अक्षय तृतीया के दिन भक्त सुदामा अपने बाल सखा कृष्ण से मिलने पहुँचे थे और अपने सेवाकार्यों के लिए सम्मानित हुए थे। कथा यह भी है कि इसी दिन जब शंकराचार्य जी भिक्षा के लिए एक निर्धन दंपति के पास पहुँचे तो उस भूखे परिवार ने कई दिन बाद अपने भोजन के लिए मिले एक फल को उन्हें समर्पित कर दिया। उनकी दान प्रवृत्ति के सम्मान में आदि शंकर ने कनकधारा स्तोत्र की रचना की। यह दिन युगादि भी है और कुछ परम्पराओं में महाभारत के युद्ध का अंत और फिर कलयुग का आरंभ भी इसी दिन से माना जाता है।

राम जामदग्नेय - अमर चित्र कथा 
भारत के अनेक ग्रामों में अक्षय तृतीया के दिन ग्राम के प्रवेशद्वार पर स्थापित ब्रह्मदेव, ग्राम देवी या ग्रामदेवता के पूजन का प्रचलन था। केनरा बैंक की नौकरी के दिनों में कुछ समय सातारा जिले के शिरवळ ग्राम (तालुक खंडाळा) में कुलकर्णी काका के घर रहा था जहाँ इस दिन ग्रामदेवी अंबिका माता की वार्षिक यात्रा बड़े धूमधाम से निकली जाती है।

हिमाचल, परशुराम क्षेत्र (गोआ से केरल तक) तथा दक्षिण भारत में तो परशुराम जयंती का विशेष महत्व रहा ही है, आजकल उत्तर भारत में भगवान परशुराम की जानकारी का प्रसार हो रहा है। परशुराम जी से जुड़े मंदिरों और तीर्थस्थलों में पूजा करने का विशेष महात्म्य है। भार्गव परशुराम ने जिस प्रकार अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति से एक शक्तिशाली परंतु अन्यायी साम्राज्य के घुटने टिकाकर एक नई सामाजिक व्यवस्था की नींव रखी जिसमें शस्त्र और शास्त्र एक विशिष्ट वर्ग की गुप्त शक्ति न रहकर उनका वितरण और प्रसार नवनिर्माण के लिए हुआ वह अद्वितीय क्रान्ति थी। यदुवंशी सहस्रबाहु के अहंकार का पूर्णनाश करने वाले परशुराम यदुवंशी श्रीकृष्ण को दिव्यास्त्र प्रदान कर विजयी बनाते हैं। अजेय पश्चिमी घाट के घने जंगलों को परशु के प्रयोग से मानव निवास योग्य बनाकर बस्तियाँ बसाने की बात हो या पूर्वोत्तर में अटल हिमालय की चट्टानें काटकर ब्रह्मपुत्र की दिशा बदलने की बात हो, भगवान परशुराम जनसेवा के लिए जीवन समर्पण करने का ज्वलंत उदाहरण हैं।
पृथिवीम् च अखिलां प्राप्‍य कश्‍यपाय महात्‍मने। यज्ञस्‍य अन्‍ते अददं राम दक्षिणां पुण्‍यकर्मणे ॥
दत्‍वा महेन्‍द्रनिलय: तप: बलसमन्वित:। श्रुत्‍वा तु धनुष: भेदं तत: अहं द्रुतम् आगत:।। (रामायण) 

हे राम! सम्‍पूर्ण पृथिवी को जीतकर मैने एक यज्ञ किया, जिसकी समाप्ति पर पुण्‍यकर्मा महात्‍मा कश्‍यप को दक्षिणारूप में सारी पृथिवी का दान देकर मै महेंद्रपर्वत पर रहने गया। वहाँ तपस्‍या करके तपबल से युक्‍त हुआ मैं धनुष को टूटा हुआ सुनकर वहाँ से अतिशीघ्र आया हूँ।
जिस प्रकार हिमालय काटकर गंगा को भारत की ओर मोड़ने का श्रेय भागीरथ को जाता है उसी प्रकार पहले ब्रह्मकुन्ड से, और फिर लौहकुन्ड पर हिमालय को काटकर ब्रह्मपुत्र जैसे उग्र महानद को भारत की ओर मोड़ने का श्रेय परशुराम जी को जाता है। यह भी मान्यता है कि गंगा की सहयोगी नदी रामगंगा को वे अपने पिता जमदग्नि की आज्ञा से धरा पर लाये थे। ऋषभदेव का निर्वाण स्थल कैलाश पर्वत है जो कि भगवान् परशुराम की तपस्थली है। अफसोस कि भारतीयों के तिब्बत स्थित प्राचीन तीर्थस्थल तक हमारी पहुँच अब चीनियों के वीसा पर निर्भर है। भगवान परशुराम से संबन्धित बहुत से तीर्थ हिमालय क्षेत्र में हैं। विश्व की पहली समर कला के प्रणेता, निरंकुश शासकों, अत्याचारी आतंकियों, और आसुरी शक्तियों के विरोधी परम यशस्वी भगवान् परशुराम के जन्म दिन यानी अक्षय तृतीया के शुभ अवसर पर आइये तेजस्वी बनकर सदाचरण और सद्गुणों से अक्षय सत्कर्म और परोपकार करने की कामना करें।

