ठंड के गहराने के साथ ही पश्चिम में उत्सवों का मौसम शुरू हो जाता है। जो क्रिसमस से नववर्ष तक अपने चरम पर होता है। क्रिसमस और नव वर्ष से तो हम सभी परिचित हैं। लगभग इसी समय यहाँ दो अन्य उत्सव भी मनाये जाते हैं - हनूका और क्वांज़ा।
बर्फ में जमी चार्ल्स नदी
हनूका, ज़्हनूका, या चनूका, (Hanukkah, χanuˈka, Chanukah or Chanuka) यहूदियों का प्रकाशोत्सव है जो आठ दिन तक चलता है। यह उत्सव हिब्रू पंचांग के किस्लेव मास की 25 तारीख को आरम्भ होता है और इस प्रकार सामान्यतः नवम्बर-दिसम्बर में ही पडता है। नौ मोमबत्तियों वाले एक विशेष दीपदान "मनोरा (Menorah) को आठ दिन तक ज्योतिर्मय रखा जाता है। हर दिन की एक रोशनी और नवीं "शमश" हर दिन के लिये अतिरिक्त प्रयोग के लिये। क्योंकि हनूका की मोमबत्तियों का प्रयोग अन्य किसी भी काम के लिये वर्जित है। हनूका शब्द की उत्पत्ति हिब्रू की क्रिया "समर्पण" से हुई है।
जमी नदी का एक और दृश्य
हनूका का उद्गम दंतकथाओं में छिपा है परंतु उसमें भी तत्कालीन शासकों द्वारा यहूदी धार्मिक विश्वासों के दमन की टीस है। 167 ईसा पूर्व में विदेशी शासन द्वारा यहूदी धार्मिक कृत्य खतना को प्रतिबन्धित कर दिया गया और उनके मन्दिर में प्रतिबन्धित पशु सुअर की बलि देना आरम्भ कर दिया था। यहूदी इस दमन के खिलाफ एकत्र हुए। हिंसक विरोध सफल होने में एक वर्ष लगा। मन्दिर मुक्त हुआ और बाद में इस मुक्ति को एक वार्षिक उत्सव के रूप में स्थापित किया गया। मन्दिर का दीप जलाने के लिये प्रयुक्त होने वाला जैतून का तेल केवल एक दिन के लिये काफी था। नई आपूर्ति आठ दिन के बाद आयी परंतु जन-विश्वास है कि मन्दिर का दीप उन आठ दिनों तक उस एक दिन के तेल से ही जलता रहा।
हनूका की मोमबत्तियाँ अन्धेरा घिरने के एक घंटे बाद (या उसके भी बाद) ही जलाई जाती हैं और उस समय हनेरोट हलालु गीत गाया जाता है जिसमें प्रभु को पूर्वजों और पूर्व पुजारियों की रक्षा और सफलता के लिये आभार प्रकट किया जाता है, साथ ही यह प्रण भी कि इन पवित्र मोमबत्तियों का प्रयोग अपने दैनन्दिन सामान्य कार्यों में नहीं करेंगे।
एक हसीन सुबह को मैंने कहा, "मसूरी चलें, सुबह जायेंगे, शाम तक वापस आ जायेंगे।"
उसने कहा, "नहीं, सब लोग बातें बनायेंगे, पहले ही हमारा नाम जोड़ते रहते हैं।"
वह मुड़ गयी और मैं कह भी न सका कि बस स्टॉप तक तो चल सकती हो।
मैंने कहा, "ऑफिस से मेरे घर आ जाना, बगल में ही है।"
"नहीं आ सकती आज भैया का कोई मित्र मुुुुझे लेने आयेगा, उसके साथ ही जाना होगा" कहकर उसने फोन रख दिया, मैं सोचता ही रह गया कि दुनिया आज ही खत्म होने वाली तो नहीं। क्या कल भी हमारा नहीं हो सकता?
मैंने कहा, "सॉरी, तुम्हारा समय लिया।"
उसने कहा, "कोई बात नहीं, लेकिन अभी मेरे सामने बहुत सा काम पड़ा है।"
मैंने कहा, "कॉनफ़्रेंस तो बहाना थी, आया तो तुमसे मिलने हूँ।"
उसने कहा, "कॉनफ़्रेंस में ध्यान लगाओ, तुम्हारे प्रमोशन के लिये ज़रूरी है।"
मैंने कहा, "एक बेहद खूबसूरत लडकी से शादी का इरादा है।"
उसने कहा, "मुझे ज़रूर बुलाना। मैंने कहा, "तुम्हें तो आना ही पड़ेगा।"
उसने कहा, "ज़िन्दगी गिव ऐंड टेक है..." और इठलाकर बोली, "तुम मेरी शादी में आओगे तो मैं भी तुम्हारी में आ जाऊंगी।"
मैं अभी तक वहीं खडा हूँ। वह तो कब की चली भी गयी अपनी शादी का कार्ड देकर।
पूर्वकथा:
दादाजी के पिछ्डे से कस्बे में वीरसिंह को एक अलौकिक सुन्दरी बार-बार दिखती है। वासिफ के घर उससे एक नाटकीय भेंट होती है और आशाओं पर तुषारापात भी।
चन्द्रमा चित्र: अनुराग शर्मा [Photo: Anurag Sharma]
अनुरागी मन - अब आगे:
“हे भगवान! यह क्या हो रहा है” वीरसिंह अपनी कहानी कहते हुए मानो उसी बीते हुए काल में लौट गये हों। अब वे और वासिफ हवेली के बाहर खड़े थे। वासिफ उन्हें अकेले वापस भेजने को कतई तैयार न था परंतु वे अकेले ही घर जाने पर अड़े हुए थे। आगे की बात वीरसिंह के शब्दों में।
मुझे अकेले वापस जाने में डर लग रहा था। शायद रास्ते में चक्कर खाकर गिर पड़ूँ या फिर अपनी ही धुन में खोया हुआ रास्ता पार करते समय पीछे से आती लॉरी का भोंपू सुन न पाऊँ और दुनिया त्याग दूँ। मैं मौत से नहीं डरता लेकिन मेरा भय केवल इस बात का था कि माँ मेरी अकाल मृत्यु को सह नहीं पायेंगी। ऊपर से आकाश में छाये घने बादल और रह-रहकर कड़कती बिजली। यहाँ आते समय तो आसमान एकदम साफ था, फिर अचानक इतनी देर में यह क्या हो गया?
