Showing posts with label Literature. Show all posts
Showing posts with label Literature. Show all posts

Wednesday, May 29, 2013

दूरभाष वार्ता मुखौटों से

चेहरे पर चेहरा

- ट्रिङ्ग ट्रिङ्ग 

- हॅलो?

- नमस्ते जी!

- नमस्ते की ऐसी-तैसी! बात करने की तमीज़ है कि नहीं?

- जी?

- फोन करते समय इतना तो सोचना चाहिए कि भोजन का समय है

- क्षमा कीजिये, मुझे पता नहीं था

- पता को मारिए गोली। पता तो चले कि आप हैं कौन?

- जी ... मैं ... अमर अकबर एंथनी, ट्रिपल ए डॉट कॉम लिटरेरी ग्रुप से ...

- ओह, सॉरी जी, आपने तो हमें पुरस्कृत किया था ... हैलो! आप पहले बता देते, तो कोई ग़लतफ़हमी नहीं होती,  हे हे हे!

- जी, वो मैं ... आपके तेवर देखकर ज़रा घबरा गया था

- अजी, जब से आपने सम्मानित किया, अपनी तो किस्मत ही खुल गई। उस साल जब आपके समारोह गया तो वहाँ कुछ ऐसा नेटवर्क बना कि पिछले दो साल में 12 जगह से सम्मानपत्र मिल चुके हैं, दो प्रकाशक भी तैयार हो गये हैं, अभी - मैंने अग्रिम नहीं दिया है बस ...

- यह तो बड़ी खुशी की बात है। मैं यह कहना चाह रहा था कि ...

- इस साल के कार्यक्रम की सूची बन गई?

- जी, बात ऐसी है कि ...

- मेरा नाम तो इस बार और बड़े राष्ट्रीय सम्मान के लिये होगा न? इसीलिये कॉल किया न आपने?

- जी, इस बार मैं राष्ट्रीय पुरस्कार समिति में नहीं हूँ ...

- ठीक तो है, आप इस लायक हैं ही नहीं ...

- जी?

- रत्ती भर तमीज़ तो है नहीं, भद्रजनों को लंच के समय डिस्टर्ब करते हैं आप?

- लेकिन मैंने तो क्षमा मांगी थी

- मांगना छोड़िए, अब थोड़ा शिष्टाचार सीखिये

- हैलो, हैलो!

- कट, कट!

- लगता है कट गया। बता ही नहीं पाया कि इस बार मैं अंतरराष्ट्रीय सम्मान समिति (अमेरिका) का जज हूँ। अच्छा हुआ इनका नखरीलापन पहले ही दिख गया। अब किसी सुयोग्य पात्र को सम्मानित कर देंगे।

Sunday, December 2, 2012

यारी है ईमान - कहानी

ज़माना गुज़र गया भारत गए हुए, फिर भी उनका मन वहाँ की गलियों से बाहर आ ही नहीं पाता। जब भी जाते हैं, दिल किसी गुम हुई सी जगह को फिर-फिर ढूँढता है। कितनी ही बार अपने को शिरवळ के बस अड्डे पर अकेले बैठे हुए देखते हैं। कभी मुल्ला जी के रिक्शे पर शांति निकेतन जाता हुआ महसूस करते हैं तो कभी बाँस की झोंपड़ी में कविराज के मणिपुरी संगीत की स्वर लहरियाँ सुनते हुये। रामपुर के शरीफे का दैवी स्वाद हो या लखनऊ के आम की मिठास, बरेली में साइकिल से गिरकर घुटने छील लेना भी याद है और बदायूँ की रामलीला के संवाद भी। नन्दन से धर्मयुग और चंदामामा से न्यूज़वीक तक के सफर के बाद आज भी बालसभा की पहेलियाँ, इंद्रजाल कोमिक्स की रोमांचकारी दुनिया और दीवाना के गूढ कार्टून मनोरंजन करते से लगते हैं। स्कूल कॉलेज की यादों के साथ ही लखनऊ, दिल्ली और चेन्नई में शुरू की गई पहली तीन नौकरियों का उत्साह भी अब तक वैसा ही बना हुआ है।

पूना हो या पनवेल, कुछ यादें हल्की हैं और कुछ गहरी। लेकिन जो एक शहर अब भी उनके सपनों में लगभग रोज़ ही आता है वह है जम्मू! कितनी ही यादें जुड़ी हैं उस रहस्यमयी दुनिया से जो तब बन ही रही थी। जंगली फूलों की नशीली गंध से सराबोर पथरीली चट्टानों को काटकर बहती तवी नदी, और रणबीर नहर में तैरने जाना हो या पुराने पहाड़ी नगर के इर्दगिर्द बन रहे उपनगरीय क्षेत्रों में तलहटी में जाकर स्वादिष्ट लाल गरने चुनकर लाना। सुबह शाम स्कूल आते जाते समय आकाश को झुककर धरती छूते देखने का अनूठा अनुभव हो या जगमगाते जुगनुओं को देखकर आश्चर्यचकित होने की बारी हो, जम्मू की यादें छूटती ही नहीं।

भाषाई आधार पर राज्यों के निर्माण के बारे में बहुत बहसें हो चुकी हैं। लेकिन देशभर में रहने के बाद वे अब इस बात को गहराई से मानते हैं कि अलग इकाई बनाने की बात हो या अलग पहचान की, मानव-मात्र के लिए भाषा से बड़ी पहचान शायद मजहब की ही हो सकती है दूसरी कोई नहीं। भाषाएँ तोड़ती भी हैं और जोड़ती भी हैं। वे हमारी पहचान भी हैं और संवाद का साधन भी। वे जहाँ भी रहे, भाषा की समस्या रही तो लेकिन मामूली सी ही। अधिकांश जगहों पर लोगों को टूटी-फूटी ही सही, हिन्दी आती ही थी, कभी-कभी अङ्ग्रेज़ी भी। जम्मू में यह कठिनाई और भी आसान हो गई थी, लवलीन और रमणीक जैसे सहपाठी जो थे। हमेशा मुस्कराने वाली लवलीन जब किसी को उनकी भाषा या बोलने के अंदाज़ पर टिप्पणी करते देखती तो उसकी भृकुटियाँ तन जातीं और बस्स ... समझो किसी की शामत आयी। लंबा चौड़ा रमणीक उतना दबंग नहीं था। उससे दोस्ती का कारण था, हिन्दी पर उसकी पकड़। पूरी कक्षा में वही एक था जो उनकी बात न केवल पूर्णतः समझता था बल्कि लगभग उन्हीं की भाषा में संवाद भी कर सकता था।

पाठशाला जाने के लिए राजमहल परिसर से होकर निकलना पड़ता था। शाम को बस आने तक साथ के बच्चों के साथ अंकल जी की दुकान पर इंतज़ार। उसी बीच मे कई बार ऐसा भी हुआ जब रमणीक के साथ रघुनाथ मंदिर स्थित उसके घर भी जाना हुआ। वे लोग पक्के हिन्दूवादी साहित्यकार थे। शाखा के बारे मे पहली बार वहीं जाना और जनसंघ के बारे मे भी वहीं सुना। गोष्ठी से लेकर बाल भारती तक के शब्द पहली बार रमणीक के मुँह से ही पता लगे। खासकर अपना नाम बताते हुए जब वह सलीके से रमणीक गुप्त कहता था तो रमनीक गुप्ता पुकारने वाले सभी डोगरे बच्चे शर्मा जाते थे। लवलीन की बात और थी, वह उसे सदा ओए रमनीके कहकर ही बुलाती थी।

वे अक्सर सोचते थे कि उनके बचपन के साथी वे सब लोग अब न जाने कहाँ होंगे। उनकी यादें चेहरे पर मुस्कान लाती थीं। मन में सदा यही रहा कि किसी न किसी दिन जम्मू जाना ज़रूर होगा। तब ढूंढ लेंगे अपने नन्हे दोस्तों को। लवलीन का पूरा नाम, घर, ठिकाना कुछ भी नहीं मालूम, इसलिए कभी उसकी खोज नहीं की लेकिन रमणीक गुप्त से मुलाकात की उम्मीद कभी नहीं छूटी।

उस दिन तो मानो लॉटरी ही खुल गई जब रमणीक के छोटे भाई वीरभद्र का नाम इंटरनेट पर नज़र आया। पता लगा कि वह गुड़गांव की एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी में मुख्य सूचना अधिकारी है। फोन नंबर की खोज शुरू हुई। वीरभद्र गुप्त ने बड़े सलीके से बात की और नाम लेने भर की देर थी कि उन्हें पहचान भी लिया। पता लगा कि रमणीक भी ज़्यादा दूर नहीं है। वह राष्ट्रीय अभिलेखागार में एक महत्वपूर्ण पद पर लगा हुआ था। वीरभद्र से नंबर मिलते ही उन्होने रमणीक को कॉल किया।

हॅलो के जवाब में एक देहाती से स्वर ने जब उनका नाम, पता, वल्दियत आदि पूछना शुरू किया तो उन्होंने उतावली से अपना संबंध बताते हुए रमणीक को बुलाने को कहा। "मैं र-म-नी-क ही हूंजी!" अगले ने हर अक्षर चबाते हुए कहा, "... लेकिन मैंने आपको पहचाना नहीं।"

नगर, कक्षा, शाला आदि की जानकारी देने में थोड़ा समय ज़रूर लगा, फिर रमणीक को उनकी पहचान हो आई। कुछ देर तक बात करने के बाद उधर से सवाल आया, "लेकन आज हमारी याद कैसे आ गई, इतने दिन के बाद?"