धिग्बलं क्षत्रियबलं ब्रह्मतेजो बलं बलं। एकेन ब्रह्मदण्डेन सर्वास्त्राणि हतानि मे॥ (रामायण)
ज्ञानबल के सामने बाहुबल बेकार है। एक ज्ञानदंड के सामने सभी अस्त्र नष्ट हो जाते हैं।

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सम्बंधित कड़ियाँ
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* बुद्ध हैं क्योंकि परशुराम हैं
* परशुराम स्तुति
* परशुराम स्तवन
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* क्या परशुराम क्षत्रिय विरोधी थे?
* परशुराम - विकीपीडिया
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* पंडितों ने लिया बाल विवाह रोकने का संकल्प
* परशुराम और राम-लक्ष्मण संवाद - ज्ञानदत्त पाण्डेय
* परशुराम-लक्ष्मण संवाद प्रसंग - कविता रावत
* ग्वालियर में तीन भगवान परशुराम मंदिर
* अरुणाचल प्रदेश का जिला - लोहित
 * बुद्ध पूर्णिमा पर परशुराम पूजा

Wednesday, April 24, 2013

तिब्बत, चीन, भारत और संप्रभुता

जिस देश के शिक्षित नागरिक भी बिना देखे भाले इन्टरनेट से लेकर अपने देश के आड़े टेढ़े नक्शे अपने ब्लोग्स पर ही नहीं, तथाकथित प्रतिष्ठित समाचार साइट्स पर भी लगा रहे हों, उस देश की सीमाओं का आदर एक अधिक शक्तिशाली शत्रु-राष्ट्र क्यों करेगा। पिछले दिनों जब मैं भारत का आधिकारिक मानचित्र ढूंढ रहा था तब पाया कि भारत सरकार की आधिकारिक साइट्स पर देश का मानचित्र ढूँढना दुष्कर ही नहीं असंभव कार्य है। लगा जैसे हमारे देश के कर्ता-धर्ता धरती पर अपनी उपस्थिति से शर्मिंदा हों। ऐसे देश का एक दुश्मन देश यदि वीसा जारी करते समय हमारे राष्ट्रपति द्वारा जारी किए गए आधिकारिक पारपत्र पर भी अपने अनाधिकारिक नक्शे की मुहर बेधड़क होकर सामान्य रूप से लगाते रहता हो, तो आश्चर्य कैसा?

साम्राज्यवादी कम्युनिस्ट चीन की लाल सेना की एक पूरी प्लाटून द्वारा लद्दाख में भारतीय सीमा के अंदर घुसकर एक और चौकी बना लेने की खबर गरम है। भ्रष्टाचार के मामलों का अनचाहा खुलासा हो जाने पर पूरी बहादुरी और निष्ठा से दनादन बयानबाजी करने वाले भारतीय नेता चीनी घुसपैठ पर लीपापोती में लगे हुए हैं। राजनीतिक नेतृत्व में गंभीरता दिखे भी कैसे, चीन तो बहुत बड़ा तानाशाह दैत्य है, पाकिस्तान जैसे छोटे और अस्थिर देश के सैनिक भी हमारी सीमा के भीतर आकर हमारे सैनिकों का सर काट लेते हैं और हमारी सरकार रोक नहीं पाती। हालत यह हो गयी है कि श्रीलंका, नेपाल और बांग्लादेश तो दूर, भूटान और मालदीव जैसे देश भी मौका मिलने पर भारत सरकार को मुँह चिढ़ाने से बाज़ नहीं आते।

