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Friday, January 27, 2012

पीतल नगरी, पोलियो और पाकिस्तान [इस्पात नगरी से 54]

एक, दो, नहीं पूरे छः दशक लगे ग्लोबल विलेज में इस एक छोटी सी यात्रा को ... यात्रा अभी पूरी हुई या नहीं, यह पता लगने में अभी दो वर्ष और लगेंगे। तब तक ज़रूरी है एहतियात। खासकर पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और नाइजीरिया से।

पिट्सबर्ग विश्वविद्यालय में पोलियो टीका बना था
सन 1952 में जोनास साल्क (Jonas Salk) ने पिट्सबर्ग विश्वविद्यालय में एक क्रांतिकारी खोज की थी। पोलियो के टीके की इस खोज की आधिकारिक घोषणा 1955 में हुई। यह इस खोज का ही परिणाम था कि सारी दुनिया को अपनी ज़द में लेने वाला पोलियो धीरे-धीरे सिमटता गया। और सिमटते-सिमटते भी यह जिन क्षेत्रों में बचा रह गया उनमें भारतीय उपमहाद्वीप के क्षेत्र भी शामिल हैं। पोलियो के खात्मे की बात हो या चेचक की, या फिर तपेदिक और कोढ जैसी बीमारियों की बात हो, और चाहे बात हो प्लेग के पुनरागमन की या सुपरबग की, स्वास्थ्य और महामारी के क्षेत्र में हमारी जनता का भाग्य काफ़ी कमज़ोर रहा है। कारणों पर मैं नहीं जा रहा क्योंकि अभी मित्रों को बिना वजह नाराज़ नहीं करना चाहता। लेकिन इतना ज़रूर सोचने को कहूँगा कि इस्पात नगरी पिट्सबर्ग से शुरू हुए टीके को पीतल नगरी मुरादाबाद तक अपना काम पूरा करने में 60 साल क्यों लगे? वैसे एक सवाल यह भी हो सकता था कि क्या कभी ऐसा समय भी आयेगा जब इस्पात नगरी की स्वास्थ्य समस्या का हल पीतल नगरी से चले? आपको क्या लगता है?

12 जनवरी 2011 के बाद से अब तक भारत में पोलियो का कोई नया उदाहरण नहीं मिला है जिससे यहाँ भी इसके खात्मे की सम्भावना प्रबल होती जा रही है। यदि हम लगभग दो और वर्षों तक पोलियो-मुक्त रह पाये तब यह माना जा सकेगा कि भारत में पोलियो समाप्त हो गया है। हाँ, जब तक यह रोग पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के पड़ोसी देशों में मौजूद है तब तक वहाँ से चले मानव-वाहकों द्वारा इसके पुनरागमन की आशंका बरकरार रहती है। इसके अलावा नाइजीरिया तीसरा और अंतिम पोलियोग्रस्त देश है। नाइजीरिया से भी बहुत से लोग, विशेषकर छात्र भारत आते रहे हैं। पिछले साल का अंतिम केस पश्चिम बंगाल में मिला था।  काश हम टीबी और कुष्ठरोग का भी सामना इसी प्रकार कर पायें।

63वें गणतंत्र दिवस पर एक और महामारी से मुक्ति की खबर आशाजनक है। वैसे भी स्वतंत्रता से अब तक हमने बहुत उन्नति की है जिसके लिये हमें अपने महान राष्ट्र पर गर्व होना ही चाहिये। और जो अब तक नहीं हो सका है उसकी प्राप्ति की अनुकूल दिशा में प्रयास बनाये रखने चाहिये।


पाकिस्तान सीमा पर आगंतुकों को पोलियो के टीके
सम्बन्धित कड़ियाँ
* इस्पात नगरी से - शृंखला
* मैं पिट्सबर्ग हूँ
* दिमागी जर्राही बरास्ता नाक

Monday, January 23, 2012

अकेला - कविता

(अनुराग शर्मा)

देखी ज़माने की यारी ...

कभी उसको नहीं समझा
कभी खुदको न पहचाना

दिया है दर्जा दुश्मन का
कभी भी दोस्त न माना

जो मेरे हो नहीं सकते
उन्हें दिल चाहे अपनाना

अकेला हो गया कितना
गये जब वे तो पहचाना

कठिन है ये कि छूटे सब
या के सब छोड़ के जाना?

Friday, December 16, 2011

बेहतर हो - कविता

(~ अनुराग शर्मा)

ये दिन जल्दी ढल जाये तो अच्छा हो
रात अभी गर आ जाये तो अच्छा हो
सूरज से चुन्धियाती आंखें बहुत सहीं
घनघोर घटा अब घिर आये तो अच्छा हो

बातों को तुम न पकड़ो तो अच्छा हो
शब्दों में मुझे न जकड़ो तो अच्छा हो
कौन किसे कब परिभाषित कर पाया है
नासमझी पे मत अकड़ो तो अच्छा हो

विषबेल अगर छँट पाये तो अच्छा हो
इक दूजे को सहन करें तो अच्छा हो
नज़दीकी ने थोड़ा सा असहज किया
कुछ दूरी फिर बन जाये तो अच्छा हो

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* यूँ भी तो हो - एक इच्छा
* काश - कविता

Thursday, December 1, 2011

तू मेरा बन - कविता

रेशम तन
निर्मल मन

तुझको ही
चाहें जन

हटा तमस
चमके जीवन

मन बाजे
छन छन

जग तेरा
तू मेरा बन

(~ अनुराग शर्मा)
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* सब तेरा है
* क्यों सताती हो?
* आग मिले

Thursday, November 24, 2011

थैंक्सगिविंग - एक अनूठा आभार! - इस्पात नगरी से 52

आज नवम्बर मास का चौथा गुरुवार होने के कारण हर वर्ष की तरह आज संयुक्त राज्य अमेरिका में थैंक्सगिविंग का पर्व मनाया जा रहा है। यह उत्सव है परिवार मिलन का और अपने सुख और समृद्धि के लिये ईश्वर का आभार प्रकट करने के लिये। इस पर्व की परम्परा यूरोप से आये आप्रवासियों और अमेरिका के मूल निवासियों के समारोहों की सम्मिलित परम्परा का संगम है। आधुनिक थैंक्सगिविंग के आरम्भ के बारे में बहुत सी कहानियाँ हैं। सबसे ज़्यादा प्रचलित कथा के अनुसार इस परम्परा की जड़ें आधुनिक मासाचुसेट्स राज्य के प्लिमथ स्थान में 1621 में अच्छी फसल की खुशियाँ मनाने के लिये हुए एक समारोह में छिपी हैं। समारोह वार्षिक हो गया और यूरोपीय निवासियों के पास पर्याप्त भोजन न होने की दशा में वम्पानोआग जाति के मूल निवासियों ने उन्हें बीज देकर उनकी सहायता की।

टर्की (चित्र: अपार शर्मा द्वारा)
जैसे इस पर्व के उद्गम के बारे में किसी को ठीक से नहीं पता है वैसे ही किसी को यह नहीं पता कि धन्यवाद या आभार प्रकट करने के इस दिन पर टर्की पक्षी खाने की परम्परा कब से शुरू हुई। अधिकांश लोग इस बात पर सहमत हैं कि आरम्भिक आभार दिवसों पर टर्की नहीं खाई जाती थी। जो भी हो, कालांतर में टर्की इस पारिवारिक पर्व का आधिकारिक भोजन बन गयी। संयुक्त राज्य जनगणना विभाग के एक अनुमान के अनुसार आज के आभार दिवस के लिये पूरे देश में लगभग 24 करोड़ अस्सी लाख टर्कियाँ पोषित की गयीं।

ऐसा नहीं कि आज सारे अमेरिका ने टर्की खाई हो। कुछ समय से लोगों ने टर्की के शाकाहारी विकल्पों के बारे में सोचना आरम्भ किया है। टोफ़र्की एक ऐसा ही विकल्प है। इसके साथ सामान्यतः कद्दू की मिठाई, आलू और करी जैसी सह-डिशें प्रयुक्त होती हैं। बहुत से अमेरिकी परिवारों में आजकल नई पीढी शाकाहारी जीवन शैली अपना रही है। इस वजह से कई जगह बुज़ुर्गों की टर्की के साथ में टोफ़र्की बनाने का प्रचलन भी बढ रहा है। शाकाहारी और वीगन परिवारों द्वारा प्रयुक्त टोफ़र्की मुख्यतः गेहूँ और सोयाबीन के प्रोटीन से बनाया जाता है। हाँ, हमारे जैसे परिवार तो टर्की और टोफ़र्की से दूर भारतीय भोजन की सुगन्ध से ही संतुष्ट हैं।

लेकिन आज की पोस्ट का केन्द्रबिन्दु टर्की या टोफ़र्की नहीं है। आज की यह आभार पोस्ट पिट्सबर्ग निवासी 72 वर्षीय श्री महेन्द्र पटेल के सम्मान में लिखी गयी है जिन्होंने स्थानीय भोजन-भंडार (Pittsburgh food bank) को दस हज़ार डॉलर का अनुदान दिया है। लगभग पाँच वर्ष पहले अपनी पत्नी नीला के कैंसर ग्रस्त होने का समाचार मिलने पर महेन्द्र जी ने प्रभु से उनके ठीक होने की मन्नत मांगी थी। अब पत्नी के स्वस्थ होने पर आभारदिवस पर उन्होंने पिट्सबर्ग के भोजन-भंडार को एक चेक लिखकर प्रभु के प्रति अपना आभार व्यक्त किया है।

आज के कठिन समय में जब बेरोज़गारों की संख्या बढ रही है और मध्यवर्गीय लोग भी भोजन-भंडारों में दिख रहे हैं, मैंने 10,000 डॉलर (फ़ुडबैंक को) देने का निश्चय किया। ~ श्री महेन्द्र पटेल
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* Gift of thanks to food bank - स्थानीय समाचार
* काला जुमा, बेचारी टर्की
* थैंक्सगिविंग - लिया का हिन्दी जर्नल
* 24 करोड़ 80 लाख टर्कियाँ
* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
* Pumpkin Pie - कद्दू की मिठाई
* Thanksgiving - a poem

Friday, November 4, 2011

काली गिलहरी - इस्पात नगरी से 51

वाशिंगटन डीसी की गिलहरी
रामसेतु के निर्माण में वानर-भालू मिलकर जुटे थे। मगर उसमें एक छोटी गिलहरी का भी योगदान था। इतना महत्वपूर्ण योगदान कि श्रीराम ने उसे अपनी हथेली पर उठाकर सहलाया। वह भी इस प्रकार कि उनकी उंगलियों से बनी धारियां आज तक गिलहरी की संतति की पीठ पर देखी जा सकती हैं।

अब कहानी है तो विश्वास करने वाले भी होंगे। विश्वास करने वाले हैं तो कन्सपाइरेसी सिद्धांतों वाले भी होंगे। भाई साहब कहने लगे कि बाकी गिलहरियों का क्या? मतलब यह कि जो गिलहरियाँ उस समय सेतु बनाने नहीं पहुँचीं उनके बच्चों की पीठ के बारे में क्या? सवाल कोई मुश्किल नहीं है। उत्तरी अमेरिका में अब तक जितनी गिलहरियाँ देखीं, उनमें किसी की पीठ पर भी रेखायें नहीं थीं। न मानने वालों के लिये तीन सबूत उपस्थित हैं, डीसी, पिट्सबर्ग व मॉंट्रीयल से।

पैनसिल्वेनिया की गिलहरी

कैनैडा की गिलहरी

बात यहीं खत्म हो जाती तो भी कोई बात नहीं थी मगर वह बात ही क्या जो असानी से खत्म भी हो जाये और फिर भी इस ब्लॉग पर जगह पाये। पिछले दिनों मैंने पहली बार एक पूर्णतः काली गिलहरी देखी। आश्चर्य, उत्सुकता और प्रसन्नता सभी भावनायें एक साथ आयीं। जानकारी की इच्छा थी, पता लगा कि यह कृष्णकाय गिलहरियाँ मुख्यतः अमेरिका के मध्यवर्ती भाग में पायी जाती हैं लेकिन उत्तरपूर्व अमेरिका और कैनेडा में भी देखी जाती हैं। ऐसा माना जाता है कि यूरोपीयों के आगमन से पहले यहाँ काली गिलहरियाँ बहुतायत में थीं। घने जंगल उनके छिपने के लिये उपयुक्त थे। समय के साथ वन कटते गये और पर्यावरण भूरी गिलहरियों के पक्ष में बदलने लगा। और अब उन्हीं का बहुमत है।