नहीं, मैं अकेले घर नहीं जा सकता था, उस समय और वैसी मानसिक स्थिति में मुझे हवेली से बाहर निकलना ही नहीं चाहिये था। लेकिन मैं हवेली में रुक भी नहीं सकता था और वासिफ के साथ चल भी नहीं सकता था। मुझे जाना था और अकेले ही जाना था। घर दूर ही कितना है? मैं होश में नहीं था। उसके सामने न जाने क्या सही-गलत बक दूँ अपनी परी के बारे में? नहीं, मैं परी का मान कम नहीं होने दूंगा। परी का मान? किस बात का मान? वाग्दत्ता होकर मुझसे प्यार की पैंगें बढ़ाने वाली का? न झरना अप्सरा है, न मैं देव हूँ, और न ही नई सराय हमारा असीम स्वर्ग। और फिर नई सराय है ही कितनी बड़ी? खो नहीं जाऊंगा? छोटी सी नई सराय तो आज से मेरे लिये ऐसा नर्क है जिसकी आग में मैं ताउम्र जलूँगा।
पाँव मन-मन के हो रहे थे और मन हवेली में अटका था। मेरा मन. मेरा पवित्र मन एक चरित्रहीन की चुन्नी में कैसे अटक सकता है? इतना कमज़ोर तो तू कभी भी नहीं था। झटक दे वीर, उसे अभी यहीं झटक दे। इस चार दिन के भ्रूण को जन्मने नहीं देना है। काल है यह, नाश है दो सम्माननीय परिवारों का।
मानस के अंतर्द्वन्द्व से गुत्थमगुत्था होते हुए वीर धीरे-धीरे हवेली से दूर होते गये। अचानक घिर आयी काली घटा ने पूर्णिमा के चाँद को अपने आगोश में बन्द सा कर लिया था। छिटपुट बून्दाबान्दी भी शुरू हो गयी थी।
कुछ ही दूर पहुँचे थे कि 8-10 वर्ष की एक बच्ची उनकी ओर दौड़ती हुई आती दिखी। जब तक वे कुछ समझ पाते, वह आकर उनसे लिपट गयी। वे हतप्रभ थे। अपने हाथों से उनकी कमर को घेरे-घेरे ही बच्ची ने कहा, “कहाँ चले गये थे आप? इतनी रात हो गयी है। अब घर चलिये। इतनी बारिश नहीं थी पर उनका कुर्ता गीला हो गया। बच्ची रो रही थी। उन्होने उसके सर पर हाथ फेरा और उनकी आंखें भी गीली हो गयीं। बच्ची के पीछे-पीछे चश्मा लगाये छड़ी के सहारे चलते हुए एक बुज़ुर्ग पास पहुँचे और बोले, “रोओ मत बच्चों, मिल गये, अब घर चलो। काके, तू सीधे कर जा पुत्तर। निक्की, तू मेरे नाल आ, खाना लेकर आते हैं सबके लिये।“
वे दोनों अन्धेरे में से जैसे अचानक प्रकट हुए थे उसी तरह अन्धेरे में गुम हो गये। वीर सिंह का कुर्ता और आँखें अभी भी गीले थे। अप्सरा के ख्यालों में खोये हुये वे अपने से बेखबर तो पहले से ही थे, अब इस बच्ची और उसके दादाजी ने उन्हें अचम्भे में डाल दिया था। उन्होंने आगे चलना शुरू किया तो समझ आया कि राह अनजानी थी। आसपास कोई घर-दुकान नज़र नहीं आ रहा था। नई सराय बहुत बड़ी भले ही न हो परंतु वे फिर भी खो गये थे। आज वे चाहते भी यही थे।
दोनों ओर घने वृक्षों से घिरी सड़क उन्हीं की तरह अकेली चली जा रही थी अपनी ही धुन में, किसी संगी के बिना। आगे कुछ प्रकाश दिखा, एक मैदान सा कुछ। प्रकाश, आग... नर्क! घिसटते हुए से पास पहुँचे तो मुर्दा सी नहर के किनारे एक चिता अभी सुलग रही थी। आँखों में लाली और हाथों में कुल्हाड़ियाँ लिये दो बाहुबली जब उनकी ओर बढ़े तो उन्हें साक्षात काल का स्पर्श महसूस हुआ। अचानक ही मूसलाधार वर्षा शुरू हो गयी। उनका पाँव कीच भरे एक गड्ढे में पड़ा और धराशायी होने से पहले ही वे अपने होश खो बैठे।
इस बार जापान के लिये बिस्तरा बांधते समय हमने तय कर लिया था कि कुछ भी हो जाये मगर वह जगह अवश्य देखेंगे जहाँ नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के भस्मावशेष (अस्थियाँ) रखे हैं। सो, जाने से पहले ही रेनकोजी मन्दिर की जानकारी जुटाने के प्रयास आरम्भ कर दिये। पुराने समय में छोटा-बडा कोई भी कार्य आरम्भ करने से पहले स्वयम् से संकल्प करने की परम्परा थी। परम्परा का सम्मान करते हुए हमने भी संकल्प ले लिया। कुछ जानकारी पहले से इकट्ठी कर ली ताकि समय का सदुपयोग हो जाये। जापान पहुँचकर पता लगा कि संकल्प लेना कितना आवश्यक था। कई ज्ञानियों से बात की परंतु वहाँ किसी ने भी नेताजी का नाम ही नहीं सुना था। उस स्थल का नाम बताया - रेनकोजी मन्दिर, तब भी सब बेकार। मुहल्ले का नाम (वादा, सुगानामी कू) बताया तो जापानी मित्रों ने नेताजी के बारे में एक जानकारी पत्र छापकर मुझे दिया था ताकि इसे दिखाकर स्थानीय लोगों से रेनकोजी मन्दिर की जानकारी ले सकूँ। वे स्वयं भी भारत और जापान के साझे इतिहास के बारे में पहली बार जानकर खासे उत्साहित थे। होटलकर्मियों ने जापानी में स्थल का नक्शा छाप दिया और सहकर्मियों ने 'चंद्रा बोस' तथा मन्दिर के बारे में कुछ जानकारी इकट्ठी करके हमें हिगाशी कोएंजी (Higashi-Koenji) स्टेशन का टिकट दिला कर मेट्रो में बिठा दिया।
लाफिंग बुद्धा/चीनी कुवेर की मूर्ति
हिगाशी कोएंजी उतरकर हमने सामने पड़ने वाले हर जापानी को नक्शा दिखाकर रास्ता पूछना आरम्भ किया। लोग नक्शा देखते और फिर जापानी में कुछ न कुछ कहते हुए (शायद क्षमा मांगते हुए) चले जाते। एकाध लोगों ने क्षमा मांगते हुए हाथ भी जोड़े। आखिरकार संकल्प की शक्ति काम आयी और एक नौजवान दुकानदार ने अपने ग्राहकों से क्षमा मांगकर बाहर आकर टूटी-फ़ूटी अंग्रेज़ी और संकेतों द्वारा हमें केवल दो मोड़ वाला आसान रास्ता बता दिया। उसके बताने से हमें नक्शे की दिशा का अनुमान हो गया था। जब नक्शे के हिसाब से हम नियत स्थल पर पहुँँचे तो वहाँ एक बड़ा मन्दिर परिसर पाया। अन्दर जाकर पूछ्ताछ की तो पता लगा कि गलत जगह आ गये हैं। वापस चले, फिर किसी से पूछा तो उसने पहले वाली दिशा में ही जाने को कहा। एक ही सडक (कन्नाना दोरी) पर एक ही बिन्दु के दोनों ओर कई आवर्तन करने के बाद एक बात तो पक्की हो गयी कि हमारा गंतव्य है तो यहीं। फिर दिखता क्यों नहीं?
रेनकोजी मन्दिर का स्तम्भ
सरसरी तौर पर आसपास की पैमाइश करने पर एक वजह यही लगी कि हो न हो यह रेनकोजी मन्दिर मुख्य मार्ग पर न होकर बगल वाली गली में होगा। सो घुस गये चीनी कुवेर की प्रतिमा के साथ वाली गली में।
कुछ दूर चलने पर रेनकोजी मन्दिर पहुुँच गये। दरअसल यह जगह स्टेशन से अधिक दूर नहीं थी। हम मुख्य मार्ग पर चलकर आगे चले आये थे।
मन्दिर पहुँचकर पाया कि मुख्यद्वार तालाबन्द था। वैसे अभी पाँच भी नहीं बजे थे लेकिन हमारे जापानी सहयोगियों ने मन्दिर के समय के बारे में पहले ही दो अलग-अलग जानकारियाँ दी थीं। एक ने कहा कि मन्दिर पाँच बजे तक खुलता है और दूसरे ने बताया कि मन्दिर हर साल 18 अगस्त को नेताजी की पुण्यतिथि पर ही खुलता है। अब हमें दूसरी बात ही ठीक लग रही थी।
कांजी लिपि में नेताजी का नामपट्ट =>
सूचना पट्
कार्यक्रम/समयावली?