तिब्बत में भारतीय जलस्रोतों पर चीन अपनी मनमर्ज़ी से न केवल बांध बनाता रहा है, बरसात के दिनों में चीन द्वारा गैरजिम्मेदाराना रूप से छोड़ा गया पानी भारत में भयंकर बाढ़-विभीषिका का कारण बना है। हिमाचल तो पहले ही चीन द्वारा निर्मित अप्राकृतिक बाढ़ से जूझ चुका है, अब ब्रह्मपुत्र के नए बांधों के द्वारा असम से लेकर बांगलादेश तक को डुबाने की साजिश चल रही है। अरुणाचल के क्षेत्रों में चीनी सैनिक पहले से ही जब चाहे भारतीय सीमा में गश्त लगाते रहे हैं। अक्साई-चिन दशकों से चीनी कब्जे में है, अब दौलत बेग ओल्डी में सीमा के छह मील अंदर घुसकर चौकी भी बना ली है। पक्की चीनी चौकी के फोटो इन्टरनेट पर मौजूद होते हुए भी सरकार इसके लिए सिर्फ "तम्बू गाढ़ना" और स्थानीय मुद्दा जैसे शब्दों का प्रयोग कर रही है। कल को शायद हमारी सरकार के किसी मंत्री के संबंधी की कंपनी द्वारा इस चौकी के चूल्हों के लिए कोयला और पीने के लिए चाय सप्लाई करने का ठेका भी ले लिया जाये। अफसोस की बात है कि ताज़ा चीनी दुस्साहस की प्रतिक्रिया में हमारे नेताओं की किसी भी हरकत में भारत का गौरव बनाए रखने की इच्छाशक्ति नहीं दिखती। अरे सरकार में बैठे "शांतिप्रिय" नेता कुछ और न भी करें, कम से कम दिग्विजय सरीखे किसी वक्तव्य सिंह को सीमा पर तो भेज सकते हैं।

अब एक सीरियस नोट - भारत की उत्तरी सीमा कहीं भी चीन से नहीं छूती। आधिकारिक रूप से उत्तर में हमारे सीमावर्ती राष्ट्र नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान और तिब्बत हैं। चीन के साथ सभी मतभेदों की तीन मूल वजहें हैं।

  1. कश्मीर के पाकिस्तान अधिकृत क्षेत्र 
  2. चीनी कब्जे में अकसाई-चिन 
  3. तिब्बत राष्ट्र पर चीन का अनधिकृत कब्जा और उसके बावजूद होने वाली दादागिरी और अनियंत्रित विस्तारवाद

अच्छी बात है कि तिब्बत की निर्वासित सरकार और उनके राष्ट्रीय नेता ससम्मान भारत में रहते हैं। लेकिन उनका क्या जो पीछे छूट गए हैं? तिब्बत की पददलित बौद्ध जनता अपने देश की स्वतन्त्रता के लिए आगे बढ़-बढ़कर आत्मदाह कर रही है। तिब्बत के पश्चिमी क्षेत्रों में मुस्लिम वीगरों की हालत भी कोई खास अच्छी नहीं है। लेकिन तिब्बत के बाहर चीन के विकसित क्षेत्रों में भी जनता खुश नहीं है। कम्युनिस्ट नेताओं और उनके शक्तिशाली संबंधियों द्वारा गरीबों को निरंतर जबरन विस्थापित किए जाने से वहाँ भी असंतोष बढ़ रहा है। इसलिए, चीन की धमकियों और घुसपैठ का मुँहतोड़ जवाब देना उतना मुश्किल नहीं है जितना सतही तौर पर देखने से लगता है। चीनी आधिपत्य से दबी सम्पूर्ण जनता केवल एक दरार के इंतज़ार में है। वह दरार दिख जाये तो तानाशाही के दमन और साम्राज्यवाद के विघटन का काम वे काफी हद तक खुद कर लेंगे।

चीन की दादागिरी भारत की संप्रभुता के लिए एक बड़ी समस्या है। सीमा पर हर रोज़ बढ़ती उद्दंडता के मद्देनजर, भारत सरकार में बैठे लोगों को न केवल गंभीरता से तिब्बत की स्वतन्त्रता की ओर कदम उठाने चाहिए बल्कि चीन की नाक में तिब्बत कार्ड पूरी ताकत से ठूंस देना चाहिए। वे हमारे पासपोर्ट पर अपनी मुहर लगाएँ तो हम उनके पासपोर्ट पर उनकी साम्राज्यवादी असलियत चस्पाँ करें। मतलब यह कि उनके पारपत्रों पर ऐसी मुहर लगाएँ जिसमें भारत की सीमाएं तो सटीक हों ही, तिब्बत भी स्वतंत्र दिखाई दे।  मेरी नज़र में सरकार बड़ी आसानी से कुछ ऐसे काम कर सकती है जिनसे तिब्बत समस्या संसार में उजागर हो और भारत-चीन सीमा मामले पर चीन दवाब में आए। अभी तक जो गलत हुआ सो हुआ, कम से कम भविष्य पर एक कूटनीतिक नज़र तो रहनी ही चाहिए।


शुरुआत कुछ छोटे-छोटे कदमों से की जा सकती है:

1) भारत सरकार की वेब साइट्स पर भारत का आधिकारिक मानचित्र प्रमुखता से लगाया जाये।
2) सीमा पर चीनी गुर्राहट के मामले पाये जाने पर उन्हें छिपाने के बजाय संसार के सम्मुख लाया जाये
3) तिब्बत के मुद्दे पर हर मौके का फायदा उठाकर खुलकर सामने आया जाये
4) चीन से तिब्बती शरणार्थी और उनकी सरकार को उनकी ज़मीन एक समय सीमा के भीतर वापस देने की बात हो
5) मानचित्र के बारे में खुद भी जानें और आम जनता में भी जागरूकता उत्पन्न करें।
6) चीनी दूतावास वाली सड़क का नाम 'दलाई लामा मार्ग', 'स्वतंत्र तिब्बत पथ' या 'रंगज़ेन' रखा जाए।

दलाई लामा का भारत में निवास हमारे लिए गौरव की बात तो है ही,  अतिथि और शरणागत के आदर की गौरवमयी भारतीय परंपरा के अनुकूल भी है। फिर भी उनकी सहमति से उनकी सम्मानपूर्वक देश वापसी के बारे में समयबद्ध रणनीति पर काम होना चाहिए। सभी राजनीतिक दलों को अपने खोल से बाहर आकर इस राष्ट्रीय मुद्दे पर एकमत होना चाहिए।

सरकारी नौकरी न करने वाले सभी ब्लोगर्स, जिनमें विभिन्न राजनीतिक दलों के पक्ष में किस्म-किस्म के तर्क रखने वाले और राजनीतिक प्रतिबद्धता वाले ब्लॉगर ही नहीं,  बल्कि अन्य सभी भी शामिल हैं, अपने लेखन और अन्य सभी संभव माध्यमों से इस जागृति का प्रसार करें कि एक स्वतंत्र तिब्बत भारत की आवश्यकता है। संभव हो तो "तिब्बत के मित्र" जैसे जन आंदोलनों का हिस्सा बनिये। यदि आपकी नज़र में कुछ सुझाव हैं तो कृपया उन्हें मुझसे भी साझा कीजिये।

इसके अलावा, पाँच साल में एक बार अपनी चौहद्दी से बाहर निकलकर आपके दरवाजे पर वोट मांगने आने वाले नेताओं से भी यह पूछिये कि राष्ट्रीय गौरव के ऐसे मुद्दों पर उनकी कोई स्पष्ट नीति क्यों नहीं है, और यदि है तो वह उनके मेनिफेस्टो पर क्यों नहीं दिखती है?        

सभी चित्र अंतर्जाल पर विभिन्न समाचार स्रोतों से साभार
  
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Sunday, April 21, 2013

नकद धर्म - स्वामी रामतीर्थ के शब्दों में

इंडिया बनाम भारत जैसी गरमागरम बहसों के बीच एक भारतीय धार्मिक विचारक के एक शताब्दी से अधिक पुराने शब्दों पर एक नज़र
यह कथन असंगत है कि अमेरिकावासी डालर (लक्ष्मी) के दास हैं। सच तो यह है कि लक्ष्मी स्वयं सरस्वती के पीछे लगी रहती है। जो लोग यह आरोप मढ़ते हैं कि अमेरिकनों का धर्म नक़द धर्म नहीं वरन नक़दी धर्म है, वे या तो अमरीका की सही स्थिति का ज्ञान नहीं रखते अथवा वे घोर अन्यायी हैं, और ‘अंगूर न मिलें तो खट्टे’ वाली कहावत उन पर चरितार्थ होती है।
कैलीफोर्निया में एक नारी ने अठारह करोड़ रुपया अर्पित कर एक विश्वविद्यालय की स्थापना की। इसी प्रकार उस देश में विद्या की उन्नति और प्रसार के लिये प्रतिवर्ष करोड़ों का दान दिया जाता है। भारत की ब्रह्मविद्या की वहाँ कदर इसी से प्रकट है, कि जैसा ‘व्यावहारिक वेदांत’ अमेरिका में इस समय व्यवहृत हो रहा है। वैसा भारत में आज नहीं है। उन लोगों ने यद्यपि भारत के वेदांत को अपने में पचा लिया है और मनसा कर्मणा गृहण कर लिया है, फिर भी वे हिन्दू नहीं बन गये हैं।

वैसे ही हम भी उनके ज्ञान कला कौशल को अपने में पचा लेने पर भी अपनी राष्ट्रीयता को कायम रख सकते हैं। वृक्ष बाहर से खाद संग्रह करते हैं, स्वयं खाद नहीं बन जाते। बाहर की मिट्टी, जल वायु प्रकाश आदि ग्रहण करती और अपने में पचा लेती है, किन्तु वह स्वयं जल, वायु और प्रकाश नहीं हो जाती।