"याद तो हमेशा ही थी, लेकिन संपर्क का कोई साधन ही नहीं था।"

"फिर भी, कोई वजह तो होगी ही ..." रमणीक ने रूखेपन से कहा, "बिगैर मतलब तो कोई किसी को याद नहीं करता!"

[समाप्त]

Monday, November 12, 2012

भारतीय संस्कृति के रखवाले

दीवाली के मौके पर यहाँ पिट्सबर्ग में एक भारतीय समारोह में जाना पड़ा। मेरी आशा के विपरीत दीये और मिठाई कहीं नज़र नहीं आयी। अलबत्ता शराब व कबाब काफ़ी था। कहने को शबाब भी था मगर मेकअप के नीचे छटपटा सा रहा था।

बहुत से लोगों से मुलाक़ात हुई। नवीन जी भी उन्हीं में से थे। दारु का गिलास उठाये कुछ चलते, कुछ झूमते, कुछ उड़ते और कुछ छलकते हुए से वे मेरे साथ की सीट पर संवर गए। अब साथ बैठे हैं तो बात भी करेंगे ही। पहले औपचारिकताएँ हुईं। मौसम, खेल, व्यवसाय, परिवार से गुज़रते हुए हम बड़ी बड़ी बातों तक पहुँचे। विदेश में बसे कुछ भारतीयों के लिए बड़ी बात का मतलब है उस मातृभूमि की फ़िक्र का ज़िक्र जिसके लिए हमने कभी अपनी जिंदगी से न एक पल दिया और न एक धेला ही।

वे पूछने लगे कि अगर मैं इसी शहर में रहता हूँ तो फ़िर कभी उन्हें मन्दिर में क्यों नहीं दिखता। मैंने अंदाज़ लगाकर बताया कि शायद हमारे मन्दिर जाने के दिन और समय अलग अलग रहे हों। वैसे भी भक्ति और पूजा मेरे लिए एक व्यक्तिगत विषय है और मेरी मन्दिर यात्रायें नियमित भी नहीं हैं। मेरी बात उनको अच्छी नहीं लगी।

"तो अपने बच्चों को हिन्दी नहीं सिखायेंगे क्या?" झूमते हुए उन्होंने अपना गिलास मुझपर लगभग उड़ेल ही दिया।

"मेरे बच्चे हिन्दी, ही नहीं बल्कि और भी भारतीय भाषायें अच्छी तरह जानते हैं। वे तो हिन्दी सिखा भी सकते है" मैंने खुश होकर उन्हें बताया।

"सवाल केवल भाषा का नहीं है।" उन्होंने मेरी मूर्खता पर हँसते हुए कहा, "अमेरिका में भारतीय संस्कृति को भी तो ज़िंदा रखना है ..."

अपने इस कथन को वे शायद ही सुन पाए होंगे क्योंकि इसे पूरा करने से पहले ही वे टुन्न हो गए। वे सोफा पर और भरा हुआ गिलास कालीन पर लोटने लगा। मैं समझ गया कि अमेरिका में उनकी भारतीय संस्कृति को कोई ख़तरा नहीं है।

आप सभी को, मित्रों और परिजनों के साथ दीपावली की हार्दिक मंगलकामनाएं! 
पिट्सबर्ग का एक दृश्य

 [मूल आलेख: अनुराग शर्मा; शनिवार २१ जून २००८]

Sunday, October 7, 2012

भारत बोध - कविता

(चित्र, भाव व शब्द: अनुराग शर्मा)

असम धरातल, मरु है विषम ...

इतना ज़्यादा
होकर भी कम

असम धरातल
मरु है विषम

कैसे साथ
निभायेंगे हम

कहीं मिला न
कोई मो सम

कहाँ रहे तुम
कहाँ गये हम

मन हारा और
जीत रहे ग़म

पत्थर आँख न
होती है नम

साँस बची पर
निकला है दम

ज्योतिपुंज न
बने महातम

सर्वम दुःखम
सर्वम क्षणिकम

Saturday, September 1, 2012

दिल यूँ ही पिघलते हैं - कविता

उस आँख में बस मीठे सपने ही पलते हैं
सब अपने हैं उसके, वे भी जो छलते हैं।

(अनुराग शर्मा)


बर्ग वार्ता - पिट्सबर्ग की एक खिड़की
जो आग पे चलते हैं
वे पाँव तो जलते हैं

कितना भी रोको पर
अरमान मचलते हैं

युग बीते हैं पर लोग
न तनिक बदलते हैं

श्वान दूध पर लाल
गुदड़ी में पलते हैं

हालात पे दुनिया के
दिल यूँ ही पिघलते हैं

मानव का भाग्य बली
अपने ही छलते हैं

पत्थर मारो फिर भी
ये वृक्ष तो फलते हैं

शिखरों के आगे तो
पर्वत भी ढलते हैं

मेरे कर्म मेरे साथी
टाले से न टलते हैं।

* सम्बन्धित कड़ियाँ *

Thursday, June 21, 2012

व्यवस्था - कहानी

(कथा व चित्र: अनुराग शर्मा)

हाथ में गुलदस्ता लेकर वह कमरे में घुसी तो वहाँ का हाल देखकर भौंचक्की रह गई। सब कुछ बिखरा पड़ा था। बिस्तर कपड़ों से भरा था, कमीज़ें, पतलूनें, बनियान, पाजामा, मोज़े आदि तो थे ही, सूट और टाइयाँ भी मजगीले से पड़े थे। गुड़ी-मुड़ी से पड़े साफ़ कपड़ों के बीच एकाध पहने हुए कपड़े भी थे। ग़नीमत यही थी कि पहनी हुई ज़ुराबें कमरे के एक कोने में इकट्ठी थीं। अलमारियों के अलावा भी हर ओर किताबें, नोटबुकक्स, डायरियाँ, रजिस्टर, सीडी, डीवीडी और ब्लू रे आदि डिस्क जमा थीं। और पढने की मेज़? राम, राम! हर आकार के बीसियों कागज़ जिनपर तरह-तरह के नोट्स लिखे हुए थे।

अनेक फ़्लैश ड्राइव्स, पैन, पैंसिलें, एलर्जी और दर्द की दवाओं की डब्बियाँ, पेपर-कटर, हथौड़ी, पेंचकस जैसे छोटे मोटे औज़ार नेल-कटर, कैंची, टेप डिस्पैंसर आदि से प्रतियोगिता कर रहे थे। मेज़ पर चश्मों, बटुओं, पासबुकों, चैकबुकों और रोल किये हुए कई पोस्टरों के बीच अपने लिये जगह बनाते हुए किंडल, टैबलैट, फ़ोन और लैपटॉप पड़े थे। मेज़ के नीचे रखे वर्कस्टेशन से न जाने कितने तार निकलकर मेज़ पर ही रखी हुई कई बाहरी हार्ड डिस्क ड्राइवों को जोड़कर एक अजीब सा मकड़जाल बना रहे थे। उसके ऊपर दो-तीन पत्रिकायें भी पड़ी थीं। साथ की छोटी सी मेज़ पर एक बड़ा सा प्रिंटर रखा था जिस पर कार्डबोर्ड के दो डिब्बे भी एक के ऊपर एक भिड़ाये हुए थे। साथ में ही डाक में आने-जाने वाले पत्रों को छाँटने के लिये एक पोर्टेबल दराज ज़बर्दस्ती अड़ा दिया गया था जोकि अब गिरा तब गिरा की हालत में अपने को संतुलित करने का प्रयास कर रहा था।

बुकशेल्व्स पर किताबों के अलावा भी जिस किसी चीज़ की कल्पना की जा सकती है वह सब मौजूद थी। अपने खोल से कभी निकाले न गये अखबारों के रोल, डम्बल्स, कलाकृति सरीखी मोमबत्तियाँ, देश-विदेश से जमा किया गया कबाड़। कितनी तो कलाई घड़ियाँ ही थीं। पाँच छः तरह के हैड फ़ोन पड़े थे। लैपटॉप के पहियों वाले दो बैग कन्धे पर टांगने वाले थैले को कोने की ओर खिसका रहे थे। कपड़ों की अलमारी के दोनों पट खुले हुए थे और वहाँ से भी काफ़ी कुछ बाहर आने की प्रतीक्षा में था। चाय, कॉफ़ी द्वारा अन्दर से काले पड़े कप, तलहटी में दूध का निशान छोड़ते हुए गिलास और सेरियल की कटोरियाँ। पास पड़ा कूड़ेदान कागज़ों में गर्दन तक डूबा हुआ था।

"हे भगवान! ये क्या हाल बना रखा है?"