द्वार तक आकर भी अन्दर न जा पाने की छटपटाहट तो थी परंतु दूर देश में अपने देश के एक महानायक को देख पाने का उल्लास भी था। द्वार से नेताजी की प्रतिमा स्पष्ट दिख रही थी परंतु सन्ध्या का झुटपुटा होने के कारण कैमरे में साफ नहीं आ रही थी।
मन्दिर का मुख्यद्वार
सुभाष चन्द्र बोस जैसे महान नेता के अंतिम चिह्नों की गुमनामी से दिल जितना दुखी हो रहा था उतना ही इस जगह पर पहुँचने की खुशी भी थी। वहाँ की मिट्टी को माथे से लगाकर मैंने भरे मन से अपनी, और अपने देशवासियों की ओर से नेताजी को प्रणाम किया और कुछ देर चुपचाप वहाँ खड़े रहकर उस प्रस्तर मूर्ति को अपनी आँखों में भर लिया।
छत पर प्रतीक चिह्न
गर्भगृह जहाँ अस्थिकलश रखा है
समृद्धि के देव रेनकोजी
रेनकोजी परिसर में नेताजी
मेरा लिया हुआ चित्र दूरी, अनगढ़ कोण, हाथ हिलने और प्रकाश की कमी आदि कई कारणों से उतना स्पष्ट नहीं है इसलिये नीचे का चित्र विकीपीडिया के सौजन्य से:
यह चित्र विकीपीडिया से
मन्दिर का पता: रेनकोजी मन्दिर, 3‐30-20, वादा, सुगिनामी-कू, तोक्यो (जापान)
मन्दिर के दर्शन के लिये भविष्य में यहाँ आने के इच्छुकों के लिये सरल निर्देश:
हिगाशी कोएंजी स्टेशन के गेट 1 से बाहर आकर बायें मुड़ें, और पार्क समाप्त होते ही पतली गली में मुड़कर तब तक सीधे चलते रहें जब तक आपको दायीं ओर एक मन्दिर न दिखे। यदि यह गली मुख्य सड़क में मिलती है या बायीं ओर आपको ऊपर वाला चीनी कुवेर दिखता है तो आप मन्दिर से आगे आ गये हैं - वापस जायें, रेनकोजी मन्दिर अब आपके बायीं ओर है। नीचे मन्दिर का गूगल मैप है और उसके नीचे पूरे मार्ग का आकाशीय दृश्य ताकि आप मेरी तरह भटके बिना मन्दिर की स्थिति का अन्दाज़ लगा सकें।
वह छठी कक्षा से मेरे साथ पढ़ता था। हमेशा प्रथम आता था। फिर भी सारा कॉलेज उसे सनकी मानता था। एक प्रोफेसर ने एक बार उसे रजिस्टर्ड पागल भी कहा था। कभी बिना मूँछों की दाढ़ी रख लेता था तो कभी मक्खी छाप मूँछें। तरह-तरह के टोप-टोपी पहनना भी उसके शौक में शुमार था।
बहुत पुराना परिचय होते हुए भी मुझे उससे कोई खास लगाव नहीं था। सच तो यह है कि उसके प्रति अपनी नापसन्दगी मैं कठिनाई से ही छिपा पाता था। पिछले कुछ दिनों से वह किस्म-किस्म की पगड़ियाँ पहने दिख रहा था। लेकिन तब तो हद ही हो गयी जब कक्षा में वह अपना सिर घुटाये हुए दिखा।
एक सहपाठी प्रशांत ने चिढ़कर कहा, “सर तो आदमी तभी घुटाता है जब जूँ पड़ जाएँ या तब जब बाप मर जाये।” वह उठकर कक्षा से बाहर आ गया। जीवन में पहली बार वह मुझे उदास दिखा। प्रशांत की बात मुझे भी बुरी लगी थी सो उसे झिड़ककर मैं भी बाहर आया। उसकी आँखों में आँसू थे। उसकी पीड़ा कम करने के उद्देश्य से मैंने कहा, “कुछ लोगों को बात करने का सलीका ही नहीं होता है। उनकी बात पर ध्यान मत दो।”
उसने आँसू पोंछे तो मैंने मज़ाक करते हुए कहा, “वैसे बुरा मत मानना, बाल बढ़ा लो, सिर घुटाकर पूरे कैंसर के मरीज़ लग रहे हो।”
मेरी बात सुनकर वह मुस्कराया। हम दोनों ठठाकर हँस पड़े।
बरेली कॉलेज (सौजन्य: विकीपीडिया)
आज उसका सैंतालीसवाँ जन्मदिन है। सर घुटाने के बाद भी कुछ महीने तक मुस्कुराकर कैंसर से लड़ा था वह। [समाप्त]
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चैनल फ्लिप करते हुए एक जगह "इंडिया" देखा तो रुक गया। माथे पर लाल टीके लगाये और गले में दोशाला डाले हुए दो पुरुष एक दूसरे से पुर्तगाली भाषा में बात कर रहे थे। जब तक कुछ समझ पाता, ब्रेक हो गया और रिओ की प्रसिद्ध "क्राइस्ट द रिडीमर" मूर्ति की पृष्ठभूमि में बीडी गीत "जिगर मा बडी आग है" बजने लगा। ब्राज़ीली सहकर्मी से पूछने पर पता लगा कि भारतीय मार्ग या भारत का पथ (Caminho das Índias) नामक सीरियल ब्राज़ील का हरदिल अजीज़ टीवी सीरियल है। 19 जनवरी 2009 को पहली बार प्रसारित इस नाटक के अभिनेता ब्राज़ीली ही हैं।
भारत का पथ
अमेरिका में आजकल अंग्रेज़ी भाषा में आने वाला एक और सीरियल "आउटसोर्स्ड" भी प्रसिद्धि पा रहा है। "आउटसोर्स्ड" सीरियल से पहले इसी नाम की एक फ़िल्म भी बन चुकी है जो अधिक पहचान नहीं पा सकी थी। द लीग ऑफ एक्स्ट्राऑर्डिनैरी जैंटलमैन, नेमसेक और स्लमडॉग मिलियनेर आदि फिल्मों ने भारतीय कलाकारों के लिये अमरीकी ड्राइंगरूम का मार्ग सरल कर दिया है। किसी ज़माने में अगर किसी अंग्रेज़ी फ़िल्म में शशि कपूर दिख जाते थे तो कमाल ही लगता था।
वैसे अमेरिकी फ़िल्मों और टीवी रूपकों में यदा कदा भारतीय दिख जाते हैं परंतु आजकल एक सीरियल में अनिल कपूर और दूसरे में इरफ़ान खान नियमित दिख रहे हैं। लेकिन हमारे प्रिय भारतीय चरित्र तो फिनीयस और फर्ब वाले "बलजीत" हैं। काफी समय से आपसे उनकी मुलाकात कराने के बारे में सोच रहा था परंतु किसी न किसी कारण से रह जाता था। अगर फ़िनीयस... भारत में आता है तो सदा अपने अंकों की चिंता करने वाले बालक से शायद आप परिचित ही हों। आइये देखते हैं, उनका एक गीत...
हिमालय पर्वत से...
सन्योग से मैंने आज ही इटली के टीवी सीरिअल "सान्दोकान" में मुख्य भूमिका निभाने वाले भारतीय अभिनेता कबीर बेदी को इटली का सर्वोच्च असैनिक सम्मान "Ordine al Merito della Repubblica Italiana" दिये जाने का समाचार पढा था। बधाई!
उदय जी ने बलजीत के गीत का हिन्दी अनुवाद रखने का अनुरोध किया है. सो पहले तो मूल गीत के बोल:
Baljeet: From the mountains of the Himalayas,
To the valleys of Kashmir!
