Saturday, March 21, 2015

सीमित जीवन - कविता

(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)
इस जीवन की आपूर्ति सीमित है, कृपया सदुपयोग करें

अवचेतन की
कुछ चेतन की
थोड़ी मन की
बाकी तन की
कुछ यौवन की
कुछ जीवन की
इस नर्तन की
उस कीर्तन की
परिवर्तन की
और दमन की
सीमायें होती हैं
लेकिन
सीमा होती नहीं
पतन की...

Monday, February 23, 2015

खिलखिलाहट - लघुकथा

दादी और दादा
(चित्र व कथा: अनुराग शर्मा)

"बोलो उछलना।"

"उछलना।"

"अरे बिलकुल ठीक तो बोल रही हो।"

"हाँ, उछलना को ठीक बोलने में क्या खास है।"

"तो फिर बच्चों के सामने छुछलना क्यों कहती हो? सब हँसते हैं।"

"इसीलिए तो।"

"इसीलिए किसलिए?"

"ताकि वे हंस सकें। उनकी दैवी खिलखिलाहट पर सारी दुनिया कुर्बान।"

Thursday, February 19, 2015

लोगो नहीं, लोगों - हिन्दी व्याकरण विमर्श


मेरे पास आओ, मेरे दोस्तों - बहुवचन सम्बोधन में अनुस्वार का प्रयोग व्याकरणसम्मत है

हिन्दी बहुवचन सम्बोधन और अनुस्वार
अनुस्वार सम्बोधन, राजभाषा विभाग के एक प्रकाशन से
इन्टरनेट पर कई जगह यह प्रश्न देखने में आता है कि बच्चा का बहुवचन बच्चों होगा या बच्चो। इसी प्रकार कहीं दोस्तों और दोस्तो के अंतर के बारे में भी हिन्दी, हिन्दुस्तानी, उर्दू मंडलों में चर्चा सुनाई देती है। शायद कभी आप का सामना भी इस प्रश्न से हुआ होगा। जब कोई आपको यह बताता है कि जिन शब्दों को आप सदा प्रयोग करते आए हैं, वे व्याकरण के किसी नियम के हिसाब से गलत हैं तो आप तुरंत ही अपनी गलती सुधारने के प्रयास आरंभ कर देते हैं।

सुनने में आया कि आकाशवाणी के कुछ केन्द्रों पर नए आने वाले उद्घोषकों को ऐसा बताया जाता है कि किसी शब्द के बहुवचन में अनुस्वार होने के बावजूद उसी शब्द के संबोधन में बहुवचन में अनुस्वार का प्रयोग नहीं होता है। इन्टरनेट पर ढूंढने पर कई जगह इस नियम का आग्रह पढ़ने को मिला। इस आग्रह के अनुसार "ऐ मेरे वतन के लोगों" तथा "यारों, सब दुआ करो" जैसे प्रयोग तो गलत हुए ही "बहनों और भाइयों" या "देवियों, सज्जनों" आदि जैसे आम सम्बोधन भी गलत कहे जाते हैं।

बरसों से न, न करते हुए भी पिछले दिनों अंततः मुझे भी इसी विषय पर एक चर्चा में भाग लेना पड़ा तो हिन्दी व्याकरण के बारे में बहुत सी नई बातें सामने आईं। आज वही सब अवलोकन आपके सामने प्रस्तुत हैं। मेरा पक्ष स्पष्ट है, मैं अनुस्वार हटाने के आग्रह को अनुपयोगी और अनर्थकारी समझता हूँ। आपके पक्ष का निर्णय आपके विवेक पर छोडता हूँ।
1) 19 वीं शताब्दी की हिन्दी और हिन्दुस्तानी व्याकरण की कुछ पुस्तकों में बहुवचन सम्बोधन के अनुस्वाररहित होने की बात कही गई है। मतलब यह कि किसी को सम्बोधित करते समय लोगों की जगह लोगो, माँओं की जगह माँओ, कूपों की जगह कूपो, देवों की जगह देवो के प्रयोग का आग्रह है।    
2) कुछ आधुनिक पुस्तकों और पत्रों में भी यह आग्रह (या नियम) इसके उद्गम, कारण, प्रचलन या परंपरा की पड़ताल किए बिना यथावत दोहरा दिया गया है।
ऐ मेरे वतन के लोगो (logo)

3) हिन्दी व्याकरण की अधिसंख्य पुस्तकों में ऐसे किसी नियम का ज़िक्र नहीं है अर्थात बहुवचन के सामान्य स्वरूप (अनुस्वार सहित) का प्रयोग स्वीकार्य है।

4) जिन पुस्तकों में इस नियम का आग्रह है, वे भी इसके उद्गम, कारण और लाभ के बारे में मूक है।

5) भारत सरकार के राजभाषा विभाग सहित अधिकांश प्रकाशन ऐसे किसी नियम या आग्रह का ज़िक्र नहीं करते हैं।

6) हिन्दी उर्दू के गीतों को आदर्श इसलिए नहीं माना जा सकता क्योंकि उनमें गलत उच्चारण सुनाई देने की घटनाएँ किसी सामान्य श्रोता के अनुमान से कहीं अधिक हैं। एक ही गीत में एक ही शब्द दो बार गाये जाने पर अलग-अलग सुनाई देता है। सम्बोधन ही नहीं बल्कि हमें, तुम्हें, उन्होंने आदि जैसे सामान्य शब्दों से भी अक्सर अनुस्वार गायब लगते हैं।

7) ध्यान से सुनने पर कुछ अहिंदीभाषी गायक तो अनुस्वार को नियमित रूप से अनदेखा करते पाये गए हैं। यद्यपि कुछ गीतों में में ये माइक्रोफोन द्वारा छूटा या संगीत द्वारा छिपा हुआ भी हो सकता है। पंकज उधास और येसूदास जैसे प्रसिद्ध गायक भी लगभग हर गीत में मैं की जगह मै या मय कहते हैं।  
आकाशवाणी के कार्यक्रम "आओ बच्चों" की आधिकारिक वर्तनी

8) मुहम्मद रफी और मुकेश बहुवचन सम्बोधन में कहीं भी अनुस्वार का प्रयोग करते नहीं सुनाई देते हैं। अन्य गायकों पर असहमतियाँ हैं। मसलन, किशोर "कुछ ना पूछो यारों, दिल का हाल बुरा होता है" गाते हैं तो दोनों बार अनुस्वार एकदम स्पष्ट है। अमिताभ बच्चन भी आम हिंदीभाषियों की तरह बहुवचन सम्बोधन में भी सदा अनुस्वार का प्रयोग करते पाये गए हैं।

9) ऐ मेरे वतन के लोगों गीत की इन्टरनेट उपस्थिति में बहुवचन सम्बोधन शब्द लोगों लगभग 16,000 स्थानों में अनुस्वार के साथ और लगभग 4,000 स्थानों में अनुस्वार के बिना है। सभी प्रतिष्ठित समाचारपत्रों सहित भारत सरकार द्वारा जारी डाक टिकट में भी "ऐ मेरे वतन के लोगों" ही छपा है। लता मंगेशकर के गायन में भी अनुस्वार सुनाई देता है।

11) rekhta.org और बीबीसी उर्दू जैसी उर्दू साइटों पर सम्बोधन को अनुस्वार रहित रखने के उदाहरण मिलते हैं।

अनुस्वार हटाने से बने अवांछित परिणामों के कुछ उदाहरण - देखिये अर्थ का अनर्थ:
  1. लोटों, यहाँ मत लोटो (सही) तथा लोटो, यहाँ मत लोटो (भ्रामक - लोटो या मत लोटो? लोटा पात्र की जगह भूमि पर लोटने या न लोटने की दुविधा) 
  2. भेड़ों, कपाट मत भेड़ो (सही) तथा भेड़ो, कपाट मत भेड़ो (भ्रामक - भेड़ों का कोई ज़िक्र ही नहीं?)
  3. बसों, यहाँ मत बसो (सही) तथा बसो, यहाँ मत बसो (भ्रामक - बस वाहन का ज़िक्र ही नहीं बचा, बसो या न बसो की गफ़लत अवश्य आ गई?)
  4. ऐ मेरे वतन के लोगों (देशवासी) तथा ऐ मेरे वतन के लोगो (देश का प्रतीकचिन्ह, अशोक की लाट)
उपरोक्त उदाहरणों में 1, 2 व 3 में लोटे, भेड़ और बस को बहुवचन में सम्बोधित करते समय यदि आप अनुस्वार हटा देंगे तो आपके आशय में अवांछित ही आ गए विरोधाभास के कारण वाक्य निरर्थक हो जाएँगे। साथ ही लोटों, भेड़ों और बसों के संदर्भ भी अस्पष्ट (या गायब) हो जाएँगे। इसी प्रकार चौथे उदाहरण में भी अनुस्वार लगाने या हटाने से वाक्य का अर्थ बदल जा रहा है। मैंने आपके सामने चार शब्दों के उदाहरण रखे हैं। ध्यान देने पर ऐसे अनेक शब्द मिल सकते हैं जहाँ अनुस्वार हटाना अर्थ का अनर्थ कर सकता है।
10) कवि प्रदीप के प्रसिद्ध गीत "इस देश को रखना मेरे बच्चों सम्हाल के" गीत के अनुस्वार सहित उदाहरण कवि प्रदीप फाउंडेशन के शिलापट्ट तथा अनेक प्रतिष्ठित समाचार पत्रों पर हैं जबकि अधिकांश अनुस्वाररहित उदाहरण फेसबुक, यूट्यूब या अन्य व्यक्तिगत और अप्रामाणिक पृष्ठों पर हैं।
ऐ मेरे वतन के लोगों - टिकट पर अनुस्वार है

12) इस विषय पर छिटपुट चर्चायें हुई हैं। इस नियम (या आग्रह) के पक्षधर, बहुसंख्यक जनता द्वारा इसके पालन न करने को प्रचलित भूल (ग़लतुल-आम) बताते हैं।

13) अर्थ का अनर्थ होने के अलावा इस पूर्णतः अनुपयोगी आग्रह/नियम के औचित्य पर कई सवाल उठते हैं, यथा, "ऐ दिले नादाँ ..." और "दिले नादाँ तुझे हुआ क्या है" जैसी रचनाओं में एकवचन में भी अनुस्वार हटाया नहीं जाता तो फिर जिस बहुवचन में अनुस्वार सदा होता है उससे हटाने का आग्रह क्योंकर हो?