"समय नहीं मिला, अगले इतवार को सब ठीक कर दूंगा।"

"आज क्यों नहीं? आज भी तो इतवार ही है।"

"कर ही देता, लेकिन सामान रखने की जगह ही नहीं बची है। न जाने लोग कैसे स्पेस मैनेज करते हैं। लगता है इस काम में मुझे विशेषज्ञ की सहायता की ज़रूरत है।"

"थिंक ऑउट ऑफ़ द बॉक्स!"

"वाह, मेरा ही वाक्यांश मेरे ही सर पर!"

"बेसमेंट में रख दें?"

" ... लेकिन मुझे तो इन सब चीज़ों की ज़रूरत रोज़ ही पड़ती है, ... इसी कमरे में रखना पड़ेगा।"

"तो फिर ... कुछ बॉक्स लेकर ..."

"अरे हाँ, क्लीयर प्लास्टिक के दो बड़े डब्बे ले आता हूँ। उनसे सब सामान व्यवस्थित भी जायेगा और मुझे दिखता भी रहेगा।"

तीन हफ़्ते बाद वह फिर आयी तो कमरे के स्वरूप में अंतर था। उस अव्यवस्था के बीच आड़े-टेढे पड़े दो खाली डब्बे भी अब बाकी सामान के साथ अपने रहने की जगह बना चुके थे।

[समाप्त]

Friday, June 15, 2012

प्रेम, न्याय और प्रारब्ध - कविता

छोड़ फूलों को परे कांटे जो उठाते हैं
ज़ख्म और दर्द ही हिस्से में उनके आते हैं
(चित्र व शब्द: अनुराग शर्मा)

बेदर्दी है हाकिम निठुर बँटवारा
ज़मीं हो हमारी गगन है तुम्हारा

जहाँ का हरेक ज़ुल्म हँस के सहा
प्यार में बुज़दिली कैसे होती गवारा

सभी कुछ मिटाकर चला वो जहाँ से
उसका रहा तन पर दिल था हमारा

तेरे नाम पर थी टिकी ज़िन्दगानी
नहीं तेरे बिन होगा अपना गुज़ारा

वो दामे-मुहब्बत नहीं जान पाया
बिका कौड़ियों में दीवाना बेचारा


Tuesday, May 15, 2012

बदले ज़माने देखो - कविता

(कविता व चित्र अनुराग शर्मा)


रंग मेरे जीवन में, तुमने भी सजाये हैं
याद से हटते नहीं गुज़रे ज़माने देखो।
सूनी आँखों में बसे दोस्त पुराने देखो॥

प्यार की जीत सदा नफ़रतों पे होती है।
हर तरफ़ महके मेरे शोख फ़साने देखो॥

ग़लतियाँ हमने भी सरकार बड़ी कर डालीं।
चाहते क्या थे चले क्या-क्या कराने देखो॥

कोशिशें करने से भी वक़्त ही जाया होगा।
भर सकेंगे न कभी दिल के वीराने देखो॥

सारा दिन दर्द के काँटों पे ही गुज़रा था।
रात आयी है यहाँ ख्वाब सजाने देखो॥

आखिरी बूंद मेरे खून की बहने के बाद।
ताल खुद आये मेरी प्यास बुझाने देखो॥

साँस रोकी थी मेरी जिसने ज़ुबाँ काटी थी।
मर्सिया पढ़ता वही बैठ सिरहाने देखो॥

Tuesday, May 8, 2012

इतना भी पास मत आओ - कविता

 (कविता व चित्र: अनुराग शर्मा)

ज़िन्दगी प्रेम का राग है
मार तेरे प्यार की हमने प्रिये हँसकर सही है।
शब्द मिटते जा रहे पर अर्थ तो फिर भी वही है॥

सर झुका लेते हैं जब भी देखते हैं हम तुम्हें।
रास्ते में छेड़ना तुम ही कहो कितना सही है॥

है सफ़र मुश्किल अगर गुज़रें रक़ीबों की गली।
मेरी डगर के ज़िक्र पे तुमने सदा कड़वी कही है॥

सह सकूँ हर ज़ुल्म तेरा चाहत ए दिल है यही।
दर्द से चिल्ला पड़ा इतनी शिकायत तो रही है॥

खिड़की खुले तो हो सके रोशन जो घर अन्धेरा है।
सियाही कब से इस चौखट में जमती जा रही है॥

Saturday, May 5, 2012

चक्रव्यूह - कविता

आर्ट कनेक्शन 2012 से साभार
(कविता व चित्र: अनुराग शर्मा)

यादों के बंधन
बंधन के बांध
बांध की सीमायें
सीमा पर अन्धकार
अन्धकार का अज्ञान
और उस
अज्ञान की यादें
कभी तो यह चक्र टूटे
कभी तो टूटे ...


Monday, April 23, 2012

जंगल तंत्र - कहानी

(अनुराग शर्मा)

बूढा शेर समझा ही न सका कि जिस शेरनी ने मैत्री प्रस्ताव भेजा है, एक मृत शेरनी की खाल में वह दरअसल एक शेरखोर लोमड़ी है। बेचारा बूढा जब तक समझ पाता, बहुत देर हो चुकी थी। उस शेर की मौत के बाद तो एक सिलसिला सा चल पड़ा। यदि कोई शेर उस शेरनी की असलियत पर शक करता तो वह उसके प्यार में आत्महत्या कर लेने की दुहाई देती। दयालु और बेवकूफ किस्म के शेरों के लिए उसकी चाल भिन्न थी। उन्हें वह अपनी बीमारियों के सच्चे-झूठे किस्से सुनाकर यह जतलाती कि अब उसका जीवन सीमित है। यदि शेर उसकी गुफा में आकर उसे सहारा दे तो उसकी बाहों में वह चैन से मर सकेगी। जो शेर उसके झांसे में आ जाता, अन्धेरी गुफा में बेचैनी से मारा जाता। धीरे-धीरे जंगल में शेरों की संख्या कम होती गयी, जो बचे वे उस एक शेरनी के लिए एक दूसरे के शत्रु बन गये। छोटे-मोटे चूहे, गिलहरी और खरगोश आदि कमज़ोर पशुओं को वह अपना पॉलिश किया हुआ शेरनी वाला कोट दिखाने के लिये लुभाती, वे आते और स्वादिष्ट आहार बनकर उसके पेट में पहुँच जाते थे।

एक दिन जब लोमड़ी अपने घर से निकलने से पहले शेरनी की खाल का कोट पहन रही थी तो कुछ सिंहशावकों ने उसे पहचान लिया और इस धोखे के लिये उसका मज़ाक उड़ाने लगे। घबराई लोमड़ी ने उन्हें डराया धमकाया, पर वे बच्चे न माने। तब लोमड़ी ने अपने प्रेमजाल में फंसाये हुए कुछ जंगली कुत्तों व लकड़बघ्घों को बुलाकर उन बच्चों को डराया। शक्ति प्रदर्शन के उद्देश्य से एक हिरन और कुछ भैंसों को घायल कर दिया। बच्चे तब भी नहीं माने तो उन की शरारतें उनके माता-पिता को बता देने का भय दिखाकर उन्हें धमकाया। अब बच्चे डर गये और लोमड़ी फिर से बेफ़िक्र होकर अपना जीवन शठता के साथ व्यतीत करने लगी।