जापानियों ने अमेरिका और योरोप के विज्ञानशास्त्र और नाना कला कौशल को अपने में पचा लिया, फिर भी जापानी ही बने रहे। देवों ने अपने यहाँ से कुछ को असुरों के पास भेजकर उनकी जीवन तुल्य संजीवनी विद्या, सीख ली, परंतु वे असुर नहीं हो गये। इसी प्रकार तुम लोग भी अमेरिका, यूरोप आदि जाकर वहाँ से ज्ञान विज्ञान कला कौशल प्राप्त करो और इससे तुम्हारे धर्म और राष्ट्रीयता में धब्बा न आयेगा। जो लोग विद्या और ज्ञान, को भौगोलिक सीमा में परिसीमित करते हैं, जिनका कथन है, कि विदेशियों का ज्ञान हमारे यहां आने से अधर्म होगा और हम अपने ज्ञान को स्वदेश की सीमा से बाहर दूसरों के कल्याण के लिये क्यों जाने दें, और इस प्रकार जो लोग अपना ज्ञान पराया ज्ञान कहकर ज्ञान में विभाजन करते हैं, वे अपने ज्ञान को अज्ञान में बदलते हैं

इस कमरे में प्रकाश फैला है। यह प्रकाश अत्यंत लुभावना और सुहावना है ! यदि हम कहें कि यह प्रकाश हमारा है, एकमात्र हमारा है, हाय, यह कहीं बाहर के प्रकाश से मिलकर अपवित्र न हो जाय; और इस भय से हम अपने प्रकाश को सुरक्षित रखने के लिये, कमरे की खिड़कियाँ रौशनदान कपाट सब बंद कर दें; चिकें, परदे गिरा दें, तो परिणाम यह होगा कि वह स्वयं प्रकाश ही लुप्त हो जायगा। नहीं-नहीं कस्तूरी के समान काला नितांत अंधकार छा जायगा। हाय, हम लोगों ने भारत में इस भ्रान्तिमूलक धारणा और चलन को क्या अपना लिया।
हब्बुलवतन अज मुल्के सुलेमाँ खुश्तर।
खारे-वतन अज संबुले-रेहाँ खुश्तर।। 
इसे भूलकर स्वयं काँटा बन जाना और स्वदेश को काँटों का वन बना देना, यह कैसी देशभक्ति है? साधारण तौर पर एक ही प्रकार के वृक्ष जब गुन्जान समूहों में इकट्ठा उगते हैं, तो सब कमजोर रहते हैं। इनमें से किसी को उस झुण्ड से अलग ले जाकर कहीं बो दें तो वही बढ़कर बड़ा और अति पुष्ट हो जाता है। यही स्थिति राष्ट्रों और जातियों की है। कश्मीर के संबंध में कहा जाता है-
गर फिरदौस ब-रु-ए ज़मींनस्त, हमींनस्त हमींनस्त हमींनस्त!!
किन्तु यही कश्मीरी लोग, जो अपने स्वर्ग अर्थात् कश्मीर से बाहर निकलना पाप समझते हैं, अपनी कमजोरी नादानी और गरीबी लिये प्रख्यात हैं। और वह पुरुषार्थी कश्मीरी पण्डित जो उस फिरदौस से बाहर निकलकर आये, उन्होंने अन्य भारतवासियों को हर बात में मात कर दिया। वे सब ऊँचे-ऊँचे ओहदों पर विराजमान हैं। जापानी जब तक जापान में बन्द रहे, वे कमजोर और पस्त रहे। जब वे विदेशों को जाने लगे, वहाँ की हवा लगी, वे सशक्त हो गये। योरोप के गरीब धनहीन और प्रायः निम्न स्तर के लोग जहाजों पर सवार होकर अमरीका जा बसे और आज उनकी जमात संसार की सबसे शक्तिशाली कौम है। कुछ भारत वासियों ने भी विदेश का मुँह देखा। जब तक स्वदेश में रहे उनकी कोई पूछ-गछ न थी। विदेशों में गये तो उन उन्नत कौमों में प्रथम श्रेणी के समझे गये और उन्होंने ख्याति प्राप्त की।
पानी न बहे तो उसमें बू आये, खञ्जर न चले तो मोरचा खाये।
गर्दिश से बढ़ा लिहर व मह का पाया, गर्दिश से फ़लक ने औज़ पाया।
वृक्ष सारी रुकावटों को काटकर अपनी जड़ों को वहाँ प्रविष्ट कर देते हैं जहाँ जल प्राप्त हो। इसी प्रकार अमेरिका, जर्मनी, जापान, इँगलैण्ड के लोग सागरों को चीरकर, पर्वतों को काटकर धन खर्च करके, सभी प्रकार की विपत्तियों और कष्टों को झेलकर वहाँ-वहाँ पहुँचे, जहाँ से उन्हें कम या ज्यादा, किसी भी प्रकार का ज्ञान हो सका। यह तो है एक कारण उनकी उन्नति का।
(~ स्वामी रामतीर्थ)