14) अनुस्वार हटाकर बहुवचन का एक नया रूप बनाने के आग्रह को मैं हिन्दी के अथाह सागर का एक क्षेत्रीय रूपांतर मानता हूँ और अन्य अनेक स्थानीय व क्षेत्रीय रूपांतरों की तरह इसके आधार पर अन्य/भिन्न प्रचलित परम्पराओं को गलत ठहराए जाने का विरोधी हूँ। हिंदी मातृभाषियों का बहुमत बहुवचन में सदा अनुस्वार का प्रयोग स्वाभाविक रूप से करता रहा है।

15) भारोपीय मूल की अन्य भाषाओं में भी ऐसा कोई आग्रह नहीं है। उदाहरण के लिए अङ्ग्रेज़ी में boy का बहुवचन boys होता है तो सम्बोधन में भी वह boys ही रहता है। सम्बोधन की स्थिति में boys के अंत से s हटाने या उसका रूपांतर करने जैसा कोई नियम वहाँ नहीं है, उसकी ज़रूरत ही नहीं है। ज़रूरत हिंदी में भी नहीं है।

16) इस नियम (या आग्रह) से अपरिचित जन और इसके विरोधी, इसके औचित्य पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए एक आपत्ति यह रखते हैं कि इस नियम के कारण एक ही शब्द के दो बहुवचन संस्करण बन जाएँगे जो अनावश्यक तो हैं ही, कई बार भिन्न अर्थ वाले समान शब्द होने के कारण अर्थ का अनर्थ करने की क्षमता भी रखते हैं। उदाहरणार्थ बिना अनुस्वार के "ऐ मेरे वतन के लोगो" कहने से अशोक की लाट (भारत का लोगो) को संबोधित करना भी समझा जा सकता है जबकि लोगों कहने से लोग का बहुवचन स्पष्ट होता है और किसी भी भ्रांति से भली-भांति बचा जा सकता है।
कुल मिलाकर निष्कर्ष यही निकलता है कि हिन्दी के बहुवचन सम्बोधन से अनुस्वार हटाने का आग्रह एक फिजूल की बंदिश से अधिक कुछ भी नहीं। कुछ पुस्तकों में इसका ज़िक्र अवश्य है और हिन्दुस्तानी के प्रयोगकर्ताओं का एक वर्ग इसका पालन भी करता है। साथ ही यह भी सच है कि हिंदीभाषियों और व्याकरणकारों का एक बड़ा वर्ग ऐसे किसी आग्रह को जानता तक नहीं है, मानने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। इस आग्रह का कारण और उद्गम भी अज्ञात है। इसके प्रायोजक, प्रस्तोता और पालनकर्ता और पढने के बाद इसे दोहराने वाले, इसके उद्गम के बारे में कुछ नहीं जानते हैं। संभावना है कि हिन्दी की किसी बोली, संभवतः लश्करी उर्दू या क्षेत्र विशेष में इसका प्रचालन रहा है और उस बोली या क्षेत्र के लोग इसका प्रयोग और प्रसार एक परिपाटी की तरह करते रहे हैं। स्पष्टतः इस आग्रह के पालन से हिन्दी भाषा या व्याकरण में कोई मूल्य संवर्धन नहीं होता है। इस आग्रह से कोई लाभ नहीं दिखता है, अलबत्ता भ्रांति की संभावना बढ़ जाती है। ऐसी भ्रांतियों के कुछ उदाहरण इस आलेख में पहले दिखाये जा चुके हैं।
कुछ समय से यह बहस सुनता आया हूँ, फिर भी इस पर कभी लिखा नहीं क्योंकि उसकी ज़रूरत नहीं समझी। लेकिन अब जब इस हानिप्रद आग्रह के पक्ष में लिखे हुए छिटपुट उदाहरण सबूत के तौर पर पेश किए जाते देखता हूँ और इस आग्रह का ज़िक्र न करने वाली पुस्तकों को सबूत का अभाव माना जाता देखता हूँ तो लगता है कि शांति के स्थान पर नकार का एक स्वर भी आवश्यक है ताकि इन्टरनेट पर इस भाषाई दुविधा के बारे में जानकारी खोजने वालों को दूसरा पक्ष भी दिख सके, शांति का स्वर सुनाई दे। इस विषय पर आपके अनुभव, टिप्पणियों और विचारों का स्वागत है। यदि आपको बहुवचन सम्बोधन से अनुस्वार हटाने में कोई लाभ नज़र आता है तो कृपया उससे अवगत अवश्य कराएं। धन्यवाद!

ऐ मेरे वतन के लोगों - लता मंगेशकर का स्वर, कवि प्रदीप की रचना

* हिन्दी, देवनागरी भाषा, उच्चारण, लिपि, व्याकरण विमर्श *
अ से ज्ञ तक
लिपियाँ और कमियाँ
उच्चारण ऋ का
लोगो नहीं, लोगों
श और ष का अंतर

Saturday, February 14, 2015

मुफ्तखोर - लघुकथा

(लघुकथा व चित्र: अनुराग शर्मा)


कमरे की बत्ती और पंखा खुला छोडकर वह घर से निकला और बस में बिना टिकट बैठ गया। आज से सब कुछ मुफ्त था। आज़ादी के लंबे इतिहास में पहली बार मुफ्तखोर पार्टी सत्ता में आई थी। उनके नेता श्री फ़ोकटपाल ने चुनाव जीतते ही सब कुछ मुफ्त करने का वादा किया था। उसने भी मुफ्तखोर पार्टी को विजयी बनाने के लिए बड़ी लगन से काम किया था। कारखाने में रोज़ हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद घर आते ही पोस्टर लगाने निकल पड़ता था। सड़क पर पैदल या बस में आते जाते भी लोगों को मुफ्तखोर पार्टी के पक्ष में जोड़ने का प्रयास करता।

फैक्टरी पहुँचते ही उल्लास से काम पर जुट गया। एक तो सब कुछ मुफ्त होने की खुशी ऊपर से आज तो वेतन मिलने का दिन था। लंच के वक्फ़े में जब वह तन्खाबाबू को सलाम ठोकने गया तो उन्हें लापता पाया। वापसी में सेठ उधारचंद दिख गए। सेठ उधारचंद फैक्ट्री के मालिक हैं और अपने नाम को कितना सार्थक करते हैं इसकी गवाही शहर के सभी सरकारी बैंक दे सकते हैं।

उसने सेठजी को जयरामजी कहने के बाद हिम्मत जुटाकर पूछ ही लिया, "तन्खाबाबू नहीं दिख रहे, आज छुट्टी पर हैं क्या?"

"कुछ खबर है कि नईं? मुफतखोर पार्टी की जीत का जशन चल रिया हैगा।"

"तन्खाबाबू क्या जश्न में गए हैं?"

"बीस-बीस हज़ार के लंच करे हैं हमने फ़ोकटपाल्जी के साथ। पचास-पचास हज़ार के चेक भी दिये हैं चंदे में। इसीलिए ना कि वे हमें भी कुछ मुफत देवें।"

"जी" वह प्रश्नवाचक मुद्रा में आ गया था।

"हमने फ़ोकटपाल्जी को जिताया है। अब तन्खाबाबू की कोई जरूरत ना है। आज से इस फैक्ट्री में सब काम मुफत होगा। गोरमींट अपनी जाकिट की पाकिट में हैगी।"

उसे ऐसा झटका लगा कि नींद टूट गई। बत्ती, पंखा, सब बंद था क्योंकि मुफ्तखोर पार्टी जीतने के बावजूद भी उसकी झुग्गी बस्ती में बिजली नहीं थी।

[समाप्त] 

Saturday, January 31, 2015

किनाराकशी - लघुकथा

(चित्र व लघुकथा: अनुराग शर्मा)
गाँव में दो नानियाँ रहती थीं। बच्चे जब भी गाँव जाते तो माता-पिता के दवाब के बावजूद भी एक ही नानी के घर में ही रहते थे। दूसरी को सदा इस बात की शिकायत रही। बहला-फुसलाकर या डांट-डपटकर जब बच्चे दूसरी नानी के घर भेज दिये जाते तो जितनी देर वहाँ रहते उन्हें पहली नानी का नाम ले-लेकर यही उलाहनाएं मिलतीं कि उनके पास बच्चों को वशीभूत करने वाला ऐसा कौन सा मंत्र है?  ये वाली तो पहली वाली से कितने ही मायनों में बेहतर हैं। यह वाली नानी क्या बच्चों को मारती-पीटती हैं जो बच्चे उनके पास नहीं आते? बच्चे 10-15 मिनट तक अपना सिर धुनते और फिर सिर झुकाकर पहले वाली नानी के घर वापस चले जाते।