[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Squirrels as captured by Anurag Sharma]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ

Thursday, October 20, 2011

क्वेकर विवाह के साक्षी - इस्पात नगरी से 47

अमेरिका आने के बाद से बहुत से पाणिग्रहण समारोहों में उपस्थिति का अवसर मिला है जिनमें भारतीय और अमेरिकन दोनों प्रकार के विवाह शामिल हैं। किसी विवाह में वर पक्ष से, किसी में वधू पक्ष से, किसी में दोनों ओर से शामिल हुआ हूँ और एक विवाह में संचालक बनकर कन्या-वर को पति-पत्नी घोषित भी किया है। यह सभी विवाह अपनी तड़क-भड़क, शान-शौकत और सज्जा में एक से बढकर एक थे।

काली घटा छायी, प्रेम रुत आयी
मगर यह वर्णन है एक सादगी भरे विवाह का। जब हमारे दो पारिवारिक मित्रों ने बताया कि वे क्वेकर विधि से विवाह करने वाले हैं और उसमें हमारी उपस्थिति आवश्यक है तो मैंने तीन महीने पहले ही अपनी छुट्टी चिन्हित कर ली। इसके पहले देखे गये भारतीय विवाह तो होटलों में हुए थे परंतु अब तक के मेरे देखे अमरीकी विवाह चर्च में पादरियों की उपस्थिति में पारम्परिक ईसाई विधियों से सम्पन्न हुए थे। यह उत्सव उन सबसे अलग था।

नियत दिन हम लोग पहाड़ियों पर बसे पिट्सबर्ग नगर के सबसे ऊंचे बिन्दु माउंट वाशिंगटन के लिये निकले। पर्वतीय मार्गों को घेरे हुए काली घटाओं का दृश्य अलौकिक था। कुछ ही देर में हम वाशिंगटन पर्वत स्थित एक भोजनालय के सर्वोच्च तल पर थे। समारोह में अतिथियों की संख्या अति सीमित थी। बल्कि यूँ कहें कि केवल परिजन और निकटस्थ सम्बन्धी ही उपस्थित थे तो अतिश्योक्ति न होगी। और उस पर भारतीय तो बस हमारा परिवार ही था। वर वधू दोनों ही अमरीकी उत्साह के साथ अतिथियों का स्वागत करते दिखे। हम उनके परिजनों के साथ-साथ उनके पिछले विवाहों से हुए वर के 18 वर्षीय पुत्र और वधू की 16 वर्षीय पुत्री से भी मिले। अन्य अतिथियों की तरह वे दोनों भी सजे धजे और बहुत उत्साहित थे।

मनोहारी पिट्सबर्ग नगर
समारोह स्थल जलचरीय भोजन के लिये प्रसिद्ध है। लेकिन जब एक शाकाहारी को बुलायेंगे तो फिर अमृत शाकाहार भी कराना पड़ेगा, उस परम्परा का निर्वाह बहुत गरिमामय ढंग से किया जा रहा था। समारोह में कोई पादरी या धार्मिक प्रतिनिधि नहीं था। पूछने पर पता लगा कि क्वेकर परम्परा में पादरी की आवश्यकता नहीं है क्योंकि प्रभु और मित्र ही साक्षी होते हैं। आरम्भ में वर के भाई ने ईश्वर और अतिथियों का धन्यवाद देने के साथ-साथ अपने महान राष्ट्र का धन्यवाद दिया और उसकी गरिमा को बनाये रखने की बात कही। जाम उछाले गये। वर-वधू ने वचनों का आदान-प्रदान किया। वर की माँ ने एक संक्षिप्त भाषण पढकर उन्हें पति-पत्नी घोषित किया। वर ने वधू का चुम्बन लिया और दोनों ने विवाह का केक काटा।

सभी अतिथियों ने एक बड़े कागज़ पर पति-पत्नी द्वारा कलाकृति की तरह लिखे गये अति-सुन्दर किन्तु सादे विवाह घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करके अपनी साक्षी दर्ज़ की। पेंसिल्वेनिया राज्य के नियमों के अनुसार क्वेकर विवाह में इस प्रकार का घोषणापत्र हस्ताक्षरित कर देना ही विवाह को कानूनी मान्यता प्रदान करता है। इसके बाद भोजन लग गया और सभी पेटपूजा में जुट गये। मेज़ पर हमारे सामने बैठे वृद्ध दम्पत्ति हमें देखकर ऐसे उल्लसित थे मानो कोई खोया हुआ सम्बन्धी मिल गया हो। पता लगा कि वे लोग मेरे जन्म से पहले ही आइ आइ टी कानपुर के आरम्भिक दिनों में तीन वर्षों तक वहाँ रहे थे। उसके बाद उन्होंने नेपाल में भी निवास किया। उनकी बेटी और पौत्र के नाम संस्कृत में है। बातों में समय कहाँ निकल गया, पता ही न लगा।
चीफ़ गुयासुता व जॉर्ज वाशिंगटन
जब चलने लगे तब एक युवती ने रोककर बात करना आरम्भ किया। पता लगा कि वे एक योग-शिक्षिका हैं और अभी दक्षिण भारत की व्यवसाय सम्बन्धित यात्रा से वापस लौटी थीं। वे बहुत देर तक भारत की अद्वितीय सुन्दरता और सरलता के बारे में बताती रहीं। 25-30 लोगों के समूह में तीन भारत-प्रेमियों से मिलन अच्छा लगा और हम लोग खुश-खुश घर लौटे।

होटल से नगर का दृश्य सुन्दर लग रहा था। हमने कई तस्वीरें कैमरा में क़ैद कीं। नीचे आने पर जॉर्ज वाशिंगटन व सेनेका नेटिव अमेरिकन नेता गुयासुता की 29 दिसम्बर 1790 मे हुई मुलाकात का दृश्य दिखाने वाले स्थापत्य का सुन्दर नज़ारा भी कैमरे में उतार लिया। इस ऐतिहासिक सभा में जॉर्ज वाशिंगटन ने एक ऐसे अमेरिका की बात की थी जिसमें यूरोपीय मूल के अमरीकी, मूल निवासियों के साथ मिलकर भाईचारे के साथ रहने वाले थे। अफ़सोस कि बाद में ऐसा हुआ नहीं। जॉर्ज वाशिंगटन के साथ वार्तारत सरदार गुयासुता की यह मूर्ति 25 अक्टूबर 2006 को लोकार्पित की गयी थी।

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ

Wednesday, October 19, 2011

अनुरागी मन - कहानी अंतिम कड़ी (भाग 21)

अनुरागी मन - अब तक - भाग 1भाग 2भाग 3भाग 4भाग 5भाग 6भाग 7भाग 8भाग 9भाग 10भाग 11भाग 12भाग 13भाग 14भाग 15भाग 16भाग 17भाग 18भाग 19भाग 20;
पिछले अंकों में आपने पढा: दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे, फिर पता पता लगा कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डांवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीडा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये| ज़रीना खानम के विवाह के अवसर पर झरना के विषय में हुई बड़ी ग़लतफ़हमी सामने आयी जिसने वीर के हृदय को ग्लानि से भर दिया। और उसके बाद निक्की के बारे में भी सब कुछ स्पष्ट हो गया। वीर की नौकरी लगी और ईर, बीर, फ़त्ते साथ में नोएडा रहने लगे। वीर ने अपनी दर्दभरी दास्ताँ दोस्तों को सुनाई और वे तीनों झरना के लिये मन्नत मांगने थानेसर पहुँच गये। फिर एक दिन जब तीनों परिक्रमा रेस्त्राँ में थे तब वीर ने वहाँ झरना को देखा परंतु झरना ने बात करना तो दूर, उन्हें पहचानने से भी इनकार कर दिया। वापस घर आते समय एक ट्रक ने उनकी कार को टक्कर मारी और पुलिस ने अस्पताल पहुँचाया।
अब आगे भाग 21 ...

दिल्ली मेरी दिल्ली
पुलिस ने फ़ोन से तीनों के घर पर सूचना भिजवा दी। ईर और फ़त्ते को तो प्राथमिक चिकित्सा के बाद छोड़ दिया गया। मगर वीर को गहन चिकित्सा कक्ष में ले जाया गया। तब तक सुबह हो चुकी थी। ईर और फ़त्ते उनीन्दे बैठे बाहर इंतज़ार कर रहे थे। बीच में कुछ डॉक्टरों ने इन दोनों को वीर की स्थिति के बारे में ब्रीफ़िंग भी दी। उनके जाने के बाद दोनों विचारमग्न थे कि बाहर का दरवाज़ा खुला और मानो सुबह की रोशनी की किरण जगमगाई हो। सूर्य के प्रकाश के साथ ही एक बदहवास कंचनकाया अन्दर आयी। एक पल ठिठककर झरना ने ईर और फ़त्ते को देखा और फिर घबराकर पूछा, "वीर? ... वीर कहाँ है?"

"ठीक है। अन्दर है।" ईर ने बताया।

"तुम लोग यहाँ हो तो वह अन्दर क्यों है?" झरना की आँखों से स्पष्ट था कि वह रात भर सो नहीं सकी थी।

"उसके कन्धे में लगी है थोड़ी। सीरियस है पर ठीक हो जायेगा।" फ़त्ते ने झरना को दिलासा देते हुए कहा। वह कहना चाहता था कि अगर आज आना ही था तो कल क्यों चली गयी थीं। मगर उसे यह समय ऐसी बात के लिये ठीक नहीं लगा। झरना ने बताया कि वह वीर से अब भी बहुत प्यार करती है और सदा करती रहेगी। दिल्ली आने से पहले वह नई सराय जाकर उसकी दादी और माँ से मिली भी थी और नोएडा का पता भी लेकर आयी थी। लेकिन साथ-साथ वह वीर के पिछले व्यवहार के कारण उससे बहुत गुस्सा भी थी और उसे यह भी समझाना चाहती थी कि बेरुखी कितनी क्रूर होती है। लेकिन परिक्रमा में वीर के प्रति अपने दुर्व्यवहार के बाद वह रात भर सो न सकी। अलस्सुबह फ़त्ते के घर पहुँची और वहाँ से सारी बात पता लगते ही अस्पताल आयी।

झरना ने बताया कि उसके माता-पिता के जाने के बाद बस वीर ही एक ऐसा व्यक्ति है जिसे वह नितांत अपना मानती है और उस पर अपना अधिकार समझती है। शायद इसी कारण उसकी अपेक्षा कुछ अधिक ही बढ गयी थी। उसे लगा कि जब वह परिक्रमा से बाहर जायेगी तो वीर आगे बढकर उसे रोक लेगा, जाने नहीं देगा। फ़त्ते ने बताया कि वीर तो रोकने जा रहा था पर उसे फ़त्ते ने पकड़कर रोका हुआ था। झरना ने अपने हाथों से उन दोनों का एक-एक हाथ पकड़कर एक घेरा बनाया। फिर आंखें बन्द करके वीर के लिये एकसाथ मिलकर प्रार्थना करने को कहा। तीनों ने मन में भगवान का नाम लिया। तीनों की आँख से मानो अनुराग के झरने बह रहे थे।

आँखें खुलीं तो दो डॉक्टर उनके सामने खड़े थे।

एक ने कहना आरम्भ किया, "हमें अफ़सोस है कि ..."

