Tuesday, October 12, 2010

कहें खेत की सुनैं खलिहान की

भारत में एक बार किसी ने मेरे एक सहकर्मी से पूछा कि उन्हें कितनी भाषायें आती हैं तो जवाब में हिन्दी, अंग्रेज़ी और पंजाबी के साथ-साथ सीक्वैल, कोबॉल और सी का नाम भी शामिल था। हम सब जानते हैं कि भाषाओं के भी डोमेन होते हैं। भारत में रहते हुए मेरा परिचय कई भाषाओं से हुआ था। अधिकांश को सीखना सरल था। मगर ब्लॉगिंग आरम्भ करने के बाद जिस एक नई भाषा से पाला पड़ा है वह उतनी सरल नहीं है। मतलब यह कि इस भाषा के दांत खाने के और हैं दिखाने के और। सही पकड़ा आपने, यह भाषा है टिप्पणियों की भाषा जिससे हमारा-आपका साबका रोज़ ही पड़ता है। कुछ उदाहरण और उनका मतलब:

टिप्पणी: बहुत अच्छी/उम्दा/सुन्दर प्रस्तुति/अभिव्यक्ति
मतलब: अबे ये क्या लिख मारा है, टिप्पणी करूँ भी तो क्या करूँ?

टिप्पणी: आप हिन्दी की महान/ज़बरदस्त सेवा कर रहे हैं
मतलब: तीस साल इंगलैंड में रहकर भी अंगरेज़ी नहीं सीखा तो सेवा भी हिन्दी में ही करेगा।

टिप्पणी: हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है
मतलब: हमने आपके फिज़ूल लेख की तारीफ की, अब आप भी हमारे फिज़ूल लेख की तारीफ करें।

टिप्पणी: आपकी पोस्ट का ज़िक्र (हमने) आज के ब्लॉग-खर्चा में किया है
मतलब: अब तो फ़टाफ़ट वहाँ आकर एक टिप्पणी का खर्चा कर, कंजूस कहीं के!

टिप्पणी: आपकी पोस्ट (हमने) चिलमची पुरस्कार के लिये चुन ली है
मतलब: अब तो खुशी-खुशी हमारे ब्लॉग का लिंक लगायेगा। बडा होशियार समझता था अपने को।

टिप्पणी: अच्छा लिखा है - अब मेरे ब्लॉग पर एक मरे हुए फ़ूहड चुटकुले के भूत से मिलें
मतलब: सुबह से पचास टिप्पणी बक्सों में यही कट पेस्ट कर चुका हूँ - पाँच तो बेवकूफ बनेंगे ही।

टिप्पणी: सौ टिप्पणियाँ होने की बधाई
मतलब: पिच्यानवे टिप्पणियाँ तो तेरी खुद की ही हैं - बात करता है...

टिप्पणी: टिप्पणी बक्सा फिर से खोलने का धन्यवाद
मतलब: खामख्वाह भाव चढा रहा था, आ गये न होश ठिकाने दो दिन में।

टिप्पणी: वाह वाह
मतलब: आह आह

टिप्पणी: सहमत
मतलब: लिख मत

टिप्पणी: हम देश को सुधार रहे हैं, आप भी साथ में आइये
मतलब: इस सुधार-पार्टी के सर्वे-सर्वा हम ही रहेंगे, भले ही हमने गूगल से उठाकर भारत का जो नक़्शा लगाया है वह भी सिरे से गलत है।

टिप्पणी: टिप्पणियों का मॉडरेशन हटा दीजिये
मतलब: सम्पादक नहीं, पत्रकार नहीं, महिला नहीं, सम्मान समिति वाला भी नहीं फिर भी मॉडरेशन? हम टाइम खोटी क्यों करें?

टिप्पणी: बिल्कुल ठीक कहा आपने
मतलब: आपने क्या कहा यह आपको ही नहीं पता तो हमें कैसे पता चलेगा।

टिप्पणी: बधाई/धन्यवाद/आभार/शुभकामनायें/अभिनन्दन
मतलब: अपने गुट का न होता तो ऐसे बेहूदा आलेख पर नज़र भी नहीं मारता, टिप्पणी तो दूर की बात है।

टिप्पणी: यह परिवर्तन केवल हमारे XYZ-वाद से ही आ सकता है
मतलब: आपमें काफ़ी पोटेंशियल है ठगे जाने का, वहीं रुकें हम सदस्यता फॉर्म भेज रहे हैं।

टिप्पणी: सटीक विश्लेषण
मतलब: अन्धे के आगे रोये, अपने नयना खोये।

टिप्पणी: प्रणाम/नमस्कार/नतमस्तक/दंडवत
मतलब: तुम जैसे से तो दूर की नमस्ते ही अच्छी।

टिप्पणी: -abc- हमारी राज्य/राज/राष्ट्रभाषा है
मतलब: सब कहते हैं तो कुछ न कुछ तो होगी ही, रिस्क ले लेते हैं।

टिप्पणी: हमारे ब्लॉग पर पधारकर हमारा मार्गदर्शन करें
मतलब: मार्गदर्शन माय फ़ुट! आओगे तो हमसे ही कुछ सीखकर जाओगे बच्चू।

टिप्पणी: अच्छा प्रयास/प्रयोग है
मतलब: जनम भर प्रयोग करके भी हम जैसे नहीं हो पाओगे।

टिप्पणी: nice/ice/spice/dice
मतलब: यह तो आपको ही बताना पडेगा।

अभी तो यही कुछ शब्दार्थ याद आये। आप भी कुछ टिप्पणियों के निहितार्थ बताकर हमारा ज्ञानवर्धन कीजिये न!

Tuesday, October 5, 2010

हाल बुरा है... कविता

(अनुराग शर्मा)

स्वर्णमयी है लंका अपनी, जनता रोती क्यूं रहती है
दीनों को धकियाकर देखो भाई भतीजे पास आ गये॥

दो रोटी को निकला बेटा घर लौटे तो रामकृपा है
प्रगतिवादी और जिहादी, बारूदी सुरंग लगा गये ॥

परदेसी बेदर्द पाशविक, मुश्किल से पीछा छूटा था
सपना देखा स्वराज्य का जाने कैसे लोक आ गये॥

वैसे तो आज़ाद सभी हैं, कोई ज़्यादा कोई कम है
दारू की बोतल बंटवाकर नेताजी सब वोट पा गये॥

टूटी सडकें बहते नाले, फूटी किस्मत, जेबें खाली
योजनायें कागज़ पर बनतीं, ठेके रिश्तेदार पा गये॥

गिद्ध चील नापैद हो गये, गायें कचरा खाकर मरतीं
गधे बेचारे भूखे रह गये, मुख्यमंत्री घास खा गये॥

गर्मी भर छलके जाते हैं, बरसातों में बान्ध टूटते
बूंदों को तरसा करते थे लहरों की गोदी समा गये॥

Sunday, October 3, 2010

तुम जीयो हज़ारों साल

बहुत खास दिन है आज - खस्ता शेर वाले अतुल शर्मा का जन्म दिन


जन्म दिन शुभ हो अतुल!

प्रगति करो खुश रहो और खुशियाँ बांटो!

आम लोग - कविता

औसत व्यक्ति को दोयम दर्ज़े का कहकर दुत्कारने वालों को अक्सर मीडियोक्रिटी का रोना रोते सुना है। बहुत बार सुनने पर एक विचार मन में आया, प्रस्तुत है:

ईश्वर को साधारण प्रिय है
बार बार रचता क्यों वरना

खास बनूँ यह चाह नहीं है
मुझको भी साधारण रहना
न अति ज्ञानी न अति सुन्दर
मिल जाऊँ सबमें वह गहना

साधारण जन विश्व चलाते
नायक प्रभु कृपा का खाते
साधारण ही नायक होते
अति साधारण आते जाते
(अनुराग शर्मा)

Thursday, September 30, 2010

जय राम जी की!

रामजन्मभूमि 'विवादित स्थल' नहीं वरन रामजन्मभूमि है - न्यायालय।

Tuesday, September 28, 2010

बुरे काम का बुरा नतीज़ा [इस्पात नगरी से - 30]

अदा जी ने हाल ही में कैनाडा में अपने अनुभवों के बारे में एक-दो पोस्ट लिखीं जिनपर काफी रोचक प्रतिक्रियायें पढने को मिलीं। साथ ही आजकल गोपालकृष्ण विश्वनाथ जी की कैलिफोर्निया यात्रा का वर्णन भी काफी मानसिक हलचल उत्पन्न कर रहा है। इसी बीच में अमेरिका के बैल नगर पालिका से कुछ लोगों की गिरफ्तारी की खबर आयी। दोनों बातों का क्या सम्बन्ध है? कोई खास तो नहीं मगर यह गिरफ्तारी यह भी दर्शाती है कि भ्रष्टाचारी तो हर जगह हो सकता है, परंतु किसी देश का चरित्र बहुत हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि उसके भ्रष्टाचारी अंततः किस गति को प्राप्त होते हैं।

कैलिफोर्निआ राज्य की बैल नगरी में आठ नये-पुराने वरिष्ठ अधिकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया है। गिरफ्तार लोगों में नगर के मेयर और उप-मेयर भी शामिल हैं। मज़े की बात यह है कि वे रिश्वत नहीं ले रहे थे और न ही उनमें से किसी ने अपनी गाडी पर लाल बत्ती लगाकर अपनी जल्दी के लिये सारा ट्रैफिक रुकवाया था। उन्होने किसी सरकारी कर्मचारी को धमकाया भी नहीं था। अपने विरोधी दल वालों को घर से उठवा लेने की धमकी दी हो, ऐसा भी नहीं है। न ही उनके सम्बन्ध दुबई या कराची में बैठे अंडरवर्ड के किसी डॉन से थे। किसी व्यक्ति के शोषण या किसी से दुर्व्यवहार की शिकायत भी नहीं है। नेताजी के जन्मदिन के लिये कम चन्दा भिजाने वाले इंजीनियर की हत्या का आरोप भी नहीं है। उन्होंने सत्ता के दम्भ में न तो संरक्षित प्राणियों का शिकार किया था और न ही शराब पीकर गरीब मज़दूरों पर गाडी चढा दी थी। उनके नगर में धनी ठेकेदारों के लिये सीवर की सफाई करने के लिये उतरे मुफ्त जान गंवाते गरीब मज़दूरों के बच्चे भीख भी नहीं मांग रहे थे।

इन अधिकारियों के अपराध के लिये जमानत की राशि एक लाख तीस हज़ार अमेरिकी डॉलर से लेकर बत्तीस लाख डॉलर तक तय हुई है। और इनका अपराध यह है कि इनके वेतन और भत्ते इनके नगर की औसत मासिक आय के अनुपात में कहीं ज़्यादा है। उदाहरण के लिये नगर प्रबन्धक रॉबर्ट रिज़ो की वार्षिक तनख्वाह आठ लाख डॉलर थी। भारी तनख्वाह लेने के अलावा इन लोगों द्वारा सिर्फ भत्ते लेने के उद्देश्य से की गयी मीटिंगें भी आरोप सूची में हैं। बेल नगर के पार्षदों की वार्षिक तनख्वाह 96,000 थी जिसे जनकर्मियों के हिसाब से काफी अधिक माना जा रहा है क्योंकि अमेरिका में इसी आकार के नगरों के पार्षद सामान्यतः केवल 4800 डॉलर वार्षिक मानदेय पर काम करते हैं।

इन लोगों की करतूत से नगर और बाहर के लोगों के बीच काफी नाराज़गी है। राज्य के गवर्नर ने इस गलती को सही करने के उद्देश्य से एक ऐसे बिल पर हस्ताक्षर किये हैं जिसके द्वारा बेल नगर में जनता से वसूला गया कर उन्हें उचित अनुपात में वापस किया जायेगा।

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इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ

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Saturday, September 25, 2010

कम्युनिस्ट सुधर रहे हैं?