हर साल दूसरी नानी के घर जाकर उनसे मिलने वाले बच्चों की संख्या कम होते-होते एक समय ऐसा आया जब मैं अकेला वहाँ गया। तब भी उन्होने यही शिकवा किया कि उनके सही और सच्चे होने के बावजूद भोले बच्चों ने पहली नानी के किसी छलावे के कारण उनसे किनाराकशी कर ली है। उस दिन के बाद मेरी भी कभी उनसे मुलाक़ात नहीं हुई, हाँ सहानुभूति आज भी है।

Monday, January 12, 2015

कंजूस मक्खीचूस - लघुकथा

दिवाली मिलन के समारोह में जब सुरेखा जी मुस्कराती हुई नजदीक आईं तो खुशी के साथ मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली। शहर की सबसे धनी और प्रसिद्ध भारतीय डॉक्टर। बड़े-बड़े लोगों से पहचान। बिना अपॉइंटमेंट के एक मिनट की बात भी संभव नहीं और बिना कनेक्शन के अपोइंटमेंट भी संभव नहीं।

अरे इन्हें तो मेरा नाम भी पता है, यह भी मालूम है कि मेरा घर दिल्ली में है और मैं परसों छुट्टी पर भारत जा रहा हूँ। दो मिनट की बातचीत में ही इतनी नजदीकी। लोग यूँ ही इन्हें नकचढ़ा और घमंडी बताते हैं। जलते हैं सब इनकी समृद्धि से। ऐसी सुंदरी को काले दिल वाली और इतनी धनाढ्य होने पर भी एक नंबर की कंजूस मक्खीचूस बताते हैं। जलें, मेरी बला से। मैं तो किसी की बातों में आने से रहा।

समारोह के बाद घर आकर पैकिंग आदि करके सोया तो सुबह देर से उठा। अलसाई नींद में ऐसा लगा था जैसे किसी ने द्वार की घंटी बजाई थी। सोचा, उठकर देख ही लूँ। शायद कोई सचमुच आया ही हो, थक हारकर लौट न गया हो। दरवाजा खोला तो बाहर पोलीथीन का एक बड़ा सा लिफाफा रखा था। साथ में एक नोट भी था।

"बुरा न मानें, अपना समझकर यह हक़ जता रही हूँ। इस पैकेट में कुछ रेशमी साड़ियाँ हैं। आप भारत जा ही रहे हैं। वहाँ से ड्राइक्लीन करवा लाइये, यहाँ तो बहुत महंगा है। वापसी पर बिल के अनुसार भुगतान कर दूँगी।

~ आपकी सुरेखा।"


Wednesday, December 31, 2014

बुद्धिजीवी कैसे बनते हैं?

सफल बुद्धिजीवी बनने के 6 सरल सूत्र

1) नाम
बुद्धिजीवी की पहली पहचान होती है उसका नाम। अपने लिए एक अलग सा नाम चुनें। अच्छा, बुरा, छोटा, बड़ा, चाहे जैसा भी हो, होना अजीबोगरीब चाहिए। वैसे चुनने को तो आप अदरक भी चुन सकते हैं लेकिन उस स्थिति में केवल आपका सब्जीवाला ही आपकी बुद्धिजीविता को पहचान सकेगा। सो आप किसी सब्जी के बजाय रूस, चीन, कोरिया, विएतनाम, क्यूबा आदि में हुई किसी खूनी क्रान्ति मिथक के किसी पात्र को चुन सकते हैं। जितना भावहीन पात्र हो बुद्धिजीविता उतनी ही बेहतर निखरेगी। अगर आप शुद्ध देसी नाम ही चलाना चाहते हैं तो भी अपने ठेठ देसी नाम राम परसाद, या चंपत लाल की जगह प्रचंड, तांडव, प्रलय, विप्लव, समर, रक्त, बारूद, सर्वनाश, युद्ध आदि कुछ तो ऐसा कर ही लीजिये जिससे आपके भीरु स्वभाव की गंध आपकी उद्दंडता के पीछे छिप जाये।

2) उपनाम
वैसे तो खालिस बुद्धिजीवी एकल नामधारी ही होता है। लेकिन यदि आप एकदम से ऊपर के पायदान पर बैठने में असहज (या असुरक्षित) महसूस कर रहे हों तो आरम्भ में अपना मूल नाम चालू रख सकते हैं। केवल एक उपनाम की दरकार है। वह भी न हो तो अपना कुलनाम ही किसी ऐसे नाम से बदल लीजिये जो क्रांतिकारी नहीं तो कम से कम परिवर्तनकारी तो दिखे। नाम अगर अङ्ग्रेज़ी के A अक्षर से शुरू हो तो किसी भी सूची में सबसे ऊपर दिखाई देगा। इसलिए सबसे आसान काम है किसी भी आदरणीय शब्द से पहले अ या अन चिपका दिया जाय। आजकल के ट्रेंड को देखते हुए अभारतीय, अनार्य, अद्रविड़, अहिंदू, अब्राह्मण, असंस्कृत, अनादर, और अशूर के हिट होने की काफी संभावना है। यदि ऐसा करना आपको ठीक न लगे तो बुद्धिजीवी से मिलता जुलता कोई शब्द चुनें, यथा: लेखजीवी, पत्रजीवी, परजीवी, तमजीवी, स्याहजीवी, कम्प्यूटरजीवी, कीबोर्डजीवी, व्हाट्सऐपजीवी आदि। यकीन मानिए, आधे लोग तो आपकी इस "GV" चाल से ही चित्त हो जाएँगे।

3) संघे शक्ति कलयुगे
कहावत है कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। सो बुद्धिजीवी बनने के लिए मूर्खों की सहायता लीजिये। उनको अपने साथ मिलाकर दूसरों के फटे में टांग अड़ाने के सामूहिक प्रयोग आरम्भ कीजिये। मिलजुलकर एक संस्था रजिस्टर करवा लीजिये जिसके आजीवन अध्यक्ष, कोषाध्यक्ष, सचिव, व्यवस्थापक आदि सब आप ही हों। संस्था का नाम रचने के लिए अपने नाम से पहले प्रगतिशील, प्रोग्रेसफील, या तरक्कीझील जोड़ लीजिये। मसलन "तरक्कीझील सूखेलाल विरोध मंच"। यदि अपना नाम जोड़ने से बचना चाहते हैं तो किसी गरम मुद्दे को नाम में जोड़ लीजिये, यथा आतंक सुधार दल, नारीमन पॉइंट हड़ताल संघ, अनशन-धरना प्रोत्साहक मुख्यमंत्री समिति, सर्वकाम दखलंदाज़ी संगठन, लगाई-बुझाई समिति आदि। यदि आपको छोटा सा नाम चुनना है तो रास्ते के रोड़े जैसा कोई नाम चुनिये, प्रभाव पड़ेगा, लोग डरेंगे, उदाहरण: स्पीडब्रेकर, रोक दो, प्रतिरोध, गतिरोध, सड़क का गड्ढा, बारूदी सुरंग आदि। और यदि आपको ये सारे नाम पुरातनपंथी लगते हैं तो फिर चुनिये एक आक्रामक नाम, जैसे: पोलखोल, हल्लाबोल, पर्दाफाश, अंधविरोध, पीट दो आदि।

4) कर्मण्येवाधिकारस्ते 
अब संस्था बनाई है तो कुछ काम भी करना पड़ेगा। रोजाना दो-तीन बयान दे दीजिये। ओबामा ने आज पान नहीं खाया, यह बंगाल के पान-उत्पादक किसानों का अपमान है, आदि-आदि। अखबारों में आलेख भेजिये। आलेख न छपें तो पत्र लिखिए। पत्र भी न छपें तो अपने फेसबुक प्रोफाइल पर विरोध-पत्र पोस्ट कर दीजिये और अपने मित्रों से लाइक करवाइए। पड़ोस के किसी मंदिर, गुरुद्वारे, स्कूल, सचिवालय, थाने, अस्पताल आदि पहुँचकर अपने मोबाइल से वहाँ के हर बोर्ड का फोटो खींच लीजिये और बैठकर उनमें ऐसे चिह्न ढूंढिए जिनपर विवाद ठेला जा सके। कुछ भी न मिले तो फॉटोशॉप कर के विवाद उत्पन्न कर लीजिये। मंदिर के उदाहरण में "गैर-हिन्दू का प्रवेश वर्जित है" टाइप का कुछ भी लिखा जा सकता है। बहुत चलता है। बाकी तो आप खुद ही समझदार हैं, जमाने की नब्ज़ पहचानते हैं।

5) जालसाज़ी
ये जालसाज़ी वो वाली नहीं है जो नोट छापती है, ये है नेटवर्किंग। संस्था तो आप बना ही चुके हैं। सामाजिक चेतना के नाम पर थोड़ा बहुत चन्दा भी इकट्ठा कर ही लिया होगा। अब उस चंदे के प्रयोग से नेटवर्किंग का बाम मलिए और प्रगति के काम पर चलिये। ऐसे लोगों की सूची बनाइये जो आपके काम भी आ सकते हों और थोड़े लालची किस्म के भी हों। इनमें घंटाध्वनि प्रतिष्ठान के मालिक भी हो सकते हैं, बुझाचिराग के संपादक भी, सर्वहर समिति के अध्यक्ष भी, तंदूरदर्शन टीवी चैनल के प्रोड्यूसर भी और आसपड़ोस के अभिमानी और भ्रष्ट नौकरशाह भी। एक सम्मान समारोह आयोजित करके एक लाइन में सबको सम्मान सर्टिफिकेट बाँट दीजिये। अगर आपका चन्दा अच्छा हुआ है तो समारोह के बाद पार्टी भी कीजिये, हफ्ते भर में किरपा आनी शुरू हो जाएगी।