दूसरे ने वाक्य पूर्ण किया, "ही इज़ नो मोर! वी आर एक्स्ट्रीमली सॉरी! ... ... ..." वे बोलते गए पर शब्द मानो अपना अर्थ खो चुके थे।

अपने साथ आने का इशारा करके डॉक्टर उन्हें वहाँ तक ले गये जहाँ वीर ने अंतिम साँस ली थी। फ़फ़क-फ़फ़क कर रोते हुए फ़त्ते ने अपनी जेब से निकालकर कागज़ का एक छोटा सा टुकड़ा सिसकती हुई झरना को दिया जिसे वीर ने दुर्घटना के तुरन्त बाद फ़त्ते की सहायता से लिखा था।
प्रिय झरना,

बाबा रे, मेरी परी को इतना गुस्सा आता है! सब दिखावा है न? मुझे पता है कि तुम मुझे चाहती हो। मैं भी तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ। मेरे मरते दम तक तुम मेरे दिल में रहोगी। ईश्वर तुम्हें सकुशल रखे।

केवल तुम्हारा,
अनुरागी मन
[समाप्त (अंततः)]

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* नहीं जाना कुँवर जी - पीनाज़ मसानी - अमीर आदमी गरीब आदमी
* अनुरागी मन - लता मंगेशकर - रजनीगन्धा

अनुरागी मन - कहानी (भाग 20)

अनुरागी मन - अब तक - भाग 1भाग 2भाग 3भाग 4भाग 5भाग 6भाग 7भाग 8भाग 9भाग 10भाग 11भाग 12भाग 13भाग 14भाग 15भाग 16भाग 17भाग 18भाग 19;
पिछले अंकों में आपने पढा: दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे, फिर पता पता लगा कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डाँवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीडा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये। ज़रीना खानम के विवाह के अवसर पर झरना के विषय में हुई बड़ी ग़लतफ़हमी सामने आयी जिसने वीर के हृदय को ग्लानि से भर दिया। और उसके बाद निक्की के बारे में भी सब कुछ स्पष्ट हो गया। वीर की नौकरी लगी और ईर, बीर, फ़त्ते साथ में नोएडा रहने लगे। वीर ने अपनी दर्दभरी दास्ताँ दोस्तों को सुनाई और वे तीनों झरना के लिये मन्नत मांगने थानेसर पहुँच गये। फिर एक दिन जब तीनों परिक्रमा रेस्त्राँ में थे तब वीर ने वहाँ झरना को देखा परंतु झरना ने बात करना तो दूर, उन्हें पहचानने से भी इनकार कर दिया।
अब आगे भाग 20 ...
कंसर्ट के समापन तक कार्यक्रम स्थल का माहौल किसी उत्सव जैसा हो गया था। मगर वीर के दिल में मुर्दनी छाई थी। वे मानो नई सराय की उसी रात को उसी नहर के किनारे के श्मशानघाट में खड़े थे जहाँ दादाजी की चिता जल रही थी। लपटें उनके बदन को छू रही थीं, वे झुलस रहे थे। उनको बार-बार अपने जीवन पर धिक्कार हो रहा था। कैसे व्यक्ति हैं वे? अनजाने में ही सही, पर पहले किसी को इतना सताया और अब समय आने पर ढंग से क्षमा तक नहीं मांग पाये।

बाहर आकर कार में बैठने तक दोनों साथी वीर का एक-एक हाथ पकड़े हुए उनके दायें-बायें चलते रहे। ईर ने प्रस्ताव रखा कि आज गाड़ी वह चलायेगा और फ़त्ते वीर के साथ पीछे बैठेगा।

"मैं उससे मिलने जाऊँगा। वासिफ़ के अब्बा से मिलकर उसे खोजूंगा। उनसे ज़रूर मिली होगी वह।"

"मिल तो लिया तू एक बार। अब क्यों जायेगा फिर से?" अरविन्द झ्ंझलाया। वह आज की घटना से बहुत अप्रसन्न था।

"माफ़ी मांगने, और क्यों?" वीर ने स्पष्ट किया।

"आज मांग तो ली तूने माफ़ी" फत्ते ने दृढ स्वर में कहा, "तू नहीं जाता, अब वह आयेगी तुझसे मिलने, माफ़ी मांगने ..." फ़त्ते रुका नहीं "हम कोई गिरे पड़े नहीं है। लाइन लगी है लड़कियों की। वह समझती क्या है अपने आप को। "

"लेकिन ... उसकी ग़लती नहीं है" वीर ने सफ़ाई सी दी।

"बहुत खूबसूरत है वो? हूर की परी? मेरा भाई भी लाखों में एक है। जो लड़की तेरे जैसे को नहीं पहचानी, वो बेकार है, एकदम बेकार! शराफ़त की भी एक हद होती है।"

"और मैंने जो दुःख दिया है उसे, उसका क्या?"

"अरे तू गया तो था माफ़ी मांगने। हम सब सुन रहे थे पीछे खड़े हुए। ओ वीर, दुनिया देखी है मैंने। ये लड़की तेरे लायक नहीं है" फ़त्ते पहले तो गुस्सा हुआ और फिर अपने को शांत करते हुए बोला, "लेकिन सब्र कर, अगर तेरी मर्ज़ी यही है तो वो तुझे मिलेगी ज़रूर, वो खुद आयेगी। लेकिन ये होगा तभी जब तू अपनी तरफ़ से उससे बिल्कुल भी न मिले।"

"कैसे आयेगी अपने आप? क्या पता आज की ही वापसी फ़्लाइट हो उसकी?" वीर सम्भावनायें तलाश रहे थे।

"तो अगली फ़्लाइट में मिलना" गाड़ी चलाता हुआ ईर भी बातचीत में शामिल था।

"ओये तू मुर्गे की तरह गर्दन पाछे क्यों कर रहा है। सामने देख के चला। छोरे को घर पहुँचाने की ज़िम्मेदारी अब तेरे ही ऊपर है।

"और तुम्हारा क्या?" ईर हँसा।

"हम तो अब इसके लिये एक स्वर्ग की परी ढूँढकर लायेंगे ... अब हँस भी दे मेरे भाई। कह दिया न वो आयेगी। कैसे आयेगी ये हमारे भरोसे पर छोड़ दे।"

चींSSS ...। जब तक ईर देख पाता चौराहे पर बती लाल हो चुकी थी। उसने एकदम से ब्रेक लगाये। नई गाड़ी, नये टायर होते हुए भी सड़क पर पड़ी नन्ही रोड़ी व धूल के कारण पहियों की पकड़ न बन सकी। गाड़ी एक झटके के साथ रुकी लेकिन जब तक तीनों होश पाते, एक झटका और लगा। ईर तो रुक गया था मगर उनके पीछे तेज़ी से आता हुआ ट्रक रुकने के मूड में नहीं था। जब तक संभलते, लोहे की शीट्स से लदा ट्रक इनकी कार का बायाँ भाग छील चुका था। और कार के साथ ही छिले थे वीर सिंह। झटके तीनों को लगे परंतु वीर सिंह का वामस्कन्ध रगड़ा गया, शायद हड्डी टूटी थी। रक्त भी बहने लगा। वे बहुत पीड़ा में थे और दुर्भाग्य यह कि पूरे होशोहवास में थे।

ईर ने गाड़ी से बाहर निकलकर आते जाते वाहनों को रोकने का असफल प्रयास किया जबकि फ़त्ते ने वीर को सम्भाला।

"अगर मैं जीवित नहीं रहूँ तो परी से मेरी तरफ़ से तुम ही माफ़ी मांग लेना।"

"तुझे तो कुछ हुआ ही नहीं। ऐसे मत बोल। मरहम पट्टी करके ठीक कर देंगे तुझे।"

"एक काम कर दो मेरा ..." वीर ने हाथ बढ़ाया। फ़त्ते ने वीर को इतना हताश पहले कभी भी नहीं देखा था।

किस्मत अच्छी थी। कुछ ही देर में, दिल्ली पुलिस की एक पीसीआर जिप्सी वहाँ थी, पीछे-पीछे दूसरी। कुछ ही देर में तीनों सफ़दरजंग अस्पताल में थे। वीर पहले उधर से कई बार निकल चुके थे। एमर्जेंसी के बाहर कतार से सीधे खड़े शाल्मली के लाल फूलों से आच्छादित ऊँचे विशाल वृक्ष उन्हें बहुत पसन्द थे मगर आज यहाँ होते हुए भी वे उन्हें देख नहीं सके थे।

[क्रमशः]

Tuesday, October 18, 2011

अनुरागी मन - कहानी (भाग 19)

नोट: आज यह पोस्ट लिखते समय कठिनाई हुई, फिर ईमेल में सस्पिशस ऐक्टिविटी की चेतावनी मिली। सुरक्षा सम्बन्धी समुचित कदम उठाने के बाद अब पोस्ट लिख पा रहा हूँ। यदि वर्तनी या व्याकरण आदि की कुछ ग़लतियाँ होंगी तो बाद में ठीक कर दूंगा। पहले भी कई बार कुछ पोस्ट्स ब्लैंक हो चुकी हैं परंतु अधिकांश बाद में रिकवर की जा सकी थीं। फ़िकर नास्त, अल्लाह मेहरबान अस्त!

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पिछले अंकों में आपने पढा: दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे, फिर पता पता लगा कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डाँवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीड़ा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये। ज़रीना खानम के विवाह के अवसर पर झरना के विषय में हुई बड़ी ग़लतफ़हमी सामने आयी जिसने वीर के हृदय को ग्लानि से भर दिया। और उसके बाद निक्की के बारे में भी सब कुछ स्पष्ट हो गया। वीर की नौकरी लगी और ईर, बीर, फ़त्ते साथ में नोएडा रहने लगे। वीर ने अपनी दर्दभरी दास्ताँ दोस्तों को सुनाई और वे तीनों झरना के लिये मन्नत मांगने थानेसर पहुँच गये। फिर एक दिन जब तीनों परिक्रमा रेस्त्राँ में थे तब वीर ने वहाँ किसी को देखा।
अब आगे भाग 19 ...

"बीर को भी पसन्द आ गये शायद। देख, ठंडाई भी न पी इसने तो।" फ़तहसिंह खुश था।

"एक मिनट" वीर जो देखना चाह रहे थे, वह रेस्त्राँ की गोलाई के कारण अब तक पक्का नहीं हो पाया था। उन्हें अनजान लोगों को घूरना पसन्द नहीं था इसलिये उस समय सच उनसे कुछ हद तक ओझल सा था। और तभी उसने मेनू किनारे रखते हुए चेहरा ऊपर उठाया। दोनों की आँखें चार हुईं। फिर उसने सिर झुका लिया। वीर को अपने भाग्य पर विश्वास न हुआ। उनका दिल बल्लियों उछलने लगा। एक-एक क्षणांश भी मानो कई युगों के बराबर हो गया।

सब कुछ भूलकर वे उठे और सीधे उस मेज़ पर जाकर रुके।

"हाय, कैसी हो?" उनकी प्रसन्नता आवाज़ से छलकी पड़ रही थी, "यक़ीन नहीं करोगी कि इतने दिन बाद आज तुम्हें अचानक सामने पाकर मैं कितना खुश हूँ।"

अपनी अप्सरा के सामीप्य ने मानो उन्हें ज़मीन से उठाकर आसमान में पहुँचा दिया था।

झरना ने नज़रें उठाकर उन्हें भरपूर देखा, "हू आर यू? व्हाट डू यू वांट?"

उसके साथ बैठे चारों लोगों ने वीर को प्रश्नवाचक नज़र से देखा।

"परी ... अप्सरा ... झरना ..." इस अप्रत्याशित मोड़ को देखकर वीर भौंचक्के से रह गये। मानो किसी ने उनकी गर्दन मरोड़ दी हो। उनका शरीर बेजान सा हो गया, गला सूखने लगा। फिर भी साहस करके बोले, "नई सराय, बरेली, वासिफ़ खाँ, ज़रीना खानम ..."

"कहा न, मैं आपको नहीं जानती" उसने नज़रें नीची कर लीं और साथ रखा हुआ मेनू उठाकर उसे पढने का उपक्रम किया।

"वीर ... याद करो ... वीर हूँ मैं, नाराज़ हो मुझसे?"

"कौन वीर? मैं किसी वीर को नहीं जानती।"

"एए मिस्टर ..." साथ के लड़के ने वीर की कलाई पकड़ी।
ईर और फ़त्ते भी कुछ गड़बड़ी भाँपकर वहाँ आ गये थे। फ़त्ते को देखकर उस लड़के ने वीर का हाथ छोड़ दिया

"मैं वीरसिंह हूँ, तुम्हारा अपना वीर। लिसन झरना, आयम सॉरी ..." वीर रूँआसे हो उठे, "मैं तुम्हारा दोषी हूँ, जो सज़ा चाहे दे दो। उफ़ नहीं करूँगा!"