सोवियत संघ का दिवाला पिटने के समय से अब तक लगभग सारी दुनिया में कम्युनिज़्म की हवा कुछ इस तरह निकलती रही है जैसे पिन चुभा गुब्बारा। लेकिन विश्व के दो सबसे बड़े लोकतंत्रों के पड़ोस में कम्युनिज़म की बन्दूक, मेरा मतलब है, पर्चम अभी भी फहर रही है। वह बात अलग है कि कम्युनिज़्म के इन दोनों ही रूपों में तानाशाही के सर्वाधिकार और जन-सामान्य के दमन के अतिरिक्त अन्य समानतायें न्यूनतम हैं। कम्युनिज़्म के पुराने साम्राज्य से तुलना करें तो आज बहुत कुछ बदल गया है। क्या कम्युनिज़्म भी समय के साथ सुधर रहा है? क्या यह एक दिन इतना सुधर जायेगा कि लोकतंत्र की तरह प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करने लगेगा? शायद सन 2030 के बाद ऐसा हो जाये। मगर 2030 के बाद ही क्यों? क्योंकि, चीन के एक प्रांत ने ऐसा सन्देश दिया है कि आज से बीस वर्ष बाद वहाँ के परिवारों को दूसरा बच्चा पैदा करने का अधिकार दिया जा सकता है। मतलब यह कि आगे के बीस साल तक वहाँ की जनता ऐसे किसी पूंजीवादी अधिकार की उम्मीद न करे। मगर चीन के आका यह भूल गये कि अगर जनता 2030 से पहले ही जाग गयी तो वहाँ के तानाशाहों का क्या हाल करेगी।

ऐसा नहीं है कि चीन में इतने वर्षों में कोई सुधार न हुआ हो। कुछ वर्ष पहले तक चीन की जनता अपने बच्चों का नामकरण तो कर सकती थी परंतु उन्हें उपनाम चुनने की आज़ादी नहीं थी। चीनी कानून के अनुसार श्रीमान ब्रूस ली और श्रीमती फेंग चू के बच्चे का उपनाम ली या चू के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हो सकता है। उस देश में होने वाले बहुत से सुधारों के बावज़ूद जनता की व्यक्तिगत पहचान पर कसे सरकारी शिकंजे की मजबूती बनाये रखने के उद्देश्य से कुलनाम के नियम में कोई छूट गवारा नहीं की गयी थी। मगर कुछ साल पहले जनता को एक बडी आज़ादी देते हुए उपनाम में माता-पिता दोनों के नाम का संयोग एक साथ प्रयोग करने की स्वतंत्रता दी गयी है। मतलब यह कि अब ली और चू को अपने बच्चे के उपनाम के लिये चार विकल्प हैं: चू, ली, ली-चू और चू-ली।

चीन से दूर कम्युनिज़्म के दूसरे मजबूत किले क्यूबा की दीवारें भी दरकनी शुरू हो गयी हैं। वहाँ के 84-साला तानाशाह फिडेल कास्त्रो के भाई वर्तमान तानाशाह राउल कास्त्रो ने देश की पतली हालत के मद्देनज़र पाँच लाख सरकारी नौकरों को बेरोज़गार करने का आदेश दिया है। मतलब यह है मज़दूरों के तथाकथित मसीहा हर सौ में से दस सरकारी कर्मचारी को निकाल बाहर कर देंगे। क्या इन बेरोज़गारों के समर्थन में हमारे करोड़पति कम्युनिस्ट नेता क्रान्ति जैसा किताबी कार्यक्रम न सही, आमरण अनशन जैसा कुछ अहिंसक करेंगे?

Thursday, September 16, 2010

अनुरागी मन - कहानी भाग 5

चित्र अनुराग शर्मा

अनुरागी मन
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भाग 1
भाग 2
भाग 3
भाग 4
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परी की मुस्कान के उत्तर में वीरसिंह भी मुस्कराये और फिर एक जम्हाई लेकर सोने के लिये जाने का उपक्रम करने लगे। रात वाकई गहराने लगी थी। आगे का किस्सा सुनने की उत्सुकता ईर और फत्ते दोनों को ही थी मगर अगले दिन तीनों को काम पर भी जाना था। सोने से पहले अगले दिन कहानी पूरा करने का वचन वीरसिंह से ले लिया गया। जैसे तैसे अगला दिन कटा। फत्ते घर आते समय शाम का खाना होटल से ले आया ताकि समय बर्बाद किये बिना कथा आगे बढ़ाई जा सके। जल्दी-जल्दी खाना निबटाकर, थाली हटाकर तीनों कथा-कार्यक्रम में बैठ गये।

एक पुरानी हवेली अन्दर से इतनी शानदार हो सकती है इसका वीर को आभास भी नहीं था। वासिफ ने वीर को अपनी दादी और माँ से मिलाया। दोनों ही सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति। वासिफ शायद अपने पिता पर गया होगा। उसके पिता और दादा शायद घर में नहीं थे। माँ चाय बनाने चली गयीं और वासिफ वीर को अन्दर एक कमरे में ले गया। कुछ पल तो वे चौंक कर उस कमरे की शान को बारीकी से देखते रहे जैसे कि सब कुछ आंखों में भर लेना चाहते हों। उसके बाद वे उस ओर चले जिधर पूरी दीवार किताबों से भरी आबनूस की अल्मारी के पीछे छिपी हुई थी। अधिकांश किताबें उर्दू या शायद अरबी-फारसी में थीं और चमड़े की ज़िल्द में मढ़ी हुई थीं। उत्सुकतावश एक पुस्तक छूने ही वाले थे कि एक कर्णप्रिय स्वरलहरी गूंजी, “चाय ले लीजिये।”

उन्होंने मुड़कर देखा और जैसी आशा थी, वही अप्सरा वासिफ के ठीक सामने पड़ी सैकडों साल पुरानी शाही मेज़ पर चाय और न जाने क्या-क्या लगा रही थी। रंग-रूप में वह और वासिफ़ एक दूसरे के ध्रुव-विपरीत लग रहे थे। वासिफ वीर की ओर देखकर हँसते हुए बोला, “इतना सब क्या इसके लिये लाई है? देव समझ रखा है क्या?”

“खायेंगे न आप? ... वरना आपके घर आ जाऊंगी खिलाने” अप्सरा वीर की ओर उन्मुख थी। बीच की मांग के दोनों ओर सुनहरे बालों ने उसका माथा ढँक लिया। उसकी हँसी देखकर वीर को मिलियन डॉलर स्माइल का अर्थ पहली बार समझ में आया।

“देव और अप्सरा, क्या संयोग है?” वीरसिंह सोच रहे थे, “नियति बार-बार उन दोनों को मिलाने का यह संयोग क्यों कर रही है?” वे अप्सरा की बात के जवाब में कुछ अच्छा कहना चाहते थे मगर ज़ुबान जैसे तालू से चिपक सी गयी थी। देव और अप्सरा, स्वर्गलोक, इन्द्रसभा। उनके मन में यूँ ही एक ख्याल आया जैसे उस कमरे में वासिफ नहीं था। उसी क्षण बाहर से एक भारी सी आवाज़ सुनाई दी, “वासिफ बेटा... ज़रा इधर को अइयो...”

“बच्चे को बोर मत करना, मैं बाद में आता हूँ ...” कहकर वासिफ तेज़ी से बाहर निकल गया।

“आइ वोंट, यू बैट!” अप्सरा ने उल्लसित होकर कहा, “टेक योर ओन टाइम!”

वासिफ ने कुछ सुना या नहीं, पता नहीं परंतु इतना सुन्दर उच्चारण सुनकर वीर के अन्दर हीन भावना सी आ गयी। ऑक्सफ़ोर्ड उच्चारण की बहुत तारीफ सुनी थी, शायद वही रहा होगा।

“इधर आ जाइये, उधर क्यों खड़े हैं?” परी की मनुहार से पहले ही वीरसिंह उसके सामने विराजमान थे। किताब अभी भी उनके हाथ में थी।

“वासिफ की छोटी बहन हैं आप?” वीर ने लगभग हकलाते हुए पूछा।

“नहीँ” फूल झरे।

“तो बड़ी हैं क्या?” वीर ने आशंकित होकर पूछा।

“नहीँ” फूल फिर झरे।

“अप्सरायें बड़ी-छोटी नहीं होतीं – चिर-युवा होती हैं” दादी की बात याद आयी, “क क क क्या नाम है आपका?”


“झरना... और आपका?”

“झरना यानि जल-प्रपात। और अप्सरा... यानि जल से जन्मी... सत्य है... स्वप्न है...”

“नहीं बतायेंगे अपना नाम? आपकी मर्ज़ी। वैसे आपकी ज़िम्मेदारी मुझे देकर गए हैं वासिफ भाई।

“मैं वीर, वीरसिंह!”

[क्रमशः]

Saturday, September 11, 2010

अनुरागी मन - कहानी भाग 4


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अनुरागी मन - भाग 1
अनुरागी मन - भाग 2
अनुरागी मन - भाग 3
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सुबह उठने पर भी वीरसिंह कल वाली परी के बारे में सोचते रहे। जब तक वे नहा धो कर नाश्ते के लिये बैठे, दादाजी अपना अखबार लिये पहले से ही उपस्थित थे। दादी भी रोज़ की तरह अपनी छात्राओं की संगीत की कक्षा सम्पन्न कर के आ चुकी थीं। दादाजी ने हमेशा की तरह अखबार को कोसा और दादी ने उनके पोहे में ढेर सा घी उड़ेल दिया। वीरसिंह खा-पीकर इन्द्रजाल कॉमिक का नया अंक लेने विरामपुरे की इकलौती “घंटा-ध्वनि न्यूज़ एजेंसी” पहुँच गये। परी का ख्याल अभी भी उनके दिमाग से चिमटा हुआ था। किताबें ढूँढते समय, दुकानदार सक्सेना से बात करते समय उनके मन का एक हिस्सा लगातार यह मना रहा था कि वह अप्सरा सचमुच उन्हें अभी फिर दिख जाये। फिर सोचते कि यदि मनचाहा होता रहता तो कल्पवृक्ष जैसी कल्पनाओं की आवश्यकता ही नहीं होती।

अपने मनपसन्द कॉमिक्स लेकर जब वे बाहर निकले तो उन्होंने बड़ी उत्कंठा से निगाहें सड़क के दोनों ओर दौड़ाईं और हर तरफ उजड्ड देहातियों को पाकर अपनी किस्मत को कोसा। तभी उन्हें आकाश की ओर से एक दिव्य हँसी की खनखनाती आवाज़ सुनाई दी। अब उन्हें एक अप्सरा को नई सराय की टूटी-फ़ूटी सड़कों की गन्दगी के बीच में ढूंढने की अपनी मूर्खता पर हंसी आयी। अप्सरा तो स्वच्छ सुवासित आकाश में ही होगी न कि नारकीय वातावरण में। लेकिन क्या अप्सरायें सचमुच होती हैं? अपने विश्वास-अविश्वास से जद्दोजहद करते हुए उन्होंने तेज़ होती हँसी के स्रोत को देखने के लिये सर उठाया तो उनकी आँखें खुली की खुली रह गयीं। वही कल वाली अप्सरा ऊपर से उन्हें देख रही थी। “घंटा-ध्वनि न्यूज़ एजेंसी” और साथ की दुकान के ऊपर बने घर के छज्जे पर अपनी पार्थिव सी दिखने वाली सखि के साथ खड़ी अप्सरा कनखियों से उनको देख उल्लसित हो रही थी। वीरसिंह ने मुस्कराकर एक नज़र भरकर उधर देखा और उछलते हुए से घर की ओर चल दिये।

उस रात नींद में वे लगातार उसी अप्सरा के साथ थे। कभी नई सराय के खंडहरों में और कभी स्वर्ग के उद्यानों के बीच। सुबह बहुत सुन्दर थी। परी के दिवास्वप्नों के बीच याद आया कि आज उन्हें वासिफ से मिलने जाना था। वासिफ खाँ वीरसिंह का सहपाठी था। उसके दादाजी भी नई सराय में ही रहते थे। उसका नई सराय प्रवास वीरसिंह की तरह नियमित नहीं था परंतु इस बार वह भी आया हुआ था। आज प्रातः नई सराय के कुतुबखाने पर वीरसिंह और वासिफ की मुलाकात होनी थी। वीरसिंह प्रातः अपने घर से निकले तो उनकी दादी द्वारा घर पर ही चलाये जा रहे गन्धर्व विद्यालय की छात्रायें प्रतिदिन की तरह आनी शुरू हो गयी थीं। आज वीरसिंह ने पहली बार उन्हें ध्यान से देखा। भिन्न-भिन्न वेश और विभिन्न रंग-रूप लेकिन सब की सब ठेठ नई सरय्या, यानि के एकदम गँवारू। नहाया धोया मुखारविन्द, साफ सुथरे कपड़े, देसी घी खाकर फूले-फूले गाल और सरसों के तेल से चीकट बाल। एक तेज़-तर्रार लडकी के ज़रा पास से निकलने पर आई तोलकर बिकने वाले साबुन की तेज़ गन्ध ने उनकी नासिका को अन्दर तक चीर दिया।

दोनों मित्र कुतुबखाने पर मिले। स्कूल बन्द होने के बाद आज पहली बार वासिफ को देखा था। मिलकर काफी अच्छा लगा। वह भी उन्हें देखकर प्रसन्न हुआ। वासिफ उन्हें अपना घर दिखाना चाहता था। बातें करते करते वे मस्जिद की ओर चलने लगे। मनिहार गली वाला रास्ता थोड़ा घुमावदार था परंतु कस्साबपुरे वाले रास्ते से कम तंग और बदबूदार था।

वीरसिंह सारे रास्ते वासिफ के साथ थे मगर साथ ही उनका एक समानांतर संसार भी चल रहा था। उनका मन लगातार उसी अप्सरा के सौन्दर्य के काल्पनिक झरने में भीगे जा रहा था। कुछ मिनटों में ही वे वासिफ के दादा की हवेली के सामने खड़े थे। वासिफ लोहे की भारी कुंडी को कोलतार पुती मोटी किवाड़ों पर मारने वाला ही था कि दरवाज़ा अपने आप खुल गया।

वीरसिंह मानो सपना देख रहे हों। उन्हें अपनी खुशकिस्मती पर यकीन ही नहीं हुआ जब दरवाज़ा पकड़े हुए ही उस परी ने मखमली मुस्कान के साथ शर्माते हुए “अन्दर आइये” कहा।


[क्रमशः]

Wednesday, September 8, 2010

पागल – लघु कथा

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पुरुष: “तुम साथ होती हो तो शाम बहुत सुन्दर हो जाती है।”

स्त्री: “जब मैं ध्यान करती हूँ तो क्षण भर में उड़कर दूसरे लोकों में पहुँच जाती हूँ!”