6) आत्मनिर्भरता 
इतने सब से भी अगर आपका काम न बने तो फिर आपको आत्मनिर्भर होना पड़ेगा। अपना खुद का एक टीवी चैनल, या पत्रिका या अखबार निकालिए। सबसे आसान काम एक न्यूज़ चैनल चलाने का है। तमाम अखबार पढ़कर सामग्री बनाइये और अपने इन्टरनेट कैफे में चाय लाने वाले लड़कों को टाई लगाकर "3 मिनट में 30 और 5 मिनट में 500 खबरें" जैसे कार्यक्रमों में कैमरे के सामने बैठा दीजिये। 8 मिनट तो ये हुये। 24 घंटों का बाकी काम हर मर्ज की दवा हकीम लुक़मान टाइप के विज्ञापनों से चल जाएगा। फिर भी जो एक घंटा बच जाये उसके बीच में आप अपनी बुद्धिजीवी विशेषज्ञता के साथ आजकल के हालात पर तसकरा कीजिये। पेनल के लिए पिछले कदम में सम्मानित लोगों में से कुछ को बारी-बारी से बुलाते रहिए। बोलने में घबराइये मत। चल जाये तो ठीक और अगर कभी लेने के देने पड़ जाएँ तो बड़प्पन दिखाकर बयान वापस ले लीजिये। टीवी पर रोज़ किसी न किसी गंभीर विषय पर लंबी-लंबी फेंकने वाला तो बुद्धिजीवी होगा ही। और फिर जनहित में हर हफ्ते अपना कोई न कोई बयान वापस लेने वाला तो सुपर-बुद्धिजीवी होना चाहिए।

... तो गुरु, हो जा शुरू, जुट जा काम पर। और जब बुद्धिजीवी दुकान चल निकले तो हमें वापस अपना फीडबैक अवश्य दीजिये।
जब फेसबुक पर एक मित्र "ठूँठ बीकानेरी" ने एक सहज सा प्रश्न किया, "ये बुद्धिजीवी कैसे बनते हैं?" तो बहुत से उत्तर आए। उन्हीं जवाबों के सहारे एक अन्य मित्र सतीश चंद्र सत्यार्थी के लिखे लाजवाब लेख "फेसबुक पर इंटेलेक्चुअल कैसे दिखें" तक पहुँच गये। गजब के सुझाव हैं। आप भी एक बार अवश्य पढ़िये। एक बुद्धिजीवी के रूप में अपना सिक्का कैसे जमाएँ, यह एक शाश्वत समस्या है। जिसका सामना बहुत से इंटरनेटजन अक्सर करते हैं। सत्यार्थी जी का आलेख उनके लिए अवश्य सहायक सिद्ध होगा। इसी संबंध में अब तक मेरे अनुभव में आए कुछ अन्य सरल बिन्दु यहाँ उल्लिखित हैं। इस लेख को सतीश के लेख का सहयोगी या पूरक समझा जा सकता है।

Wednesday, December 10, 2014

हम क्या हैं? - कविता

उनका प्रेम समंदर जैसा
अपना एक बूंद भर पानी

उनकी बातें अमृत जैसी
अपनी हद से हद गुड़धानी

उनका रुतबा दुनिया भर में
हम बस मांग रहे हैं पानी

उनके रूप की चर्चा चहुँदिश
यह सूरत किसने पहचानी

उनके भवन भुवन सब ऊँचे
अपनी दुनिया आनी जानी

वे कहलाते आलिम फाजिल
हमको कौन कहेगा ज्ञानी

इतने पर भी हम न मिटेंगे
आखिर दिल है हिन्दुस्तानी

Saturday, November 29, 2014

तल्खी और तकल्लुफ

जो आज दिखी
असहमति नहीं
अभिव्यक्ति मात्र है
आज तक
सारा नियंत्रण
अभिव्यक्ति पर ही रहा
असहमति
विद्यमान तो थी
सदा-सर्वदा ही
पर
रोकी जाती रही
अभिव्यक्त होने से
सभ्यता के नाते

Thursday, October 23, 2014

खान फ़िनॉमिनन - कहानी

(कथा व चित्र: अनुराग शर्मा)
"गरीबों को पैसा तो कोई भी दे सकता है, उन्हें इज्ज़त से जीना खाँ साहब सिखाते हैं।"

"खाँ साहब के किरदार में उर्दू की नफ़ासत छलकती है।"

"अरे महिलाओं को प्रभावित करना तो कोई खान साहब से सीखे।"

"कभी शाम को उनके घर पर जमने वाली बैठकों में जा के तो देख। दिल्ली भर की फैशनेबल महिलायें वहाँ मिल जाएंगी।"

"खाँ साहब कभी भी मिलें, गजब की सुंदरियों से घिरे ही मिलते हैं।

"महफिल हो तो खाँ साब की हो, रंग ही रंग। सौन्दर्य और नज़ाकत से भरपूर।"

बहुत सुना था खाँ साहब के बारे में। सुनकर चिढ़ भी मचती थी। रईस बाप की बिगड़ी औलाद, उस बददिमाग बूढ़े के व्यक्तित्व में कुछ भी ऐसा नहीं है जिससे मैं प्रभावित होता। कहानी तो वह क्या लिख सकता है, हाँ संस्मरणों के बहाने, अपने सच्चे-झूठे प्रेम-प्रसंगों की डींगें ज़रूर हाँकता रहता है। अपनी फेसबुक प्रोफाइल पर भी यह कुंठित व्यक्तित्व केवल महिलाओं के कंधे पर हाथ धरे फोटो ही लगाता है। मुझे नहीं लगता कि उस आदमी में ऐसी एक भी खूबी है जो किसी समझदार महिला या पुरुष को प्रभावित करे। स्वार्थजनित संबंधों की बात और होती है। मतलब के लिए तो बहुत से लोग किसी की भी लल्लो-चप्पो करते रहते हैं। खाँ तो एक बड़े साहित्यिक मठ द्वारा स्थापित संपादक है सो छपास की लालसा वाले लल्लू-पंजू लेखकों-कवियों-व्यंग्यकारों द्वारा उसे घेरे रहना स्वाभाविक ही है। एक ही लीक पर लिखे उसके पिटे-पिटाए संस्मरण उसके मठ के अखबार उलट-पलटकर छापते रहते हैं। चालू साहित्य और गॉसिप पढ़ने वालों की संख्या कोई कम तो नहीं है, सो उसके संस्मरण चलते भी हैं। लेकिन इतनी सी बात के कारण उसे कैसानोवा या कामदेव का अवतार मान लेना, मेरे लिए संभव नहीं। मुझे न तो उसके व्यक्तित्व में कभी कोई दम दिखाई दिया और न ही उसके लेखन में।

कस्साब वादों से हटता रहा है, बकरा बेचारा ये कटता रहा है
खाँ साहब कोई पहले व्यक्ति नहीं जिनके बारे में अपनी राय बहुमत से भिन्न है। अपन तो जमाने से मठाधीशों को इगनोर मारने के लिए बदनाम हैं। लेकिन बॉस तो बॉस ही होता है। जब मेरे संपादक जी ने हुक्म दिया कि उसका इंटरव्यू करूँ तो जाना ही पड़ा। नियत दिन, नियत समय पर पहुँच गया। खाँ साहब के एक साफ सुथरे नौकर ने दरवाजा खोला। मैंने परिचय दिया तो वह अदब के साथ एक बड़े से हॉलनुमा कमरे में ले गया। सीलन की बदबू भरे हॉल के अंदर बेतरतीब पड़े सोफ़ों पर 10-12 अधेड़ महिलाएं बैठी थीं। कमरे में बड़ा शोर था। बेशऊर सी दिखने वाली वे महिलाएँ कचर-कचर बात करे जा रही थीं।

कमरे के एक कोने में 90 साल के थुलथुल, खाँ साहब, अपनी बिखरी दाढ़ी के साथ मैले कुर्ते-पाजामे में एक कुर्सी पर चुपचाप पसरे हुए थे। सामने की मेज़ पर किताबें और कागज बिखरे हुए थे। मुझे "दैनंदिन प्रकाशिनी" नामक पत्रिका के खाँ विशेषांक में छपा एक आलेख याद आया जिसमें खान फ़िनॉमिनन की व्याख्या करते हुए यह बताया गया था कि लोग, खासकर स्त्रियाँ, उनकी तरफ इसलिए आकृष्ट होती हैं क्योंकि वे उनकी बातें बहुत ध्यान से सुनते हैं और एक जेंटलमैन की तरह उन्हें समुचित आदर-सत्कार के साथ पूरी तवज्जो देते हैं।

नौकर के साथ मुझे खाँ साहब की ओर बढ़ते देखकर अधिकांश महिलाएँ एकदम चुप हो गईं। खाँ साहब के एकदम नजदीक बैठी युवती ने अभी हमें देखा नहीं था। अब बस एक उसी की आवाज़ सुनाई दे रही थी। ऐसा मालूम पड़ता था कि वह खाँ साहब से किसी सम्मेलन के पास चाहती थी। खाँ साहब ने हमें देखकर कहा, "खुशआमदीद!" तो वह चौंकी, मुड़कर हमें देखा और रुखसत होते हुए कहती गई, "पास न, आप मेरे को, ... परसों ... नहीं, नहीं, कल दे देना"

खाँ साहब ने इशारा किया तो अन्य महिलाएँ भी चुपचाप बाहर निकल गईं। नौकर मुझे खाँ साहब से मुखातिब करके दूर खड़ा हो गया। मैं खाँ साहब को अपना परिचय देता उससे पहले ही वे बोले, "अच्छा! इंटरव्यू को आए हो, गुप्ताजी ने बताया था, बैठो।" हफ्ते भर से बिना बदले कुर्ते-पाजामे की सड़ान्ध असह्य थी। अपनी भाव-भंगिमा पर काबू पाते हुए मैं जैसे-तैसे उनके सामने बैठा तो अपनी दाढ़ी खुजलाते हुए वे अपने नौकर पर झुँझलाये, "अबे खबीस, जल्दी मेरी हियरिंग एड लेकर आ, इनके सवाल सुने बिना उनका जवाब क्या तेरा बाप देगा?"