लगातार मिलती सफलता के कारण लोमड़ी की हिम्मत बढती जा रही थी। शेरों से उसके पारिवारिक सम्बन्ध की बात फ़ैलाये जाने के कारण जंगल के मासूम जानवर उसके खिलाफ कुछ कह नहीं पाते थे। लेकिन गधों द्वारा प्रकाशित जंगल के अखबार पर अभी भी उसका कब्ज़ा नहीं हो सका था जिसमें यदा-कदा उसके किसी न किसी अत्याचार की ख़बरें छाप जाती थीं। ऐसी स्थिति आने पर वह खच्चरों की प्रेस में पर्चियां छपवाकर उस घटना को अपने विरुद्ध द्वेष और ईर्ष्या का परिणाम बता देती थी। हाँ, उसने लोमड़ियों को अपनी असलियत बताकर अपने जाति-धर्म का नाता देकर साथ कर लिया था। यदि कभी बात अधिक बढ़ जाती थी तो यह लोमड़ियाँ एक "निर्दोष" शेरनी के समर्थन में आक्रामक मोर्चा निकाल देती थीं और मार्ग में आये छोटे-मोटे पशु पक्षियों को डकारकर पिकनिक मनाती थीं। इस सब से डरकर जंगल के प्राणी चुप बैठ जाते थे।

जंगल के बाहर ऊंची पहाड़ी पर रहने वाला बाघ काफी दिनों से दूर से यह सब धतकरम देख रहा था। लोमड़ी के दुष्ट व्यवहार के कारण वह उसकी असलियत पहले दिन से ही पहचान गया था। कमज़ोर जानवरों की मजबूरी तो उसे समझ आती थी। पर समर्थ शेरों की मूर्खता पर उसे आश्चर्य होता था। जंगल के एक विद्वान मोर को दौड़ा दौड़ा कर मार डालने के बाद लोमड़ी जब उस बाघ पर हमला करने दौड़ी तब उस बाघ से रहा न गया। उसने लोमड़ी की गुफा के बाहर जाकर उसे धिक्कारा। अपने षडयंत्रों की अब तक की सफलता से अति उत्साहित लोमड़ी ने सोचा कि जब वह बड़े-बड़े बब्बर शेरों को आराम से पचा गयी तो यह बाघ किस खेत की मूली है।

शेरनी की खाल पहनकर घड़ियाली आँसू बहाती लोमड़ी बाहर आयी और फिर से अपने सतीत्व की, नारीत्व की, असुरत्व की, बीमारी की, दुत्कारी की, सब तरह की दुहाई देकर जंगल छोड़ने और आत्महत्या करने की धमकी देने लगी। उसकी असलियत जानकर जब किसी ने उसका विश्वास नहीं किया तो उसने गुप्त सन्देश भेजकर अपने दीवाने लकड़बघ्घों व कुत्तों को पुकारा। बाघ के कारण इस बार वे खुलकर सामने न आये तो उसने चमचौड़ कुत्ते को अपनी नई पार्टी "बुझा दिया" का राष्ट्रीय समन्वयक बनाने की बोटी फेंकी। बोटी देखते ही वह लालची कुत्ता काली गुफा के पीछे से भौंककर वीभत्स शोर करता हुआ अपनी वफ़ादारी दिखाने लगा। पर लोमड़ी इतने भर से संतुष्ट न हुई। उसके दुष्ट मन में इस बाघ को मारकर खाने की इच्छा प्रबल होने लगी। सहायता के लिये उसने लोमड़ियों के दल को बुलाया। मगर भय के कारण उनका हाल भी लकड़बघ्घों व कुत्तों जैसा ही था। तब उसने अपनी अस्मिता की रक्षा का नाम लेकर बचे हुए शेरों को इस बाघ का कलेजा चीर कर लाने के लिए ललकारा।

शेर मैदान में आये तो बाघ ने उन्हें लोमड़ी की असलियत बता दी। शेर तो शेर थे, बाघ की बात से उनकी आँखो पर पड़ा लोमड़ी के कपट का पर्दा झड़ गया। सच्चाई समझ आ गयी और वे अपनी अब तक की मूर्खता का प्रायश्चित करने नगर के चिड़ियाघर में चले गए। अपनी असलियत खुल जाने के बाद लोमड़ी को डर तो बहुत लगा लेकिन उसे अपनी शठता, झूठ और शैतानियत पर पूरा भरोसा था। उसने यह तो मान लिया कि वह शेरनी नहीं है मगर उसने अपने को लोमड़ी मानने से इनकार कर दिया। बाघ की बात को झूठा बताते हुए उसने बेचारगी के साथ टेसुए बहाते हुए कहा कि वह दरअसल एक चीता नारी है और इस अत्याचारी बाघ ने पिछले कई जन्मों में उसे बहुत सताया है। उससे बचने के लिए ही वह मजबूरी में शेरनी का वेश बनाकर चुपचाप अपने दिन गुज़ार रही थी मगर देखो, यह दुष्ट बाघ अब भी उसे चैन से रहने नहीं दे रहा। लोमड़ियों, लकड़बघ्घों व कुत्तों की नारेबाजी तेज़ हो गयी। कुछ छछून्दर तो आगे बढ़-चढ़कर उस बाघ के गले का नाप भी मांगने लगे। गिरगिटों ने अपना रंग बदलते हुए तुरंत ही बाघ द्वारा किए जा रहे लोमड़ी-दमन के खिलाफ़ क्रांति की घोषणा कर दी। चमचौड़ कुत्ते ने फ़िल्मी स्टाइल में भौंकते हुए कहा, "हमारी नेता गाय सी सीधी हैं, जंगल के संविधान में संशोधन करके इन्हें राष्ट्रीय संरक्षित पशु घोषित कर दिया जाना चाहिये।" लोमड़ी ने घोषणा कर दी कि जिस जंगल में उसके जैसी शीलवान नारी को इस प्रकार सरेआम अपमानित किया जाता हो वह उस जंगल को तुरंत छोड़कर चली जायेगी। चमचौड़ कुत्ते ने लोमड़ी के तलवे चाटकर जंगलवासियों को बतलाया कि वह शब्दकोश में से रक्तपिपासु शब्द का अर्थ खूंख्वार से बदलकर शीलवान करने का राष्ट्रव्यापी आन्दोलन चलायेगा।
हमारी नेता गाय सी सीधी हैं, जंगल के संविधान में संशोधन करके इन्हें राष्ट्रीय संरक्षित पशु घोषित कर दिया जाना चाहिये।
लोमड़ियों, लकड़बघ्घों व कुत्तों ने लोमड़ी रानी से रुकने की अपील की और साथ ही बाघ को चेतावनी देकर उसे शेरनी माता यानी लोमड़ी से माफी मांगने को कहा। जब बाघ ने कोई ध्यान नहीं दिया तो अपने मद में चूर लोमड़ी ने अपनी ओर से ही बाघ को माफ़ करने की घोषणा खच्चर प्रेस में छपवा दी। और उसके बाद से नियमित रूप से बाघ के विरुद्ध कहानियाँ बनाकर छपवाने लगी। उसके साथी भी प्रचार में जुट गए। उन्हें लगा कि काम हो गया और लोग उसकी असलियत का सारा किस्सा भूल गए। मगर बाघपत्र से लेकर गर्दभ-समाचार तक किसी न किसी अखबार में अब भी गाहे-बगाहे उसके किसी न किसी अपराध का खुलासा हो जाता था। अब एक ही रास्ता था और शातिर लोमड़ी ने वही अपना लिया। उसने खच्चर प्रेस में एक नयी घोषणा छपवाकर गधों के साथ-साथ सभी चीतों, गेंडों, हाथियों और घोड़ों को भी अपना बाप बना लिया। जहाँ हाथी, घोड़े, गेंडे और चीते किसी दुष्ट लोमड़ी के ऐसे जबरिया प्रयास से खिन्न थे, वहीं गधे बहुत प्रसन्न हैं और अपनी नन्हीं सी, मुन्नी सी, प्यारी सी, भोली सी, (बन्दूक की गोली सी) गुड़िया के सम्मान में एक व्याघ्र-प्रतिरोध सम्मेलन आयोजित कर रहे हैं। पिछले कुछ दिनों से जंगल में कुत्तों की भौंक तेज़ होती जा रही है। गधों की संख्या भी दिन ब दिन कम होती जा रही है। लोमड़ी की भी मजबूरी है। चमचौड़ कुत्ते की दुकान में धेला न होना, लोमड़ी की शठता की पोल खुलना, शेरों का जंगल से पलायन, बाघ का कभी हाथ न आ सकना, इतने सारे दर्द, मगर पापी पेट का क्या करे लोमड़ी बेचारी?