पुरुष: “इसे ध्यान नहीं ख्याली पुलाव कहूंगा मैं। आँखें बंद करते ही बेतुके सपने देखने लगती हो तुम।”

स्त्री: “नहीं! मेरा विश्वास करो, साधना से सब कुछ संभव है। मुझे देखो, मैं यहाँ हूँ, तुम्हारे सामने। और इसी समय अपनी साधना के बल पर मैं हरिद्वार के आश्रम में भी उपस्थित हूँ स्वामी जी के चरणों में।”

पुरुष: “उस बुड्ढे की तो...”

स्त्री: “तुम्हें ईर्ष्या हो रही है स्वामी जी से?”

पुरुष: “मुझे ईर्ष्या क्यों कर होने लगी?”

स्त्री: “क्योंकि तुम मर्द बड़े शक़्क़ी होते हो। याद रहे, शक़ का इलाज़ तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं है।”

पुरुष: “ऐसा क्या कह दिया मैंने?”

स्त्री: “इतना कुछ तो कहते रहते हो हर समय। मैं अपना भला-बुरा नहीं समझती। मेरी साधना झूठी है। योग, ध्यान सब बेमतलब की बातें हैं। स्वामीजी लम्पट हैं।”

पुरुष: “सच है इसलिये कहता हूँ। तुम यहाँ साधना के बल पर नहीं हो। तुम यहाँ हो, क्योंकि हम दोनों ने दूतावास जाकर वीसा लिया था। फिर मैंने यहाँ से तुम्हारे लिए टिकट खरीदकर भेजा था। और उसके बाद हवाई अड्डे पर तुम्हें लेने आया था। कल्पना और वास्तविकता में अंतर तो समझना पडेगा न!”

स्त्री: “हाँ, सारी समझ तो जैसे भगवान ने तुम्हें ही दे दी है। यह संसार एक सपना है। पता है?”

पुरुष: “सब पता है मुझे। पागल हो गई हो तुम।”

बालक: “यह आदमी कौन है?”

बालिका: “पता नहीं! रोज़ शाम को इस पार्क में सैर को आता है। हमेशा अपने आप से बातें करता रहता है। पागल है शायद।”

Monday, September 6, 2010

अनुरागी मन - कहानी भाग 3

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[चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photo by Anurag Sharma]

हर शाम की तरह वीरसिंह गुरुद्वारे से दादाजी के घर की ओर आ रहे थे। नई सराय के नारकीय वातावरण से अपने को निर्लिप्त करने के पूर्ण प्रयास करते हुए सायास अपने आपको भैंसों की दुम, आवारा कुत्तों की भौंक और गधों की लीद से कुशलतापूर्वक बचाते हुए चल रहे थे। अचानक एक जादू सा हुआ। मानो आसपास की सारी गन्दगी किसी चमत्कार की तरह अचानक मिट गयी हो। नई सराय की बासी गन्ध की जगह वातावरण में मलयाचल की सुगन्धि भर गयी। लगा जैसे क्षण भर में नई सराय का पूर्ण कायाकल्प हो गया । सौन्दर्य का झरना सा बहने लगा। उन्होंने नज़रें क्या उठाईं कि फिर हटा न सके।

उनके ठीक सामने एक अप्रतिम सौन्दर्य की मूरत दिखाई दी। उस एक अप्सरा के अतिरिक्त सब कुछ विलुप्त हो गया। और यह अप्सरा बचपन में सुनी दादी की कहानियों की रम्भा और उर्वशी जैसी त्रिलोकसुन्दरी होकर भी उनसे एकदम उलट थी। गर्दन तक कटे हुए आधुनिक बाल उसके स्कर्ट टॉप के एकदम अनुकूल थे। कुन्दन सी त्वचा और नीलम सी आंखें उस कोमलांगी को ऐसी अनोखी रंगत प्रदान कर रहे थे मानो किसी श्वेत-श्याम चित्र में अचानक ही रंग भर गये हों। उन्हें इस बात का बिल्कुल भी अहसास नहीं रहा कि वे कितनी देर तक अपने आसपास से बिल्कुल बेखबर होकर उस अप्सरा को अपलक देखते रहे थे। वे चौंककर होश में तब आये जब उनके कान में किसी बच्चे की आवाज़ सुनाई दी। देखा कि एक 6-7 वर्षीय बालक ने उस अप्सरा का हाथ खींचकर कहा, “क्या हुआ दीदी?”

अप्सरा का मुँह आश्चर्य से खुला हुआ था। उसके चेहरे पर छपे हुए अविश्वास के भाव देखकर उन्हें लगा कि शायद वह भी उन्हीं की तरह स्तम्भित रह गयी थी। उसने मिस्रीघुली वाणी में बच्चे से कहा, “कुछ भी तो नहीं।” और वीरसिंह की ओर एक मुस्कान बिखेरती हुई चली गयी। कुछ देर ठगे से खडे रहने के बाद वीरसिंह ने कनखियों से इधर-उधर का जायज़ा लिया तो पाया कि नई सराय का कारोबार हमेशा की तरह बेरोकटोक चल रहा था। किसी ने भी उन्हें वशीकृत होते हुए नहीं देखा था। वे घर आये तो दादी ने पूछा, “सब ठीक तो है न बेटा?”

“मुझे क्या हुआ है?” उन्होंने यूँ कहा मानो कुछ हुआ ही न हो। मगर तब तक दादी अन्दर चली गयी थीं, नज़र उतारने की सामग्री लेने के लिये।

रात का खाना खाकर सब सोने चले गये मगर वीरसिंह की आंखों में नीन्द कहाँ। सोचते रहे कि उन्होंने जो कुछ भी आज देखा था क्या वह सच था या केवल एक भ्रम। उनका ग्वाला कलुआ कहता है कि आसपास के गांवों के कुछ नौजवानों को किसी परी की आत्मा ने नियंत्रित कर लिया था। दिन ब दिन कमज़ोर होते गये और फिर पागल होकर मर गये। वीरसिंह को परी, आत्मा आदि के अस्तित्व में विश्वास नहीं है। लेकिन तब यह लड़की कौन थी? उस पर वह अनोखी रंगत, अनोखी आँखें और अनोखी आवाज़! इस लोक की तो नहीं हो सकती है वह। और उसकी वह अलौकिक स्मिति? सत्य का पता कैसे लगेगा?

दूर किसी रेडियो पर एक मधुर लोकगीत हवा में तैर रहा था। वीरसिंह उस अप्सरा के बारे में सोचते हुए गीत की सुन्दर शब्द-रचना के झरने में डूबने उतराने लगे।

छल बल दिखाके न कोई रिझा ले
पल्लू गिराके न कोई बुला ले
निकला करो न अन्धेरे उजाले
लाखों सौतन फिरत हैं नगरिया में
कोई भर ले न तोहे नजरिया में
नहीं जाना कुँवर जी बजरिया में


[क्रमशः]

Thursday, September 2, 2010

अई अई आ त्सुकू-त्सुकू

(अनुराग शर्मा की त्सुकुबा जापान यात्रा संस्मरण)

सृजनगाथा पर जापान के अपने यात्रा संस्मरण में मैंने त्सुकुबा पर्वत की यात्रा का वर्णन किया था। इसी पर्वत की तलहटी में, टोक्यो से ५० किलोमीटर की दूरी पर शोध और तकनीकी विकास के उद्देश्य से सन १९६३ में त्सुकुबा विज्ञान नगर परियोजना ने जन्म लिया और १९८० तक यहाँ ४० से अधिक शोध, शिक्षा और तकनीकी संस्थानों की स्थापना हो गयी थी। जापान के भीड़भरे नगरों की छवि के विपरीत त्सुकूबा (つくば?) एक शांत सा नगर है जो भारत के किसी छावनी नगर जैसा शांत और स्वच्छ नज़र आता है।

त्सुकुबा विश्वविद्यालय सहित कई राष्ट्रीय जांच और शोध संस्थान यहाँ होने के कारण जापान के शोधार्थियों का ४० प्रतिशत आज त्सुकुबा में रहता है। त्सुकुबा में लगभग सवा सौ औद्योगिक संस्थानों की शोध इकाइयाँ कार्यरत हैं। सड़कों के जाल के बीच ३१ किलोमीटर लम्बे मार्ग केवल पैदल और साइकिल सवारों के लिए आरक्षित हैं। और इन सबके बीच बिखरे हुए ८८ पार्क कुल १०० हेक्टेयर के क्षेत्र में फैले हुए हैं। ऐसे ही एक पार्क में मेरा सामना हुआ त्सुकुबा के अधिकारिक पक्षी त्सुकुत्सुकू (Tsuku-tsuku) से।

जापान में दो लिपियाँ एक साथ चलती हैं - कांजी और हिरागाना। कांजी लिपि चीन की लिपि का जापानी रूप है जबकि हिरागना जापानी है। नए नगरों के नाम हिरागना में ही लिखे जाते हैं। त्सुकुबा का नाम भी हिरागना में ही लिखा जाता है और यहाँ के अधिकारिक पक्षी का नाम त्सुकुत्सुकू जब हिरागना में लिखा जाए तो उसका अर्थ होता है असीमित विकास एवं समरसता।

सोचता हूँ कि भारत में यदि ज्ञान की नगरी के लिए कोई राजपक्षी चुना जाता तो वह क्या होता? राजहंस, शुक, सारिका, वक या कुछ और? परन्तु त्सुकुबा का त्सुकुत्सुकू नामक राजपक्षी है एक उल्लू। वैसे तो जापान में पशु-पक्षी अधिक नहीं दिखते हैं, उस पर उल्लू तो वैसे भी रात में ही निकलते हैं सो हमने वहां सचमुच का एक भी उल्लू नहीं देखा मगर फिर भी वे थे हर तरफ। दुकानों, पार्कों, रेल और बस के अड्डे पर - चित्र, मूर्ति और कलाकृतियों के रूप में त्सुकुत्सुकू हर ओर मौजूद था।

विश्व विद्यालय परिसर का एक पार्क तो ऐसा लगता था जैसे उसी को समर्पित हो। इस उपवन में विचरते हुए शायर की निम्न पंक्तियाँ स्वतः ही जुबां पर आ गईं: हर शाख पे उल्लू बैठा है, अंजामे गुलिस्ताँ क्या होगा?

आइये देखें कुछ झलकियाँ त्सुकुबा के उलूकराज श्रीमान त्सुकुत्सुकू की।


1. परिवहन अड्डे पर श्रीमान त्सुकुत्सुकू

2. उलूकराज

3. विनम्र उल्लू

4. भोला उल्लू

5. दार्शनिक उल्लू

6. उल्लू परिवार

7. उल्लू के पट्ठे

8. जापान की दुकान में "मेड इन चाइना" उल्लू

9. और अंत में - दुनिया भर में प्रसिद्ध काठ के उल्लू

[Photographs by Anurag Sharma || सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा]

Wednesday, September 1, 2010

जन्माष्टमी और पर्युषण पर्व की शुभकामनायें!

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिः ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥



वृन्दावन में भगवान के चित्र लिये एक बालगोपाल

[Photo by Anurag Sharma - चित्र अनुराग शर्मा]

Saturday, August 28, 2010

अनुरागी मन - कहानी भाग 2

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[चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photo by Anurag Sharma]


नोएडा के इस अपार्ट्मेंट की शामें इसी तरह गुज़रती थीं। बैठक में एक साथ बैठे ये तीनों मित्र ईर, बीर और फत्ते, रात के खाने की तैयारी करते करते अपने दिन भर के अनुभव एक दूसरे के साथ बांटते थे। बीच-बीच में एक दूसरे के हाल पर टीका-टिप्पणियाँ भी होती थीं।

तीनों में सबसे बडा फत्ते यानि फतहसिंह पास के ही अट्टा गाँव से था। किसान परिवार का बेटा। वकालत पढ़कर पहले तो दिल्ली के एक मशहूर वकील का सहायक बना और फिर आयकर विभाग में निरीक्षक हो गया। घर में पैसे की कमी पहले भी नहीं थी, अब तो अपनी मर्ज़ी का मालिक था।

ईर यानि अरविन्द कल्याणपुर कर्नाटक से था। पतला दुबला भला सा लड़का, बुद्धि और हास्य बोध का संगम। गणित में स्नातकोत्तर और संस्कृत का विद्वान। लम्बा कद, चौड़ा माथा, गौरांग और सुदर्शन। कमी ढूंढने निकलें तो शायद इतनी ही मिले कि सफाई के मामले में कभी-कभी थोड़ा सनक जाता था। उसकी उपस्थिति में किसी को भी जूते उतारे बिना घर में घुसने की इजाज़त नहीं है, फत्ते को भी नहीं जोकि दरअसल इस घर का मालिक है। ईर वैसे दिल का बहुत साफ है। सहायक स्तर की परीक्षा पास करके केन्द्रीय सचिवालय में नौकरी करने पहली बार उत्तर भारत के दर्शन करने अकेला आया है। इससे पहले उत्तर के नाम पर बचपन में अपने दादा-दादी के साथ तीर्थ यात्रा पर ही आया था। दिल्ली-नोएडा के बारे में सामान्य ज्ञान इतना विस्तृत है कि जंतर मंतर को अघोरपंथ का केन्द्र समझता था।