[समाप्त]

Sunday, September 28, 2014

सम्राट पतङ्गम [इस्पात नगरी से - 69]


एक हिन्दी कहावत है,"खाली दिमाग शैतान का घर"। कुछ दिमाग इसलिए खाली होते हैं कि उनके पास फुर्सत खूब होती है लेकिन कुछ इसलिए भी खाली होते हैं कि वे पुराने काम कर कर के जल्दी ही बोर हो जाते हैं और इसलिए कुछ नया, कुछ रोचक करने की सोचते हैं। कोई एवरेस्ट जैसी कठिन चोटियों पर चढ़ जाता है तो कोई बड़े मरुस्थल को अकेले पार करने निकल पड़ता है। उत्तरी-दक्षिणी ध्रुव अभियान हों या अन्तरिक्ष में हमारे चंद्रयान और मंगलयान जैसे अभियान, ये मानव की ज्ञान-पिपासा और जिजीविषा के साथ उसकी संकल्प शक्ति के भी प्रतीक हैं। बड़े लोगों के काम भी बड़े होते हैं, लेकिन सब लोग बड़े तो नहीं हो सकते न। तो उनके लिए इस संसार में छोटे-छोटे कामों की कमी नहीं है।

प्यूपा से तितली बनाते देखना भी एक ऐसा ही सरल परंतु रोचक काम है जो कि हमने पिछले दिनों किया। यह प्यूपा था एक मोनार्क बटरफ्लाई का जिसे हम सुविधा के लिए हिन्दी में सम्राट पतंग या सम्राट तितली कह सकते हैं। सम्राट तितली के गर्भाधान का समय वसंत ऋतु है। गर्मी के मौसम में अन्य चपल तितलियों के बीच अमेरिका और कैनेडा से मेक्सिको जाती हुई ये सम्राट तितलियाँ अपने बड़े आकार और तेज़ गति का कारण दूर से ही नज़र आ जाती हैं।

तितली और पतंगे कीट वर्ग के एक ही परिवार (order: Lepidoptera) के अंग हैं और उनकी जीवन प्रक्रिया भी मिलती-जुलती है। तितली का जीवनकाल उसकी जाति के अनुसार एक सप्ताह से लेकर एक वर्ष तक होता है।

तितली के अंडे गोंद जैसे पदार्थ की सहायता से पत्तों से चिपके रहते हैं। कुछ सप्ताह में अंडे से लार्वा (larvae या caterpillars) बन जाता है जो सामान्य रेंगने वाले कीटों जैसा होता है। लार्वा जमकर खाता है और समय आने पर प्यूपा (pupa) में बदल जाता है। प्यूपा बनाने की प्रक्रिया पतंगों में भी होती है। प्यूपा एक खोल में बंद होता है। पतंगे के प्यूपा के खोल को ककून (cocoon) तथा तितली के प्यूपा के खोल को क्राइसेलिस (chrysalis) कहते हैं। ज्ञातव्य है कि ककून से रेशम बनता है। क्राइसेलिस का ऐसा कोई उपयोग नहीं मिलता। क्राइसेलिस भी गोंद जैसे प्राकृतिक पदार्थ द्वारा अपने मेजबान पौधे से चिपका रहता है।

अब आता है तितली के जीवन-चक्र का सबसे रोचक भाग, जब क्राइसेलिस में बंद प्यूपा एक खूबसूरत तितली में बदलता है। प्यूपा के रूपान्तरण की इस जादुई प्रक्रिया को मेटमोर्फ़ोसिस (metamorphosis) कहते हैं। रूपान्तरण काल में प्यूपा अपने खोल में बंद होता है। इसी अवस्था  में प्यूपा के पंख उग आते हैं और तेज़ी से बढ़ते रहते हैं। भगवा और काले रंग के पंखों वाली खूबसूरत सम्राट तितली पिट्सबर्ग जैसे नगर से हजारों मील दूर मेक्सिको की मिचोआकन (Michoacán) पहाड़ियों में स्थित अपने मूल निवास तक हर साल पहुँचती हैं। सामान्यतः नवंबर से मार्च तक ये तितलियां मेक्सिको में रहती हैं। और उसके बाद थोड़ा-थोड़ा करके फिर से उत्तर की ओर हजारों मील तक अमेरिका और दक्षिण कैनेडा तक बढ़ आती हैं।

सम्राट तितलियाँ शक्तिशाली होती हैं। अधिकांश तितलियों की तरह उनके चारों पंख भी एक दूसरे से स्वतंत्र होते हैं। लेकिन इनके पंख सामान्य तितलियों की तरह छूने से झड़ जाने वाले नाज़ुक नहीं होते हैं।

ऐसा समझा जाता है कि सम्राट तितलियों में धरती के चुंबकीय क्षेत्र और सूर्य की स्थिति की सहायता से मार्गदर्शन के क्षमता होती हैं। हजारों मील की दूरी सुरक्षित तय करने वाली सम्राट तितलियाँ जहरीली भी होती हैं। विषाक्तता उनमें पाये जाने वाले कार्डिनेलाइड एग्लीकॉन्स रसायनों के कारण है जो इनकी पाचनक्रिया में भी सहायक होते हैं। इस विष के कारण वे कीटों और चिड़ियों का शिकार बनाने से बच पाती हैं।  ये तितलियाँ काफी ऊँचाई पर उड़ सकती हैं और ऊर्जा संरक्षण के लिए गर्म हवाओं (jet streams) की सहायता लेती हैं।

सम्राट तितलियों का अभयारण्य (Monarch Butterfly Biosphere Reserve) एक विश्व विरासत स्थल है जहां का अधिकतम तापमान 22° सेन्टीग्रेड (71° फहरनहाइट) तक जाता है। राजधानी मेक्सिको नगर से 100 किलोमीटर उत्तरपूर्व स्थित यह क्षेत्र मेक्सिको देश का सबसे ऊँचा भाग है।

थोड़ा ढूँढने पर यूट्यूब पर एक वीडियो मिला जिसमें यह पूरी प्रक्रिया बड़ी सुघड़ता से कैमरा में कैद की गई है, आनंद लीजिये:


[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photos by Anurag Sharma]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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इस्पात नगरी से - श्रृंखला
तितलियाँ

Tuesday, September 16, 2014

शब्दों के टुकड़े - भाग 6

(~ स्वामी अनुरागानन्द सरस्वती
विभिन्न परिस्थितियों में कुछ बातें मन में आयीं और वहीं ठहर गयीं। जब ज़्यादा घुमडीं तो डायरी में लिख लीं। कई बार कोई प्रचलित वाक्य इतना खला कि उसका दूसरा पक्ष सामने रखने का मन किया। ऐसे अधिकांश वाक्य अंग्रेज़ी में थे और भाषा क्रिस्प थी। हिन्दी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है। अनुवाद करने में भाषा की चटख शायद वैसी नहीं रही, परंतु भाव लगभग वही हैं। कुछ वाक्य पहले चार आलेखों में लिख चुका हूँ, कुछ यहाँ प्रस्तुत हैं। भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4; भाग 5;
  • आज की जवानी, कल एक बचपना थी।
  • शक्ति सदा ही कमजोरी है, लेकिन कई बार कमजोरी भी ताकत बन जाती है।
  • स्वप्नों को हक़ीक़त में बदलने का काम भले ही भाड़े पर कराया जाए लेकिन सपने देखना तो खुद को ही सीखना पड़ेगा।
  • जिस भावनाप्रधान देश को हल्की-फुलकी अफवाहें तक गहराई से प्रभावित करके आसानी से बहा ले जाती हों, वहाँ प्रशासनिक सुधार हो भी तो कैसे?
  • यह आवश्यक नहीं है कि बेहतर सदा अच्छा ही हो।
  • भारतीय राजनीति में सही गलत कुछ नहीं होता, बस मेरा-तेरा होता है।
  • अज्ञान कितना उत्तेजक और लोंमहर्षक होता है न!
  • आपकी विश्वसनीयता बस उतनी ही है जितनी आपकी फेसबुक मित्र सूची की।  
  • जनहितार्थ होम करते हाथ न जलते हों, ऐसा नहीं है। लेकिन कई लोग सारा गरम-गरम खाना खुद हड़प लेने की उतावली में भी हाथ जलाते हैं ... 
  • जीवन भर एक ही कक्षा में फेल होने वाले जब हर क्लास को शिक्षा देने लगें तो समझो अच्छे दिन आ चुके हैं।
  • समय से पहले लहर को देख पाते, ऐसी दूरदृष्टि तो सबमें नहीं होती। लेकिन लहर में सिर तक डूबे होने पर भी किसी शुतुरमुर्ग का यह मानना कि सिर सहरा की रेत में धंसा है, दयनीय है।
  • आपके चरित्र पर आपका अधिकार है, छवि पर नहीं ... 
  • आँख खुली हो तो नए निष्कर्ष अवश्य निकलते हैं, वरना - पहले वाले ही काम आ जाते हैं।
  • "भगवान भला करें" कहना आस्था नहीं, सदिच्छा दर्शाता है।
  • सही दिशा में एक कदम गलत दिशा के हज़ार मील से बेहतर है 
  • खुद मिलना तो दूर, जिनसे आपके विचार तक नहीं मिलते, उन्हें दोस्तों की सूची में गिनना फेसबुक पर ही संभव है।
... और अंत में एक हिंglish कथन
पाकिस्तानी सीमा पर घुसपैठ के साथ-साथ गोलियाँ भी चलती रहती हैं जबकि चीनी सैनिक घुसपैठ भले ही रोज़ करते हों गोली कभी बर्बाद नहीं करते क्योंकि चीनी की गोली is just a placebo ...
अनुरागी मन कथा संग्रह :: लेखक: अनुराग शर्मा 