My forefathers and their four fathers
knew one thing very clear!
That to be a great success in life,
you have to make the grade!
But if I cannot build a prototype,
my dreams will be puréed!
Phineas, Ferb, and Baljeet: Puréed! Puréed!
Phineas: I know what we are going to do today!
Ferb and I are on the case!
We'll help you build your prototype,
You won't be a disgrace!
Baljeet: Good! With your mechanical inclinations,
and my scientific expertise,
we are a team that can not be beaten-
Phineas: Wait, something just occurred to me,
Where's Perry? Where's Perry?
और अब हिन्दी अनुवाद:-
बलजीत: हिमालय की चोटियों से, कश्मीर की घाटी तक
मेरे परदादे और उंसे चार पीढी पहले भी
यह बात जानते थे अच्छी तरह
कि जीवन में अति सफल होने के लिये तुम्हें अच्छे अंक लाने हैं!
किंतु यदि मैं (कक्षा में) मॉडल न बना सका
तो मेरे सपनों की चटनी बन जायेगी!
सभी: कचूमर, कचूमर!
फिनीयस: मुझे पता है क्या करना है, फर्ब और मैं काम पर लगते हैं
हम तुम्हारे लिये मॉडल बनायेंगे और तुम बदनामी से बचोगे!
बलजीत: ठीक! तुम्हारा यांत्रिक रुझान
और मेरा वैज्ञानिक कौशल,
हमारा दल अजेय है
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आप लोग मेरी पोस्ट्स को ध्यान से पढते रहे हैं और अपनी विचारपूर्ण टिप्पणियों से उनका मूल्य बढाते रहे हैं इसका आभार व्यक्त करने के लिये आभार दिवस से बेहतर दिन क्या होगा।
घर के अन्दर तो ठंड का अहसास नहीं है मगर खिड़की के बाहर उड़ते बर्फ के तिनके अहसास दिला रहे हैं कि तापमान हिमांक से नीचे है। परसों आभार दिवस यानि थैंक्सगिविंग था, अमेरिका का एक बड़ा पारिवारिक मिलन का उत्सव। उसके बाद काला जुम्मा यानि ब्लैक फ़्राइडे गुज़र चुका है। बस अड्डे, हवाई अड्डे और रेलवे स्टेशन तो भीड़ से भरे हुए थे ही, अधिकांश राजपथ भी वर्ष का सर्वाधिक यातायात ढो रहे थे।
पहला थैक्सगिविंग सन 1621 में मनाया गया था जिसमें "इंग्लिश सैपरेटिस्ट चर्च" के यूरोपीय मूल के लोगों ने अमेरिकन मूल के 91 लोगों के साथ मिलकर भाग लिया था। थैंक्सगिविंग पर्व में आजकल का मुख्य आहार टर्की नामक विशाल पक्षी होता है परंतु किसी को भी यह निश्चित रूप से पता नहीं है कि 1621 के भोज में टर्की शामिल थी या नहीं। अक्टूबर 1777 में अमेरिका की सभी 13 कॉलोनियों ने मिलकर यह समारोह मनाया। 1789 में ज़ॉर्ज़ वाशिंगटन ने थैंक्सगिविंग को एक राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाने की घोषणा की परंतु तब इस बात का विरोध भी हुआ।
सारा जोसेफा हेल, बॉस्टन महिला पत्रिका और गोडी'ज़ लेडी'ज़ बुक के 40 वर्षीय अभियान के बाद अब्राहम लिंकन ने 1863 में आभार दिवस का आधुनिक रूप तय किया जिसमें नवम्बर के अंतिम गुरुवार को राष्ट्रीय पर्व और अवकाश माना गया। 1941 के बाद से नवम्बर मास का चौथा गुरुवार "आभार दिवस" बन गया।
दंतकथा है कि लिंकन के बेटे टैड के कहने पर टर्की को मारने के बजाय उसे राष्ट्रपति द्वारा क्षमादान देकर व्हाइट हाउस में पालतू रखा गया। ज़ोर्ज़ बुश के समय से राष्ट्रपति द्वारा क्षमादान की परम्परा को पुनरुज्जीवित किया गया और जीवनदान पायी यह टर्कीयाँ वर्जीनिया चिड़ियाघर और डिज़्नेलैंड में लैंड होती रही हैं। यह एक टर्की भाग्यशाली है परंतु इस साल के आभार दिवस के लिये मारी गयी साढे चार करोड टर्कियाँ इतनी भाग्यशाली नहीं थीं।
आभार दिवस के भोज के बाद लोगों को व्यायाम की आवश्यकता होती है और इसका इंतज़ाम देश के बडे चेन स्टोर करते हैं - साल की सबसे आकर्षक सेल के लिये अपने द्वार अलसुबह या अर्धरात्रि में खोलकर। इसे कहते हैं ब्लैक फ्राइडे! इन सेल आयोजनों में कभी कभी भगदड और दुर्घटनायें भी होती हैं। कुछ वर्ष पहले एक वालमार्ट कर्मी की मृत्यु भी हो गयी थी। इंटरनैट खरीदी का चलन आने के बाद से अब अगले सोमवार को साइबर मंडे सेल भी चल पडी हैं।
========================================== इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
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हिन्दी ब्लॉगजगत में कोई न कोई बहस न चल रही हो ऐसा तो कभी हुआ ही नहीं। उसी महान परम्परा का पालन करते हुए आजकल जगह-जगह पर पशु-हत्या सार्थक करने सम्बन्धी अभियान छिडा हुआ दिखता है। मांसाहार कोई आधुनिक आचरण नहीं है। एक ज़माना था कि आदमी आदमी को खाता था, फिर उसने समझा कि आदमखोरी से उसकी अपनी जान का खतरा बढ जाता है सो आदमखोर कबीलों ने भी अपने स्वयम के कबीले वालों को खाना बन्द कर दिया। जब आदमखोरी को समाप्त करने के प्रयास शुरू हुए होंगे तब ज़रूर बहुत से कापुरुषों ने इसे कबीले की परम्परा बताते हुए जारी रखने की मांग की होगी मगर "असतो मा सद्गमय..." के शाश्वत सिद्धांत पर चलती हुई मानव सभ्यता धीरे धीरे अपने में सुधार लाती रही है सो आदमखोरी को समाज से बहिष्कृत होना ही था। कुछ लोगों ने पालतू कुत्ते को परिवार का सदस्य मानकर उसे खाना छोडा और किसी ने दूध-घी प्रदान करने वाले गोवंश को मातृ समान मानकर आदर देना आरम्भ किया।
हातिमताई ने मेहमान के भोजन के लिये अपना घोडा ही मारकर पका दिया जबकि अमेरिका में काउबॉय्ज़ के लिये घोडा मारना परिवार के सदस्य को मारने जैसा ही है। चीन में सांप खाना आम है परंतु अधिकांश जापानी सांप खाने को जंगलीपन मानते हैं। गरज यह कि सबने अपनी-अपनी सुविधानुसार व्याख्यायें की हैं। कोई कहता है कि सब शाकाहारी हो जायेंगे तो अनाज कहाँ बचेगा जबकि अध्ययन बताते हैं कि एक किलो मांस के उत्पादन के लिये लगभग 20 किलो अनाज की आवश्यकता होती है तो अगर लोग मांसाहार छोड दें तो अनाज की बहुतायत हो जायेगी। कोई कहता है कि उसके पुरखे तो पशु-हत्या करते ही थे। उसके पुरखे शायद सर्दी-गर्मी में नंगे भी घूमते थे, क्या आज वह व्यक्ति सपरिवार नंगा घूमता है? कोई कहता है कि जीव-भक्षण प्राकृतिक है परंतु एक यूरोपीय विद्वान के अनुसार जीव-भक्षण तभी प्राकृतिक हो सकता है जब चाकू आदि यंत्रों और अग्नि आदि पाक-क्रियाओं के बिना उसे हैवानी तरीके से ही खाया जाये। मतलब यह कि ऐसे बहुत से तर्क-कुतर्क तो चलते रहते हैं।