तीसरे बचे बीर यानी वीर सिंह! इतनी जल्दी भूल गये। वही जो इस कथा के आरम्भ में आपको नई सराय के विरामपुरे के अपने पैतृक निवास का वृत्तांत सुना रहे थे। उम्र में इन तीनों में सबसे छोटे, बाकी दोनों के स्नेह से लबालब भरे हुए। उस स्नेह का पूरा लाभ भी उठाते हैं। सबकी सुनते हैं मगर अपने दिल की कम ही बताते हैं। एक सरकारी बैंक में अधिकारी बनकर आये हैं। अब तीन अलग अलग ग्रहों के यह प्राणी एक साथ रहने कैसे आ गये इसकी भी एक लम्बी कहानी है मगर अभी मैं आपको उसमें नहीं उलझाऊँगा। फिलहाल खाना खाकर बड़े वाले दोनों वीरसिंह को कुछ सामाजिक होने का पाठ पढा रहे हैं और पृष्ठभूमि में पीनाज़ मसानी की आवाज़ में वीरसिंह का प्रिय गीत चल रहा है:

नहीं जाना कुँवर जी बजरिया में
कोई भर ले न तोहे नजरिया में

वैसे तो वीरसिंह केवल मुकेश के रोने धोने वाले गीत ही सुनते हैं मगर इस एक गीत से उन्हें विशेष लगाव है। बाकी दोनों मित्र उत्सुकता से इस का कारण जानना चाहते हैं। आज वीरसिंह ने उनके अनुरोध को मानकर वह कहानी सुनाना शुरू किया है और इस बहाने हमें भी विरामपुरा यात्रा पर लिये जा रहे हैं।
[क्रमशः]


आवाज़ पर "सुनो कहानी" का सौवाँ अंक: सुधा अरोड़ा की "रहोगी तुम वही", रंगमंच, दूरदर्शन और सार्थक सिनेमा के प्रसिद्ध कलाकार राजेन्द्र गुप्ता की ज़ुबानी

अनुरागी मन - कहानी भाग 1

चित्र: अनुराग शर्मा
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सडक के बीच जहाँ तहाँ पड़े कचरे और सड़क के किनारे लगे क़ूड़े के ढेरों की महक के बीच भिनभिनाती बड़ी-बड़ी मक्खियाँ। आवारा कुत्तों की चहलकदमी के बीच किसी अलौकिक शांति के धारक, घंटों तक एक ही जगह पर गर्दभासन में चुपचाप खडे गदहे। कच्चे खरंजे के मार्ग के दोनों ओर दोयम दर्ज़े की लाल-भूरी ईंटों से बनी टेढ़ी-मेढ़ी अनगढ दीवारें, बेतरतीब मकान और उनमें ज़बर्दस्ती बनाई हुई टेढ़ी-बुकची दुकानें। दरवाज़े पर बंधी बकरियाँ और राह में गोबर करती भैंसें। बेवजह माँ और बहन की गालियाँ बकते संस्कारहीन लोग। गन्दला पसीना टपकाते, बिना नहाये आदमी-औरतों के बीच आवाज़ लगाकर सामान बेचते इक्का दुक्का रेहड़ी वाले।

लेकिन नई सराय की पहचान इन बातों से नहीं थी। उसकी विशेषता थे विभिन्न प्रकार के नामपट्ट। वास्तविकता से दूर किसी कल्पनालोक में विचरती तख्तियाँ। उदाहरण के लिये भुल्ले की आटे की चक्की पर अग्रवाल फ्लोर मिल की तख्ती, धोबी के ठेले पर “दुनिया गोल ड्राई क्लीनर्स” का बोर्ड, भूरे कम्पाउंडर की दुकान पर डॉ. विष-वास एफ.आर.ऐस.ऐच. की पट्टी और इस्त्री वाले कल्याण के खोखे पर पुता हुआ दिल्ली प्रैस का नाम। गिल्लो मौसी कहती हैं कि पच्चीस साल पहले भी नई सराय इतनी ही पुरानी लगती थी। उनके शब्दों में ऐसी पुरानी-धुरानी और टूटी-फूटी बस्ती का नाम “नई” सराय तो किसी बौराये मतकटे ने ही रखा होगा।

ऐसी प्राचीन नई सराय के विरामपुरे में मेरा पैतृक घर था। गर्मियों की छुट्टियों में अक्सर वहाँ जाना होता था बाबा-दादी से मिलने के बहाने। पुरानी “नई सराय” का नाम भले ही विरोधाभासी हो, विरामपुरा मुहल्ला अपने नाम को पूरी तरह सार्थक करता था। यहाँ पर ज़िन्दगी मानो ज़िन्दगी से थककर विश्राम करने आती थी। अधिकांश घरों के युवा बेटे-बेटी पढ़ने-लिखने या दो जून की रोटियाँ कमाने के उद्देश्य से देश भर के बड़े नगरों की ओर निकले हुए थे। कुछेक नौजवान देशरक्षा का प्रण लेकर दुर्गम वनों और अजेय पर्वतों में डटे हुए थे। अपने व्यक्तिगत जीवन से निर्लिप्त उन गौरवान्वित सैनिकों के बच्चे अपनी गृहकार्य में कुशल, पर बच्चों के पालन पोषण में अल्पशिक्षित माताओं के भरोसे ऐंचकताने कपड़े पहने विरामपुरे की धूल भरी गलियों के झुरमुट में कन्चे खेलते और घरेलू गालियाँ सीखते या उनका अभ्यास करते हुए मिल जाते थे।कुछ घरों में इंजीनियरिंग या मेडिकल की तैयारी करते बच्चे भी थे। और कुछ घरों में इनसे कुछ बड़े बच्चे रोज़गार समाचार और नागरिक सेवा परीक्षा के गैस पेपर्स में अपना भविष्य ढूँढते थे। गर्मियों की छुट्टियों में हम जैसे प्रवासी पक्षी भी लगभग हर घर में दिख जाते थे। तो भी यदि मैं कहूँ कि कुल मिलाकर विरामपुरे में केवल रजतकेशी सेवानिवृत्त ही नियमित दिखते थे तो शायद गलत न होगा।

[क्रमशः]

Friday, August 27, 2010

सुनो कहानी के सौ सप्ताह

मित्रों,

लगभग दो वर्ष पहले मैंने "आवाज़" पर "सुनो कहानी" कार्यक्रम के अंतर्गत कहानी पढने का सिलसिला आरम्भ किया था। उसके बाद बहुत से साथी जुडे। अभी भी नये लोग जुड रहे हैं। पुराने तो हैं ही। पिछ्ले पुस्तक मेले में सुनो कहानी कार्यक्रम में से प्रेमचन्द की चुनिन्दा कहानियों का ऑडिओ ऐलबम भी रिलीज़ हुआ था। श्रोताओंके प्रेम के चलते समय का पता ही नहीं चला। आज "सुनो कहानी" कार्यक्रम ने अपना पहला शतक लगाया है। इस शुभ अवसर पर सभी श्रोताओं को "आवाज़" की टीम की ओर से "सुधा अरोडा जी की कहानी "रहोगी तुम वही" प्रस्तुत की जा रही है दूरदर्शन, रंगमंच और सिनेमा के कुशल अभिनेता "राजेन्द्र गुप्ता" के स्वर में।

आप सब का हार्दिक आभार!
~अनुराग शर्मा

Wednesday, August 18, 2010

चोर - कहानी [भाग 4]

पिछले अंकों में आपने पढा कि प्याज़ खाना मेरे लिये ठीक नहीं है। डरावने सपने आते हैं। ऐसे ही एक सपने के बीच जब पत्नी ने मुझे जगाकर बताया कि किसी घुसपैठिये ने हमारे घर का दरवाज़ा खोला है।
...
मैंने कड़क कर चोर से कहा, “मुँह बन्द और दांत अन्दर। अभी! दरवाज़ा तुमने खोला था?”
...
“फिकर नास्ति। शरणागत रक्षा हमारा राष्ट्रीय धर्म और कर्तव्य है” श्रीमती जी ने राष्ट्रीय रक्षा पुराण उद्धृत करते हुए कहा।
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[भाग 1] [भाग 2] [भाग 3] अब आगे की कहानी:
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“कल रात एक सफेद कमीज़ यहाँ टांगी थी, तुमने देखी क्या?” सुबह दफ्तर जाते समय जब कमीज़ नहीं दिखी तो मैंने श्रीमती जी से पूछा।

“वह तो भैया ले गये।“

“भैया? भैया कब आये?”

“केके कस्साब भैया! कल रात ही तो आये थे। जिन्होंने मुझे राखी बांधी थी।“

“मेरी कमीज़ उस राक्षस को कहाँ फिट आयेगी?” पत्नी को शायद मेरी बड़बड़ाहट सुनाई नहीं दी। जल्दी से एक और कमीज़ पर इस्त्री की। तैयार होकर बाहर आया तो देखा कि ट्रिपल के भैया मेरी कमीज़ से रगड़-रगड़कर अपने जूते चमका रहे थे। मैं निकट से गुज़रा तो वह बेशर्मी से मुस्कराया, “ओ हीरो, तमंचा देता है क्या?”

मेरा सामान गायब होने की शुरूआत भले ही कमीज़ से हुई हो, वह घड़ी और ब्रेसलैट तक पहुँची और उसके बाद भी रुकी नहीं। अब तो गले की चेन भी लापता है। मैंने सोचा था कि तमंचे की गुमशुदगी के बाद तो यह केके कस्साब हमें बख्श देगा मगर वह तो पूरी शिद्दत से राखी के पवित्र धागे की पूरी कीमत वसूलने पर आमादा था।

शाम को जब दफ्तर से थका हारा घर पहुँचा तो चाय की तेज़ तलब लगी। रास्ते भर दार्जीलिंग की चाय की खुश्बू की कल्पना करता रहा था। अन्दर घुसते ही ब्रीफकेस दरवाज़े पर पटककर जूते उतारता हुआ सीधा डाइनिंग टेबल पर जा बैठा। रेडियो पर “हार की जीत” वाले पंडित सुदर्शन के गीत “तेरी गठरी में लागा चोर...” का रीमिक्स बज रहा था। देखा तो वह पहले से सामने की कुर्सी पर मौजूद था। सभ्यता के नाते मैंने कहा, “जय राम जी की!”

”सारी खुदाई एक तरफ, केके कसाई एक तरफ” केके कसाई कहते हुए उसने अपने सिर पर हाथ फेरा। उसके हाथ में चमकती हुई चीज़ और कुछ नहीं मेरा तमंचा ही थी।

“खायेगा हीरो?” उसने अपने सामने रखी तश्तरी दिखाते हुए मुझसे पूछा।

“राम राम! मेरे घर में ऑमलेट लाने की हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी?” तश्तरी पर नज़र पड़ते ही मेरा खून खौल उठा।

“दीदीऽऽऽ” वह मेरी बात को अनसुनी करके ज़ोर से चिल्लाया।

जब तक उसकी दीदी वहाँ पहुँचतीं, मैंने तश्तरी छीनकर कूड़ेदान में फेंक दी।

“मेरे घर में यह सब नहीं चलेगा” मैंने गुस्से में कहा।

“मैने तो आपके खाने को कभी बुरा भला नहीं कहा, आप मेरा निवाला कैसे छीन सकते हैं?”

“भैया, मैं आपके लिये खाना बनाती हूँ अभी ...” बहन ने भाई को प्यार से समझाया।

“मगर दीदी, किसी ग्रंथ में ऑमलेट को मना नहीं किया गया है” वह रिरिआया, “बल्कि खड़ी खाट वाले पीर ने तो यहाँ तक कहा है कि आम लेट कर खाने में कोई बुराई नहीं है”।

“ऑमलेट का तो पता नहीं, मगर अतिथि सत्कार और शरणागत-वात्सल्य का आग्रह हमारे ग्रंथों में अवश्य है” कहते हुए श्रीमती जी ने मेरी ओर इतने गुस्से से देखा मानो मुझे अभी पकाकर केकेके को खिला देंगी।

चाय की तो बात ही छोड़िये उस दिन श्रीमान-श्रीमती दोनों का ही उपवास हुआ।

और मैं अपने ही घर से “बड़े बेआबरू होकर...” गुनगुनाता हुआ जब दरी और चादर लेकर बाहर चबूतरे पर सोने जा रहा था तब चांदनी रात में मेरे घर पर सुनहरी अक्षरों से लिखे हुए नाम “श्रीनगर” की चमक श्रीहीन लग रही थी।

[समाप्त]

यूँ ही याद आ गये, अली सिकन्दर "जिगर" मुरादाबादी साहब के अल्फाज़:
ये इश्क़ नहीं आसाँ, इतना तो समझ लीजे
इक आग का दरिया है, और डूब के जाना है

Monday, August 16, 2010

चोर - कहानी [भाग 3]

पिछले अंकों में आपने पढा कि प्याज़ खाना मेरे लिये ठीक नहीं है। डरावने सपने आते हैं। ऐसे ही एक सपने के बीच जब पत्नी ने मुझे जगाकर बताया कि किसी घुसपैठिये ने हमारे घर का दरवाज़ा खोला है।

मैंने कड़क कर चोर से कहा, “मुँह बन्द और दाँत अन्दर। अभी! दरवाज़ा तुमने खोला था?”