Saturday, August 30, 2014

ठेसियत की ठोसियत

मिच्छामि दुक्खड़म (मिथ्या मे दुष्कृतम)
जैसे ऋषि-मुनियों का ज़माना पुण्य करने का था वैसे आजकल का ज़माना आहत होने का है। ठेस आजकल ऐसे लगती है जैसे हमारे जमाने में दिसंबर में ठंड और जून में गर्मी लगती थी। अखबार उठाओ तो कोई न कोई आहत पड़ा है। रेडियो पर खबर सुनो तो वहाँ आहत होने की गंध बिखरी पड़ी है। टेलीविज़न ऑन करो तो वहाँ तो हर तरफ आहत लोग लाइन लगाकर खड़े हैं।

ये सब आहत टाइप के, सताये गए, असंतुष्ट प्राणी संसार के आत्मसंतुष्ट वर्ग से खासतौर से नाराज़ लगते हैं। कोई इसलिए आहत है कि जिस दिन उसका रोज़ा था उस दिन मैंने अपने घर में अपने लिए चाय क्यों बनाई। कोई इसलिए आहत है कि जब आतंकी हत्यारे के मजहब या विचारधारा के अनुसार सारे पाप जायज़ थे तो उसे क्षमादान देने के उद्देश्य से कानून में ज़रूरी बदलाव क्यों नहीं दिया गया। कोई किसी के कविता लिखने से आहत है, कोई कार्टून बनाने से, तो कोई बयान देने से। किसी को किसी की किताब प्रतिबंधित करानी है तो कोई किताब के अपमान से आहत है।

भारत से निरामिष ब्लॉग पर अब न आने वाले एक भाई साहब तो इसी बात से आहत थे कि ये पशुप्रेमी लोग मांसाहार क्यों नहीं करते। अमेरिका में कई लोग इस बात पर आहत हैं कि हर मास-किलिंग के बाद बंदूक जैसी आवश्यकता को कार जैसी अनावश्यक विलासिता की तरह नियमबद्ध करने की बात क्यों उठती है। जहाँ, धर्मातमा किस्म के लोग विधर्मियों और अधर्मियों से आहत हैं वहीं व्यवस्थाहीन देशों में आतंक और मानव तस्करी जैसे धंधे चलाने वाले गैंग, धर्मपालकों से आहत हैं क्योंकि धर्म के बचे रहते उनकी दूकानदारी वैसे ही आहत हो जाती है, जैसे जैनमुनियों के अहिंसक आचरण से किसी कसाई का धंधा।  

चित्र इन्टरनेट से साभार, मूल स्रोत अज्ञात
गरज यह है कि आप कुछ भी करें, कहीं भी करें, किसी न किसी की भावना को ठेस पहुँचने ही वाली है। लेकिन क्या कभी कोई इस ठेसियत की ठोसियत की बात भी करेगा? किसी को लगी ठेस के पीछे कोई ठोस कारण है भी या केवल भावनात्मक अपरिपक्वता है। आहत होने और आहत करने में न मानसिक परिपक्वता है, न मानवता, और न ही बुद्धिमता। आयु, अनुभव और मानसिक परिपक्वता बढ़ने के साथ-साथ हमारे विवेक का भी विकास होना चाहिए। ताकि हम तेरा-मेरा के बजाय सही-गलत के आधार पर निर्णय लें और फिजूल में आहत होने और आहत करने से बचें। कभी सोचा है कि सदा दूसरों को चोट देते रहने वाले भी खुद को ठेस लगाने के शिकवे के नीचे क्यों दबे रहते हैं? क्या रात की शिकायत के चलते सूर्योदय प्रतिबंधित किया जाना चाहिए? साथ ही यह भी याद रहे कि भावनाओं का ख्याल रखने जैसे व्यावहारिक सत्कर्म की आशा उनसे होती है जिन्हें समझदार समझा जाता है। और समझदार अक्सर निराश नहीं करते हैं। आग लगाने, भावनाएं भड़काने, आहत रहने या करने के लिए समझ की कमी एक अनिवार्य तत्व जैसा ही है

न जाने कब से ठेस लगने-लगाने पर बात करना चाहता था लेकिन संशय यही था कि इससे भी किसी न किसी की भावना आहत न हो जाये। लेकिन आज तो पर्युषण पर्व का आरंभ है सो ठोस-अठोस सभी ठेसाकुल सज्जनों, सज्जनियों से क्षमा मांगने के इस शुभ अवसर का लाभ उठाते हुए इस आलेख को हमारी ओर से हमारे सभी आहतों के प्रति आधिकारिक क्षमायाचना माना जाय। हमारी इस क्षमा से आपके ठेसित होते रहने के अधिकार पर कोई आंच नहीं आएगी।
शुभकामनाएँ!
अपराधसहस्त्राणि क्रियन्ते अहर्निशं मया। दासोयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वर।।
गतं पापं गतं दु:खं गतं दारिद्रयमेव च। आगता: सुख-संपत्ति पुण्योहं तव दर्शनात्।।
* संबन्धित कड़ियाँ * 

Wednesday, August 27, 2014

अपना अपना राग - कविता

(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)

हर नगरी का अपना भूप
अपनी छाया अपनी धूप

नक्कारा और तूती बोले
चटके छन्नी फटके सूप

फूट डाल ताकतवर बनते
राजनीति के अद्भुत रूप

कोस कोस पर पानी बदले
हर मेंढक का अपना कूप

ग्राम नगर भटका बंजारा
दिखा नहीं सौन्दर्य अनूप

Saturday, August 23, 2014

जोश और होश - बोधकथा

चेले मीर ने सारे दांव सीख लिए थे। जीशीला भी था, फुर्तीला भी। नौजवान था, मेहनती था, बलवान तो होना ही था। फिर भी जो इज्ज़त उस्ताद पीर की थी, उसे मिलती ही न थी। गैर न भी करें, उस्ताद भी उसे बहुत होशियार नहीं समझते थे और सटीक से सटीक दांव पर भी और अधिक होशियार रहने की ही सलाह देते थे।

बहुत सोचा, बहुत सोचा, दिन भर, फिर रात भर सोचा और निष्कर्ष यह निकाला कि जब तक वह शागिर्द बना रहेगा, उसे कोई भी उस्ताद नहीं मानेगा। आगे बढ़ना है तो उसे शागिर्दी छोडकर जाना पड़ेगा। लेकिन उसके शागिर्दी छोड़ने भर से उस्ताद की उस्तादी तो छूटने वाली नहीं न। फिर?

उस्ताद को चुनौती देनी होगी, उसे हराना पड़ेगा। उस्ताद की इज्ज़त इसलिए है क्योंकि वह आज तक किसी से हारा नहीं है। चुनौती नहीं स्वीकारेगा तो बिना लड़े ही हार जाएगा। और अगर मान ली, तब तो मारा ही जाएगा। सारे दांव तो सिखा चुका है, और अब बूढ़ी हड्डियों में इतना दम नहीं बचा है कि लंबे समय तक लोहा ले सके।

लीजिये जनाब, युवा योद्धा ने अखाडा छोड़कर गुरु को ललकार कर मुक़ाबला करने की चुनौती भेज दी। उस्ताद ने हँसकर मान भी ली और यह भी कहा कि पहले भी कुछ चेले नौजवानी में ऐसी मूर्खता कर चुके हैं। उनमें से कई मुक़ाबले के दिन कब्रिस्तान सिधार गए और कुछ आज भी बेबस चौक पर भीख मांगते हैं। युवा योद्धा इन बातों से बहकने वाला नहीं था। मुक़ाबले में समय था फिर भी टाइमटेबल बनाकर गुरु के सिखाये सारे गुरों का अभ्यास लगन से करने लगा।

(चित्र: अनुराग शर्मा)
एक दिन सपने में देखा कि उस्ताद से मुक़ाबला है। वह ज़मीन पर पड़ा है और उस्ताद ने तलवार उसकी गर्दन पर टिकाई हुई है। उसने आश्चर्य से पूछा, "इन बूढ़े हाथों में इतनी ताकत कैसे?" उस्ताद ने सिंहनाद कराते हुए कहा, "ताकत मेरी नहीं मेरे गुरू के सूत्र द्वारा बनवाई गई इस तलवार की है।"  बेचैनी में आँख खुली तो फिर नींद न आई। सुबह उठते ही पुराने अखाड़े पहुँचकर ताका-झाँकी करने लगा। गाँव का लुहार उसके सामने ही अखाड़े में गया। उस्ताद उसे अक्सर बुलाते थे। उस्ताद की तलवारें अखाड़े की भट्टी में उनके निर्देशन में ही बनती थीं। शाम को जब लुहार बाहर निकला तो चेले ने पूछा, "क्या करने गया था?" लुहार ने बताया कि उस्ताद पाँच फुट लंबी तलवार बनवा रहे हैं, आज ही पूरी हुई है।

जोशीले चेले ने सोने का एक सिक्का लुहार के हाथ में रखकर उसी समय आठ फुट लंबी तलवार मुकाबले से पहले बनाकर लाने का इकरार करा लिया और घर जाकर चैन से सोया।