"लैट्स गो गाईज़" उनकी बात का जवाब दिये बिना वह उठी।

"तुम्हें क्या हो गया है झरना?" कहकर वीर उसके सामने आ गये लेकिन फ़त्ते ने दृढता से उन्हें पकड़कर झरना को जाने का रास्ता दिया। वीर देखते ही रह गये और झरना बाहर निकल गयी। झरना के साथी भी उसके पीछे-पीछे चले गये।

वे देखते रहे, उन कदमों को जो सदा उनकी ओर बढ़ा करते थे, आज कितनी बेदर्दी से उनसे दूर चले गये। सब कुछ जैसे बिखर गया हो। क्या चाहते थे वे? क्षमायाचना? या उससे अलग कुछ और। वे अपने नसीब से लड़ते क्यों रहे। जब झरना पास आना चाहती थी तब वे दूर भागते रहे और आज जब वे अपनी ग़लती का प्रायश्चित करना चाहते हैं तब यह सब क्या हो रहा है? यदि फ़त्ते उन्हें कसकर पकड़े न होता तो वे किसी की परवाह किये बिना पीछे-पीछे दौड़ गये होते।

"वही है। अच्छी तरह से पहचानती है मुझे। नाराज़ है बस।" अंतिम वाक्य बड़ी कठिनाई से उनके मुँह से बाहर निकल सका। जिस सपने के लिये वे अब तक ज़िन्दा थे आज मानो टूट सा गया था। पल भर में उनका सब कुछ बिखर चुका था। सम्बन्ध तो शायद बनने से पहले ही टूट चुका था परंतु आज उसे फिर से जोड़ने के प्रयास में वे स्वयं भी टूट चुके थे।

"जानता हूँ भाई, सब जानता हूँ। फिकर मत ना कर। जल्दी ही सब ठीक होगा। तू रुक तो सही, बस दो चार दिन" फ़त्ते ने दिलासा दी, "हम मिलायेंगे तुम दोनों को। वो तेरी है, तेरी ही रहेगी। भरोसा रख इस देहाती पर।"

वेटर ने पास आकर याद दिलाया कि ऑर्डर सर्व हो गया था। पर वहाँ भूख किसको थी। फ़त्ते ने ज़बर्दस्ती सी करके वीर को खिलाया। सदा शांत रहने वाला अरविन्द भी बेचैन सा लग रहा था। जितना सम्भव हुआ उतना खाकर प्लेटें हटवाकर भी वे काफ़ी देर वहाँ बैठे रहे। वीर लगातार झरना के बारे में कोई न कोई बात याद करके बोलते रहे और बाकी दोनों चुपचाप सुनते रहे।

कार्यक्रम का समय होने पर तीनों वहाँ पहुँचे। सबसे आगे तो नहीं, पर उनकी सीट स्टेज के इतना पास थी कि वे जगजीत सिंह के हाव-भाव स्पष्ट देख सकते थे। ईर व फ़तह उनके आजू-बाज़ू बैठे। पहले तो वे अपने ही ख्यालों में खोये अपने को यह विश्वास दिलाते रहे कि कुछ देर पहले जो हुआ वह सपना नहीं सच था। कार्यक्रम आरम्भ हुआ, अब हर ग़ज़ल उन्हें अपनी और झरना की कहानी लग रही थी।

[क्रमशः]

Monday, October 17, 2011

अनुरागी मन - कहानी (भाग 18)

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पिछले अंकों में आपने पढा: दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे, फिर पता पता लगा कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डाँवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीड़ा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये। ज़रीना खानम के विवाह के अवसर पर झरना के विषय में हुई बड़ी ग़लतफ़हमी सामने आयी जिसने वीर के हृदय को ग्लानि से भर दिया। और उसके बाद निक्की के बारे में भी सब कुछ स्पष्ट हो गया। वीर की नौकरी लगी और ईर, बीर, फ़त्ते साथ में नोएडा रहने लगे। वीर ने अपनी दर्दभरी दास्ताँ दोस्तों को सुनाई और वे तीनों झरना के लिये मन्नत मांगने थानेसर पहुँच गये।
अब आगे भाग 18 ...

"अबे कब तक सोते रहोगे तुम लोग?" यह लट्ठमार स्वर घर के मालिक फ़तहसिंह का था।

"उठ जा बच्चे, ईर तो तैयार भी हो लिया, तूई बचा रै गया इब तक।"

वीर ने आँखें खोलीं तो फ़त्ते को सजा-धजा, एकदम तैयार अपने कमरे में पाया। सुबह सुबह, छुट्टी के दिन!

"आज इतनी जल्दी कैसे उठ गये?" वीर ने अंगड़ाई लेते हुए पूछा।

"सुबह? 12 बज लिये हैं और तेरे चेहरे पे इबी 12 बज रहे हैं, उठ जा इब वरना ..." फ़त्ते ने शरारत से हाथ के टिकट हवा में हिलाते हुए कहा, " ... वरना जगजीत सिंह को देख नहीं पायेगा।

चादर झटक कर वीर बिस्तर से बाहर कूदे और फ़त्ते के हाथ से छीनकर टिकट देखे। वाकई जगजीत सिंह के कंसर्ट के तीन टिकट थे। यह तो उन्हें पता था कि दिल्ली में कंसर्ट था, उनकी इच्छा भी थी मगर टिकट महंगा होने, स्थल दूर होने और उस पर दोनों साथियों की संगीत में कोई खास रुचि न होने के कारण उन्होंने अधिक प्रयास नहीं किया था। पता लगा कि फ़त्ते ने खास उनके लिये अपने "कनेक्शंस" का प्रयोग करके बिल्कुल आगे के ये वीआइपी टिकट मंगवाये थे।

"हम तुझे खुस देखना चाहते हैं हीरो। इब नहा धो कै राजा बेटा बन जा फ़टाफ़ट, फेर निकलते हैं।"

"लेकिन इतनी जल्दी? क्या वहाँ गेट पर टिकट हमने ही चैक करने हैं?"

"देर मती न कर भाई, खाना दिल्ली में ही खायेंगे।"

कुछ ही देर में तीनों दोस्त फ़त्ते की गाड़ी में दिल्ली के लिये निकल पड़े। पहले तो परिक्रमा पहुँचे। फ़त्ते अपनी पार्टियों के साथ वहाँ आता रहता था परंतु वीर के लिये रिवॉल्विंग रेस्त्राँ में बैठकर घूमती दिल्ली देखने का अनुभव अद्भुत था। दल का अलिखित नियम था कि जब फ़त्ते खुद कहकर अपनी पसन्द की जगह लेकर जाता तो ट्रिप का स्पॉंसर वही होता था। सो आज का बिल भी उसी के नाम था।

ऐपेटाइज़र्स आ गये थे। खाते जा रहे थे, दिल्ली की परिक्रमा भी चल रही थी और मज़ाक भी। झरना का नाम लेकर दोनों वीर की शादी की वेन्यू तय करने के लिये झगड़ रहे थे। एक को फ़ाइव स्टार चाहिये था और दूसरे को फ़ार्म हाउस। वीर भी उनके उल्लास से उत्साहित थे।

तभी फ़त्ते ने ईर को कोहनी मारते हुए कहा, "ठाँ ठाँ, सामने।" और दोनों चुप होकर सामने देखने लगे। वीर उनका इशारा समझकर मन ही मन बोले, "कभी नहीं सुधरेंगे ये" फिर बोलकर फ़त्ते से कहा, "अरविन्द को भी बिगाड़ देना अपने साथ।"

"यो!" फत्ते ने हँसी से लोटपोट सा होते हुए कहा, "उल्टा इस चालू ने मुझे बिगाड़ा है।"

"पलटकर देख तो सही, तू भी बिगड़ जायेगा, झरना, ज़रीना सब भूल के" इस बार चुटकी लेने वाला ईर था।

तब तक जिनकी बात हो रही थी वे लोग अन्दर आकर इन लोगों के विपरीत टेबल पर बैठने लगे थे। वीर ने कनखियों से देखा और देखता ही रह गया।

"काँड़ी आँख से मत देख, घुमा ले गर्दन अपनी, आ सीट बदल ले मेरे से छोरे।" फ़त्ते ने अपने स्थान से उठकर वीर के पास आकर उनको आग्रहपूर्वक उठाकर अपनी सीट पर भेज दिया। यहाँ से सामने का दृश्य एकदम स्पष्ट था। वे पाँच लोग थे, दो लड़के और तीन लडकियाँ। उसे अपनी किस्मत पर विश्वास नहीं हो रहा था। ऐसे भी होता है क्या? एक हफ्ते मन्नत मांगो और दूसरे हफ्ते सच? वही है? नहीं है? वही है? अभी-अभी क्या चमत्कार हो गया था इसका वीर के साथियों को बिल्कुल भी अन्दाज़ नहीं था।

[क्रमशः]

Sunday, October 16, 2011

अनुरागी मन - कहानी (भाग 17)

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पिछले अंकों में आपने पढा: दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे, फिर पता पता लगा कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डांवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीडा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये| ज़रीना खानम के विवाह के अवसर पर झरना के विषय में हुई बड़ी ग़लतफ़हमी सामने आयी जिसने वीर के हृदय को ग्लानि से भर दिया। और उसके बाद निक्की के बारे में भी सब कुछ स्पष्ट हो गया।
अब आगे भाग 17 ...
अब वीर झरना के अपराधी थे और हरदम प्रायश्चित की अग्नि में जल रहे थे। पाप धोने का कोई साधन उनके पास नहीं था। झरना का केन्या का कोई सम्पर्क वासिफ़ के पास नहीं था। उसके माता-पिता के अवसान के कारण यह भी तय नहीं था कि उसकी अगली भारत यात्रा कब होगी, होगी भी या नहीं। मुलाकात का कोई और रास्ता सूझता नहीं था। पिछले झटकों से हाल ही में उबरे वीर के लिये यह चोट काफ़ी गहरी थी। अपने किसी खास का दिल दुखाने का बोझ उनके दिल पर बैठ गया था। पढाई में सदा अव्वल रहने वाले वीर पिछड़ने लगे। सगे सम्बन्धियों ने घोषणा सी कर दी कि अब वे आगे पढ नहीं पायेंगे। आस-पड़ोस की महिलायें भी माँ को उनसे कोई नौकरी करवाने की सलाह देने लगीं। वीर को स्वयं भी यह समझ नहीं आता था कि वे अब तक अपने माता-पिता पर बोझ क्यों बने हुए हैं। क्या से क्या हो गया और वे कुछ कर भी नहीं पाये। काश वे पल भर के लिये अपनी समस्याओं के खोल से बाहर आ पाते और झरना के हृदय के भावों को पहचानने का प्रयास करते!