गर्दभ-समाचार से छपते-छपते ताज़ा अपडेट: कुछ हंसों के विरुद्ध झूठे पर्चे बाँटने का प्रयास चारों खाने चित्त होने के बाद खिसियानी लोमड़ी जंगल के चीतों को कोरा बेवक़ूफ़ समझकर उन्हें बाघ के खिलाफ़ लामबन्द करने की उछलकूद में लगी है। देखते हैं काग़ज़ी हांडी कितनी बार चढती है।

[समाप्त]
[कहानी व चित्र :: अनुराग शर्मा]
अक्षय तृतीया पर आप सभी को मंगलकामनायें! *
==================
* कुछ अन्य बोधकृतियाँ *
==================
* तरह तरह के बिच्छू
* आधुनिक बोधकथा – न ज़ेन न पंचतंत्र
* कुपोस्ट से आगे क्या?
* नानृतम - एक कविता
* होलिका के सपने
* कोई लेना देना नहीं
* कवि और कौवा ....
* उगते नहीं उजाले

Saturday, April 21, 2012

ओहायो में सरस्वती दर्शन - इस्पात नगरी से [56]

सिनसिनाटी डाउनटाउन की एक इमारत पर भित्तिकला का नमूना
अमेरिका में भारतीय मूल के लोगों की संख्या भले ही कम हो, भारतीय सांस्कृतिक कार्यक्रमों की कोई कमी नहीं है। होली, दीवाली, रामनवमी हो, चाहे स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस या गान्धी जयंती, भारत से सम्बन्धित समारोह लगभग हर नगर में होते हैं। उत्सव भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग हैं। इन समारोहों में अन्य कार्यक्रमों के साथ साहित्य, संगीत, नृत्य आदि के कार्यक्रम भी चलते हैं। ऐसा नहीं कि यह सब बुज़ुर्गों द्वारा ही संचालित होता हो, नई पीढी भी अपनी सांस्कृतिक विरासत से जुड़े रहने में गर्व का अनुभव करती है। इस सांस्कृतिक गंगा से छलकती बून्दें अक्सर हमें भी भिगोती रहती हैं। इस रामनवमी पर एक भारतीय सांस्कृतिक कार्यक्रम के सिलसिले में ओहायो राज्य के सिनसिनाटी नगर में जाना हुआ। चार-पाँच सौ मील की दूरी को सड़क मार्ग से तय करना अमेरिका में सामान्य सी बात है। सिनसिनाटी मैं पहले भी जा चुका हूँ इसलिये कोई खास बात नहीं थी, मगर फिर भी एक खास बात तो थी। प्रसिद्ध कवयित्री और ब्लॉगर लावण्या जी से परिचय के बाद यह पहली सिनसिनाटी यात्रा थी।

अपनी लावण्या दीदी के घर अनुराग शर्मा
लावण्या जी की ममतामयी आवाज़ फ़ोन पर तो सुनता ही रहा हूँ। उनके साक्षात्कार का मौका छोड़ना नहीं चाहता था। उनकी कवितायें हों या प्रसिद्ध टीवी सीरियल महाभारत के लिये लिखे हुए दोहे, सभी अप्रतिम हैं। लेकिन एक कवयित्री से कहीं आगे वे एक उदार हृदय और महान व्यक्तित्व की स्वामिनी हैं। सुबह जल्दी उठकर घर से निकल पड़े और कुछ घंटों की ड्राइविंग के बाद महान कवि और स्वतंत्रता सेनानी पण्डित नरेन्द्र शर्मा की इस बिटिया के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

लावण्या जी एक कलाकार की कूची से

लावण्या जी को बिल्कुल वैसा ही पाया जैसा उनके बारे में सोचा था। उनके पति, बेटी, दामाद और सबका प्यारा नन्हा नोआ, इन सबके बारे में सुनते रहे थे, फ़ेसबुक पर उनसे मुलाकात भी होती रहती थी पर आमने-सामने मिलने की बात ही और है। बहुत खुशी हुई। बच्चे और दामादजी मिलकर मोनोपली खेलते रहे और बड़े लोगों की बातों का सिलसिला बैठक से शुरू होकर लावण्या जी के बनाये शुद्ध शाकाहारी भारतीय भोजन के साथ भी जारी रहा। सभी बहुत अच्छा था। उत्तर प्रदेश के अन्दाज़ में बनी दाल की खुशबू से ही माँ और मामियों की रसोई की याद आ गई।

सिनसिनाटी की यह घोड़ागाड़ी मानो किसी परीकथा से निकली है
पहली भेंट थी मगर ऐसा लग रहा था मानो हम लोगों की पहचान बहुत पुरानी हो। न जाने कितनी बातें थीं मगर समय तो सीमित ही था। शाम के कार्यक्रम में भाग लेने से पहले हमें होटल में चैक इन भी करना था। बातों-बातों में पता लगा कि कार्यक्रम के आयोजक लावण्या जी के परिचित हैं और वे स्वयं भी सपरिवार इस समारोह में आ रही हैं इसलिये उस समय उनसे विदा लेना बहुत भारी नहीं लगा। शाम को अत्यधिक भीड़ और अलग-अलग सीटिंग व्यवस्था बिना मिले ही ऑडिटोरियम से बाहर निकलने का सबब बनी। मगर लावण्या जी का आमंत्रण भी था और हम सब का मन भी, सो अगले दिन घर-वापसी के समय हम फिर उनके घर होते हुए आये। चाय नाश्ते के साथ उनकी रचनायें, माता-पिता से सम्बन्धित स्मृतियाँ, चित्र, कला आदि के दर्शन किये। पंडित जी की हस्तलिपि भी देखने को मिली। सभी परिजनों से विदा लेकर आते समय बड़े भाई, बहनों के घर से वापस आते समय की तरह ही वापसी में हमारे पास बहुत से उपहार थे। लेकिन सबसे बड़ा उपहार था एक बड़ी बहन का स्नेहसिक्त आशीर्वाद!
* सम्बन्धित कड़ियाँ *
* इस्पात नगरी से - श्रृंखला
* पण्डित नरेन्द्र शर्मा - कविता कोश
* रथवान का पाठ - लावण्या जी द्वारा
* लावण्या शाह - वेबसाइट

Sunday, April 8, 2012

खट्टे अंगूर - कविता

(अनुराग शर्मा)

काँटों का सौन्दर्य
सूरज क्रूर
रेत तन्दूर
वृक्ष खजूर

छिन्न गरूर
मिटता नूर
घायल शूर

विरह दस्तूर
सनम मगरूर
सदा मखमूर

फ़र्जी मंसूर
खफ़ा हुज़ूर
प्रीतम दूर

रंज भरपूर
वे मशहूर
मैं मजबूर

Saturday, March 3, 2012

मैं भी एक कवि बन पाता - कविता

[अनुराग शर्मा]

चित्र व कविता: अनुराग शर्मा
आग तुम्हारे अन्तर की मैं
अपने दिल में जला पाता
दर्द पिरो सकता सीने में
मैं भी एक कवि बन पाता

अन्धियारी यह रात अमावस
बन खद्योत चमका जाता
नहीं समझता अलग किसी को
मैं भी एक कवि बन पाता

एक जंगली फूल किसी
वनवासी के केश लगाता
पीर समझता बिना बिवाई
मैं भी एक कवि बन पाता

मुझे मिला सब बिना शर्त
वह प्यार अगर लौटा पाता
तू-तू मैं-मैं से ऊपर उठ
मैं भी एक कवि बन पाता

सत्य ढंका क्यों स्वर्णपात्र से
खोल सकें तो ज्ञान सत्य है
ग्रहण हटा, कर ज्योति ग्रहण
मैं भी एक कवि बन पाता

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखं। तत्त्वं पूषन्न अपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।।
[~ईशोपनिषद - 15]

Thursday, January 12, 2012

सीमा - कविता

कैसा होता है प्यार? जीत के सब बस हार
सीमा तुम जकड़े थीं मुझको 
अपनी कोमल बाँहों में 
भूल के सुधबुध खोया था मैं 
सपनीली राहों में 
छल कैसा सच्चा सा था वह 
जाने कैसे उबर सका 
सत्य अनावृत देखा मैंने 
अब तक था जो दबा ढंका 
सीमा में सिमटा मैं अब तक 
था कितना संकीर्ण हुआ 
अज्ञ रहा जब तक असीम ने 
मुझको नहीं छुआ। 

Wednesday, December 7, 2011

क़ौमी एकता - लघुकथा

"अस्सलाम अलैकुम पण्डित जी!  कहाँ चल दिये?

"अरे मियाँ आप? सलाम! मैं ज़रा दुकान बढ़ा रहा था। मुहर्रम है न आज!"

"तो? इतनी जल्दी क्यों? आप तो रात-रात भर यहाँ बैठते हैं। आज दिन में ही?"