कुछ लोगों के लिये भोजन जीवन की एक आवश्यकता से अधिक महत्व नहीं रखता है परंतु कुछ लोगों के लिये यह भी अति-सम्वेदनशील विषय है। हाँ इतना ज़रूर है कि सभ्य समाज में हिंसा को सही ठहराने वाले लोग मांसाहारियों में भी कम ही मिलते हैं। मैने अपने छोटे से जीवनकाल में सिख-बौद्ध-हिन्दू-जैन समुदाय के बाहर भी कितने ही शाकाहारी ईसाई, पारसी और मुसलमान देखे हैं जो जानते बूझते किसी प्राणी को दुख नहीं देना चाहते हैं, स्वाद के लिये हत्या का तो सवाल ही नहीं उठता। नीचे कुछ पुराने लेखों के लिंक हैं जिनमें शाकाहार से सम्बन्धित कुछ प्राचीन भारतीय सन्दर्भ और आधुनिक पश्चिमी अध्ययनों का समन्वय है यदि जिज्ञासुओं को कुछ लाभ हो तो मुझे प्रसन्नता होगी।
. मणिकर्णिका दामोदर ताम्बे (रानी लक्ष्मी गंगाधर राव) (१९ नवम्बर १८३५ - १७ जून १८५८)
मात्र 23 वर्ष की आयु में प्राणोत्सर्ग करने वाली झांसी की वीर रानी लक्ष्मी बाई के जन्मदिन पर अंतर्जाल से समय समय पर एकत्र किये गये कुछ चित्रों और पत्रों के साथ ही सेनानी कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की ओजस्वी कविता के कुछ अंश:
================== अनुरागी मन - अब तक की कथा:
वासिफ वीरसिंह को अपनी हवेली में अप्सरा के सहारे छोड़कर ज़रूरी काम से बाहर गया। उसकी दिव्य सुन्दरी बहन झरना का असली नाम ज़रीना जानने पर वीर को ऐसा लगा जैसे उनका दिमाग काम नहीं कर रहा हो। बैठे बैठे उन्हें चक्कर सा आया ... खण्ड 1; खण्ड 2; खण्ड 3; खण्ड 4; खण्ड 5; खण्ड 6 ...और अब आगे की कहानी:
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“जी हाँ, मैं ठीक हूँ। बस तेज़ सरदर्द हो रहा है” वीरसिंह ने कठिनाई से कहा। अम्मा कुछ कहतीं इससे पहले ही झरना घबरायी हुई अन्दर आयी।
“क्या हुआ? किसे है सरदर्द?” वीर को चिंतित दृष्टि से देखते हुए पूछा और उनके उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना बाहर जाते जाते बोली, “एक मिनट, ... मैं अभी दवा लाती हूँ।”
वाकई एक मिनट में वह एक ग्लास पानी, सेरिडॉन की पुड़िया और अमृतांजन की शीशी लिये सामने खड़ी थी, एक्दम दुखी सी परंतु फिर भी उतनी ही सुन्दर।
वीरसिंह ने जैसे ही गोली खाकर पानी का ग्लास वापस रखा, झरना उनके साथ बैठ गयी। इतना तो याद है उन्हें कि झरना ने उनका सिर अपनी गोद में रखकर उनके माथे पर अमृतांजन मलना शुरू किया था। दर्द से बोझिल माथे पर झरना की उंगलियों का स्पर्श ऐसा था मानो नर्क की आग में जलते हुए वीर को किसी अप्सरा ने अमृत से नहला दिया हो। झरना का चेहरा उनके मुख के ठीक ऊपर था। वह धीमे स्वरों में गुनगुनाती जा रही थी जिसे केवल वही सुन सकते थे:
तेरे उजालों को गालों में रक्खूँ
हर पल तुझी को खयालों में रक्खूँ
तोहे पानी सा भर लूँ गगरिया में
नहीं जाना कुँवर जी बजरिया में
अपनी अप्सरा की गोद में सर रखे हुए वे कब अपनी चेतना खो बैठे, उन्हें याद नहीं। जब उन्हें होश आया तो वे सोफे पर लेटे हुए थे। सामने उदास मुद्रा में वासिफ बैठा था। उनकी आंखें खुलती देख कर वह खुशी से उछला, “ठीक तो है न भाई? हम तो समझे आज मय्यत उठ गयी तेरी।”
ऐसा ही है यह लड़का। मौका कोई भी हो, शरारत से बाज़ नहीं आता है।
“हाँ मैं ठीक हूँ, अम्मा को बता दो तो मैं घर चलूँ” वीर ने उठने का उपक्रम करते हुए कहा।
“अम्मी अभी मेहमाँनवाज़ी में लगी हैं। ज़रीना के ससुराल वाले आये हुए हैं। सभी उधर बैठक में हैं, मैं बाद में कह दूंगा” वासिफ ने सहजता से कहा।
“ज़रीना के ... ससुराल वाले?” वीरसिंह मानो आकाश से नीचे गिरे, “मगर .... वह तो अभी छोटी है ... क्या उसकी शादी इतनी जल्दी हो गयी?”
“अभी हुई नहीं है मगर तय तो कबकी हो चुकी है। हम लोगों में पहले से ही बात पक्की कर लेने का चलन है।”
“तुम्हारी बहन को पता है ये बात?” वीरसिंह अब सदमे जैसी स्थिति में थे
“हाँ, छिपाने जैसी कोई बात ही नहीं है। वह तो बहुत खुश है इस रिश्ते से” वसिफ ने उल्लास से कहा।
वीरसिंह को एक झटका और लगा। सोफे पर लगभग गिरते हुए उन्होने वासिफ से स्पष्टीकरण सा मांगा, “कितनी बहनें हैं तुम्हारी?”
“बस एक, ज़रीना। अम्मी-अब्बू के सभी भाई बहनों के लडके ही हैं। इसीलिये अकेली ज़रीना सभी की लाडली है। तू जानता नहीं है क्या? कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहा है। तुझे आराम की ज़रूरत है शायद। थोड़ा रुक जा या अपने घर चल। वैसे यह घर भी तेरा ही है जैसा ठीक समझे।
“घर ही चलता हूँ” वीर ने जैसे तैसे कहा। उन्हें लग रहा था कि परी सब काम छोड़कर उन्हें जाने की उलाहना देने आयेगी। रुकने और आराम करने की मनुहार करेगी। मगर जब वे वासिफ के साथ हवेली से बाहर आये तो मुस्कराकर विदा करने भी कोई आया गया नहीं।
वृहद टोक्यो का जिला कामाकुरा आज भले ही उतना मशहूर न हो परंतु एक समय में यह जापान के एक राजवंश की राजधानी हुआ करता था। तब इसे कमाकुरा बकाफू, कमाकुरा शोगुनाते और रेंपू के नाम से भी पहचाना जाता था। राज-काज का केन्द्र होने का गौरव आज भले ही काफूर हो चुका हो परंतु कमाकुरा आज भी अपने दाइ-बुत्सू के लिये प्रसिद्ध है। दाइ-बुत्सू यानी आसीन बुद्ध यद्यपि आजकल इस शब्द को विशाल बुद्ध के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। जापान में शाक्यमुनि बुद्ध की कई विशाल और प्राचीन प्रतिमायें हैं। कमाकुरा के दाइ-बुत्सू भी उनमें से एक हैं।
दाइ-बुत्सू
तीन ओर से पर्वतों से घिरे कामाकुरा के दक्षिण में मनोहर सागर तट (सगामी खाड़ी) है। वैसे तो यह नगर रेल और सड़क मार्ग से टोक्यो से जुड़ा है परंतु दाइ-बुत्सु के दर्शन के लिये कमाकुरा से ट्रेन बदलकर एक छोटी उपनगरीय विद्युत-रेल लेकर हासे नामक ग्राम तक जाना होता है। इस स्टेशन का छोटा सा प्लेटफार्म स्कूल से घर जाते नौनिहालों से भरा हुअ था। गोरा रंग, पतली आंखें और चेहरे पर छलकती खुशी और मुस्कान उत्तरांचल की सहजता का अहसास दिला रही थी। यहाँ यह बताता चलूं कि जापान में मुझे ऐसा कभी नहीं लगा कि मैं परदेस में था। लगातार ऐसा प्रतीत होता था जैसे कि मैं भारत के एक ऐसे प्रदेश में हूँ जहाँ की भाषा मुझे अभी भी सीखनी बाकी है।
दर्शन से पहले ॐ अपवित्राय पवित्रो वा ...