दिन बीते, मुकाबला शुरू हुआ। गुरु की कमर में पाँच फुट लंबी म्यान बंधी थी तो चेले की कमर में आठ फुट लंबी। तुरही बजते ही दोनों के हाथ तलवार की मूठ पर थे। चेले के हाथ छोटे पड़ गए, म्यान से आठ फुटी तलवार बाहर निकल ही न सकी तब तक उस्ताद ने नई पाँच फुटी म्यान से अपनी पुरानी सामान्य छोटी सी तलवार निकालकर उसकी गर्दन पर टिका दी।

होश के आगे जोश एक बार फिर हार गया था।

[समाप्त]

Monday, August 11, 2014

दीपशलाका बच्ची - हान्स क्रिश्चियन एंडरसन

हान्स क्रिश्चियन एंडरसन लिखित मार्मिक कथा "माचिस वाली नन्ही बच्ची" डैनिश भाषा में दिसंबर 1845 में पहली बार छपी थी। तब से अब तक अनेक भाषाओं में इसके अनगिनत संस्करण आ चुके हैं। इस कथा पर आधारित संगीत नाटक भी हैं और इस पर फिल्में भी बनी हैं। पहली बार पढ़ते ही मन पर अमिट छाप छोड़ देने वाली यह कहानी मेरी पसंदीदा कहानियों में से एक है। मेरे शब्दों में, इस कथा का सार इस प्रकार है:

हान्स क्रिश्चियन एंडरसन (विकीपीडिया से साभार)
नववर्ष की पूर्व संध्या, हाड़ कँपाती सर्दी। दो पैसे की आशा में वह नन्ही सी निर्धन बच्ची सड़क पर माचिस बेच रही थी। बेतरह काँपती उस बच्ची को शायद ठंड पहले से ही जकड़ चुकी थी। इतनी सर्दी में उसे घर पर होना चाहिए था लेकिन वह डरती थी कि अगर एक भी माचिस नहीं बिकी तो उसका क्रूर पिता उसे बुरी तरह पीटेगा। जब ठंड और कमजोरी के कारण चलना भी दूभर हो गया तो वह एक कोने में जा बैठी।

सर्दी बढ़ती जा रही थी। बचने का कोई उपाय न देखकर उसने गर्मी के प्रयास में एक तीली जलाई। आँखों के सामने रोशनी छा गई। उस प्रकाश-पुंज ने उसके सपने मानो साकार कर दिये हों। उसे क्रिसमस ट्री और अनेक उपहार दिखाई दिये। उसे अच्छा लगा। खुश होकर उसने सिर ऊपर उठाया तो आकाश में एक तारा टूटता दिखा।

उसे याद आया कि उसकी दादी, जो अब इस दुनिया में नहीं थीं, ये कहती थीं कि जब कोई तारा टूटता है तो उसका मतलब होता है कि कोई अच्छा इंसान मरा है और अब स्वर्ग जा रहा है। उसे अपनी दादी सामने दिखीं। ये लो, उसकी तीली तो बुझ भी गई। और बुझते ही दादी भी अंधेरे में गुम हो गईं। वह फिर सर्दी से काँपने लगी। उसने एक और तीली जलाई। कुछ गर्माहट हुई और प्रकाश में दादी फिर से दिखने लगीं।

वह तीलियाँ जलाती रही ताकि उसकी दादी कहीं दूर न हो जाएँ। जब उसकी अंतिम तीली बुझने लगी तो दादी ने उसे गोद में उठा लिया और अपने साथ स्वर्ग ले गईं।

[समाप्त]

Sunday, August 3, 2014

3 अगस्त मैथिलीशरण गुप्त का जन्मदिन

यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो, समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को, नर हो न निराश करो मन को
संभलो कि सुयोग न जाए चला, कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना, पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलम्बन को, नर हो न निराश करो मन को
काव्यपाठ 1956 (चित्र सौजन्य: आकाशवाणी)
पद्म भूषण मैथिलीशरण गुप्त की "नर हो न निराश करो मन को" का हर शब्द मन में आशा का संचार करता है। हिन्दी की खड़ी बोली कविता के मूर्धन्य कवियों में उनका नाम प्रमुख है। उनका जन्म 3 अगस्त, सन 1885 ईस्वी को झांसी (उत्तर प्रदेश) के चिरगाँव में श्रीमती काशीबाई और सेठ रामचरण गुप्त के घर में हुआ था।  खड़ी-बोली को काव्य-भाषा का रूप देने के प्रयास उन्होने आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से किए और अपनी ओजस्वी काव्य-रचनाओं द्वारा अन्य कवियों को भी प्रेरित किया। उनकी रचनाएँ सरस्वती और भारत-भारती में छपीं। उनकी प्रसिद्ध रचनाओं में पंचवटी, जयद्रथ वध, यशोधरा, और साकेत प्रमुख हैं। उन्होने संस्कृत नाटक स्वप्नवासवदत्ता का हिन्दी अनुवाद भी किया। तिलोत्तमा,चंद्रहास, विजयपर्व उनके प्रमुख नाटक हैं।

गुप्त जी का विवाह सन 1895 में 10 वर्ष की अल्पायु में हो गया था। तब बाल-विवाह प्रचलित थे जिनमें विवाह संस्कार बाल्यावस्था में हो जाता था और युवावस्था में गौना करने की परंपरा थी।

परतंत्रता के दिनों में उनकी ओजस्वी लेखनी अनेक भारतीयों की प्रेरणा बनी। स्वतंत्रता संग्राम के समय वे कई बार जेल भी गए।

भारत को स्वतन्त्रता मिलने पर उन्हें पद्म भूषण के अतिरिक्त उन्हे मंगला प्रसाद पारितोषिक भी मिला। स्वतंत्र भारत सरकार ने उन्हें "राष्ट्रकवि" का सम्मान दिया था। 1947 में वे संसद सदस्य बने और 12 दिसंबर 1964 को अपने देहावसान तक सांसद रहे।

गुप्त जी की रचना "आर्य" से कुछ पंक्तियाँ:
हम कौन थे, क्या हो गए हैं, और क्या होंगे अभी, आओ विचारें आज मिल कर, ये समस्याएँ सभी
भू-लोक का गौरव प्रकृति का पुण्य लीला-स्थल कहाँ, फैला मनोहर गिरि हिमालय और गंगाजल कहाँ
सम्पूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है, उसका कि जो ऋषि-भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है
यह पुण्य-भूमि प्रसिद्ध है, इसके निवासी आर्य हैं, विद्या, कला, कौशल्य, सबके जो प्रथम आचार्य हैं
सन्तान उनकी आज यद्यपि, हम अधोगति में पड़े, पर चिह्न उनकी उच्चता के, आज भी कुछ हैं खड़े

Saturday, July 12, 2014

गुरु - लघुकथा

गुरुपूर्णिमा पर एक गुरु की याद
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्। व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।
बरसों का खोया हुआ मित्र इस तरह अचानक मिल जाये तो खुशी और आश्चर्य का वर्णन संभव नहीं। कहने को हम लोग मात्र तीन साल ही साथ पढे थे लेकिन उतने समय में भी मेरे बालमन को बहुत कुछ सिखा गया था वह एक साथी। बाकी सब ठीक था, बस मुनव्वर मास्साब को उसके सिक्ख होने की वजह से कुछ ऐसी शिकायत थी जिसे हम बच्चे भी दूर से ही भाँप लेते थे। गलत लगती थी लेकिन बड़ों की गलतियों को कैसे रोकें, इतनी अक्ल नहीं थी। न ही ये समझ थी कि इस बात को घर या स्कूल के बड़ों को बताकर उनकी सलाह और सहयोग लिया जाये।

एक गुरु की भेंट (नमन)
मास्साब ने गुरु को सदा जटायु कहकर ही बुलाया, शायद उसके केश से जटा शब्द सोचा और फिर वहाँ से जटायु। थोड़ी बहुत हिंसा वे सभी बच्चों के साथ करते रहते थे लेकिन गुरु के साथ विशेष हिंस्र हो जाते थे। कभी दोनों कान हाथ से पकड़कर उसे एक झटके से अपने चारों और घुमाना, कभी झाड़ियों से इकट्ठी की गई पतली संटियों से सूतना, तो कभी मुर्गा बनाकर पीठ पर ईंटें रखा देना।

लेकिन एक बार वह मेरे कारण पिटा था। सीमाब विष्णुशर्मा नहीं पढ़ पा रहा था। मैं उसे श और ष का अंतर बताने लगा कि अचानक सन्नाटा छा गया। स्पष्ट था कि मुनव्वर मास्साब कक्षा में आ चुके थे। आते ही हमारी बेंच के दूसरे सिरे पर बैठे गुरु को बाल पकड़कर खींचा और पेट में दो-तीन मुक्के लगा दिये।

"मैंने किया क्या सर?" उसने मासूमियत से पूछा। जी भर कर पीट लेने के बाद उसे सीट पर धकेलकर उन्होने उस दिन का पाठ पढ़ाया और कक्षा छोड़ते हुए उससे कहते गए, "आइंदा मेरे क्लास में सीटी बजाने की ज़ुर्रत मत करना जटायु"

बरसों से दबी रही आभार की भावना बाहर आ ही गई, "सचमुच गुरु हो तुम। साथ पढ़ने से ज़्यादा तो वह स्कूल छूटने के बाद सीखा है तुमसे।"

आज इतने सालों के बाद भी मन पर घाव कर रही उस चोट के बोझ को उतारने को बेताब था मैं, "याद है उस दिन सीटी की आवाज़? वह मेरी थी।"

"हा, हा, हा!" बिलकुल पहले जैसे ही हंसने लगा वह, "वह तो मैं तभी समझ गया था, तेरे श्श्श को तो पूरी क्लास ने साफ सुना था।"

"तो कहा क्यों नहीं?"