Wednesday, April 17, 2013

किसी की जान जाये, शर्म हमको मगर नहीं आती

घर दिल्ली की पश्चिमी सीमा पर  बहादुरगढ़ के पास और दफ्तर यमुना के पूर्व में उत्तर प्रदेश के अंदर। जीवन की पहली नौकरी, सीखने के लिए रोज़ एक नई बात। सुबह सात बजे घर से निकलने पर भी यह तय नहीं होता था कि दस बजे अपनी सीट पर पहुँचूंगा कि नहीं। मो सम जी वाली किस्मत भी नहीं कि सफर ताश खेलते हुए कट जाये। अव्वल तो किसी भी बस में सीट नहीं मिलती थी। कुछ बसें तो ऐसी भी थीं जिनमें से ज़िंदा बाहर आना भी भाग्य की बात थी। तय किया कि घर से सुबह छः बजे निकल लिया जाये।

दक्षिण भारतीय बैंक था सो कर्मचारी वर्ग उत्तर का और अधिकारी वर्ग दक्षिण का होता था। संस्कृति का अंतर भी स्पष्ट दिखता था। अधिकारी वर्ग के लोग झिझकते हुए हल्की आवाज़ में बात करने वाले, विनम्र, कामकाजी और धार्मिक से लगते थे। कर्मचारी  वर्ग के अधिकांश लोग - सब नहीं - वैसे थे जिन्हें हिन्दी में "लाउड" कहा जा सकता है। शाखा के वरिष्ठ प्रबन्धक एक अपवाद थे। दूध सा गोरा रंग, छोटा कद, हल्के बाल, पंजाबी भाषी। पहले दिन ही लंबा-चौड़ा इंटरव्यू कर डाला। छिपे शब्दों में नई नौकरी के खतरों से आगाह भी कर दिया। उसके बाद तो सुबह को रोजाना ही कुछ देर बात करने का नियम सा हो गया क्योंकि हम दो लोग ही सबसे पहले आते थे। पौने दस बजे अपनी घड़ी सामने रखकर हर आने वाले कर्मचारी को देखकर फिर अपनी घड़ी देखने वाले व्यक्ति ने जब मुझे यह सुझाया कि इतना जल्दी आने की ज़रूरत नहीं है तो कइयों को  झटका लगा।

तय यह हुआ कि मैं घर से यदि सात बजे निकलूँ तो नोएडा मोड़ पर लगभग उसी  समय पहुँचूंगा जब बड़े साहब की कार पहुँचती है। वहाँ से आगे बस और रिक्शे के झंझट से बचने भर से ही मेरी 40-45 मिनट की बचत हो जाएगी। फिर तो यह रोज़ का नियम हो गया। बड़े साहब के साथ छोटे साहब यानी शाखा प्रबन्धक जी भी आते थे। बैंक की अधिकारी परंपरा के वाहक, विनम्र, नफीस, टाल, डार्क, हैंडसम। शाखा में बड़ी इज्ज़त थी उनकी। कर्मचारी ही नहीं, ग्राहक भी सम्मान करते थे।  

बड़े साहब से पहचान बढ़ती गई मगर प्रबन्धक जी ने  "बेबी ऑफ द ब्रांच" की उपाधि देकर भी पद की गरिमा का सम्मान रखते हुए संवाद सीमित ही रखा। मेरे जॉइन करने के कुछ ही हफ्तों में दो-चार रिलीविंग पार्टियां हो गईं। बड़े साहब ने जहां हिन्दी और पंजाबी गीत सुनाये, प्रबन्धक जी ने मातृभाषा न होते हुए भी नफासत से भरी गज़लें सुनाकर शाखा भर को प्रभावित कर लिया। 

उस दिन जब हम तीनों कार में बातें करते आ रहे थे बड़े साहब बिना किसी संदर्भ के बोले, "लोग यह कैसे भूल जाते हैं कि उनके साथ भी यह हो सकता है।" जब तक मैं कुछ समझ पाता, बैंक की सफ़ेद अंबेसडर कार सड़क के बीच डिवाइडर के पास वहाँ खड़ी थी जहां एक स्कूटर पड़ा हुआ था। उसका चालक डिवाइडर पर चित्त बेहोश पड़ा था। सर फटा हुआ था पर खून जम चुका था। सर पर आर्टिफेक्ट की तरह रखा हुआ बिना फीतों का हैलमेट कुछ दूर पड़ा था। कोई बेहया वाहन उसे टक्कर मारकर मरने के लिए छोड़ गया था। दिल्ली-नोएडा मार्ग, थोक में आते जाते वाहन। किसी ने भी उसे न देखा हो, यह सोचना तुच्छ कोटि की मासूमियत होती। मैंने और बड़े साहब ने मिलकर उसका त्वरित निरीक्षण किया और जैसा कि स्वाभाविक था उसे कार की पिछली सीट पर बिठा दिया। 