कमाकुरा की अमिताभ बुद्ध की विशाल काँस्य प्रतिमा (दाइ-बुत्सू) लगभग बारह सौ वर्ष पुरानी है। यह जापान की तीसरी सबसे विशाल प्रतिमा है। पांच शताब्दी पहले आये एक त्सुनामी में काष्ठ-मंडप के नष्ट हो जाने के बाद से ही यह प्रतिमा खुले आकाश में अवस्थित है। विश्व में जापान को पहचान दिलाने वाले प्रतीकों में से एक दाइ-बुत्सू के अतिरिक्त पाँच प्रमुख ज़ेन मन्दिर भी कमाकुरा क्षेत्र में पडते हैं।
सिंहद्वार के संगमर्मरी वनराज
1923 के भयानक भूकम्प में जब कमाकुरा के बहुत से स्थल नष्टप्राय हो गये थे तब जापानियों ने उनमें से अधिकांश का उद्धार किया परंतु अमिताभ बुद्ध का मन्दिर दोबारा बनाया न जा सका। पता नहीं अपने मन्दिर में बुद्ध कितने सुन्दर दिखते मगर मुझे तो खुले आकाश के नीचे पद्मासन में बैठे ध्यानमग्न शाक्यमुनि के मुखारविन्द की शांति ने बहुत प्रभावित किया। जापानी भक्त हाथ जोडकर धूप भी जला रहे थे और हुंडियों में येन भी डालते जा रहे थे।
बुद्ध के विशाल खडाऊं
मन्दिर के विशाल परिसर से उसके मूलरूप की भव्यता का आभास हो जाता है। बुद्ध की कांस्य-प्रतिमा अन्दर से पोली है और उसके भीतर जाने का मार्ग भी है। मूर्ति के पार्श्व भाग में दो खिड़कियाँ भी हैं। प्राचीन काल में प्रतिमा एक खिले हुए कमल के ऊपर स्थापित थी जो अब नहीं बचा है परंतु उसकी बची हुई चार विशाल पंखुडियाँ आज भी प्रतिमा के चरणों में रखी देखी जा सकती हैं।
बुद्ध के दर्शनाभिलाषी दादा-पोता
प्रवेश शुल्क २०० येन (सवा सौ रुपये?) है। देश-विदेश से हर वय और पृष्ठभूमि के लोग वहाँ दिख रहे थे। परिसर में अल्पाहार और स्मृति चिन्हों के लिये भारतीय तीर्थस्थलों जैसे ही छोटी-छोटी अनेक दुकानें थीं। अधिकांश दुकानों में महिलाओं की उपस्थिति इम्फाल, मणिपुर के ईमा कैथेल की याद ताज़ा कर रही थी। अलबत्ता यहाँ मत्स्यगन्ध नहीं थी। एक बच्चे को अपने पितामह के आश्रय में आइस्क्रीम खाते देखा तो उनकी अनुमति लेकर मैने उस जीवंत क्षण को कैमरे में कैद कर लिया। अगले अंक में हम चलेंगे समृद्धि के देवता का मन्दिर: रेंकोजी - जापान का एक गुमनाम सा परंतु अनूठा तीर्थस्थल जहाँ हम भारतीयों का दिल शायद जापानियों से भी अधिक धडकता है।
बुद्धम् शरणम् गच्छामि!
[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photos by Anurag Sharma]
1958 में बना टोक्यो टॉवर विश्वप्रसिद्ध आयफ़ैल टॉवर से न केवल अधिक ऊंचा है बल्कि इसमें काम आने वाले कुल इस्पात का भार (4000 टन) आयफ़ैल टॉवर के भार (7000+) से कहीं कम है। कोरियन युद्ध में मार खाये अमेरिकी टैंकों के कबाड़ से पुनर्प्राप्त किये इस्पात से बने इस स्तम्भ की नींव जून 1957 में रखी गयी थी। 14 अक्टूबर 1958 में यह विश्व का सबसे ऊँचा स्तम्भ बन गया। उसके बाद संसार में कई बड़ी-इमारतें अस्तित्व में आईं परंतु यह स्तम्भ आज भी विश्व के सबसे ऊँचे स्वतंत्र स्तम्भ के रूप में गौरवांवित है।
रात्रि में टोक्यो टॉवर का सौन्दर्य
इस स्तम्भ का मुख्य उपयोग रेडिओ और टी वी के प्रसारण के लिये होता है। परंतु साथ ही टोक्यो के मिनातो-कू के प्रसिद्ध ज़ोजोजी मन्दिर परिसर के निकट स्थित यह स्तम्भ एक बड़ा पर्यटक आकर्षण भी है। इसकी स्थापना से आज तक लगभग 15 करोड़ पर्यटक यहाँ आ चुके हैं।
टोक्यो टॉवर के आधार पर एक चार मंज़िला भवन है जिसमें संग्रहालय, अल्पाहार स्थल, बाल-झूले और जापान यात्रा के स्मृतिचिन्ह बेचने वाली अनेकों दुकानें हैं। पर्यटक एक लिफ्ट के द्वारा स्तम्भ के ऊपर बनी दोमंज़िला दर्शनी-ड्योढी तक पहुँचते हैं जहाँ से टोक्यो नगर का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है। यदि आपकी किस्मत से आकाश साफ है तो फिर आप फूजी शिखर का दर्शन टोक्यो से ही कर सकते हैं। इस दर्शक दीर्घा के फर्श में दो जगह शीशे के ब्लॉक लगे हैं ताकि आप अपने पांव के डेढ़ सौ मीटर तले ज़मीन खिसकती हुई देख कर अपने रोंगटे खडे कर सकें। वैसे यहाँ से एक और टिकट लेकर एक और ऊंची ड्योढी तक जाया जा सकता है। हालांकि हम जैसे कमज़ोर दिल वालों के लिये यहाँ से "ऊपर जाने" की कोई आवश्यकता नज़र नहीं आयी।
टोक्यो टॉवर
जापान के हर कोने और गली कूचे की तरह इस टॉवर के ऊपर बनी दर्शक ड्योढी में भी एक छोटा सा सुन्दर मन्दिर बना हुआ है। यदि यह विश्व के सबसे ऊंचे मन्दिरों में से एक हो तो कोई आश्चर्य नहीं। क्रिसमस के मद्देनज़र स्तम्भ की तलहटी में आजकल वहाँ एक क्रिसमस-पल्लव भी लगाया जा रहा है।
सलीका और सौन्दर्यबोध जापानियों के रक्त में रचा बसा है। इसीलिये इस्पात का यह विशाल खम्भा भी 28000 लिटर लाल और श्वेत रंग में रंगकर उन्होने इसकी सुन्दरता को कई गुणा बढा दिया है।
टोक्यो टॉवर की दर्शन ड्योढी का लघु मन्दिर्
[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Tokyo Tower Photos: Anurag Sharma]
पतझड़ का मौसम आ चुका है ठंड की चिलगोज़ियाँ शुरू होने लगी हैं। हर साल की तरह पर्णहीन वृक्षों से छूकर हवा साँय-साँय और भाँय-भाँय की अजीब-आवाज़ें निकालकर कमज़ोर दिल वालों के मन में एक दहशत सी उत्पन्न कर रही है। प्रेतों के उत्सव के लिये बिल्कुल सही समय है। कुछ लोगों के लिये पतझड़ का अर्थ ही निराशा या दुःख है परंतु पतझड़ की एक अपनी सुन्दरता भी है। संस्कृत कवियों का प्रिय मौसम है पतझड़। आप कहेंगे कि वह तो वसंत है। हाँ है तो मगर वसंत तो पतझड़ ही हुआ न!