“जी जनाब! अब मेरे जैसा लहीम-शहीम आदमी खिड़की से तो अन्दर आ नहीं सकता है।”

“यह बात भी सही है।”

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[भाग 1] [भाग 2] अब आगे की कहानी:
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उस रात मुझे लग रहा था कि मेरे हाथ से हिंसा हो जायेगी। यह आशा बिल्कुल नहीं थी कि इतना भारी-भरकम आदमी कोई प्रतिरोध किये बिना इतने आराम से धराशायी हो जायेगा। जब पत्नी ने विजयी मुद्रा में हमारे कंधे पर हाथ रखा तो समझ में आया कि बन्दा धराशायी नहीं हुआ था बल्कि उन्हें देखकर दण्डवत प्रणाम कर रहा था।

“ममाSSS, ... नहीं नहीं दीदी!” ज़मीन पर पड़े उस पहलवान ने बनावटी रुदन के साथ जब श्रीमती जी को चरण स्पर्श किया तो मुझे उसकी धूर्तता स्पष्ट दिखी।

“मैं आपकी शरण में हूँ ममा, ... नहीं, नहीं... मैं आपकी शरण में हूँ दीदी!” मुझपर एक उड़ती हुई विजयी दृष्टि डालते हुए वह शातिर चिल्लाया, “कई दिन का भूखा हूँ दीदी, थाने भेजने से पहले कुछ खाने को मिल जाता तो अच्छा होता... पुलिस वाले भूखे पेट पिटाई करेंगे तो दर्द ज़्यादा होगा।”

मैं जब तक कुछ कहता, श्रीमती जी रसोई में बर्तन खड़खड़ कर रही थीं। उनकी पीठ फिरते ही वह दानव उठ बैठा और तमंचे पर ललचाई दृष्टि डालते हुए बोला, “ये पिस्तॉल मुझे दे दे ठाकुर तो अभी चला जाउंगा। वरना अगर यहीं जम गया तो...” जैसे ही उसने श्रीमतीजी को रसोई से बाहर आते देखा, बात अधूरी छोड़कर किसी कुशल अभिनेता की तरह दोनों हाथ जोड़कर मेरे सामने सर झुकाये घुटने के बल बैठकर रोने लगा।

“मुझे छोड़ दो! इतने ज़ालिम न बनो! मुझ ग़रीब पर रहम खाओ।” पत्नी के बैठक में आते ही रोन्दू पहलवान का नाटक फिर शुरू हो गया।

“इनसे घबराओ मत, यह तो चींटी भी नहीं मार सकते हैं। लो, पहले खाना खा लो” माँ अन्नपूर्णा ने छप्पन भोगों से सजी थाली मेज़ पर रखते हुए कहा, “मैं मिठाई और पानी लेकर अभी आयी।”

“दीदी मैं आपके पाँव पड़ता हूँ, मेरी कोई सगी बहन नहीं है...” कहते कहते उसने अपने घड़ियाली आँसू पोंछते हुए जेब से एक काला धागा निकाल लिया। जब तक मैं कुछ समझ पाता, उसने वह धागा अपनी नई दीदी की कलाई में बांधते हुए कहा, “जैसे कर्मावती ने हुमायूँ के बांधी थी, वैसी ही यह राखी आज हम दोनों के बीच कौमी एकता का प्रतीक बन गयी है।”

“आज से मेरी हिफाज़त का जिम्मा आपके ऊपर है” मुझे नहीं लगता कि श्रीमती जी उसकी शरारती मुस्कान पढ़ सकी थीं। मगर मेरी छाती पर साँप लोट रहे थे।

“फिकर नास्ति। शरणागत रक्षा हमारा राष्ट्रीय धर्म और कर्तव्य है” श्रीमती जी ने राष्ट्रीय रक्षा पुराण उद्धृत करते हुए कहा।

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यह कड़ी लिखते समय यूँ ही फिराक़ गोरखपुरी साहब के शब्द याद आ गये, बांटना चाहता हूँ:

मुझे कल मेरा एक साथी मिला
जिस ने यह राज़ खोला
के अब जज़्बा-ओ-शौक़ की
वहशतों के ज़माने गये
फिर वो आहिस्ता-आहिस्ता
चारों तरफ देखता
मुझ से कहने लगा
अब बिसात-ए-मुहब्बत लपेटो
जहाँ से भी मिल जाये,
दौलत समेटो
गर्ज़ कुछ तो तहज़ीब सीखो।
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विनम्र निवेदन: क्षमाप्रार्थी हूँ। छोटे-छोटे खंडों को पढने से होने वाली आपकी असुविधा मुझे दृष्टिगोचर हो रही है, परंतु अभी उतना समय नहीं निकाल पा रहा हूँ कि एक बड़ी कड़ी लिख सकूँ। समय मिलते ही पूरा करूंगा। भाई संजय, आपका अनुरोध भी व्यस्तता के कारण ही पूरा नहीं हो सका है।
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Sunday, August 15, 2010

चोर - कहानी [भाग 2]

चोर - कहानी [भाग 1] में आपने पढा कि प्याज़ खाना मेरे लिये ठीक नहीं है। डरावने सपने आते हैं। ऐसे ही एक सपने के बीच जब पत्नी ने मुझे जगाकर बताया कि किसी घुसपैठिये ने हमारे घर का दरवाज़ा खोला है।
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अब आगे की कहानी:
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मैंने तकिये के नीचे से तमंचा उठाया और अन्धेरे में ही बिस्तर से उठकर दबे पाँव अपना कमरा और बैठक पार करके द्वार तक आया। छिपकर अच्छी तरह इधर-उधर देखा। जब कोई नहीं दिखाई दिया तो दरवाज़ा बेआवाज़ बन्द करके वापस आने लगा। इतनी देर में आँखें अन्धेरे में देखने की अभ्यस्त हो चुकी थीं। देखा कि बैठक के एक कोने में कई सूटकेस, अटैचियाँ आदि खुली पड़ी थीं।

काला कुर्ता और काली पतलून पहने एक मोटे-ताज़े पहलवान टाइप महाशय तन्मयता के साथ एक काले थैले में बड़ी सफाई से कुछ स्वर्ण आभूषण, चान्दी के बर्तन और कलाकृति आदि सहेज रहे थे। या तो वे अपने काम में कुछ इस तरह व्यस्त थे कि उन्हें मेरे आने का पता ही न चला या फिर वे बहरे थे। अपने घर में एक अजनबी को इतने आराम से बैठे देखकर एक पल के लिये तो मैं आश्चर्यचकित रह गया। आज के ज़माने में ऐसी कर्मठता? आधी रात की तो बात ही क्या है मेरे ऑफिस के लोगों को पाँच बजे के बाद अगर पाँच मिनट भी रोकना चाहूँ तो असम्भव है। और यहाँ एक यह खुदा का बन्दा बैठा है जो किसी श्रेय की अपेक्षा किये बिना चुपचाप अपने काम में लगा है। लोग तो अपने घर में काम करने से जी चुराते हैं और एक यह समाजसेवी हैं जो शान्ति से हमारा सामान ठिकाने लगा रहे हैं।

अचानक ही मुझे याद आया कि मैं यहाँ उसकी कर्मठता और लगन का प्रमाणपत्र देने नहीं आया हूँ। जब मैंने तमंचा उसकी आँखों के आगे लहराया तो उसने एक क्षण सहमकर मेरी ओर देखा। और फिर अचानक ही खीसें निपोर दीं। सभ्यता का तकाज़ा मानते हुए मैं भी मुस्कराया। दूसरे ही क्षण मुझे अपना कर्तव्य याद आया और मैंने कड़क कर उससे कहा, “मुँह बन्द और दाँत अन्दर। अभी! दरवाज़ा तुमने खोला था?”

“जी जनाब! अब मेरे जैसा लहीम-शहीम आदमी खिड़की से तो अन्दर आ नहीं सकता है।”

“यह बात भी सही है।”

उसकी बात सुनकर मुझे लगा कि मेरा प्रश्न व्यर्थ था। उसके उत्तर से संतुष्ट होकर मैंने उसे इतना मेहनती होने की बधाई दी और वापस अपने कमरे में आ गया। पत्नी ने जब पूछा कि मैं क्या अपने आप से ही बातें कर रहा था तो मैंने सारी बात बताकर आराम से सोने को कहा।

“तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है। घर में चोर बैठा है और तुम आराम से सोने की बात कर रहे हो। भगवान जाने किस घड़ी में मैने तुमसे शादी को हाँ की थी।”

“अत्ता मी काय करा?” ये मेरी बचपन की काफी अजीब आदत है। जब मुझे कोई बात समझ नहीं आती है तो अनजाने ही मैं मराठी बोलने लगता हूँ।

“क्या करूँ? अरे उठो और अभी उस नामुराद को बांधकर थाने लेकर जाओ।”

“हाँ यही ठीक है” पत्नी की बात मेरी समझ में आ गयी। एक हाथ में तमंचा लिये दूसरे हाथ में अपने से दुगुने भारी उस चोर का पट्ठा पकड़कर उसे ज़मीन पर गिरा दिया।”

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Saturday, August 14, 2010

स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएँ! [इस्पात नगरी से- 28]

हमारा गणतंत्र फले फूले और हम सब भारत माता की सच्ची सेवा में अपना तन मन धन लगा सकें और मन, वचन, कर्म से सत्य के मार्ग पर चलें। सैनिकों की तरह आतंकवादियों का सामना करते हुए जीवनदान न भी कर सकें तो ब्लड बैंक जाकर रक्तदान तो कर ही सकें। सीमा पर लड़ न सकें किंतु इतना ध्यान तो रख ही सकते हैं कि ब्लॉग पर लगाये हुए मानचित्र में देश की सीमायें प्रामाणिक और आधिकारिक हों। अमानवीयता के विभिन्न रूपों से दो-दो हाथ करने का अवसर न भी मिले मगर उनका महिमामंडन तो रोक ही सकें। अपने को कभी भी क्षुद्र न समझें, कवि ने ठीक ही कहा है, "जहाँ काम आवै सुई, कहा करै तरवार..."

तो उठिये, देश के नवनिर्माण का व्रत लीजिये और जुट जाइये काम में!

एक बार फिर हार्दिक शुभकामनायें!
वन्दे मातरम! जय भारत!

संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी भारत मेडल  

पिट्सबर्ग में भारत का राष्ट्रीय ध्वज

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सम्बन्धित कड़ियाँ
झंडा ऊँचा रहे हमारा (ऑडिओ)
यह सूरज अस्त नहीं होगा!
श्रद्धांजलि - १०१ साल पहले
चंद्रशेखर आज़ाद का जन्म दिन
सेनानी कवयित्री की पुण्यतिथि
माओवादी इंसान नहीं, जानवर से भी बदतर!
बॉस्टन में भारत
स्वतंत्रता दिवस (2009) की शुभकामनाएं!
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इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
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[चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photos by Anurag Sharma]

Tuesday, August 10, 2010

चोर - कहानी

प्याज़ खाना मेरे लिये ठीक नहीं है। पहले तो इतनी तेज़ महक, ऊपर से आँख में आँसू भी लाता है। जैसे तैसे खा भी लूँ तो मुझे पचता नहीं है। अन्य कई दुष्प्रभाव भी है। गला सूख जाता है और रात में बुरे-बुरे सपने आते हैं। एक बार प्याज़ खाकर सोया तो देखा कि दस सिर वाली एक विशालकाय मकड़ी मुझे अपने जाल में लपेट रही है।

एक अन्य बार जब प्याज़ खाया तो सपना देखा कि सड़क पर हर तरफ अफ़रातफ़री मची हुई है. ठेले वाले, दुकानदार आदि जान बचाकर भाग रहे हैं। सुना है कि माओवादियों की सरकार बन गयी है और सभी दुकानदारों और ठेला मालिकों को पूंजीवादी अनुसूची में डाल दिया गया है। सरकारी घोषणा में उन्हें अपनी सब चल-अचल सम्पत्ति छोड़कर देश से भागने के लिये 24 घंटे की मोहलत दी गयी है। दो कमरे से अधिक बड़े मकानों को उसमें रहने वाले शोषकों समेत जलाया जा रहा है। सरकारी कब्रिस्तान की लम्बी कतारों में अपनी बारी की प्रतीक्षा करते शांतचित्त मुर्दों के बीच की ऊँच-नीच मिटाने के उद्देश्य से उनके कफन एक से लाल रंग में रंगे जा रहे हैं। रेल की पटरियाँ, मन्दिर-मस्जिद, गिरजे, गुरुद्वारे तोड़े जा रहे हैं। सिगार, हँसिये और हथौड़े मुफ्त बंट रहे हैं और अफ़ीम के खेत काटकर पार्टी मुख्यालय में जमा किये जा रहे हैं। सभी किसान मज़दूरों को अपना नाम पता और चश्मे के नम्बर सहित पूरी व्यक्तिगत जानकारी दो दिन के भीतर पोलित ब्यूरो के गोदाम में जमा करवानी है। कितने ही बूढ़े किसानों ने घबराकर अपने चश्मे तोड़कर नहर में बहा दिये हैं कि कहीं उन्हें पढ़ा-लिखा और खतरनाक समझकर गोली न मार दी जाये। आंख खुलने पर भी मन में अजीब सी दहशत बनी रही। कई बार सोचा कि सुरक्षा की दृष्टि से अपना नाम भगवानदास से बदलकर लेनिन पोलपोट ज़ेडॉङ्ग जैसा कुछ रख लूँ।