इस सारी प्रक्रिया में ऐसे बहुत से व्यवसायियों की गाडियाँ वहाँ से गुज़रीं जो बैंक में रोजाना आते तो थे ही, हमारी एक नज़र पर अपनी दुनिया कुर्बान कर देने की बात करते थे। फिलहाल वे सभी हमारी नज़र से बचने की पूरी कोशिश में थे। दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को कार में सुरक्षित करने के बाद जब मैंने इधर-उधर देखा तो पाया कि हमारे रुकते ही सड़क पार करके फुटपाथ पर चले जाने वाले नफीस प्रबन्धक जी शाखा के समय से खुलने की ज़िम्मेदारी के चलते एक पार्टी के वाहन में शाखा की ओर चले गए थे। हमारे वहाँ से चलने से पहले ही एक पुलिस कार आकर उस व्यक्ति को अस्पताल ले गई। एक अन्य पुलिस वाहन ने रुककर हमसे कुछ सवाल-जवाब किए और नाम-पता लेकर वे भी चले गए। भला हो मोटरसाइकिल से गुजरने वाले उस लड़के का जो हमें देखकर पास के बीट-बॉक्स में पुलिस को सूचना देने चला गया था।     

हम तो जी उन बड़े साहब के वो मुरीद हुए कि आज तक हैं। रास्ते में बड़े साहब ने यह आशंका भी व्यक्त की कि दुर्घटनाग्रस्त को बचाने में खतरा तभी है जब उसकी जान बच न पाये। तब से अब तक काफी कुछ बदला है। दूसरों को बचाने वालों पर छाया संशय का खतरा टला है। क़ानूनों में ज़रूरी परिवर्तन हुए हैं ताकि लोग सड़क पर मरतों को बचाने में न डरें। फिर भी जयपुर की हाल की घटना यही बता रही है कि इंसान बनने में अभी भी काफी दिक्कतें हैं। एक माँ बेटी की जान सिर्फ इसलिए चली गई कि सड़क से गुजरे अनेक लोगों में से किसी के सीने में भी दिल नहीं धड़का। 27 साल पहले कही उनकी बात आज भी वैसी ही कानों में गूंज रही है,  "लोग यह कैसे भूल जाते हैं कि उनके साथ भी यह हो सकता है।"       
   

Friday, April 5, 2013

माल असबाब की सुरक्षा - हार की जीत

अमेरिका के एक हवाई अड्डे से बाहर आकर जब पार्किंग तक जाने के लिए शटल बस में बैठा तो मेरे साथ कई अन्य लोग भी चढ़े। बूढ़े हों या जवान, सीट लेने से पहले सबने अपनी भारी-भारी अटैचियों को सामान के लिए बनी जगह में करीने से लगाया। चालक भी सबके बैठने तक रुका रहा। अगले टर्मिनल पर फिर वही सब दोहराया गया। इस बार एक व्यक्ति के पास दो भारी सूटकेस सहित चार अदद थे। सामान की जगह खाली थी लेकिन उसकी नज़र सीट पर थीं। पीछे सीट भी खाली थीं मगर वहाँ तक कौन जाये सो वह सबसे आगे विकलांगों व बुज़ुर्गों के लिए छोड़ी सीट पर जम गया। चलने के लिए बनी थोड़ी सी जगह में अपनी अटैचियाँ और थैले भी अपने आस पास जमा लिए। उसके बाद हर टर्मिनल पर लोग उसके सामान से अपने घुटने टकराते हुए निकलते रहे मगर वह तसल्ली से अपने आइफोन पर संगीत सुनता रहा। न किसी अटकते हुए व्यक्ति ने उसे सामान रखने की जगह दिखाई और न ही उसने खुद तकलीफ की।

मुझे याद आया जब डीटीसी की बस में एक कंडक्टर ने किसी को अपनी अटैची पीछे रखने को कहा था और इस बात पर लंबी बहस चली जिसका निष्कर्ष यह निकाला कि सामान साथ न रखने पर उसके चोरी होने की आशंका बनी रहती है। मतलब यह कि जो आदमी दूसरों के लिए जितनी अधिक असुविधा पैदा कर सकता है उसका माल उतना ही सुरक्षित है। समाज जितना अधिक स्वार्थी और जंगली होगा, अपनी सुरक्षा और दूसरों की असुविधा का संबंध उतना ही गहरा होता जाएगा।