"क्या करें मियाँ, बड़ा खराब समय आ गया है। आपको पता नहीं पिछली बार कितना फ़जीता हुआ था? और फिर आज तो तारीख भी ऐसी है।"

"अरे पुरानी बातें छोड़ो पण्डित जी। आज तो आप बिल्कुल बेखौफ़ हो के बैठो। आज मैं यहीं हूँ।"

"मियाँ, पिछली बार आपके मुहल्ले का ही जुलूस था जिसने आग लगाई थी।"

"मुआफ़ी चाहता हूँ पण्डित जी, तब मैं यहाँ था नहीं, इसीलिये ऐसा हो सका। अब मैं वापस आ गया हूँ, सब ठीक कर दूँगा।"

"अजी आपके होने से क्या फ़र्क पड़ेगा? कहीं आपकी भी इज़्ज़त न उतार दें मेरे साथ।"

"उतारने दीजिये न, वो मेरी ज़िम्मेदारी है! लेकिन आप दुकान बन्द नहीं करेंगे आज।"

"शर्मिन्दा न करें, आपकी बात काटना नहीं चाहता हूँ, पर मैं रुक नहीं सकता ... जान-माल का सवाल है।"

"पर-वर कुछ नहीं। आज मैं यहीं बैठकर चाय पियूँगा। जुलूस गुज़र जाने तक यहीं बैठूंगा। देखता हूँ कौन तुर्रम खाँ आगे आता है।"

"क्यों अपने आप को कठिनाई में डाल रहे हो मियाँ? इतने समय के बाद मिले हो। मेरे साथ घर चलो, वहीं बैठकर चाय भी पियेंगे, बातें भी करेंगे। खतरा मोल मत लो। "

"न! खुदा कसम पूरा जुलूस गुज़र जाने तक मैं आज यहाँ से उठने वाला नहीं । होरी से कहकर यहीं दो चाय मंगवाओ।"

"आप समझ नहीं रहे हैं मियाँ, अब पहले वाली बात नहीं रही। आज की पीढ़ी हम बुज़ुर्गों की भावनाएँ नहीं समझती। हम जैसों को ये अपना दुश्मन मानते हैं।"

"आप यक़ीन कीजिये, इन लौंडे-लपाड़ों में किसी की मज़ाल नहीं जो मेरे सामने खड़ा हो जाये। आज जुलूस उठने से पहले सही-ग़लत सब समझा के आया हूँ मैं।"

"जैसी आपकी मर्ज़ी मियाँ! होरी, जा मुल्ला जी के लिये एक स्पेशल चाय बना ला फ़टाफ़ट!"

"एक नहीं, दो!"

"अरे मैं अभी चाय पी नहीं पाऊंगा, मौत के मुँह में बैठा हूँ।"

"वो परवरदिग़ार सबकी हिफ़ाज़त करता है। जब तक मैं यहाँ हूँ, आप बेफ़िक्र होकर बैठिए।"

"बेफ़िकर? ज़रा पलट के देखिये! आ गये हुड़दंगी। शीशे तोड़ रहे हैं। ताजिये दिखने से पहले तो जलाई हुई दुकानों का धुआँ दिखने लगा है।"

"या खुदा! ये कैसे हो गया? चलने से पहले मैने सबको समझाया था, क़ौमी एकता पर एक लम्बी तकरीर दी थी।"

"बस ऐसे ही होता है आजकल। एक कान से सुनकर दूसरे से निकालते हैं। अब मेरी जान और दुकान आपके हवाले है।"

"ज़ाकिर!, हनीफ़! क्या हो रहा है ये सब? क्या बात तय हुई थी जुलूस उठने से पहले?"

"अरे आप यहाँ? सब खैरियत तो है?"

"मुझे क्या हुआ? थोड़ा तेज़ चलकर पण्डितजी से मिलने आ गया था।"

"शहर का माहौल इतना खराब है। आपको ऐसे बिना-बताये ग़ायब नहीं होना चाहिये था।"

"बेटा, ये पण्डित रामगोपाल हैं, मेरे लिये सगे भाई से भी बढ़कर हैं।"

"वो तो ठीक है। लेकिन आपको ग़ायब देखके वहाँ तो ये उड़ गयी कि हिन्दुओं ने आपको अगवा कर लिया है ... हमने बहुत रोका. मगर जवान खून है, बेक़ाबू हो गया। हम भी क्या करते? किस-किस को समझाते?"

Tuesday, November 29, 2011

इमरोज़, मेरा दोस्त - लघुकथा

फ़्लाइट आने में अभी देर थी। कुछ देर हवाई अड्डे पर इधर-उधर घूमकर मैं बैगेज क्लेम क्षेत्र में जाकर बैठ गया। फ़ोन पर अपना ईमेल, ब्लॉग आदि देखता रहा। फिर कुछ देर कुछ गेम खेले, विडियो क्लिप देखे। इसके बाद आते जाते यात्रियों को देखने लगा और जब इस सबसे बोर हो गया तो मित्र सूची को आद्योपांत पढकर एक-एक कर उन मित्रों को फ़ोन करना आरम्भ किया जिनसे लम्बे समय से बात नहीं हुई थी।

जब कनवेयर बेल्ट चलनी शुरू हो गयी और कुछ लोग आकर वहाँ इकट्ठे होने लगे तो अन्दाज़ लगाया कि फ़्लाइट आ गयी है। जहाज़ से उतरते समय कई बार अपरिचितों को लेने आये लोगों को अतिथियों के नाम की पट्टियाँ लेकर खड़े देखा था। आज मैं भी यही करने वाला था। इमरोज़ को कभी देखा तो था नहीं। शार्लट के मेरे पड़ोसी तारिक़ भाई का भतीजा है वह। पहली बार लाहौर से बाहर निकला है। लोगों को आता देखकर मैंने इमरोज़ के नाम की तख़्ती सामने कर दी और एस्केलेटर से बैगेज क्लेम की ओर आते जाते हर व्यक्ति को ध्यान से देखता रहा। एकाध लोग दूर से पाकिस्तानी जैसे लगे भी पर पास आते ही यह भ्रम मिटता गया। सामान आता गया और लोग अपने-अपने सूटकेस लेकर जाने भी लगे। न तो किसी ने मेरे हाथ के नामपट्ट पर ध्यान दिया और न ही एक भी यात्री पाकिस्तान से आया हुआ लगा। धीरे-धीरे सभी यात्री अपना-अपना सामान लेकर चले गए। बैगेज क्लेम क्षेत्र में अकेले खड़े हुए मेरे दिमाग़ में आया कि कहीं ऐसा तो नहीं कि इमरोज़ के पास चेक इन करने को कोई सामान रहा ही न हो और वह यहाँ आने के बजाय सीधा एयरपोर्ट के बाहर निकल गया हो।

मैं एकदम बाहर की ओर दौड़ा। दरवाज़े पर ही घबराया सा एक आदमी खड़ा था। देखने में उपमहाद्वीप से आया हुआ लग रहा था। इस कदर पाकिस्तानी, या भारतीय कि अगर कोई भी हम दोनों को साथ देखता तो भाई ही समझता। मैंने पूछा, "इमरोज़?"

"अनवार भाई?" उसने मुस्कुराकर कहा।

"आप अनवार ही कह लें, वैसे मेरा नाम ..." जब तक मैं अपना नाम बताता, इमरोज़ ने आगे बढकर मुझे गले लगा लिया। हम दोनों पार्किंग की ओर बढे। उसका पूरा कार्यक्रम तारिक़ भाई ने पहले ही मुझे ईमेल कर दिया था। कॉलेज ने उसका इंतज़ाम डॉउनटाउन के हॉलिडे इन में किया हुआ था। आधी रात होने को आयी थी। पार्किंग पहुँचकर मैंने गाड़ी निकाली और कुछ ही देर में हम अपने गंतव्य की ओर चल पड़े। ठंड बढने लगी थी। हीटिंग ऑन करते ही गला सूखने का अहसास होने लगा। रास्ते में बातचीत हुई तो पता लगा कि उसने डिनर नहीं किया था। अब तक तो सारे भोजनालय बन्द हो चुके होंगे। अपनी प्यास के साथ मैं इमरोज़ की भूख को भी महसूस कर पा रहा था। डाउनटाउन में तो वैसे भी अन्धेरा घिरने तक वीराना छा जाता है। अगर पहले पता होता कि बाहर निकलने में इतनी देर हो जायेगी तो मैं घर से हम दोनों के लिये कुछ लेकर आ जाता।

जीपीएस में देखने पर पता लगा कि इमरोज़ के होटल के पास ही एक कंवीनियेंस स्टोर 24 घंटे खुला रहता है। होटल में चैकइन कराकर फिर मैं उन्हें लेकर स्टोर में पहुँचा। पता लगा कि वे केवल हलाल खाते हैं, इसलिये केवल शाकाहारी पदार्थ ही लेंगे। मैंने उनके लिये थोड़ा पैक्ड फ़ूड लिया। पूछने पर पता लगा कि फलों के रस उन्हें खास पसन्द नहीं सो उनके लिये कुछ सॉफ़्ट ड्रिंक्स लिये और साथ में अपने सूखते गले के लिये अनार का रस और पानी की एक बोतल।