पिछ्ली बार का प्याज़ी सपना और भी डरावना था। मैंने देखा कि हॉलीवुड की हीरोइन दूरी शिक्षित वृन्दावन गार्डन में “धक धक करने लगा” गा रही है। अब आप कहेंगे कि दूरी शिक्षित वाला सपना डरावना कैसे हुआ, तो मित्र सपने में वह अकेली नहीं थी। उसके हाथ में हाथ डाले अरबी चोगे में कैनवस का घोडा लिये हुए नंगे पैरों वाला एक बूढ़ा भी था। ध्यान से देखने पर पता लगा कि वह टोफू सैन था। जब तक मैं पास पहुँचा, टोफू ने अपने साँप जैसे अस्थिविहीन हाथ से दूरी की कमर को लपेट लिया था। दूरी की तेज़ नज़रों ने दूर से ही मुझे आते हुए देख लिया था। किसी अल्हड़ की तरह शरमाते हुए उसने उंगलियों से अपना दुपट्टा उमेठना शुरू कर दिया। वह कुछ कहने लगी मगर पता नहीं शर्म के कारण या अचानक रेतीले हो गये उस बाग में फैलती मुर्दार ऊँट की गन्ध की वजह से वह ऐसे हकलाने लगी कि मैं उसकी बात ज़रा भी समझ न सका।

जब मैंने अपना सुपर साइज़ हीयरिंग एड लगाया तो समझ में आया कि वह अपने पति फाइटर फ़ेणे को तलाक देने की बात कर रही थी। मुझे गहरा धक्का लगा मगर वह कहने लगी कि वह भारत की हरियाली और खुलेपन से तंग आकर टोफू के साथ किसी सूखे रेगिस्तान में भागकर ताउम्र उसके पांव की जूती बनकर सम्मानजनक जीवन बिताना चाहती है।

“लेकिन फाइटर फेणे तो इतना भला है” मैं अभी भी झटका खाये हुए था।

“टोफू जैसा हैंडसम तो नहीं है न!” वह इठलाकर बोली।

“टोफू और सुन्दर? यह कब से हो गया?” मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं थी, “उसके मुँह में तो दांत भी नहीं हैं।”

“यह तो सोने में सुहागा है” वह कुटिलता से मुस्कुराई।

मैं कुछ कहता कि श्रीमती जी बिना कोई अग्रिम सूचना दिये अचानक ही प्रकट हो गयीं। मुझे तनिक भी अचरज नहीं हुआ। मुल्ला दो प्याज़ी सपनों में ऐसी डरावनी बातें तो होती ही रहती हैं।

“घर का दरवाज़ा बन्द नहीं किया था क्या?” श्रीमती जी बहुत धीरे से बोलीं।

“फुसफुसा क्यों रही हो सिंहनी जी? तुम्हारी दहाड़ को क्या हुआ? गले में खिचखिच?”

वे फिर से फुसफुसाईं, “श्शशशश! आधी रात है और घर के दरवाज़े भट्टे से खुले हैं, इसका मतलब है कि कोई घर में घुसा है।”

अब मैं पूर्णतया जागृत था।

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Monday, August 9, 2010

बुरुंश के फूल

जब घुघूतीबासूती की कविता "बुरुंश के फूल" पढी तभी द्वार पर लगे इस पौधे के चित्र को साझा करने का विचार मन में आया।

बुज़ुर्गों ने हिमालय कब छोडा, पता नहीं। मगर मैं जब से बरेली छोड्कर पिट्सबर्ग बसा हूँ, अपने को पूरा पहाडी ही समझता हूँ। घर के बाहर सफेद और गुलाबी रोडोडेंड्रॉन लगे हैं। सफेद वाले को बुरुंश कहा जा सकता है या नहीं, मालूम नहीं। शब्द से परिचय शिवानी की कहानियों के द्वारा हुआ था, झाडी से परिचय बोनसाई के शौक के दौरान हुआ और जब यहाँ अपना घर लिया तो यह पौधे पहले से लगे हुए थे।

ऐज़लीया के गुलाबी और सफेद फूल


बडी पत्ती वाले रोडोडेंड्रॉन के गुलाबी फूल





क्वंज़न चेरी ब्लॉसम बहार में


वही क्वंज़न चेरी ब्लॉसम सर्दी में


चेरी ब्लॉसम बर्फ में


चेरी ब्लॉसम पतझड में
[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा - All photographs by Anurag Sharma]

Wednesday, August 4, 2010

सम्बन्ध - लघुकथा

कल शनिवार की छुट्टी थी लेकिन वे तरणताल में नहीं थे। पूरा दिन कम्प्यूटर पर बैठकर अपने बचपन के चित्र लेकर उनके सम्पादन और छपाई पर हाथ साफ करते रहे। आज भी कल का बचा काम पूरा किया है। घर होता तो माँ अब तक कई बार कमरे से बाहर न निकलने का उलाहना दे चुकी होती। शायद चाय भी बनाकर रख गयी होती। अब यहाँ परदेस में है ही कौन उनका हाल पूछने वाला। कितनी बार तो कहा है माँ-बाबूजी को कि बस एक बार आकर देख तो लीजिये कैसा लगता है। किस तरह वसंत में पेड़ों से इतने फूल झड़ते हैं जैसे कि आकाश से देव पुष्प वर्षा कर रहे हों। और सड़क के दोनों ओर के हरे-भरे जंगलों से अचानक बीच में आ गये हरिणों के झुंड देखकर बचपन में पढे तपोवनों के वर्णन साक्षात हो जाते हैं। गर्मियों की दोपहरी में लकडी की डैक पर बैठ जाओ तो कृष्णहंस से लेकर गरुड तक हर प्रकार का पक्षी दिखाई दे जाता है। ऐसा मनोरम स्थल है। लेकिन कोई फायदा नहीं। बाबूजी हंसकर कहते हैं, "जंगल में मोर नाचा, किसने देखा?" माँ कहेंगी कि बाबूजी के बिना अकेले कैसे आयेंगी। और घूमफिर कर बात वहीं पर आ जाती है जहाँ वे इस समय अकेले बैठकर काम कर रहे हैं।

चालीस के होने को हैं लेकिन अभी तक अकेले। अमेरिका में कोई आश्चर्य की बात नहीं है। उनके जैसे कितने ही हैं यहाँ पर। किसी ने एक बार भी शादी नहीं की और किसी ने कुछ साल शादीशुदा रहकर आपसी सहमति से अलग होने का निर्णय ले लिया बिना किसी चिकचिक के। वे कभी-कभी सोचते हैं तो आश्चर्य होता है कि भारतीय समाज में विवाह कितना ज़रूरी है। रिश्वती, चोर-डाकू, हत्यारे, बलात्कारी, जीवन भर चाहे कितने भी कुकर्म करते रहें कोई बात नहीं मगर जहाँ किसी को अविवाहित देखा तो सारे मुहल्ले में अफवाहों का बाज़ार गर्म हो जाता है। यहाँ भी उनके भारतीय परिचित जब भी मिलते हैं, एक ही सवाल करते हैं, "शादी कब कर रहे हो? कब का मुहूर्त निकला है? किसी गोरी को पकड़ लो। अबे इंडिया चला जा ..." आदि-आदि।

शुरू-शुरू में वे सफाई देते थे। वैसे सफाई की कोई आवश्यकता नहीं थी। उनके एक मामा और एक चाचा भी अविवाहित रहे थे। नानाजी के एक भाई तो गांव भर में ब्रह्मचारी के नाम से प्रसिद्ध थे। बुआ-दादी मरने तक अविवाहित रहीं। जिस लड़के को दिल दिया था वह भारी दहेज़ के लोभ में तोताचश्म हो गया। किसी दूसरे के साथ रहने को मन नहीं माना। "मिले न फूल तो कांटों से दोस्ती कर ली" गाते-गाते ही जीवन बिता दिया।

प्रारम्भ में सोचा था कि कुछ पैसा इकट्ठा करके वापस चले जायेंगे। लेकिन दूसरे बहुत से सपनों की तरह यह सपना भी जल्दी ही टूट गया। एक साल भी वहाँ रह नहीं सके। दिन रात सरकारी-अर्धसरकारी विभागों और अखबारों के चक्कर काटने के बावजूद घर के दरवाज़े पर यमलोक के द्वार की तरह खुले पड़े मैनहोल भी बन्द नहीं करवा सके। मकान मालिक के घर में चोरी हुई तो इलाके के थानेदार ने उन्हें सिर्फ इस बात पर चोरों की तरह जलील किया कि उन्होने कोई आहट क्यों नहीं सुनी। और फिर जब स्कूल जाती बच्चियों से छेड़छाड़ करने से रोकने पर कुछ गुंडों ने बीच बाज़ार में ब्लेड से उनकी कमर पर चीरा लगा दिया और रोज़ दुआ सलाम करने वाले दुकानदारों और राहगीरों ने उस समय बीच में पड़ने के बजाय बाद में बाबूजी को समझाना शुरू किया कि इसे वापस भेज दो, विदेश में रहकर सनक गया है, हमारी दुकानदारी चौपट कराएगा तो भयाक्रांत माता-पिता ने भी यही उचित समझा। अब तक उनका मन भी काफी खट्टा हो चुका था सो बिना स्यापा किये वापस आ गये।

खुश ही है यहाँ। अपना घर है, नौकरी भी ठीक-ठाक सी ही है। हाँ, माँ-बाबूजी साथ होते तो उल्लास ही उल्लास होता। छोटी सी कम्पनी है। कुल जमा पांच लोग। पूरे दफ्तर में वह अकेले मर्द हैं। एक बार भारत में चार लड़कियों के बीच काम करना पडा था तो हमेशा सचेत रहना पड़ता था। कभी अंजाने में मुँह से कुछ गलत न निकल जाये। यहाँ ऐसा कुछ चक्कर नहीं है। सच कहूँ तो पांचों के बीच उन्हीं की भाषा सबसे संयत है। यहाँ की संस्कृति भारत-पाक से एकदम अलग है। न ऑनर किलिंग है, न खाप अदालतें। लड़कोंकी तरह लड़कियाँ भी कभी भी अकेले घर से बाहर निकलने में सुरक्षित महसूस करतई हैं। अपना जीवन साथी भी स्वयम ही ढूँढना पड़ता है। स्वयँवर – वैदिक स्टाइल? कई बार लड़कियों ने उनसे भी इस बाबत बात की है परंतु जब उन्होने अरुचि दिखाई तो अपना रास्ता ले लिया।

दिन यूं ही गुज़र रहे थे मगर अब कुछ तो बदलाव आया है। पिछली नौकरी में पाकिस्तानी सहकर्मी करीना के साथ अच्छा अनुभव नहीं रहा था सो वहाँ से त्यागपत्र देकर यहाँ आ गये। यहाँ किसी को भी उनकी वैवाहिक स्थिति के बारे में पता नहीं है। फिर भी पिछ्ले कुछ दिनों से सोन्या उनके साथ बैठने का कोई न कोई बहाना ढूंढती रहती है, वह भी अकेले में। जब कोई साथ न हो तो उनके पास आकर अपने पति की शिकायत सी करती रहती है। शुरू में तो उन्होने अपने से आधी आयु की लड़की की बात को सामान्य बातचीत समझा। वैसे भी बचपने की दोस्ती में प्यार कम शिकायतें ज़्यादा होती हैं। बाबूजी हमेशा कहते हैं, "नादान की दोस्ती, जी का जंजाल"। जब उन्होने भारतीय अन्दाज़ में सोन्या को समझाया कि बच्चा होने पर घर गुलज़ार हो जायेगा तो सोन्या भड़क गयी, "मुझे उसका बच्चा नहीं पैदा करना है, उसके जैसा ही होगा।"

एक दिन सुबह जब कोई नहीं था तो उनके पास आकर कहने लगी, "आप तो इतने सुन्दर और बुद्धिमान हैं, आपके बच्चे भी बहुत होशियार होंगे।" वह तो अच्छा हुआ कि तभी उनको छींक आ गयी और वे बहाने से गुसलखाने की ओर दौड़ लिये। बात आयी गयी हो गयी। परसों कहने लगी, "आपमें कितना सब्र है, आप बहुत अच्छे पिता सिद्ध होंगे।" तब से उनका दिल धक-धक कर रहा है। दो दिन लगाकर तीन चार चित्र छापे हैं। सुन्दर चौखटों में जड़कर लैप्टॉप के थैले में रख लिये हैं। सोमवार को सोन्या कोई प्रश्न करे इससे पहले ही मेज़ पर धरे यह चित्र स्वयम ही उनका पितृत्व स्थापित कर देंगे और साथ ही एक नये रिश्ते में अनास्था भी। उन्होने मुस्कराकर शाबाशी की एक चपत खुद ही अपनी गंजी होती चान्द पर लगा ली और सोने चल दिये।