समय बीतता गया। विद्यालय में उल्टे सीधे अंकों से वीर आगे तो बढे परंतु कक्षा बढने के साथ-साथ उनका वैराग्य भी अधिक बढता गया। अब वे अपने नगर और सभी परिचितों से बुरी तरह उकता चुके थे। उन्होंने कुछ सरकारी नौकरियों की तलाश आरम्भ की। बीए पास होते-होते वे इक्कीस वर्ष के हो गये और जल्दी ही उन्होंने अपने आपको एक प्रतिष्ठित बैंक में काम करते हुए पाया। माँ दादी के पास रहने चली गयीं और वे अरविन्द के साथ फ़त्ते के घर नोइडा में किराये पर रहने लगे।

नई नौकरी और नये मित्रों का साथ मिलने से वीरसिंह का दर्द कम हुआ था। तीनों अपनी मर्ज़ी के मालिक थे। दिन में डटकर काम करते और शाम को मस्ती। सप्ताहांत में दिल्ली या आसपास के किसी पर्यटन स्थल चले जाते। जंतर मंतर और कुतुब मीनार से आरम्भ हुई साप्ताहिक यात्रायें बडकल और सूरजकुण्ड होते हुए अब मसूरी, हरिद्वार तक पहुँच चुकी थीं। सब कुछ ठीक-ठाक होते हुए भी हँसते-खेलते वीर को अचानक अपने घेरे में ले लेने वाली उदासी का कारण जानने के लिये पिछले कई दिनों से अरविन्द और फ़तह उनके पीछे पड़े हुए थे। अब झरना-वीर की कहानी पूरी होते तक सभी होनी के खेल से दुखी थे। ईर व फ़त्ते ने वीर को ढाढस बन्धाया कि झरना उसे जल्दी ही मिलेगी। फत्ते तो अगले रविवार को ही उसे हरयाणा में थानेसर स्थित शेख चिल्ली की मज़ार ले जाने वाला था। उसकी मान्यता है कि वहाँ मन्नत मांगने से बिछड़े हुए प्रेमी अवश्य मिलते हैं। वह ऐसे कई लोगों को जानता भी है जिनका काम वहाँ जाने से हुआ।

वीर तो शेख चिल्ली की बात को मज़ाक ही समझ रहे थे मगर जब ईर ने बताया कि दारा शिकोह के गुरु सूफ़ी संत रज़्ज़ाक अब्दुल रहीम अब्दुल करीम ही चालीस दिन तक थानेसर में ईश्वर की उपासना "चिल्ला" करते रहने के कारण शेख चिल्ली कहलाते थे तो बात वीर की समझ में धंस गयी। अगले रविवार को वे तीनों थानेसर पहुँच गये। लाल पत्थर और संगे-मरमर का बना हुआ शेख चिल्ली का मकबरा एक सुन्दर भवन था। यह भवन दारा शिकोह ने अपने गुरु के लिये बनवाया था और वह महीनों तक यहाँ अपने गुरु के चरणों में अध्ययन-मनन करता था। शेख चिल्ली की मृत्यु के बाद इसी इमारत को उनका मकबरा बना दिया गया। भवन और उसका उद्यान मनभावन थे। पुराना तालाब, सूखी नहर, मुग़ल बाग़ की हरियाली, पत्थर मस्जिद आदि भी वीर को बहुत सुन्दर लगा।

तीनों ने झरना की वापसी की दुआ मांगी
पता नहीं यह साथियों का सहारा था या दिल की गिरह खुल जाने की बात थी या सचमुच शेख चिल्ली की इनायत, थानेसर जाने के बाद से वीर अब प्रसन्न रहने लगे थे। उनके पास अपनी खोयी हुई ज़िन्दगी का सुराग़ लगाने का कोई निश्चित तरीका तो नहीं था पर फिर भी अब उन्हें कहीं न कहीं यह लगने लगा था कि उनका और झरना का मिलन जल्दी ही होने वाला है। क्या पता वह नई सराय आये और फिर माँ और दादी से मिलकर उनका पता मांगकर यहाँ आये। या फिर वहाँ पहुँचकर वासिफ़ द्वारा उन्हें बुलवा भेजे। कौन जाने कैसे हो, मगर यह मिलन जल्दी ही होना है, उनका ऐसा विश्वास बनने लगा था। क्या आशा की यह किरण सच्ची थी?


[क्रमशः]

Monday, October 10, 2011

एक नये संसार की खोज - इस्पात नगरी से 46


स्थानीय पत्र में कोलम्बस पर विमर्श
एक ज़माना था जब हर समुद्री मार्ग भारत तक पहुँचता था। विश्व का लगभग हर देश सोने की चिड़िया कहे जाने वाले भारत के साथ आध्यात्मिक, व्यापारिक, और सामरिक सम्बन्ध रखने को आतुर था। विशेषकर यूरोप के राष्ट्रों में भारत आने का  छोटा और सुरक्षित मार्ग ढूंढने के लिये गलाकाट प्रतियोगिता चल रही थी। पाँच शताब्दी पहले यूरोप से भारत की ओर चले एक बेड़े के भौगोलिक अज्ञान के कारण एक ऐसे नये संसार की खोज हुई जो अब तक यूरोप से अपरिचित था। भारत की जगह आकस्मिक रूप से कोलम्बस और उसके साथी उस अज्ञात स्थल पर पहुँचे थे जो आने वाले समय में भारत की जगह विश्व की विचारधारा और कृतित्व का केन्द्र बनने वाला था।

12 अक्टूबर 1492 को क्रिस्टोफ़र कोलम्बस और उसके साथियों ने धरती के गोलाकार होने की नई वैज्ञानिक जानकारी का प्रयोग करते हुए पश्चिम दिशा से भारत का नया मार्ग ढूंढने का प्रयास किया। बेचारों को नहीं पता था कि यूरोप के पश्चिम में उत्तर से दक्षिण तक एक लम्बी दीवार के रूप में एक अति विशाल भूखण्ड भारत पहुँचने में बाधक बनने वाला है।

कोलम्बस का तैलचित्र
1451 में जेनोआ इटली में डोमेनिको कोलम्बो नामक बुनकर के घर जन्मा कोलम्बस 22 वर्ष की आयु में एक समुद्री कप्तान बनने का स्वप्न लेकर अपने घर से निकला। उसने तत्कालीन यूरोप के सर्वोत्तम समुद्री अन्वेषक राष्ट्र माने जाने वाले पुर्तगाल की भाषा सीखी, मार्को पोलो की यात्राओं का अध्ययन किया और नक्शानवीसी भी सीखी। पृथ्वी के गोलाकार रूप के बारे में जानने के बाद उसे भारत का पश्चिमी मार्ग ढूंढने का विचार आया।

अपने अभियान के लिये पुर्तगाल राज्य द्वारा सहायता नकारे जाने के बाद उसने स्पेन से वही अनुरोध किया और स्वीकृति मिलने पर नीना, पिंटा और सैंटा मारिया नामक तीन जलपोतों का दस्ता लेकर पैलोस बन्दरगाह से स्पेनी झंडे के साथ 3 अगस्त 1492 को पश्चिम दिशा में चल पड़ा।

कोलम्बस के अभियान के साथ ही आरम्भ हुआ अमेरिका के मूल स्थानीय नागरिकों और उनकी संस्कृति के विनाश की उस अंतहीन गाथा का जिसके कारण कुछ लोग आज कोलम्बस को एक खोजकर्ता कम और विनाशक अधिक मानते हैं। वैसे भी अमेरिगो वेस्पूशी जैसे नाविक पहले ही अमेरिका आ चुके थे और जिस महाद्वीप पर लोग पहले से ही रहते हों, उसकी "खोज" ही अपने आप में एक विवादित विषय है।

फिर भी संयुक्त राज्य अमेरिका में अक्टूबर मास का दूसरा सोमवार प्रतिवर्ष कोलम्बस डे के रूप में मनाया जाता है और एक राष्ट्रीय अवकाश है। क्षेत्र के अन्य कई राष्ट्र भी किसी न किसी रूप में इसे मान्यता देते हैं। वैसे अमेरिका की उपभोगवादी परम्परा में किसी भी पर्व का अर्थ अक्सर शॉपिंग, सेल, छूट, प्रमोशन आदि ही होता है। अमेरिका में बैठे एक भारतीय के लिये यह देखना रोचक है कि समय के साथ किस प्रकार विश्व के केन्द्र में रहने वाले राष्ट्र स्थानापन्न होते रहते हैं।

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
* कोलम्बस, कोलम्बस! छुट्टी है आयी

Saturday, October 8, 2011

अनुरागी मन - कहानी (भाग 16)

अनुरागी मन - अब तक - भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4; भाग 5; भाग 6भाग 7; भाग 8; भाग 9; भाग 10; भाग 11; भाग 12; भाग 13; भाग 14; भाग 15;
पिछले अंकों में आपने पढा:
दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे, फिर पता पता लगा कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डाँवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीड़ा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये| ज़रीना खानम के विवाह के अवसर पर झरना के विषय में हुई बड़ी ग़लतफ़हमी सामने आयी जिसने वीर के हृदय को ग्लानि से भर दिया।
अब आगे भाग 16 ...
ज़रीना की शादी के बाद दो दिन तक वीर अपने घर से बाहर नहीं निकले। तीसरे दिन वासिफ़ उनसे मिलने आया। बहुत दिन बाद दो जिगरी दोस्त एक साथ शाम की सैर पर गये। झरना के बारे में बहुत बात हुई। कहानी काफ़ी लम्बी थी। वह सब ईर और फ़त्ते को सुनाकर वीर उन्हें बोर नहीं करना चाहते थे। लेकिन उन्होंने इतना बताया कि झरना का वासिफ़ से कोई रक्त-सम्बन्ध नहीं था। वासिफ़ के दादा झरना फर्शस्ती के पारसी दादा की नई सराय स्थित सम्पत्ति के प्रबन्धक थे। अंग्रेज़ों के समय से ही कई नगरों में उसके परिवार की स्थाई सम्पत्ति थी। नई सराय का पहला पेट्रोल पम्प, बरेली की पहली कत्था फ़ैक्ट्री और अमरोहा के कुछ बाग़ान के अलावा दिल्ली और कानपुर में भी उनका व्यवसाय था। झरना का जन्म केन्या में हुआ था। काफ़ी पहले एक सड़क दुर्घटना में उसके पिता गुज़र चुके थे। अपने पुराने कारकुनों के विश्वास पर व्यवसाय का सारा काम माँ-बेटी ही देखती थीं। झरना और उसकी माँ उसी सिलसिले में हर साल गर्मियों में भारत आते थे। माँ की तबियत बिगड़ने के कारण इस बार वह अकेले ही आयी थी और इसी बीच उनकी मृत्यु के कारण उसे अचानक वापस जाना पड़ा था।

जब वीर घर वापस आये तो माँ पिता के लिये पत्र लिख रही थीं। वीर ने भी महीनों बाद अपने पिता के लिये एक अच्छा सा पत्र लिखकर उसे माँ के पत्र के साथ ही लिफ़ाफे में बन्द किया और नुक्कड़ पर लगी डाकपेटी में डालकर आ गये। माँ खाना लगाने लगीं। वीर ने अपनी ममतामयी माँ को बड़े ध्यान से देखा।

कई मायनों में माँ इस परिवार की क्रांतिकारी बहू थीं। उन्होंने कभी घूंघट नहीं किया न ही पति का नाम लेने में झिझकीं। माँ ने कभी करवाचौथ का व्रत भी नहीं रखा था। वे उसे ज़रूरी नहीं मानती थीं परंतु उन्हें यह अहसास था कि हर साल निर्जला उपवास रखने वाली दादी इस बार अपने उपवास के देवता के बिना अकेली थीं। इसलिये करवाचौथ पर माँ वीर को साथ लेकर दादी से मिलने नई सराय आयीं। शाम का खाना खाकर सास बहू बातें करने लगीं। दादी थोड़ी भाव-विह्वल हो गयीं कि सदा उपवास करने के बाद भी वे विधवा हो गयीं। भरे गले से उन्होंने माँ के विवेक और उनके अन्धविश्वास से बचे रहने की प्रशंसा की।

माँ और दादी अभी भी बातें कर रहे थे परंतु बातों का रुख आस-पड़ोस के ताज़ा समाचार की ओर मुड़ चुका था। वीर उठकर छत पर आये और फिर छज्जे पर खड़े होकर बाहर का नज़ारा करने लगे। लजाती-शर्माती नववधू से लेकर वयोवृद्ध महिलायें तक आज नखशिख तक गहनों में सजी दिख रही थीं। प्रदेश के अन्य क्षेत्रों के विपरीत नई सराय और आसपास के क्षेत्रों में अविवाहितायें भी करवा चौथ का व्रत रखती थीं। मान्यता यह थी कि उनका पति तो उनसे पहले ही कहीं जन्म ले चुका है सो उपवास होना ही चाहिये। वीर को ख्याल आया कि उनकी बहन यदि जीवित होती तो माँ की तरह वह भी शायद ऐसा उपवास नहीं करती। अनदेखी बहन की याद आने पर भी आज वे उदास नहीं थे, अपने अन्दर आये इस परिवर्तन का श्रेय वे अपने डायरी लेखन को दे सकते थे।

ये तूने क्या किया वीर?
आजकल वे उदास कम ही होते थे लेकिन झरना के प्रति अपने दुर्व्यवहार के कारण एक ग्लानि सी उन्हें घेरे रहती थी। बिना माँ-बाप की एक निश्छल बेटी। न जाने कब मिलेगी और कब वे अपने कृत्यों की क्षमा मांग सकेंगे। सोचते-सोचते कब अन्धेरा घिर आया, और कब चांद खिला, उन्हें पता ही न लगा। वे हटकर अन्दर जाने को हुए ही थे कि देखा सामने मैदान में एकत्रित महिलाओं से अलग हटकर खड़ी एक लड़की चन्द्रमा को अर्ध्य देने के बाद उनकी ओर मुड़कर उन्हें झुककर प्रणाम कर रही थी।

ध्यान से देखने पर पता लगा कि वह पड़ोस की शरारती निक्की ही थी। वीर जी शर्मा गये और झटके से मुड़कर अन्दर आ गये। तीनों जन ने साथ बैठकर खाना खाया। माँ और दादी को रसोई में छोड़कर वीरसिंह सोने चले। सोने से पहले उन्होंने डायरी में आज की घटनाओं को विस्तार से लिखा। वे समझ नहीं पाये कि निक्की को उनके बारे में भ्रम कैसे पैदा हुआ। उन्होंने तो सदा उसे अपनी बहन जैसा ही माना था और वैसा ही व्यवहार किया था।

सुबह जब किसी ने माथे पर हाथ रखा तो उनकी आँख खुली। चाय लेकर अपने सिरहाने खड़ी निक्की को देखकर उनके माथे पर बल पड़ गये। अपने शब्दों को संवारते हुए उन्होंने धीरे से कहा, "तुम्हें तकलीफ़ करने की क्या ज़रूरत थी? माँ और दादी कहाँ हैं?"