वसंत = वस+अंत = (वृक्षों के) वस्त्रों का गिरना
तो फिर वसंत क्या है? कुसुमाकर = फूलों का खिलना, बहार
तो निष्कर्ष यह निकला कि पतझड़ वसंत है और वसंत बहार है। दूसरे शब्दों में पतझड़ ही बहार है। तो आइये देखते हैं पतझड़ की बहार के रंग - चित्रों के द्वारा
मद्रास उच्च न्यायालय के सफल वकील डॉ0 स्वामिनाथन के घर खुशियाँ मनाई जा रही थीं। 24 अक्तूबर 1914 को उनके घर लक्ष्मी सी बेटी का जन्म हुआ था जिसका नाम उन्होने लक्ष्मी ही रखा, लक्ष्मी स्वामिनाथन। लक्ष्मी की माँ अम्मुकुट्टी एक समाज सेविका और स्वाधीनता सेनानी थीं। लक्ष्मी पढाई में कुशल थीं। सन 1930 में पिता के देहावसान का साहसपूर्वक सामना करते हुए 1932 में लक्ष्मी ने विज्ञान में स्नातक परीक्षा पास की। 1938 में उन्होने मद्रास मेडिकल स्कूल से ऐमबीबीएस किया और 1939 में जच्चा-बच्चा रोग विशेषज्ञ बनीं। कुछ दिन भारत में काम करके 1940 में वे सिंगापुर चली गयीं।
सिंगापुर में उन्होने न केवल भारत से आये आप्रवासी मज़दूरों के लिये निशुल्क चिकित्सालय खोला बल्कि भारत स्वतंत्रता संघ की सक्रिय सदस्या भी बनीं। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 1942 में जब अंग्रेज़ों ने सिंगापुर को जापानियों को समर्पित कर दिया तब लक्ष्मी जी ने आहत युद्धबन्दियों के लिये काफी काम किया। उसी समय ब्रिटिश सेना के बहुत से भारतीय सैनिकों के मन में अपने देश की स्वतंत्रता के लिये काम करने का विचार उठ रहा था।
दो जुलाई 1943 का दिन ऐतिहासिक था जब सिंगापुर की धरती पर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने कदम रखे। उनकी सभाओं और भाषणों के बीच आज़ाद हिन्द फौज़ की पहली महिला रेजिमेंट के विचार ने मूर्तरूप लिया जिसका नाम वीर रानी लक्ष्मीबाई के सम्मान में झांसी की रानी रेजिमेंट रखा गया। 22 अक्तूबर 1943 को डॉ0 लक्ष्मी स्वामिनाथन झांसी की रानी रेजिमेंट में कैप्टेन पद की सैनिक अधिकारी बन गयीं। बाद में उन्हें कर्नल का पद मिला तो वे एशिया की पहली महिला कर्नल बनीं। बाद में वे आज़ाद हिन्द सरकार के महिला संगठन की संचालिका भी बनीं।
विश्वयुद्ध के मोर्चों पर जापान की पराजय के बाद सिंगापुर में पकडे गये आज़ाद हिन्द सैनिकों में कर्नल डॉ लक्ष्मी स्वामिनाथन भी थीं। चार जुलाई 1946 में भारत लाये जाने के बाद उन्हें बरी कर दिया गया। नेताजी के दायें हाथ मेजर जनरल शाहनवाज़ व कर्नल गुरबक्ष सिंह ढिल्लन और कर्नल प्रेमकुमार सहगल पर लाल किले में देशद्रोह आदि के मामलों के मुकदमे चले जिसमें पण्डित नेहरू, भूलाभाई देसाई और कैलाशनाथ काटजू की दलीलों के चलते उन तीनों वीरों को बरी करना पडा।
लाहौर में मार्च १९४७ में कर्नल प्रेमकुमार सहगल से शादी के बाद डॉ0 लक्ष्मी स्वामिनाथन कानपुर में बस गयीं। बाद में वे सक्रिय राजनीति में आयीं और 1971 में मर्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से राज्यसभा की सदस्य बनीं। 1998 में उन्हें पद्म विभूषण से सम्मनित किया गया। 2002 में 88 वर्ष की आयु में उन्होने वामपंथी दलों की ओर से श्री ए पी जे अब्दुल कलाम के विरुद्ध राष्ट्रपति पद का चुनाव भी लडा था।
चित्र: रिडिफ के सौजन्य से
कम्युनिस्ट नेत्री बृन्दा करात की फिल्म अमू की अभिनेत्री और स्वयम एक कम्युनिस्ट नेत्री सुभाषिनी अली इन्हीं दम्पत्ति की पुत्री हैं। डॉ सहगल के पौत्र और सुभाषिनी और मुज़फ्फर अली के पुत्र शाद अली साथिया, बंटी और बब्ली आदि फिल्मों के सफल निर्देशक रह चुके हैं। प्रसिद्ध नृत्यांगना मृणालिनी साराभाई उनकी सगी बहन हैं।
अपडेट:
23 जुलाई 2012: आज आज़ाद हिन्द की इस अद्वितीय वीरांगना के देहांत का दुखद समाचार मिला है। कैप्टन डा॰ लक्ष्मी सहगल अब इस संसार में नहीं हैं ... विनम्र श्रद्धांजलि!
जनसत्ता 24 जुलाई 2012 में कैप्टन सहगल के देहावसान का समाचार
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“क्या पढ़ रहे हैं आप? देखें, कौन सी किताब पसन्द आयी अपको?”