Friday, July 30, 2010

बॉस्टन में भारत [इस्पात नगरी से - 27]

पिछ्ली कड़ी [इस्पात नगरी से - 26] में आपने बॉस्टन के रिवियर समुद्र तट पर वालुक कलाकृतियों के साथ-साथ बॉस्टन ब्राह्मण, ब्राह्मण गौवंश और "बॉस्टन से बरेली" पुस्तक के बारे में जाना। आज की कड़ी में भारत के कुछ चिह्न जो मुझे बॉस्टन प्रवास में दिखे।

Indian flag on Boston port
बॉस्टन पत्तन पर भारतीय झंडा

Made in India
पाइप पर भारतीय ढक्कन

Kashmir store
कश्मीर

Taj Boston
ताज बॉस्टन

pedicab rickshaw
बॉस्टन में एक रिक्शा

India Street in Boston
भारत के नाम पर बॉस्टन की एक सड़क

India Street in Boston
इंडिया स्ट्रीट का नाम पटल निकट से

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इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
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[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा Photos by Anurag Sharma]

Tuesday, July 27, 2010

बॉस्टन के पण्डे, गौवंश और सामुद्रिक कला [इस्पात नगरी से - 26]

अगर गोत्र की सूची पूछने पर एक ब्राह्मण गिनाना शुरू कर दे... फ़ोर्ब्स, फिलिप्स, होम्स, इमर्सन, इलियट, ओटिस, .... तो शायद आप आश्चर्यचकित रह जायेंगे। अचरज क्योंकर न हो, इस ब्राह्मण को कोई भारतीय भाषा नहीं आती है और इसके अंगरेज़ी के विशिष्ट उच्चारण को "बॉस्टन ब्राह्मण उच्चारण" कहा जाता है। आपने सही पहचाना, मैं बात कर रहा हूँ अमेरिका के प्रतिष्ठित बॉस्टन ब्राह्मण (Boston Brahmin) समुदाय की। बॉस्टन के अति-विशिष्ट वर्ग को पहली बार यह सम्बोधन जनवरी 1860 में ऐट्लांटिक मंथली पत्रिका में छपे एक आलेख में दिया गया था और तबसे यह रूढ हो गया है। अमेरिका के दूसरे राष्ट्रपति जॉन ऐडम्स, टी एस इलियट और राल्फ वाल्डो एमर्सन जैसे साहित्यकार, फोर्ब्स जैसे व्यवसायी और हाल ही में गान्धी जी के सामान की नीलामी से चर्चित होने वाला ओटिस परिवार, जिनके नाम ने कभी न कभी आपको "लिफ्ट" कराया होगा, सब बॉस्टन ब्राह्मण हैं। ब्रैह्मिन डॉट कॉम जाने पर अगर आपको चमडे के पर्स बिकते देखकर झटका लगा हो तो आशा है कि अब उसका कारण समझ आ गया होगा।

वैसे अमेरिका में गाय की एक जाति को भी ब्राह्मण गाय/गोवंश (Brahman cow / Zebu cattle) कहा जाता है। अपने चौडे कन्धे और विकट जिजीविशा के लिये प्रसिद्ध यह गोवंश पहली बार 1849 में भारत से यहाँ लाया गया था और तबसे अब तक इसमें बहुत वृद्धि हो चुकी है। और आप सोचते थे कि जर्सी और फ्रीज़ियन गायें बेहतर होती हैं। यह तो वैसी ही बात हुई जैसे उल्टे बाँस बरेली को। अब जब बॉस्टन और बरेली दोनों का ज़िक्र एक साथ ही आ गया है तो 1857 में लिखी, पाँच वर्ष पहले हमारे हत्थे चढी, और हाल में पूरी पढी गयी पुस्तक "फ्रॉम बॉस्टन टु बरेली ऐण्ड बैक" का ज़िक्र भी करे देते हैं जिसमें 1857 के स्वाधीनता संग्राम की कथा उस गोरे पादरी के मुख से कही गयी है जिसने बरेली में एशिया का पहला जच्चा-बच्चा अस्पताल बनाया था। क्लारा स्वेन अस्पताल आज भी बरेली में मिशन हस्पताल के नाम से मशहूर है। बरेली में स्टेशन मार्ग पर बटलर प्लाज़ा नामक एक बाज़ार इसी पुस्तक के लेखक विलियम बटलर के नाम पर है। उनके अच्छे काम की बधाई। किताब की विषयवस्तु के बारे में फिर कभी। पुस्तक न्यूयॉर्क के प्रकाशक फिलिप्स एण्ड हंट द्वारा प्रकाशित है और गूगल बुक्स पर मुफ्त डाउनलोड के लिये उपलब्ध है।

आप कहेंगे कि मैं बॉस्टन कैसे पहुँच गया। जनाब आजकल वहीं की खाक (बालू) छान रहा था, सोचा कुछ वालुका-कलाकृतियाँ आपसे बांट लूँ। चित्र सेलफ़ोन से लिये गये हैं - बडा करने के लिये कृपया चित्र पर क्लिक करें - मुलाहिज़ा फरमाइये:
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इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
AMERICAN BRAHMAN BREEDERS ASSOCIATION
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[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा Photos by Anurag Sharma]

Sunday, July 25, 2010

सच मेरे यार हैं - 5 (अंतिम कड़ी)

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* पहली कड़ी में -
मेरा खोया हुआ मित्र मुझे फेसबुक पर मिल गया था। सोचा कि उसके बहाने तुमसे भी मिल लूंगा।


* दूसरी कड़ी में -
जब मैं तुमसे मिलने और न मिलने की दुविधा के बीच झूल रहा था, तुमने मुझे देख लिया था।


* तीसरी कड़ी में -
"मेरे एजी, ओजी के बारे में तो कुछ पूछा नहीं तुमने?" तुमने इठलाकर झूठे गुस्से से कहा।


* पिछले अंश में -
तुम्हारी रामकहानी सुनने के बाद मैं संजय का जन्मदिन मनाने निकला।



अब आगे की कहानी ...
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घंटी बजाने से पहले दो कदम पीछे हटकर मैंने घर को अच्छी प्रकार देखा। घर बहुत सुन्दर था। दरवाज़ा संजय ने खोला। बिल्कुल पहले जैसा ही था। कनपटी पर एकाध बाल सफेद हो गये थे। चश्मा तो वह पहले भी लगाता था। चिर-परिचित निश्छल मुस्कान। देखते ही मन निर्मल और चित्त शीतल हो गया। लगा जैसे हम कभी अलग हुए ही नहीं थे। संजय फोन पर था। बात करते-करते ही उसने उत्साह से मुझे गले लगाया और फोन मुझे पकड़ा दिया।

“आशीष बेटा, कैसे हो?” आंटी की ममतामयी वाणी सुनकर तो मैं निहाल ही हो गया, “जन्मदिन की शुभकामनायें।”

“आपको याद है कि मेरा जन्मदिन भी आज ही होता है?” मैं भाव-विह्वल हो गया।

“तुम भी तो मेरे बेटे हो, ये भी आशीर्वाद दे रहे हैं।”

संजय के माता-पिता से बात पूरी होने पर मैंने फोन वापस किया और थैले में से मिठाई निकालकर उसे दी। हम दोनों ने एक दूसरे को शुभकामनायें दीं। संजय चाय नाश्ता लेकर आया और हम लोग बातें करने लगे। घर अन्दर से भी उतना ही सुन्दर था जैसे कि बाहर से था। हर ओर सम्पन्नता और सुरुचि झलक रही थी। बैठक में लगी कलाकृतियों को ध्यान से देखने के उपक्रम में जब मैं उठा तो देखा कि मेरे ठीक पीछे की दीवार पर एक तस्वीर में संजय एक नन्हे से बच्चे को गोद में लिये था। बिल्कुल वैसी ही सूरत, शहद सी आँखें और हल्के बाल। लगता था जैसे वर्तमान की गोद में भविष्य अठखेलियाँ कर रहा हो। चित्र देखने पर संजय के बच्चे और उसकी माँ को साक्षात देखने की इच्छा ने सिर उठाया।

“आज के दिन भी अकेला बैठा है? सब कहाँ हैं?”

संजय को शुरू से ही जन्मदिन मनाने से विरक्ति सी थी। हमेशा कहता था कि जन्म लेकर हमने कौन सा तीर मार लिया है जो उसका उत्सव मनाया जाये?

“तुझे तो पता है मेरे लिये हर दिन एक सा ही होता है। तेरी भाभी तो टुन्नू को साथ लेकर मायके गयी है। उनके पिताजी बीमार हैं।”

“आज के दिन तो बुला लेता, हम भी भाभी के पाँव छू लेते इसी बहाने।” मैंने शरारत से कहा तो वह भी मुस्कराया।

“अरे शाम को तो आ ही जायेगी, मगर तब तक तेरी ट्रेन छूट जायेगी।”

संजय ने स्वादिष्ट खिचड़ी बनाई, मानो हमारे पुराने दिन वापस आ गये हों। खाते-खाते हम दोनों ने अलग होने के बाद से अब तक की ज़िन्दगी के बारे में जाना। बचपन के बचपने की बातें याद कर-कर के खूब हँसे। संजय ने कुछ रसीले गीत भी सुनाये। उसे बचपन से ही गाने का शौक था। भगवान ने गला भी खूब सुरीला दिया है। "कांची" से लेकर "सपनों की रानी" तक सबसे मुलाकात हो गयी। मन प्रफुल्लित हुआ। कुल मिलाकर आना सफल हो गया।

पता ही न चला कब मेरे निकलने का समय हो गया। संजय के कहने पर मैं चलने से पहले एक कप चाय पीने को तैयार हो गया। उसे याद था कि चाय के लिये मैं कभी न नहीं कहता हूँ। चाय पीकर मैंने अपना थैला उठाकर चलने का उपक्रम किया कि दरवाज़े की घंटी बजी।

“लकी है, तेरी भाभी शायद जल्दी आ गयीं आज” संजय ने खुशी से उछलते हुए कहा। थैला कंधे पर डाले-डाले ही आगे बढ़कर मैंने दरवाज़ा खोल दिया।

“नमस्ते भाभी! अच्छा हुआ चलने से पहले आपके दर्शन हो गये। इजाज़त दीजिये।” कहकर मैंने हाथ जोड़े और निकल पड़ा। ऑटोरिक्शा में बैठते हुए मुड़कर देखा, मुझे विदा करने के लिये अभी भी संजय और तुम देहरी पर खड़े थे।

[समाप्त]

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मेरी कुछ और कहानियाँ
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Friday, July 23, 2010

सच मेरे यार हैं - कहानी भाग 4

पहली कड़ी में - मेरा खोया हुआ मित्र मुझे फेसबुक पर मिल गया था।
दूसरी कड़ी में - जब मैं तुमसे मिलने और न मिलने की दुविधा के बीच झूल रहा था, तुमने मुझे देख लिया था।
पिछले अंश में - "मेरे एजी, ओजी के बारे में तो कुछ पूछा नहीं तुमने?" तुमने इठलाकर झूठे गुस्से से कहा।

अब आगे की कहानी ...
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"कौन है वह खुशनसीब?" मैने उत्सुकता से पूछा।

"बदनसीब..." तुमने शरारतन मेरी बात काटते हुए कहा।

"खुशनसीब..." मैने तुम्हारे पति का सम्मान बरकरार रखने का प्रयास किया।

"नहीं, बदनसीब! खुशनसीब तो शादी करते ही नहीं।" तुम पहले जैसी ही ज़िद्दी थीं।

"मेरी शादी में क्यों नहीं आये थे?" तुमने शिकवा किया, "... ओह, हाँ! तुमने तो बातचीत ही बन्द कर दी थी।"

मैं मुस्कराये बिना न रह सका। इतने दिन बाद फिर से तुम मुझे सताने का प्रयास कर रही थीं और इस बार भी असफल रहने वाली थीं। यद्यपि, इस बार कारण अलग था। मुझे पता था कि यह हमारी आखिरी मुलाकात थी। और मैं इसे सुखद और विस्मरणीय बनाकर यादों की पिटारी की तलहटी में छुपाकर सदा के लिये भूल जाना चाहता था। मैं यहाँ एक और उलझन लेने नहीं बल्कि पिछ्ली उलझन की गिरह खोलने आया था। मुझे तुमसे और कुछ नहीं केवल मुक्ति चाहिये थी।

थोड़ा सा नाज़ नखरा करने के बाद तुमने बताना शुरू किया। अपनी आदत के अनुसार बीच-बीच में बात बदलकर यहाँ वहाँ भटकाने की कोशिश भी करती रहीं। लेकिन मैंने भी एक सजग नाविक की तरह तुम्हारी नाव को मंझधार में अटकने नहीं दिया। मुझसे हाथ छुड़ाकर उस रात तुम जिस बस में चढ़ी थीं इतने दिनों में वह तुम्हें मुझसे बहुत दूर ले जा चुकी थी।

पता लगा कि तुम्हारे हबी (पति) एक वर्कैहौलिक (कर्मठ) हैं। बातें चलती रहीं तो यह स्पष्ट होने लगा था कि तुम्हारी दुनिया में सब कुछ उतना मनोरम नहीं था जितना कि मैं सोच रहा था। तुम्हारी सास एक रक्त-पिपासु चुड़ैल थी और तुम्हारा पति ममा’ज़ बॉय (माँ की उंगलियों पर नाचने वाला) था। माँ कहे तो उठना, माँ कहे तो बैठना। उसने तो यह शादी भी माँ के आदेश के पालन के लिये ही की थी। ताकि दो पुत्रों को जन्म देकर उन्हें स्वर्ग की अधिकारिणी बना सके।

“बधाई हो, अपनी तो अभी तक शादी भी नहीं हुई और आप दोहरी माँ भी बन गयीं।”

“ऐसी मोम की गुड़िया भी नहीं हूँ मैं कि किसी और की इच्छा पूरी करने के लिये बच्चों की लाइन लगा दूँ। शुरू में बहुत लड़ाइयाँ हुईं” काले रेशमी बाल झटककर तुम ऐसे मुस्कराईं जैसे काली घटा के पीछे से सूरज चमका हो।

“फिर क्या हुआ? वे मान गयीं क्या?”