"क्यों? यह भी तो मेरा ही घर है? अपने घर के काम में तकलीफ़ कैसी? वैसे काम में लगी हैं दोनों? पूरे घर की धुलाई हो रही है।"

प्याला हाथ में थमाकर निक्की सामने ही कुर्सी पर बैठ गयी।

"कल रात क्या कर रही थी?" वीर ने अपनी आवाज़ को यथासंभव संयत रखते हुए पूछा।

"आपने देख लिया था?" निक्की ने लजाते हुए पूछा।

"हम नई सराय के कुँवर जी हैं, यहाँ हमसे कुछ भी छिप नहीं सकता है।"

"तब तो आपको पता होना चाहिये कि हमने अपना वर चुन लिया है" निक्की ने अपने बिन्दास अन्दाज़ में कहा।

"ज़रा सी तो हो, अभी पढने-लिखने की उम्र है तुम्हारी।"

"आपसे बस छह मास छोटी हूँ, 17 की हो चुकी हूँ मैं, कोई बच्ची नहीं हूँ।"

"अच्छा!" वीर का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया, न जाने क्यों वे निक्की को 10-12 साल का ही समझते थे।

" तो सुना दो अपने वरदान का राज़ ..." वीर आगत का सामना करने की तैयारी कर रहे थे।

"मेरा चन्द्रमा तो कल चन्द्रमा निकलने के साथ ही आपके दरवाज़े के साथ आकर खड़ा हो गया था।"

"अरे वाह! कौन है वह?" वीर की वाणी का उल्लास छिपाये न छिपा।

"मंगल ... मिश्र अंकल का बेटा। बहुत अच्छा लड़का है। पढाकू है। और आपकी तो बहुत इज़्ज़त करता है। ... मतलब, आपकी इज़्ज़त तो सभी करते हैं, ... मैं भी करती हूँ।"

"अच्छा! तो यह बात है।" वीर प्रसन्न थे फिर भी एक उलझन थी, " ... अब यह बताओ कि वह पत्र क्यों लिखा था मुझे?"

"कौन सा?" निक्की सोच में पड़ गयी।

"वही जो पिछली बार मेरे बरेली जाते हुए दिया था तुमने।"

"अच्छा वो! धत्! मैं आपको क्यों लिखने लगी वैसा पत्र?" वह चुन्नी दांत से काटने लगी, "वह तो झरना जी ने आपको दिया था जब वे यहाँ आयी थीं, दादाजी की ग़मी में।"

"उसने दिया था? तुम सच बोल रही हो?" वीर को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ।

"हाँ भैया, उन्होंने तो आपको ही दिया था लेकिन तब आप होश में कहाँ थे। नीचे गिरा दिया था। मैंने ही उठाया और अपने पास रख लिया था ताकि किसी के हाथ न पड़े।"

"हे राम!"

"झरना जी बहुत अच्छी हैं भैया, लाखों में एक। आप दोनों की जोड़ी बहुत सुन्दर है। वे आपकी दीवानी हैं, उन्हें निराश मत कीजियेगा।"

वीर का दिल फिर बैठ गया। उनकी आँखों के सामने क्या-क्या होता रहा और वे कुछ भी देख नहीं पाये!

[क्रमशः]

Friday, October 7, 2011

अनुरागी मन - कहानी (भाग 15)

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अनुरागी मन - अब तक - भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4; भाग 5; भाग 6;
भाग 7; भाग 8; भाग 9; भाग 10; भाग 11; भाग 12; भाग 13; भाग 14;
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पिछले अंकों में आपने पढा:
दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे ... और अब यह नई बात पता पता लगी कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डाँवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीड़ा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये
अब आगे भाग 15 ...
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डायरी लिखने की सलाह जम गयी। रज्जू भैया की सलाह द्वारा वीर ने अनजाने ही अपने जीवन का अवलोकन आरम्भ कर दिया था। डायरी के पन्नों में वे अपने जीवन को साक्षीभाव से देखने लगे थे। वीर ने अपने मन के सभी भाव कागज़ पर उकेर दिये। कुछ घाव भरने लगे थे, कुछ बिल्कुल सूख गये थे। दादाजी का जाना, पिताजी का कठिन जीवन, दादी का अकेलापन, बहन की मृत्यु, सारे ग़म मानो डायरी के पन्नों में आते ही सिकुड़ गये। टीसते थे परंतु अब खुले ज़ख्मों से रक्त नहीं बह रहा था सिवाय एक जगह के। झरना की याद, उसका प्रेममय व्यवहार, और उसकी बातें अब भी उनका हृदय छलनी कर जाती थीं। लाख सोचने पर भी वे समझ नहीं पाते थे कि उनके जीवन से इतना बड़ा खिलवाड़ कैसे हो गया। एक वाग्दत्ता उनकी भावनाओं के साथ क्यों खेलती रही? उनकी पीड़ा उनकी कविताओं में निखरकर आ रही थी जो कि अब स्थानीय पत्र में छपने भी लगी थीं। दिल दुखता तो था मगर अब तक वे इतना सम्भल चुके थे कि यदि झरना सामने पड़ जाती तो अपने दिल की हलचल को सबसे छिपाकर ऊपर से सामान्य व्यवहार कर सकते थे।

दुल्हन आ चुकी थी
दो महीने कब बीत गये पता ही न चला। माँ ने वीर को याद दिलाया कि आज ज़रीना की शादी का दिन था। दोनों तैयार होकर वासिफ़ के घर पहुँच गये। सब लोग अच्छी प्रकार से मिले। माँ महिलाओं के बीच ग़ुम हो गयीं जबकि वीर को वासिफ़ अपने साथ ले गया। ऊपर से संयत दिखने का प्रयास करते हुए वीर को यह डर नहीं था कि क्या वे सचमुच अपनी अप्सरा को किसी और का होते हुए देख पायेंगे। उन्हें अपने ऊपर इतना भरोसा तो था ही। लेकिन वे यह अवश्य देखना चाहते थे कि अपने विवाह के समय उन्हें उपस्थित पाकर झरना कितना सामान्य रह पाती है। वीर को अब तक पता नहीं था कि अलग-अलग सम्प्रदायों में विवाह के रिवाज़ कितने अलग होते हैं। घरातियों के साथ मिलकर वीर ने भी गुलाब की पंखुड़ियाँ बिछाकर बारात का स्वागत किया। दूल्हे और बरातियों को हार पहनाये गये और सेहरे पढे गये। कुछ लोगों ने दूल्हे को घेरकर उसके ऊपर चादर से एक छत्र सा बनाया और उसके आसन तक ले आये। दुल्हन भी सामने आ चुकी थी परंतु अभी उसका चेहरा फूलों के सेहरे के पीछे छिपा हुआ था। जल्दी ही सब अतिथियों ने भी अपने आसन ग्रहण कर लिये। निकाह पढा जाने से पहले वासिफ़ की अम्मी ने दुल्हन का सेहरा किनारे करते हुए उसका गाल चूमा तो वीर को मानो झटका सा लगा। वह झरना नहीं थी। उन्हें झरना के साथ पहले दिन हुआ अपना सम्वाद याद आया।

“वासिफ की छोटी बहन हैं आप?”

“नहीं”

“तो बड़ी हैं क्या?”

“नहीं”

हे राम! वे इतनी स्पष्ट बात का अर्थ भी नहीं समझ सके थे। इसका मतलब यह कि झरना वासिफ़ की बहन नहीं है। भगवान भी उनके साथ कैसा मज़ाक करता रहा और वे पहचान भी न सके। वीर, यह क्या कर दिया तूने? किसी के अनुरागी मन को अपवित्र समझा और आक्षेप लगाये। झरना और ज़रीना अलग-अलग हैं यह विचार मन में आते ही उन्होंने लड़कियों की दिशा में खोजना शुरू किया मगर झरना यदि वहाँ होती तो उस भीड़ में भी सबसे अलग दमक रही होती। शायद उन्हें देखकर स्वयं ही उनके पास चली आई होती।

विवाह की रस्म चल ही रही थीं कि वासिफ़ उनके पास आकर कान में कुछ फुसफुसाया। उन्होंने उसकी बात को अनसुना करके पूछा, "झरना कहाँ है?"

"झरना? वह तो कब की चली गयी। जाने से पहले तुम्हारे घर गयी तो थी मिलने। बताया नहीं क्या?"

"क्या? वह मेरे घर बताने आयी थी? यह सब क्या हो गया?"

"हाँ, मैं साथ आ रहा था पर वह अकेले ही जाना चाहती थी। चल क्या रहा है तुम लोगों के बीच?"

वे कुछ कह पाते इसके पहले कोई वासिफ़ को पकड़कर उसे अपने साथ ले गया।

ज़रीना का विवाह भली प्रकार सम्पन्न हुआ। उस दिन वासिफ़ से फिर उनकी मुलाक़ात नहीं हो सकी। माँ के साथ वे अपने घर पहुँचे। वीर रात भर अपनी डायरी में बहुत कुछ लिखते रहे। लिखने से कहीं अधिक पढ़ा भी डायरी के पिछले पन्नों से। जितना पढ़ते जाते उनका दिल उतना ही पिघलता जाता। कितना दोष दिया उन्होंने झरना को ... उन अपराधों के लिये जो उसने कभी किये ही नहीं। सच है कि पिछले दिनों वे बहुत कठिनाइयों से गुज़रे थे लेकिन उसमें झरना का कोई दोष नहीं था। झरना पर अविश्वास करके न केवल उन्होंने अपनी कठिनाइयाँ बढाईं बल्कि अपनी अप्सरा का दिल ... अप्सरा का दिल कैसे तोड़ते रहे वे? वीर का हृदय ग्लानि से भर गया। कमरे की हर बत्ती जल रही थी मगर उनके दिल में घना अन्धेरा था। रोशनी कैसे आये? अपनी ग़लतियों का प्रायश्चित कैसे हो? झरना है कहाँ? कब मिलेगी? कैसे मिलेगी?