कहते हुए परी उनके निकट आ गयी। जब तक वे बताते कि अजब लिपि में लिखी इन किताबों के बारे में वे बिल्कुल अज्ञानी हैं, किताब को निकट से देखने के प्रयास में परी उनसे सटकर खड़ी थी। इतना निकट कि वे उसकी साँसों के आवागमन के साथ-साथ उसके शरीर का रक्त प्रवाह भी महसूस कर सकते थे। क्या परियों के शरीर में इंसानों की तरह रक्त ही बहता है या कोई दैवी द्रव? सुरा? वारुणी? यह कैसा प्रश्न है? उन्हें लगा जैसे वे दीवाने होते जा रहे हैं। भला कोई अप्सरा उनसे निकटता बढ़ाना क्यों चाहेगी? कुछ तो है जो वे देख नहीं पा रहे हैं। कन्धे से एड़ी तक हो रहे उस सम्मोहक स्पर्श से उनके शरीर में एक अभूतपूर्व सनसनी हो रही थी। उनके हृदय की बेचैनी अवर्णनातीत थी। अगर वे दो पल भी उस अवस्था में और रहते तो शायद अपने-आप पर नियंत्रण खो देते। कुशलता से अपने अंतर के भावों पर काबू पाकर उन्होंने पुस्तक को मेज़ पर फ़ेंका और पास पड़े सोफे में धँस से गये।
बाहर गली में कोई ज़ोर से रेडियो बजा रहा था शायद:
बाहर से पायल बजा के बुलाऊँ अंदर से बाँहों की साँकल लगाऊँ तुझको ही ओढूँ तुझी को बिछाऊँ तोहे आँचल सा SSS तोहे आँचल सा कस लूँ कमरिया में नहीं जाना कुँवर जी बजरिया में
एक रहस्यपूर्ण मुस्कान लिये अप्सरा कुछ देर उन्हें देखती रही फिर साथ ही बैठ गयी। उसने चाय का प्याला उठाकर वीरसिंह के हाथ में कुछ इस तरह उंगलियाँ स्पर्श करते हुए थमाया कि वीरसिंह के दिल के तार फिर से झनझना उठे। वीरसिंह चाय पीते जा रहे थे, आस पास का नज़ारा भी कर रहे थे और बीच-बीच में चोर नज़रों से अपनी परी के दर्शन भी कर लेते थे। वे मन ही मन विधि के इस खेल पर आश्चर्य कर रहे थे, परंतु साथ ही अपने भाग्य को सराह भी रहे थे। हवेली के अन्दर झरना के साथ के वे क्षण निसन्देह उनके जीवन के सबसे सुखद क्षण थे।
तभी वासिफ की माँ अन्दर आ गयीं। उन्होंने बताया कि वासिफ अपने दादाजी के साथ कुछ दूर तक गया है और वापस आने तक वीर को वहीं रुकने को कहा है। सामने बैठकर माँ वीर के घर-परिवार दादा-दादी आदि के बारे में पूछती रहीं और प्याला हाथ में थामे वीर विनम्रता से हर सवाल का जवाब देते हुए अगले प्रश्न की प्रतीक्षा करते रहे। हाँ, माँ की नज़रें बचाकर बीच-बीच अप्सरा-दर्शन भी कर लेते थे। अफसोस कि उनकी चोरी हर बार ही पकड़ी जाती क्योंकि झरना उन्हें अपलक देख रही थी। नज़रें मिलने पर दोनों के चेहरे खिल उठते थे। न मालूम क्या था उन कंटीले नयनों में, ऐसा लगता था मानो उनके हृदय को बीन्धे जा रहे हों।
इसी बीच बाहर से एक आवाज़ सुनाई दी, “ज़रीना, ओ ज़रीना बेटी ... ज़रा हमारे कने अइयो”।
आवाज़ सुनते ही अप्सरा “अभी आयी” कहकर बाहर दौड़ी। अब वीर सिंह का सर चकराने लगा। क्या परी ने अपना नाम उन्हें जानबूझकर ग़लत बताया था या फिर वे सचमुच दीवाने हो गये हैं जो उन्होंने ज़रीना की जगह झरना सुना। उन्हें क्या होता जा रहा है। चाय में कुछ मिला है क्या? या इस पुरानी हवेली की हवा में ही ...?
“बहुत पसीना आ रहा है बेटा, तबीयत तो ठीक है न?” वासिफ की माँ ने प्यार से दायीं हथेली के पार्श्व से उनका माथा छूकर पूछा।
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चारिहु जुग को महातम, कहि के जनायो नाथ।
मसि-कागद छूयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ॥
(संत कबीर)
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भारत में ज्ञान श्रुति के रूप में एक पीढ़ी से दूसरी तक पहुँचाया जाता रहा है। इसलिये ज्ञानी होने के लिये लिपिज्ञान की आवश्यकता ही नहीं थी। परंतु लिखे बिना अक्षर अक्षर कैसे रहेंगे? लिपियाँ बनायी गईं और फिर शिलालेख, चर्म आदि से होकर भोजपत्र, ताड़पत्र आदि तक पहुँचे। और फिर मिस्र और चीन का कागज़ और उसके बाद पी-शेंग के छपाई के अक्षर - न जाने क्या क्या होता रहा। पन्द्रहवीं शताब्दी के मध्य में जब योहान गटैनबर्ग (1395-1468) ने छापेखाने का आविष्कार किया तब से अब तक दुनिया ही बदल गयी है। पत्र-पत्रिकाएँ-पुस्तकें पढ़कर बड़ी हुई मेरी पीढी तो शायद ऐसे समाज की कल्पना भी नहीं कर सकती है जिसमें कागज़ पर मुद्रित अक्षर न हों। 31 दिसम्बर 1999 के अंक (Y2K किसे याद है?) में टाइम पत्रिका ने रेडियो, फ़ोन, कम्प्यूटर, इंटरनैट आदि जैसे आविष्कारों को दरकिनार करते हुए जब गटैनबर्ग को "मैन ओफ द मिलेनियम" कहा तो मेरे जैसे एकाध लोगों को छोड़कर किसी को आश्चर्य (या आपत्ति) नहीं हुई।
बॉस्टन जन पुस्तकालय का मुखडा
मुद्रित शब्द बहुत समय तक आम आदमी की पहुँच से बाहर रहे हैं। सारे विश्व में एक समय ऐसा भी था जब पुस्तक एक विलासिता की वस्तु थी जिसे अति-धनाढ्य वर्ग ही रख सकता था। ऐसे ही समय अमेरिकी नगर बॉस्टन में कुछ लोगों को विचार आया कि क्यों न एक ऐसी संस्था बनाई जाये जो उन लोगों को किताबें छूने, देखने और पढ़ने का अवसर प्रदान करे जिनमें इन्हें खरीदने की सामर्थ्य नहीं है। सन 1848 में बॉस्टन की नगर पालिका के सौजन्य से अमेरिका का पहला जन-पुस्तकालय बना जिसमें से पुस्तक निशुल्क उधार लेने का अधिकार हर वयस्क को था। लगभग सवा दो करोड़ पुस्तकों/दृश्य/श्रव्य माध्यम के साथ यह पुस्तकालय आज भी अमेरिका के विशालतम पुस्तकालयों में से एक है।
मुद्रित शब्दों के इसी गर्वोन्मत्त संग्रहालय के बाहर मुझे मुद्रित शब्दों की एक और गति के दर्शन हुए। एक पंक्ति में लगे हुए धातु और प्लास्टिक के यह बूथ विभिन्न मुद्रित संस्करणों को निशुल्क बाँट रहे हैं। वैसे अमेरिका में समाचार पत्र और पत्रिकाएँ अभी भी आ रहे हैं परंतु कई बन्द होने के कगार पर हैं और कई ऑनलाइन संस्करणों की ओर अधिक ध्यान दे रहे हैं। पिछले वर्ष एक पत्रिका ने कागज़ों के साथ एक विडियो विज्ञापन लगाने का अनोखा प्रयोग भी किया था। सोचता हूँ कि टाइम पत्रिका के सम्पादकों ने आज के समय को 10 साल पहले चुनौती देना शुरू किया था मगर हम अक्सर भूल जाते हैं कि जब रस्साकशी काल के साथ होती हो तो जीत किसकी होगी?
बॉस्टन जन पुस्तकालय की बगल में निशुल्क पत्रों के खोखे
ज्ञातव्य है कि कुछ सप्ताह पहले एक बडी विडियो लाइब्रेरी "ब्लॉकबस्टर" ने दिवालियेपन की अर्ज़ी दी है। एक बडे पुस्तक विक्रेता के दिवाले की अफवाह भी गर्म है। हम लोग सचमुच एक बहुत बड़े परिवर्तन के गवाह हैं।
============================== इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
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[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा - All photographs by Anurag Sharma]