पैसे चुकाकर मैं स्टोर से बाहर आया तो वे पीछे-पीछे ही चलते रहे। होटल के बाहर सामान की थैली उन्हें पकड़ाते हुए जब तक मैं अपने लिये ली गयी बोतलें निकालने का उपक्रम करता, वे थैली को जकड़कर "अल्लाह हाफ़िज़" कहकर अन्दर जा चुके थे।

घर पहुँचा तो रात बहुत बीत चुकी थी। गला अभी भी सूख रहा था बल्कि अब तो भूख भी लगने लगी थी। थकान के कारण रसोई में जाकर खाना खोजने का समय नहीं था, बनाने की तो बात ही दूर है। वैसे भी सुबह होने में कुछ ही घंटे बाकी थे। 6 बजे का अलार्म लगाकर सोने चला गया। रात भर सो न सका, पेट में चूहे कूदते रहे। सुबह उठने तक सपने में भाँति-भाँति के उपवास रख चुका था। जल्दी-जल्दी तैयार होकर सेरियल खाया और इमरोज़ को साथ लेने के लिये उनके होटल की ओर चल पड़ा।

इमरोज़ जी होटल की लॉबी में तैयार बैठे थे। मेरी नमस्ते के जवाब में मेरे हाथ में बिस्कुट का एक पैकेट और रस की बोतल पकड़ाते हुए रूआँसे स्वर में बोले, "आपका जूस तो मेरे पास ही रह गया था। आपको रास्ते में प्यास लगी होगी, यह सोचकर मैं तो रात भर सो ही न सका।"

30 नवम्बर 2011: कोलकाता विश्व विद्यालय में आगंतुक प्रवक्ता और विश्वप्रसिद्ध अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन का १७६ वां जन्मदिन
[समाप्त]

Tuesday, November 22, 2011

आधुनिक बोधकथा – न ज़ेन न पंचतंत्र

आभार
यह लघुकथा गर्भनाल के नवम्बर अंक में प्रकाशित हुई थी। जो मित्र वहां न पढ़ सके हों उनके लिए आज यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। कृपया बताइये कैसा रहा यह प्रयास।
... और अब कहानी

आधुनिक बोधकथा – न ज़ेन न पंचतंत्र
जब लोमडी को आदमी के बच्चों के मांस का चस्का लगा तो उसने बाकी कठिन शिकार छोड़कर भोले और कमज़ोर मनु-पुत्रों को निशाना बनाना शुरू किया। गाँव के बुज़ुर्गों को चिंता हुई तो उन्होंने बच्चों को गुलेल चलाना सिखा दिया। अभ्यास के लिये बच्चों ने जब गुलेल को ऊपर चलाया तो आम, जामुन और न जाने क्या-क्या अमृत वर्षा हुई। अभ्यास के लिये नीचे नहीं भी चलाया बस खुद चले तो भी कीचड़ और अन्य प्रकार की अशुद्धियाँ और मल आदि में सने। बच्चों ने सबक यह सीखा कि सज्जनों से पंगा भी हो जाय तो उसमें भी सब का भला होता है और दुर्जनों से कितनी भी दूरी रखो, बचा नहीं जा सकता।

उधर बच्चों के सशस्त्र होते ही लोमड़ी बेचैन सी इधर-उधर घूमने लगी। जब भी बच्चों की ओर मुँह मारती, पत्थर मुँह पर पड़ते। थक हारकर बिना कुछ सोचे-समझे एक गुफ़ा के सामने खेलते नन्हें शावकों पर झपट पड़ी और शावकों के पिता सिंह जी वनराज का भोजन बनी। शावकों ने सबक यह सीखा कि भूखी और बेचैन होने पर लोमड़ियों को अपनी खाल के अन्दर सुरक्षित रह पाने लायक बुद्धि नहीं बचती।

[समाप्त]

Wednesday, October 19, 2011

अनुरागी मन - कहानी अंतिम कड़ी (भाग 21)

अनुरागी मन - अब तक - भाग 1भाग 2भाग 3भाग 4भाग 5भाग 6भाग 7भाग 8भाग 9भाग 10भाग 11भाग 12भाग 13भाग 14भाग 15भाग 16भाग 17भाग 18भाग 19भाग 20;
पिछले अंकों में आपने पढा: दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे, फिर पता पता लगा कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डांवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीडा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये| ज़रीना खानम के विवाह के अवसर पर झरना के विषय में हुई बड़ी ग़लतफ़हमी सामने आयी जिसने वीर के हृदय को ग्लानि से भर दिया। और उसके बाद निक्की के बारे में भी सब कुछ स्पष्ट हो गया। वीर की नौकरी लगी और ईर, बीर, फ़त्ते साथ में नोएडा रहने लगे। वीर ने अपनी दर्दभरी दास्ताँ दोस्तों को सुनाई और वे तीनों झरना के लिये मन्नत मांगने थानेसर पहुँच गये। फिर एक दिन जब तीनों परिक्रमा रेस्त्राँ में थे तब वीर ने वहाँ झरना को देखा परंतु झरना ने बात करना तो दूर, उन्हें पहचानने से भी इनकार कर दिया। वापस घर आते समय एक ट्रक ने उनकी कार को टक्कर मारी और पुलिस ने अस्पताल पहुँचाया।
अब आगे भाग 21 ...

दिल्ली मेरी दिल्ली
पुलिस ने फ़ोन से तीनों के घर पर सूचना भिजवा दी। ईर और फ़त्ते को तो प्राथमिक चिकित्सा के बाद छोड़ दिया गया। मगर वीर को गहन चिकित्सा कक्ष में ले जाया गया। तब तक सुबह हो चुकी थी। ईर और फ़त्ते उनीन्दे बैठे बाहर इंतज़ार कर रहे थे। बीच में कुछ डॉक्टरों ने इन दोनों को वीर की स्थिति के बारे में ब्रीफ़िंग भी दी। उनके जाने के बाद दोनों विचारमग्न थे कि बाहर का दरवाज़ा खुला और मानो सुबह की रोशनी की किरण जगमगाई हो। सूर्य के प्रकाश के साथ ही एक बदहवास कंचनकाया अन्दर आयी। एक पल ठिठककर झरना ने ईर और फ़त्ते को देखा और फिर घबराकर पूछा, "वीर? ... वीर कहाँ है?"

"ठीक है। अन्दर है।" ईर ने बताया।

"तुम लोग यहाँ हो तो वह अन्दर क्यों है?" झरना की आँखों से स्पष्ट था कि वह रात भर सो नहीं सकी थी।

"उसके कन्धे में लगी है थोड़ी। सीरियस है पर ठीक हो जायेगा।" फ़त्ते ने झरना को दिलासा देते हुए कहा। वह कहना चाहता था कि अगर आज आना ही था तो कल क्यों चली गयी थीं। मगर उसे यह समय ऐसी बात के लिये ठीक नहीं लगा। झरना ने बताया कि वह वीर से अब भी बहुत प्यार करती है और सदा करती रहेगी। दिल्ली आने से पहले वह नई सराय जाकर उसकी दादी और माँ से मिली भी थी और नोएडा का पता भी लेकर आयी थी। लेकिन साथ-साथ वह वीर के पिछले व्यवहार के कारण उससे बहुत गुस्सा भी थी और उसे यह भी समझाना चाहती थी कि बेरुखी कितनी क्रूर होती है। लेकिन परिक्रमा में वीर के प्रति अपने दुर्व्यवहार के बाद वह रात भर सो न सकी। अलस्सुबह फ़त्ते के घर पहुँची और वहाँ से सारी बात पता लगते ही अस्पताल आयी।

झरना ने बताया कि उसके माता-पिता के जाने के बाद बस वीर ही एक ऐसा व्यक्ति है जिसे वह नितांत अपना मानती है और उस पर अपना अधिकार समझती है। शायद इसी कारण उसकी अपेक्षा कुछ अधिक ही बढ गयी थी। उसे लगा कि जब वह परिक्रमा से बाहर जायेगी तो वीर आगे बढकर उसे रोक लेगा, जाने नहीं देगा। फ़त्ते ने बताया कि वीर तो रोकने जा रहा था पर उसे फ़त्ते ने पकड़कर रोका हुआ था। झरना ने अपने हाथों से उन दोनों का एक-एक हाथ पकड़कर एक घेरा बनाया। फिर आंखें बन्द करके वीर के लिये एकसाथ मिलकर प्रार्थना करने को कहा। तीनों ने मन में भगवान का नाम लिया। तीनों की आँख से मानो अनुराग के झरने बह रहे थे।

आँखें खुलीं तो दो डॉक्टर उनके सामने खड़े थे।

एक ने कहना आरम्भ किया, "हमें अफ़सोस है कि ..."