[क्रमशः]

Saturday, September 24, 2011

ओसामा जी से हैलोवीन तलक - सैय्यद चाभीरमानी

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सैय्यद चाभीरमानी के परिचय की आवश्यकता नहीं है। आप उनसे पहले भी मिल चुके हैं। मैं तो उनकी बातों से इतना पक चुका हूँ कि घर से बाहर निकलने से पहले चुपचाप इधर-उधर झाँक कर इत्मीनान कर लेता हूँ कि वे मेरी ताक में बाहर तो नहीं खड़े हैं। हमने तो उनके डर से सुबह की सैर पर जाना भी बन्द कर दिया। उसके बाद वे शाम की चाय पे हमारे घर आने लगे तो आखिरकार हम घर बेचकर शहर के बाहर चले गये। लेकिन जब भाग्य खराब हो तो सारी सतर्कता धरी की धरी रह जाती है। अपनी माँ के जन्मदिन पर बच्चों ने ज़िद की अपनी माँ के लिये कुछ उपहार खुद चुनकर लायेंगे तो उनकी ज़िद पर हम चल दिये नगर के सबसे बडे मॉल में। बच्चे मूर्तिकला और हस्तशिल्प खण्ड में खोजबीन करने में लग गये तभी अचानक एक भारी-भरकम मूर्ति हमारे ऊपर गिरी। हम भी चौकन्ने थे सो हमने अपना कंधा टूटने से पहले ही मूर्ति को पकड़कर रोक लिया। यह क्या, मूर्ति तो "भाईजान, भाईजान" चिल्लाने लगी। देखा तो सैय्यद सामने मौजूद थे। दाढी तो उन्होंने पाकिस्तान छोड़ते ही कटा ली थी। इस बार मूँछ भी गायब थी।

इससे पहले कि वे हमें बोर करें, इस बार हमने आक्रामक नीति अपना ली जिससे वे खुद ही बोर होकर निकल लें और हमें बख्श दें।

"मूँछ क्या हुई? क्या भाभी ने उखाड़ दी गुस्से में?"

"उसकी यह मज़ाल, काट नहीं डालूंगा उसे।"

"इत्ता आसान है क्या? पकड़े नहीं जाओगे? कानून का कोई खौफ़ है कि नहीं?"

"क्यों दुखती रग़ पर हाथ रख रहे हो? पुराना टाइम होता तो पाकिस्तान ले जाकर काट देता। अब तो वहाँ भी पहुँच गये ये जान के दुश्मन। ओसामा जी को समन्दर में दफ़ना दिया। मगर एक बात बडे मज़े की पता लगी मियाँ ..."

"क्या?"

"येई कि तुमारे हिन्दुस्तान में भी एक शेर मौज़ूद है अभी भी।"

"एक? अजी हिन्दुस्तान तो शेरो-शायरी की जन्नत हैं, असंख्य शायर हैं वहाँ।"

"अमाँ, जेई बात खराब लगती है आपकी हमें, हर बात का उल्टा मतलब निकाल्लेते हो। हम बात कर रहे हैं, शेर जैसे बहादुर आदमी की।"

"अच्छा, अच्छा! अन्ना हज़ारे की खबर पहुँच गयी तुम तक?"

"हज़ार नहीं, एक की बात कर रहे हैं हम, अरे वोई जिसको जूते मारने की कै रहे थे कुछ हिन्दुत्वा वाले, विग्दीजे सींग टाइप कोई नाम था उसका। लगता चुगद सा है मगर बात बडी हिम्मत की कर रिया था ओसामा 'जी' कह के।"

जब तक हम पूछ्ते कि सैयद किसके सींग की बात कर रहे हैं, वे खुद ही ऐसे ग़ायब हुए जैसे गधे के सिर से सींग। हमने भी भगवान का धन्यवाद दिया कि बला टली।

आगे चलते हुए जब स्टोर के हैलोवीन खण्ड पहुँचे तो सैयद से फ़िर मुलाक़ात हो गयी। इस बार वे एक यांत्रिक दानव को बड़े ग़ौर से देख रहे थे। जैसी कि अपनी आदत है मैने भी चुटकी ली, "लड़का ढूंढ रहे हैं क्या भाभीजान के लिये?"

हमेशा की तरह कहने के बाद लगा कि शायद नहीं कहना चाहिये था पर ज़बान का तीर कोई ब्लॉग-पोस्ट तो है नहीं कि छोड़ने के बाद हवा में ही दिशा बदल डालो। सैयद ने अपनी चारों आँखें हम पर गढाईं। हम कुछ असहज हुए। फिर अचानक से वे ठठाकर हँस पड़े और बोले, "अरे मैं न पड़ता इन झमेलों में। 20 खरीदने पडेंगे।"

"बीस क्यों भई?" अब चौंकने की बारी हमारी थी, "भाभी तो एक ही हैं?"

"तुम्हें पता ही नहीं, अपनी चार बीवियाँ हैं। एक यहाँ है, बड़ी तीन पाकिस्तान में ही रहती हैं।"

"तो भी चार ही हुए न?" यह नया पाकिस्तानी गणित हमें समझ नहीं आया।

"हरेक की चार अम्माँ भी तो हैं, 16 उनके लिये 16 जमा 4, कुल बीस हुए कि नहीं?"

हम कुछ समझते इससे पहले ही सैयद चाभीरमानी फिर से ग़ायब हो चुके थे।
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* सैय्यद चाभीरमानी और हिंदुत्वा एजेंडा
* सैय्यद चाभीरमानी और शाहरुख़ खान

Sunday, August 21, 2011

कोकिला, काक और वो ... लघुकथा

काक
खुदा जब बरक्कत देता है तो आस-औलाद के रूप में देता है। पिछले बरस काकिनी ने 5 अंडे दिये थे। शाम को जब हम भोज-खोज से वापस आये तो अंडे अपने-आप बढकर दस हो गये। कोई बेचारी शायद फ़ॉस्टर-पेरेंट्स की तलाश में थी। हम दोनों ने सभी को अपने बच्चों जैसे पाला। इस बरस दूसरे पाँच तो उड गये, खुदा उन्हें सलामत रखे। हमारे पाँच सहायता के लिये वापस आ गये हैं, हम तो इसी में खुश हैं।

कोकिला
कैसे मूर्ख होते हैं यह कौवे भी। पिछले बरस भी मैं अपने अंडे छोड आयी थी। बेवक़ूफ अपने समझकर पालते रहे। कितना श्रम व्यर्थ किया होगा, नईं? खैर, अपनी-अपनी किस्मत है। अब इस साल फिर से ... अब अण्डे सेना, बच्चे पालना, कोई बुद्धिमानों के काम तो हैं नहीं। कुछ हफ़्तों में जब पले पलाये उड जायेंगे तब मिल आऊंगी। मुझे तो दूसरे कितने बडे-बडे काम करने हैं इस जीवन में। पंछीपुर के मंत्रिमंडल के लायक भी तो बनाना है अपने बच्चों को। चलो, आज के अण्डे रखकर आती हूँ मूर्खों के घर में।

हंस
पंछीपुर तो बस अन्धेरनगरी में ही बदलता जा रहा है अब धीरे-धीरे। गरुडराज को तो अन्धाधुन्ध शिकार के अलावा किसी काम-धाम से कोई मतलब ही नहीं रहा है अब। मंत्रिमंडल में सारे के सारे मौकापरस्त भर गये हैं। आम जनता भी भ्रष्ट होती जा रही है। कोकिला तक केवल ज़ुबान की मीठी रह गयी है। मुझ जैसे ईमानदार तो किसी को फ़ूटी आँख नहीं सुहाते। सच बोलना तो यहाँ पहले भी कठिन था, लेकिन अब तो खतरनाक भी हो गया है। मैं तो कल की फ़्लाइट से ही चला मानसरोवर की ओर ...

गरुड
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम, दास मलूका कह गये सबके दाता राम। काम करने के लिये तो चील-कौवे हैं ही। राज-काज का भार कोयल और मोर सम्भाल लेते हैं। अपन तो बस शिकार के लिये नज़रें और पंजे तेज़ करते हैं और जम के खाते हैं। और कभी कभी तो शिकार की ज़रूरत भी नहीं पडती। आज ही किस्मत इतनी अच्छी थी कि घोंसला महल में अपने आप ही पाँच अंडे आ गये। पेट तो तीन में ही भर गया, दो तो सांपों के लिये फेंकने पडे। आडे वक्त में काम तो वही आते हैं न!

[समाप्त]

प्रसन्नमना मोर, नववृन्दावन मन्दिर वैस्ट वर्जीनिया में  

Saturday, July 30, 2011

बी. एल. “नास्तिक”

कहानी: अनुराग शर्मा
चित्र: रवि मिश्र द्वारा
आज बीस साल के बाद दिखा था बौड़मलाल। वह भी वृन्दावन में। बिल्कुल पहले जैसा ही, गोरा, गोल-मटोल। सिर पर घने बालों की जगह चमकते चांद ने ले ली थी, शेष अधिक नहीं बदला था। पहले की तरह ही धूप का चश्मा, लाल टीका। हाँ हाथ में कलावे के साथ सोने की घडी भी विराज रही थी और चेहरे पर कुछ झुर्रियाँ। गले में सोने की मोटी सी लड़ और उंगलियों में आठ अंगूठियाँ।

स्कूल में मेरे साथ ही पढता था बौड़मलाल। उसे देखते ही कोई भी पहचान सकता था कि धर्मकर्म में उनका कितना विश्वास था। माथे पर टीका और अक्षत और कलाई में कलावा उनकी पहचान थी। जब दोस्तों के बीच गाली-गलौच न कर रहा हो तब धर्म-कर्म की कहानियाँ भी सुनाने लगता था। वैसे तो उसकी भक्ति  बारहमासी थी लेकिन परीक्षा से पहले उसमें विशेष बहार आ जाती थी।

पढने लिखने से ज़्यादा ज़ोर मन्दिर जाने पर होता। यह भगवान की कृपा ही थी कि हर साल उसकी वैतरणी पार हो ही जाती थी। उस साल भी परीक्षा हो चुकी थी। परिणाम बस आया ही था। हम लोग पिताजी का तबादला हो जाने के कारण नगर छोडकर जा रहे थे। जाने से पहले मैं सभी साथियों से मिलना चाहता था। बौड़मलाल के घर भी गया। उसे देखकर आश्चर्य हुआ। न भस्म न चन्दन, न गंडा न तावीज़। मेरी “राम-राम” के जवाब में अपनी चिर-परिचित “जय श्रीराम” की जगह जब उसने “@#$% है भगवान” कहा तो मेरा माथा ठनका। दो मिनट में ही बात खुल गयी कि इस नटखट भगवान ने इस बार पहली बार उसके साथ छल कर डाला। पाँच दस मिनट तक उसकी भड़ास सुनने के बाद मैं चल दिया।

नये नगर में मन अच्छी तरह लग गया। पिछ्ले स्कूल के मित्रों से पत्र-व्यवहार चलता रहा। बौड़मलाल की खबर भी मिलती रही। पता लगा कि जब भगवान ने उसे मनमाफ़िक फल नहीं दिया तबसे ही वह ईश्वर के खिलाफ धरने पर बैठा है। परमेश्वर-खुदा-भगवान से खफ़ा होकर वह नास्तिक ही नहीं बल्कि धर्म-द्रोही हो गया है। डंडे के ज़ोर पर उसके पिता उसे अपने साथ तीर्थ यात्रा पर भी ले जाते थे और झाड़ू के ज़ोर पर माँ की छठ पूजा की तैयारियाँ भी वही करता था। लेकिन यह सब घर के अन्दर पर्दे के पीछे की मजबूरी थी। घर के बाहर मज़ाल थी कि कोई उसके सामने भगवान का नाम ले ले। बौड़मलाल हुज्जत कर-कर के उस व्यक्ति की नाक में दम कर देता था।

कॉलेज पहुँचने पर उसकी प्रतिष्ठा एक गुमनाम राष्ट्रीय पार्टी “मुर्दाबाद” तक पहुँची और उसे छात्र संघ के चुनाव का टिकट भी मिल गया। बौड़मलाल का नया नामकरण हुआ बी. एल. “नास्तिक”। वह बड़ा वक्ता बना, हर विषय का विशेषज्ञ। “मुर्दाबाद” पार्टी ने उसकी कई किताबें प्रकाशित कराईं। कालांतर में वह पार्टी के साप्ताहिक पत्र “भाड़ में झोंक दो” का प्रबन्ध सम्पादक भी रहा।

समय के साथ मैं भी नौकरी में लग गया और बाकी मित्र भी। पता लगा कि कई साल कॉलेज में लगाने के बाद भी बौड़मलाल बिना डिग्री के बाहर आ गया। हाँ इतना ज़रूर हुआ कि उसकी पार्टी ने उसे अपनी केन्द्रीय कार्यकारिणी में ले लिया। फिर सब मित्र अपने-अपने परिवार में मगन हो गये और लम्बे समय तक न उनकी कोई खबर मिली न ही बौड़मलाल की।

आज उसे यहाँ देखकर मुझे उतना आश्चर्य नहीं हुआ जितना उसके लाल टीके और कलावे को देखकर। पूछा तो बौड़मलाल एक गहरी सांस लेकर बोला, “अब तुमसे क्या छिपाना ... पहले वाली बात अब कहाँ?”