आज के भारत का हाल नहीं पता लेकिन हमारे जमाने में एक व्यापक जनधारणा यह थी कि निजी क्षेत्र की क्षमता सरकारी तंत्र से अधिक होते है। दिल्ली में निजी क्षेत्र की रेड/ब्लू लाइन के अत्याचार रोज़ सहने वाले भी बिजली, पानी की बात चलने पर छूटते ही कहते थे, "प्राइवेट कर दो, दो दिन में हालत बदल जाएगी।" सुना है अब सब प्राइवेट हो गया है और झुग्गी-झोंपड़ी वाले भी हजारों रुपये के बिल से त्रस्त हैं। सुनवाई के नाम पर बस एक ही कार्यवाही होती है, कनैक्शन काटने की। कुकुरमुत्ते की तरह उग आए प्राइवेट स्कूलों में बच्चों के लिए शौचालय तक नहीं हैं और जनसेवा के नाम पर करोड़ों की ज़मीन खैरात में पाने वाले फाइव-स्टार अस्पतालों में मुरदों को भी निचोड़ लेने की अफवाहें आती रहती हैं।

बदइंतजामी और भ्रष्टाचार के चलते जब एक निजी बैंक का दिवाला पिट गया तो उसके कर्मचारियों की नौकरी और जमकर्ताओं की पूंजी बचाने के लिए उसका शव एक सक्षम सरकारी बैंक की पीठ पर लाद दिया गया। हमारी शाखाओं का भाषाई संतुलन रातों-रात बदल गया। पाटना वापस पटना हो गया लेकिन बेचारे पद्मनाभन जी कुछ और बन गए। काम न जानने का आधार काम न करने का कारण बना और "सेवा के लिए विकास" की जगह "मैन्नू ते कुछ पता ई नई" बैंक का नया आदर्श वाक्य बनने के सपने देखने लगा। कुल मिलाकर मेरा अवलोकन यही था कि काम करने वालों से काम तो होता है लेकिन कभी-कभार गलती भी हो सकती है। लेकिन जिसने कभी कुछ किया ही नहीं, टोटल-मुफ्तखोरी की, उसकी कलम न कभी कोई कागज़ छूएगी, न कभी उनके हस्ताक्षर पकड़ में आएंगे। हारने दो उनको जो अपनी ज़िंदगी गुज़र देते हैं खून-पसीना बहाने में।

समाज में सब कुछ सही नहीं है, सब कुछ सही शायद कभी न हो। लेकिन इतना तय है कि बेहतरी की ज़िम्मेदारी भी हमारी ही है। जब तक गलत करने वालों को सज़ा और सही उदाहरण रखने वालों को उत्साह नहीं मिलेगा, "ज्योतिर्गमय" की आशा बेमतलब है। बुराई के साथ कोई रियायत नहीं, लेकिन यह सदा याद रहे कि भले लोगों से मतांतर होने पर भी सदुद्देश्य के मार्ग में हमें उनका हमसफर बने रहना है। बल्कि सच कहूं तो मतांतर वाले सज्जनों की सहयात्रा हमारी उन्नति के लिए एक अनिवार्य शर्त है क्योंकि वे हमें सत्य का वह पक्ष दिखते हैं जिसे देखने की हमें आदत नहीं होती। अच्छाई को रियायत दीजिये। मिल-बैठकर चिंतन कीजिये। एक दूसरे के सहयोगी बनिए। आँख मूंदकर चलना मूर्खों की पहचान है। इंसानी शक्ल वाली भेड़ों के लिए तो बहुत से वाद, मजहब और विचारधाराएँ दुनिया में थोक में मौजूद हैं। सभी रेंगने वालों को कौन उठा पाया है? लेकिन पर्वतारोहियों का हित इसी में है कि हिमालय का पतन न हो। एक दूसरे को छूट दीजिये, सहयोग कीजिये लेकिन आपके आसपास "क्या" हो रहा है के साथ "क्यों" हो रहा है पर भी पैनी नज़र रखिए।

दूध देने वाली गाय हो या जहर देने वाला नाग, स्वार्थी लोगों ने दोनों को दुहा है लेकिन हमारी विशालहृदया संस्कृति ने दोनों को ही आदर दिया है। समन्वय हमारी संस्कृति के मूल में है। अतिवाद थोपने वाली, लोगों को दीवारों में बांटने वाली, या भेद के आधार पर हिंसा लादने वाली विचारधाराएँ उत्तरी, पश्चिमी या पूर्वी सीमा से घुसपैठ करने की कितनी भी कोशिश करें, भारतीय संस्कृति कभी नहीं कहला सकतीं।