दूसरे ने वाक्य पूर्ण किया, "ही इज़ नो मोर! वी आर एक्स्ट्रीमली सॉरी! ... ... ..." वे बोलते गए पर शब्द मानो अपना अर्थ खो चुके थे।

अपने साथ आने का इशारा करके डॉक्टर उन्हें वहाँ तक ले गये जहाँ वीर ने अंतिम साँस ली थी। फ़फ़क-फ़फ़क कर रोते हुए फ़त्ते ने अपनी जेब से निकालकर कागज़ का एक छोटा सा टुकड़ा सिसकती हुई झरना को दिया जिसे वीर ने दुर्घटना के तुरन्त बाद फ़त्ते की सहायता से लिखा था।
प्रिय झरना,

बाबा रे, मेरी परी को इतना गुस्सा आता है! सब दिखावा है न? मुझे पता है कि तुम मुझे चाहती हो। मैं भी तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ। मेरे मरते दम तक तुम मेरे दिल में रहोगी। ईश्वर तुम्हें सकुशल रखे।

केवल तुम्हारा,
अनुरागी मन
[समाप्त (अंततः)]

===============
सम्बन्धित कड़ियाँ
===============
* नहीं जाना कुँवर जी - पीनाज़ मसानी - अमीर आदमी गरीब आदमी
* अनुरागी मन - लता मंगेशकर - रजनीगन्धा

अनुरागी मन - कहानी (भाग 20)

अनुरागी मन - अब तक - भाग 1भाग 2भाग 3भाग 4भाग 5भाग 6भाग 7भाग 8भाग 9भाग 10भाग 11भाग 12भाग 13भाग 14भाग 15भाग 16भाग 17भाग 18भाग 19;
पिछले अंकों में आपने पढा: दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे, फिर पता पता लगा कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डाँवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीडा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये। ज़रीना खानम के विवाह के अवसर पर झरना के विषय में हुई बड़ी ग़लतफ़हमी सामने आयी जिसने वीर के हृदय को ग्लानि से भर दिया। और उसके बाद निक्की के बारे में भी सब कुछ स्पष्ट हो गया। वीर की नौकरी लगी और ईर, बीर, फ़त्ते साथ में नोएडा रहने लगे। वीर ने अपनी दर्दभरी दास्ताँ दोस्तों को सुनाई और वे तीनों झरना के लिये मन्नत मांगने थानेसर पहुँच गये। फिर एक दिन जब तीनों परिक्रमा रेस्त्राँ में थे तब वीर ने वहाँ झरना को देखा परंतु झरना ने बात करना तो दूर, उन्हें पहचानने से भी इनकार कर दिया।
अब आगे भाग 20 ...
कंसर्ट के समापन तक कार्यक्रम स्थल का माहौल किसी उत्सव जैसा हो गया था। मगर वीर के दिल में मुर्दनी छाई थी। वे मानो नई सराय की उसी रात को उसी नहर के किनारे के श्मशानघाट में खड़े थे जहाँ दादाजी की चिता जल रही थी। लपटें उनके बदन को छू रही थीं, वे झुलस रहे थे। उनको बार-बार अपने जीवन पर धिक्कार हो रहा था। कैसे व्यक्ति हैं वे? अनजाने में ही सही, पर पहले किसी को इतना सताया और अब समय आने पर ढंग से क्षमा तक नहीं मांग पाये।

बाहर आकर कार में बैठने तक दोनों साथी वीर का एक-एक हाथ पकड़े हुए उनके दायें-बायें चलते रहे। ईर ने प्रस्ताव रखा कि आज गाड़ी वह चलायेगा और फ़त्ते वीर के साथ पीछे बैठेगा।

"मैं उससे मिलने जाऊँगा। वासिफ़ के अब्बा से मिलकर उसे खोजूंगा। उनसे ज़रूर मिली होगी वह।"

"मिल तो लिया तू एक बार। अब क्यों जायेगा फिर से?" अरविन्द झ्ंझलाया। वह आज की घटना से बहुत अप्रसन्न था।

"माफ़ी मांगने, और क्यों?" वीर ने स्पष्ट किया।

"आज मांग तो ली तूने माफ़ी" फत्ते ने दृढ स्वर में कहा, "तू नहीं जाता, अब वह आयेगी तुझसे मिलने, माफ़ी मांगने ..." फ़त्ते रुका नहीं "हम कोई गिरे पड़े नहीं है। लाइन लगी है लड़कियों की। वह समझती क्या है अपने आप को। "

"लेकिन ... उसकी ग़लती नहीं है" वीर ने सफ़ाई सी दी।

"बहुत खूबसूरत है वो? हूर की परी? मेरा भाई भी लाखों में एक है। जो लड़की तेरे जैसे को नहीं पहचानी, वो बेकार है, एकदम बेकार! शराफ़त की भी एक हद होती है।"

"और मैंने जो दुःख दिया है उसे, उसका क्या?"

"अरे तू गया तो था माफ़ी मांगने। हम सब सुन रहे थे पीछे खड़े हुए। ओ वीर, दुनिया देखी है मैंने। ये लड़की तेरे लायक नहीं है" फ़त्ते पहले तो गुस्सा हुआ और फिर अपने को शांत करते हुए बोला, "लेकिन सब्र कर, अगर तेरी मर्ज़ी यही है तो वो तुझे मिलेगी ज़रूर, वो खुद आयेगी। लेकिन ये होगा तभी जब तू अपनी तरफ़ से उससे बिल्कुल भी न मिले।"

"कैसे आयेगी अपने आप? क्या पता आज की ही वापसी फ़्लाइट हो उसकी?" वीर सम्भावनायें तलाश रहे थे।

"तो अगली फ़्लाइट में मिलना" गाड़ी चलाता हुआ ईर भी बातचीत में शामिल था।

"ओये तू मुर्गे की तरह गर्दन पाछे क्यों कर रहा है। सामने देख के चला। छोरे को घर पहुँचाने की ज़िम्मेदारी अब तेरे ही ऊपर है।

"और तुम्हारा क्या?" ईर हँसा।

"हम तो अब इसके लिये एक स्वर्ग की परी ढूँढकर लायेंगे ... अब हँस भी दे मेरे भाई। कह दिया न वो आयेगी। कैसे आयेगी ये हमारे भरोसे पर छोड़ दे।"

चींSSS ...। जब तक ईर देख पाता चौराहे पर बती लाल हो चुकी थी। उसने एकदम से ब्रेक लगाये। नई गाड़ी, नये टायर होते हुए भी सड़क पर पड़ी नन्ही रोड़ी व धूल के कारण पहियों की पकड़ न बन सकी। गाड़ी एक झटके के साथ रुकी लेकिन जब तक तीनों होश पाते, एक झटका और लगा। ईर तो रुक गया था मगर उनके पीछे तेज़ी से आता हुआ ट्रक रुकने के मूड में नहीं था। जब तक संभलते, लोहे की शीट्स से लदा ट्रक इनकी कार का बायाँ भाग छील चुका था। और कार के साथ ही छिले थे वीर सिंह। झटके तीनों को लगे परंतु वीर सिंह का वामस्कन्ध रगड़ा गया, शायद हड्डी टूटी थी। रक्त भी बहने लगा। वे बहुत पीड़ा में थे और दुर्भाग्य यह कि पूरे होशोहवास में थे।

ईर ने गाड़ी से बाहर निकलकर आते जाते वाहनों को रोकने का असफल प्रयास किया जबकि फ़त्ते ने वीर को सम्भाला।

"अगर मैं जीवित नहीं रहूँ तो परी से मेरी तरफ़ से तुम ही माफ़ी मांग लेना।"

"तुझे तो कुछ हुआ ही नहीं। ऐसे मत बोल। मरहम पट्टी करके ठीक कर देंगे तुझे।"

"एक काम कर दो मेरा ..." वीर ने हाथ बढ़ाया। फ़त्ते ने वीर को इतना हताश पहले कभी भी नहीं देखा था।

किस्मत अच्छी थी। कुछ ही देर में, दिल्ली पुलिस की एक पीसीआर जिप्सी वहाँ थी, पीछे-पीछे दूसरी। कुछ ही देर में तीनों सफ़दरजंग अस्पताल में थे। वीर पहले उधर से कई बार निकल चुके थे। एमर्जेंसी के बाहर कतार से सीधे खड़े शाल्मली के लाल फूलों से आच्छादित ऊँचे विशाल वृक्ष उन्हें बहुत पसन्द थे मगर आज यहाँ होते हुए भी वे उन्हें देख नहीं सके थे।

[क्रमशः]