“क्यों? अब क्या हुआ?” मैने आश्चर्य से पूछा।

“सोवियत संघ टूटा तो पैसा आना बन्द हो गया ...” फिर कुछ देर रुककर अपनी सुनहरी घड़ी को देखता हुआ बोला, “अब चीन पर इतना दवाब है कि हथियार आने भी बन्द हो गये हैं।”

“मगर तुम्हें पैसे से क्या? तुम्हारी पार्टी तो गरीबों, मज़दूर-किसानों की है।”

“अरे वह भी कब तक हमारे लिये जान देते। उन्हें तो अब ज़मीन का एकमुश्त इतना हर्ज़ाना मिल जाता है जितना मेरे स्तर के नेता साल भर में नहीं जमा कर पाते थे। बिक गये &*$# सब के सब।”

“फिर? तुम्हारा क्या होगा?”

“दो-तीन साल से तो मैं मन्दिरवाद पार्टी में हूँ, सेठों का बड़ा पैसा है उनके पास। एक तो धार्मिक, ऊपर से अहिंसक, खून-खराबा तो क्या लाल रंग से भी बचते हैं। मुर्दाबाद पार्टी में तो हर तरफ़ खूनम-खून, लालम-लाल। हमेशा तलवार लटकी रहती थी। इधर कोई आका नाराज़ हुआ, उधर सर क़लम।”

“तो अब यहीं रहने का इरादा है क्या?”

“अरे नहीं, धर्म की दुकान देसी है। बहुत दिन नहीं चलेगी, बाहर से बहुत पैसा आ रहा है ...”

मैंने उस पर एक प्रश्नात्मक दृष्टि डाली तो धूर्तता से मुस्कराते हुए बोला, “खबर है कि सद्दाम और ओसामा एक डॉन के साथ मिलकर बहुत सा पैसा एक नई पार्टी में लगा रहे हैं।”

“तुम्हें क्यों लेंगे वे?” मैंने आश्चर्य से पूछा।

“क्यों नहीं लेंगे?” उसने बेफ़िक्री से एक तरफ़ थूकते हुए एक कागज़ मेरी ओर बढ़ाया, “ये देखो।”

मैंने देखा तो वह एक हलफ़नामा था जिसमें बी. राम “आस्तिक” अपना नाम बदलकर बी. ग़ाज़ी “नियाज़ी” कर रहा था।

“क्या इतना काफ़ी है?” मैंने पूछा।

“मुझे पता है क्या करना काफ़ी है और वो मैंने करा भी लिया है।”

[समाप्त]

Friday, June 24, 2011

मैं पिट्सबर्ग हूँ [इस्पात नगरी से - 42]

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इस सुरंग से मेरा पुराना नाता है
पिट्सबर्ग एक छोटा सा शहर है। सच्चाई तो यह है कि यह शहर सिकुड़ता जा रहा है। पिट्सबर्ग ही नहीं, अमेरिका के बहुत से अन्य शहर लगातार सिकुड़ रहे है। घबराईये नहीं, सिकुड़ने से मेरा अभिप्राय था जनसंख्या से। दरअसल पिट्सबर्ग जैसे ऐतिहासिक नगरों की जनसंख्या लगातार कम होती जा रही है। पिट्सबर्ग उत्तर-पूर्वी अमेरिका के पेन्सिल्वेनिया राज्य में है। 1950 में यहाँ 676,806 लोग रहते थे लेकिन 2005 के जनसंख्या आंकडों के अनुसार यहाँ केवल 316,718 लोग रहते हैं। 2010 के आंकडों में यहाँ की जनसंख्या 305,704 रह गयी है।

पिट्सबर्ग एक पुराना शहर है। इसकी स्थापना सन् 1758 में हुई थी और इस नाते से यह अपने 250 से अधिक वर्ष पूरे कर चुका है। नवम्बर 1758 में जनरल जॉन फोर्ब्स की अगुआई में ब्रिटिश सेना ने फोर्ट ड्यूकेन (Fort Duquesne – S शांत है) के भाग्नावाशेषों पर कब्ज़ा किया और इसका नाम तत्कालीन ब्रिटिश राज्य सचिव विलियम पिट के नाम पर रखा।

कथीड्रल ऑफ लर्निंग
जब पिट्सबर्ग को अमेरिका के "सबसे ज्यादा रहने योग्य नगर" का खिताब मिला तो यहाँ के लोग फूले नहीं समाये। पुराने समय से ही पिट्सबर्ग अग्रणी लोगों का नगर बन कर रहा है। चाहे वह बिंगो (ताम्बूला) का खेल हो, कोका कोला के कैन हों या कि बड़े फेरिस वील, इन सब की शुरुआत पिट्सबर्ग से ही हुई थी। पहला व्यावसायिक रेडियो स्टेशन हो या पहला व्यावसायिक पेट्रोल पम्प, दोनों का ही श्रेय पिट्सबर्ग को जाता है।

पिछले दिनों जब मैं पिट्सबर्ग में बैठा हुआ पढ़ रहा था कि पोलियो की बीमारी सारी दुनिया में ख़त्म हो चुकने के बाद भी अभी सिर्फ़ भारत में ही बची है और वह भी मुख्यतः मेरे गृह नगरों बरेली, बदायूँ, रामपुर और मुरादाबाद आदि में - तो मुझे भाग्य के इस क्रूर खेल पर आश्चर्य हुआ क्योंकि पोलियो का टीका भी सन 1952 में पिट्सबर्ग में ही खोजा गया था। पिट्सबर्ग की देन असंख्य है इसलिए ज़्यादा नहीं कहूँगा मगर स्माइली :-) का ज़िक्र ज़रूर करूँगा जिसकी खोज यहाँ कार्नेगी मेलन विश्व विद्यालय में हुई थी। विश्व का पहला रोबोटिक्स केन्द्र भी इसी विश्व विद्यालय में प्रारम्भ हुआ। पिट्सबर्ग के वर्तमान मेयर ल्यूक रेवेंस्टाल अमेरिका के सबसे कम आयु के मेयर होने का दर्जा पा चुके हैं।

एक प्राचीन गिरजाघर
पिट्सबर्ग दो नदियों मोनोंगहेला व एलेगनी के संगम पर स्थित है। चूँकि यह दोनों नदियाँ मिलकर एक तीसरी नदी ओहियो बनाती हैं इसलिए यहाँ के निवासी इसे संगम न कहकर त्रिवेणी पुकारते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि पिट्सबर्ग में आप बहुत से व्यवसायों का नाम "तीन-नदियाँ" पायें। तीन नदियों से घिरा होने के कारण पिट्सबर्ग में पुलों की खासी संख्या है जिनमें से 720 प्रमुख पुल हैं। वैसे इन तीन नदियों के नीचे धरा में छिपा एक एक्विफ़र भी बहता है।

पुराने समय से ही अमेरिका के सर्वाधिक धनी व्यक्ति या तो पिट्सबर्ग में व्यवसाय करते थे या इस नगर से किसी रूप में जुड़े थे। यहाँ कोयला, इस्पात और अलुमिनुम का व्यवसाय प्रमुखता से हुआ। पिट्सबर्ग को इस्पात नगरी के नाम से भी पुकारा जाता है। कहते हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध में जितना इस्पात इस शहर में बना उतना शेष विश्व ने मिलकर भी नहीं बनाया। जहाँ एक तरफ़ व्यवसाय की उन्नति हुई वहीं ज्ञान विज्ञान में भी पिट्सबर्ग उन्नति करता रहा।

हर ओर गिरजे और फ़्यूनेरल होम्स
व्यवसाय ने पिट्सबर्ग को सम्पन्नता तो बहुत दी परन्तु उसकी कीमत भी ली। पिट्सबर्ग देश के सर्वाधिक प्रदूषित नगरों में से एक गिना जाता था। बहुत सी सुंदर इमारतें कारखानों के धुएँ से काली पड़ गयी। सत्तर के दशक में जब पर्यावरण सम्बन्धी विचारधारा को बढावा मिला तो इस तरह के सारे प्रदूषणकारी व्यवसायों पर प्रतिबन्ध लगने शुरू हो गए। जिसकी कीमत भी पिट्सबर्ग को चुकानी पड़ी। युवाओं ने नौकरी की तलाश में नगर छोड़ना शुरू कर दिया। नतीजा यह हुआ कि शहर में वयोवृद्ध जनसंख्या का अनुपात युवाओं से अधिक हो गया। पिट्सबर्ग ने इस चुनौती को बहुत गर्व से स्वीकारा और जल्दी ही जन-स्वास्थ्य में एक अग्रणी नगर बनकर उभरा।

पिट्सबर्ग अमेरिका का एक प्रमुख शिक्षा केन्द्र है। पिट्सबर्ग विश्वविद्यालय, कार्नेगी मेलन विश्वविद्यालय एवं ड्युकेन विश्वविद्यालय यहाँ के तीन बड़े शिक्षा संस्थान हैं। अन्य शिक्षा संस्थानों में पॉइंट पार्क विश्व विद्यालय, चैथम विश्वविद्यालय, कार्लो विश्वविद्यालय एवं रॉबर्ट मौरिस विश्व विद्यालय प्रमुख हैं।

सैनिक व नाविक स्मृति
खनिज, शिक्षा एवं स्वास्थ्य के अतिरिक्त पिट्सबर्ग एक और व्यवसाय में अग्रणी है और वह है कम्पूटर सॉफ्टवेयर। अनेकों बड़ी कम्पनियाँ जैसे गूगल, माइक्रोसॉफ्ट आदि ने यहाँ अपने कार्यालय बनाए हैं। अब जहाँ चिकित्सालय हों प्रयोगशालाएँँ हों, विश्व विद्यालय हों और सॉफ्टवेयर कम्पनियाँ भी हों और वहां पर भारतीय न हों ऐसा कैसे हो सकता है? । इस नगर में 6% लोग भारतीय मूल के हैं जिनमें मुख्यतः डॉक्टर, सोफ्टवेयर इंजिनियर, शिक्षक एवं छात्र हैं। एक बड़ा वर्ग व्यवसायिओं एवं वैज्ञानिकों का भी है। यहाँ आपको मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा तो मिलेगा ही, यदि आप अपने बच्चों को भारतीय संगीत या नृत्य सिखाना चाहते हैं तो आपको उसके लिए भी अनेक गुरु मिल जायेंगे। इतने भारतीय हों और भारतीय खाना न मिले, भला यह भी कोई बात हुई। भारतीय स्टोर व रेस्तराँ भी बहुतायत में हैं जहाँ आपको हर प्रकार का भारतीय सामान, भोजन इत्यादि मिल जायेगा। कथीड्रल ऑफ लर्निंग पिट्सबर्ग विश्व विद्यालय की प्रतीक इमारत है। इसमें एक कक्ष नालंदा विश्व विद्यालय के सम्मान में बनाया गया है।

पिट्सबर्ग के वार्षिक लोक उत्सव ने भारतीय कला व संस्कृति का परिचय स्थानीय लोगों को कराया है। हमारी संस्कृति में तो आकर्षण है ही, यहाँ के लोग भी नए विचारों को खुले दिल से स्वीकार करने वाले हैं। यहाँ आने से पहले मैंने अमेरिका के बारे में बहुत सी बातें सुनी थीं यथा, एक सामान्य अमेरिकी जीवन में सात बार नगर बदलता है। पिट्सबर्ग में मेरे बहुत से ऐसे स्थानीय सहकर्मी हैं जिन्होंने कभी पिट्सबर्ग नहीं छोड़ा। कुछ तो दो या तीन पीढियों से यहीं हैं।


[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photos by Anurag Sharma]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
* रैंडी पौष का अन्तिम भाषण
* पिट्सबर्ग का अंतर्राष्ट्रीय लोक महोत्सव (2011)
* ड्रैगन नौका उत्सव

[यह आलेख सृजनगाथा के लिये 25 जून 2008 को लिखा गया था]