“नहीं बुद्धू, हमने अलग घर ले लिया है। खानसामा रखना पड़ा, मगर अब रोज़-रोज़ की चख-चख नहीं है... खाना मंगाऊँ तुम्हारे लिये? सुबह के भूखे होगे।”

“माई क’लाल, मेरा मतलब है ममा’ज़ बॉय मान गया?” मैने तुम्हारी मेहमाँनवाज़ी को नज़रन्दाज़ करते हुए बातचीत की नाव आगे बढ़ाई।”

“ससुर का बहुत पैसा है। कई घर पहले से हैं। इस वाले खाली घर पर कुछ लोगों की नज़र थी। बिकने भी नहीं दे रहे थे। मैने कहा, कुछ साल हम रह लेते हैं। खाली रहेगा तो कोई न कोई अन्दर घुस ही जायेगा। लालची ससुर को बात पसन्द आ गयी। सास ने थोड़ा तमाशा किया लेकिन फिर सब ठीक हो गया।”

मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था कि तुम इतनी समझदार थीं। लेकिन वह तुम्हारी नई ज़िन्दगी थी, मुझसे और मेरे आदर्शों से बिल्कुल अलग। मेरी पहुँच से दूर। पहली बार मुझे लगा कि अब तुम्हें अपनी समस्यायें सुलझाने के लिये मेरी ज़रूरत नहीं थी। हो सकता है पहले भी न रही हो। अनजाने ही दायाँ हाथ अपने बायें कन्धे पर चला गया। तुमने मुलाकात होने पर गीला होता था, आज बिल्कुल सूखा था।

कहाँ तो बात करने के लिये कुछ भी नहीं था और अब न जाने कितनी बातें कर रही थीं तुम। भले ही तुम्हें मेरे कन्धे की ज़रूरत न रही हो मुझे सुनाने के लिये लम्बी कहानी थी तुम्हारे पास। ससुराल के आरम्भिक दिनों में कितना कुछ सहा था तुमने। दिग्जाम सूटिंग्स के मॉडल जैसा टाल, डार्क, धनी पर औसत शक्ल-सूरत वाला तुम्हारा पति तुम्हारे मोहिनी रूप का दुश्मन हो गया था। किसी से बात करते देख ले तो ईर्ष्या से जल जाता था। और उसके बाद कैसे कैसे आरोप-प्रत्यारोप चलते थे। किस तरह दस-दस दिन तक अबोला रहकर धीरे-धीरे पति को काबू में किया है तुमने। कितनी बार बिना बताये घर से निकलकर तीन-तीन हफ्ते तक मायके जाकर रही हो और उसके हज़ार बार नाक रगड़ने पर ही वापस आयी हो। क्या-क्या गान्धीगिरी नहीं करनी पड़ी थी तुम्हें। एक बार दफ्तर से जल्दी घर आकर उसकी सारी किताबें रद्दी में बेच दी थीं। एक बार अपना गुस्सा दिखाने के लिये रात भर जागकर तुमने शादी की अल्बम के हरेक चित्र में से अपना चेहरा काट कर निकाल दिया था।

“जो हुआ सो हुआ, अब तो सब ठीक है न?”

“पहले से काफी बेहतर है। वैसी लड़ाई नहीं होती है। मैने तो कह रखा है कि अगर अब लड़ाई हुई तो मैं ज़हर खा लूंगी लेकिन उससे पहले चिट्ठी में लिख दूंगी कि ससुराल वाले दहेज़ मांगते हैं। सारा घर फाँसी चढेगा या चक्की पीसेगा।”

तुमसे नज़र बचाकर मैने अपनी चिकोटी काटी। मुझे विश्वास नहीं आ रहा था कि यह सब बातें मैं तुम्हारे मुँह से सुन रहा था। तुम फिर से मुस्कराई थीं। गुलाब की पंखड़ियों के पीछे छिपी मोतियों की माला फिर से चमकने लगी। इस बार मैंने ध्यान से देखा, तुम्हारे साइड के दो दाँत काफी नुकीले थे और बारीक नशीले होठों पर करीने से लगी हुई लाली से मिलकर काफी डरावने से लग रहे थे। क्या समय के साथ लोग इतना बदल जाते हैं? या मैंने शुरू से ही तुम्हें पहचानने में गलती की थी? शायद इतने ध्यान से कभी देखा ही नहीं था।

“कहा था न गुरु, बच गये! अब चुपचाप निकल लो ...” राजा वहाँ नहीं था, केवल मेरा भ्रम था।

“अच्छा, अब मैं चलूँ क्या?” मैने उठने का उपक्रम किया।

“जल्दी क्या है? तुम्हारा कौन घर में इंतज़ार कर रहा है?” तुम व्यंग्य से हँसीं।

“एक दोस्त से मिलना है। सुबह से बाट जोह रहा है।” मैने सफाई सी दी।

“लड़का या लड़की? यहाँ हम बिना बात इतने खुश हो रहे थे। लगा मुझसे मिलने आये हो। जहाँपनाह अपने दोस्त से मिलने आये हैं। जाओ कभी बात नहीं करना अब।” तुम फिर से रूठ गयी थीं। लेकिन इस बार मेरे दिमाग पर कोई बोझ नहीं था।

[क्रमशः]

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मेरी कुछ और कहानियाँ
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Thursday, July 22, 2010

चंद्रशेखर आज़ाद का जन्म दिन

कोई दिन रात मरता है, शहादत कोई पाता है....

२३ जुलाई सन १९०६ - बांस की कुटिया में आज ही के दिन श्रीमती जगरानी देवी ने चन्द्र शेखर तिवारी (आज़ाद) को जन्म दिया था.

सुखदेव, बटुकेश्वर दत्त, राजगुरु, पंडित रामप्रसाद बिस्मिल और सरदार भगत सिंह जैसे वीरों के आदर्श चंद्रशेखर तिवारी ने पंद्रह वर्ष की आयु में गांधी जी के असहयोग आन्दोलन में भाग लेकर "आज़ाद" नाम पाया था. तानाशाहों के विरुद्ध सशस्त्र क्रान्ति के समर्थक आज़ाद "हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन" के संस्थापक सदस्य थे.


२७ फरवरी १९३१ - इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क (अब चंद्रशेखर आज़ाद पार्क) में मात्र २४ वर्ष के इस वीर ने अपनी ही गोली से प्राणोत्सर्ग करके अपने नाम "आज़ाद" को सार्थक कर दिया.

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* यह सूरज अस्त नहीं होगा!
* श्रद्धांजलि - १०१ साल पहले
* सेनानी कवयित्री की पुण्यतिथि
* महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद"

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एक असम्बन्धित कड़ी
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* लोकसंघर्ष परिकल्पना सम्मान - श्रेष्ठ कवि

Tuesday, July 20, 2010

सच मेरे यार हैं - भाग 3

पहली कड़ी में - मेरा खोया हुआ मित्र मुझे फेसबुक पर मिल गया था।

पिछले अंश में - जब मैं तुमसे मिलने और न मिलने की दुविधा के बीच झूल रहा था, तुमने मुझे देख लिया था।

अब आगे की कहानी ...

हमारे सम्बन्धों के सिरे उस रात कुछ अजीब तरह से टूटे थे। आज इतने दिन बाद एक दूसरे से मिलकर खुश तो थे मगर यह दोनों को ही समझ नहीं आ रहा था कि बात शुरू कहाँ से की जाये। वैसे तुमने मेरे गायब होने का शिकवा कर दिया था मगर वर्षों पहले टूटे हमारे सम्वाद को उससे कोई सहायता नहीं मिली।

“जिनसे रोज़ मिलते हैं उनसे कितनी बातें होती हैं कुछ दिन न मिलो तो लगता है जैसे बात करने को कुछ बचा ही न हो” कहकर मुस्कराई थीं तुम। मोतियों जैसी दंतपंक्ति आज भी वैसी ही थी। मेरे दाँत तो खराब होने लगे हैं। तुम्हारी मुस्कान के प्रत्युत्तर में खुलते मेरे मुँह को मेरे दाँतो के कारण उपजे हीनताबोध ने वापस बन्द कर दिया था। सब राजा का दोष है। वही रोज़ाना लंच के बाद मेरे मना करते करते ज़बर्दस्ती पान खिला देता है। वैसे दाँत ही अकेला कारण नहीं था। मिलने में देरी का सम्वाद से कोई सम्बन्ध हो सकता है, यह मैं मान ही नहीं सकता। वार्ता के लिये कोई सूत्र तो तब मिलता जब हम बात करने के लिये मानसिक रूप से तैयार होते। मानसिक तैयारी होती तो उस रात भी सम्वाद इस बुरी तरह टूटता नहीं शायद।

आज तुम्हारे सामने बैठकर मुझे बोध हुआ था कि मैं अब तक तुम्हें भूल क्यों नहीं पाया था। मैं अभी भी उस एक घटना का एक तार्किक स्पष्टीकरण ढूंढ रहा था। तुमसे केवल एक बार मिलने की इच्छा मन में कहीं गहराई तक दबी हुई थी क्योंकि मन यह समझ ही नहीं पाता था कि उस रात अकारण ही तुम मुझसे इतनी नाराज़ कैसे हो गयी थीं। मनोवैज्ञानिक शायद इसे मेरा संज्ञानात्मक मतभेद कहेंगे। नाम चाहे जो भी हो, लेकिन यह सत्य नहीं बदलेगा कि तुम्हारी याद की चील मेरे मन-मस्तिष्क के आकाश पर तब तक सदैव मंडराती रहती जब तक मुझे अपने प्रश्न का उत्तर मिल नहीं जाता।

तुम्हारे सामने बैठा मैं तुम्हारी आँखों में देखकर सोच रहा था कि क्या आज मुझे तुम्हारी याद से मुक्ति मिलेगी? या फिर आज भी तुम मुझे किसी नये सवाल में उलझाकर मेरे जीवन से पुन: अदृश्य हो जाओगी। नहीं आज मैं तब तक जमा रहूंगा जब तक कि मुझे अपने प्रश्न का तसल्लीबख्श जवाब नहीं मिल जाता है। लेकिन तब संजय के जन्मदिन का क्या? वह बेचारा तो चुपचाप अपने घर में बैठा मेरी राह देख रहा होगा। लगता है मुझे ही बात शुरू करनी पड़ेगी।

“घर में सब कैसे हैं? बाल-बच्चे ...”

“ठीक ही हैं। इतने दिन बाद मिले हो, मैं कैसी हूँ यह नहीं पूछोगे क्या?”

“चलो, यही बता दो। तुम कैसी हो?”

“सिगरेट तो तुमने छोड़ दी थी। चाय मंगाती हूँ।”

“सिगरेट तो छोड़नी ही थी। तुम्हारा हुक़्म जो था। वैसे भी मैं कोई धुरन्धर चिलमची थोड़े ही था, बस कभी-कभार राजा ज़िद करता था तो पी लेता था।”

चाय आ गयी थी। बातचीत का वर्षों से टूटा सिलसिला भी धीरे-धीरे पटरी पर आने लगा था। तुमने बताया कि चुगली कर कर के सुनील आजकल यूनियन का काफी बड़ा नेता बन गया है। उसकी छत्रछाया में तुम्हें कोई डर नहीं है। बात में से बात निकलती जा रही थी। तुम राजा के अतिरिक्त सभी पुराने साथियों के बारे में उत्सुकता से पूछ रही थीं। राजा तुम्हें शुरू से ही नापसन्द था। मज़े की बात यह थी कि तुमने एक भी साथी का नाम ठीक से नहीं बोला था। सुधीर को रणधीर, नटराजन को पटवर्धन, प्रमोद को विनोद, छाया को माया ... और भी न जाने क्या-क्या? याद आया कि इतने दिनों से तुम्हारे व्यवहार का यह मासूम, लुभावना बचपना भी तो मिस करता रहा था मैं। मैं सबके नाम सही करता रहा और उनके बारे में जितना जानता था वह सब बताता भी रहा।

दोस्तों के बाद बात मेरी शादी की तरफ मुड़ी तो मैंने कभी शादी न करने के अपने निर्णय के बारे में बताया। एक ठण्डी साँस भरकर तुमने भी सहमति सी ही जताई।

“मेरे एजी, ओजी के बारे में तो कुछ पूछा नहीं तुमने?” तुमने इठलाकर झूठे गुस्से से कहा।


[क्रमशः]