"क्योंकि बात सीटी की नहीं थी, कभी भी नहीं थी। बात तेरी भी नहीं थी, बात मेरी थी, मेरे अलग दिखने की थी।"

"मैं आज तक बहुत शर्मिंदा हूँ उस बात पर। मुझे खड़े होकर कहना चाहिए था कि वह मैं था।"

"इतनी सी बात को भी नहीं भूला तू अब तक? तेरी आवाज़ मास्साब को सुनाई भी नहीं देती। इतना मगन होकर मेरी पिटाई करते थे वे। रात गई बात गई। रब की किरपा है, हम सब अपनी-अपनी जगह खुश हैं, यही बहुत है। मास्साब भी जहां भी हों खुश रहें।"

वही निश्छल मुस्कान, ज़रा भी कड़वाहट नहीं। आज गुरु पूर्णिमा पर याद आया कि मैंने तो गुरु से बहुत कुछ सीखा। काश मास्साब भी इंसानियत का पाठ सीख पाते।

Sunday, July 6, 2014

ऋषियों का अमृत - उच्चारण ऋ का

स्वर स्वतंत्र हैं
ॐ अ आ इ ई उ ऊ ॠ ऌ ॡ ऎ ए ऐ ऒ ऑ ओ औ अं अः

लिपियाँ और कमियाँ लिखने के बाद इतनी जल्दी इस विषय पर और लिखना होगा यह सोचा नहीं था। भगवान भला करें आचार्य गिरिजेश राव और जिज्ञासु शिल्पा मेहता का, कि उच्चारण का एक संदर्भ आया और एक इस आलेख को मौका मिला। भारत की क्षमता, संभावना, इतिहास को मद्देनजर रखते हुए जब सद्य-भूत, वर्तमान और निकट भविष्य को देखते हैं तो यह आश्चर्यजनक लगता है कि संसार को अंकशास्त्र, योग, अहिंसा, संस्कृति, नागरी और संस्कृत देने वाले लोग आधुनिक भारतीयों के ही पूर्वज थे। भाषा और लिपि की बाबत मानवता काफी अनम्य रही है लेकिन भारत इस मामले में भी एक महासागर है। तो भी आज अपने ही शब्दों के उच्चारण के बारे में हम हद दर्जे के आलसी नज़र आते हैं। औरों की क्या कहूँ, मुझे खुद भी वर्ष की जगह बरस कहना सरल लगता है। एक पुरानी कविता में मैंने सरबस शब्द का प्रयोग किया था, जब एक प्रसिद्ध संपादिका जी ने कुछ पूछे-गछे बिना उसे सर्वस्व कर दिया तो मुझे ऐसा लगा जैसे उन्होने उस कविता का नहीं, बल्कि मेरा गला मरोड़ दिया था। भले ही उनकी विद्वता के हिसाब से उनका कृत्य सही रहा हो।

व्यंजन ज्ञ के उच्चारण का झमेला तो देश-व्यापी है लेकिन एक स्वर भी ऐसा है जिस पर आम सहमति बनती नहीं दिखती। इन्टरनेट पर उसे समझाने के कई उदाहरण उपस्थित हैं जिनमें से अधिकांश गलत ही लगते हैं। यह स्वर है , और सबसे अधिक गलत उच्चारण रि और रु के बीच झूलते दिखते हैं कृष्ण जी कहीं क्रिश्न जैसे लगते हैं और कहीं क्रुश्न हो जाते हैं। लगभग यही गति अमृत की भी होती है। संयोग से इस क्रम की पिछली पोस्ट "लिपियाँ और कमियाँ" मेँ “र्“ व्यञ्जन के असामान्य व्यवहार की बात चलाने पर र्यूरी/ॠयूरी और र्याल्/र्‍याल् जैसे शब्दों का का ज़िक्र आया था। आज उसी चर्चा को आगे बढ़ाते हैं।

स्वर की बात करने से पहले एक नज़र स्वर और व्यंजन के मूलभूत अंतर पर डालते चलें। सामान्य अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति के अनुसार स्वर वे हैं जिन्हें मुखर पथ (vocal tract) से निर्बाध रूप से निरंतरता के साथ बोला जा सकता है। स्वर में एक नैसर्गिक गेयता है, शायद इसीलिए संगीत स्वरों से बनता है। एक स्वर से दूसरे में संक्रमण स्वाभाविक है। व्यंजनों के साथ ऐसा संभव नहीं है क्योंकि वे बलाघात से बोले जाते हैं और इसलिए वहाँ एक स्थिरता है जो एक व्यंजन की ध्वनि को दूसरे से अलग करती है। सरल शब्दों में कहें तो स्वरों के लिए केवल वायु प्रवाह चाहिए। स्वर को एक बार बोलने के बाद उसे वायु प्रवाह के साथ न केवल जारी रखा जा सकता है बल्कि वायु प्रवाह की दिशा या मात्रा बदलने भर से ही एक स्वर से दूसरे स्वर में निर्बाध गमन संभव है। जबकि व्यंजन का आरंभ और अंत मर्यादित है इसलिए एक व्यंजन से दूसरे में गमन भी लगभग वैसे ही है जैसे किसी दरवाजे से होकर एक कक्ष से दूसरे में प्रस्थान करना। यह बात और है कि अनेक ध्वनियाँ स्वर और व्यंजन की संधि पर खड़ी हैं।

ध्वनियों को पढ़कर समझना आसान नहीं है लेकिन ऋ के उच्चारण को जैसा मैंने समझा है वैसा, लिखकर बताने का प्रयास करता हूँ। प्रयास कितना सफल होता है, यह तो आप ही तय कर पाएंगे।
  1. सबसे पहले दो तीन बार स्पष्ट रूप से "र" बोलिए और देखिये किस प्रकार जीभ ने ऊपरी दाँत के ऊपरी भाग को छुआ।
  2. मुँह से हवा निकालते हुए स्वर "उ" की ध्वनि लगातार निकालें और जीभ की इस स्थिति को ध्यान में रखें।
  3. "उ" कहते कहते ही जीभ के सिरे को हल्का सा ऊपर करके निर्बाध "ऊ" कहने लगें।
  4. "ऊ" कहते-कहते ही जीभ के सिरे को हल्के से ऊपर तालू की ओर तब तक ले जाते जाएँ जब तक बाहर आती हवा जीभ से टकराकर प्रतिरोध की ध्वनि उत्पन्न न करे।
  5. जीभ को थोड़ा समायोजित करके वहाँ रखें जहाँ यह निरंतर ध्वनि RRRRRRR जैसी हो जाये
  6. यदि आप अब तक इस "ऋ" ध्वनि को सुनकर "र" से उसके भेद को पहचान गए तो काफी है, वरना अगले कदम पर चलते हैं।
  7. र की ध्वनि पर बिना अटके, झटके से हृषिकेश या हृतिक बोलिए, और उसे सुनते समय आरंभिक "ह" को इगनोर कर आगे की ध्वनि सुनिये तब भी शायद ऋ की ध्वनि स्पष्ट हो जाये
  8. अगर आप अभी भी अटके हैं तो यकीन मानिए यह ध्वनि आप अङ्ग्रेज़ी द्वारा बेहतर समझ पाएंगे। इंगलिश बोलने वाले लोग अपने शब्दों के बीच में आए "र" को अक्सर अर्ध-मूक सा बोलते हैं जिसे बोलते समय जीभ दाँत, तालू आदि की ओर आए बिना हवा में स्वतंत्र ही रह जाती है। कुछ उदाहरणों से स्पष्ट करने का प्रयास कर रहा हूँ।
  9. कुछ लोग अङ्ग्रेज़ी शब्द party को पा.र.टी कहकर र को स्पष्ट कहते हैं जबकि कुछ लोग उसे "पा अ टी" जैसे बोलते हैं। इसी प्रकार अङ्ग्रेज़ी शब्द morning को कई भारतीय "र" के साथ मॉ.र.निंग जैसे कहते हैं जबकि कुछ लोग ऐसे कहते हैं कि वह कुछ कुछ मॉण्णिंग या मॉर्णिंग जैसा लगता है। दोनों ही शब्दों को बाद वाली ध्वनि में बोलते हुए सुनिए और उपरोक्त पांचवें बिन्दु की निरंतर RRRRRRR ध्वनि से साम्य देखने - लाने का प्रयास कीजिये।
  10. अब उन शब्दों का उच्चारण करें जिनमें ऋ बीच में आती है, या संधि होकर अर्ध र जैसी बनती है, यथा - अमृत, मृत, महर्षि और राजर्षि आदि - ध्यान रहे कि ऋ की ध्वनि सुनने में "र" और "अ" के बीच की होगी और उस समय जीभ हवा में स्वतंत्र होगी।
  11. यदि किसी को आकाशवाणी समाचार पर श्री बरुन हलदर द्वारा पढ़ा जाता "द न्यूज व्येड/उएड बाय बोरेन हाल्डा" जैसा कुछ याद हो तो मुझे लगता है कि उनके कहे "रैड बाय" की ध्वनि में र नहीं "ऋ" जैसा ही कुछ होता था। क्या कोई उनकी किसी ऑडियो क्लिप को ढूंढ सकता है?
  12. नीचे दिये वीडियो क्लिप में अङ्ग्रेज़ी शब्द read के ऐसे दो उच्चारण सुनाई दे रहे हैं, जिन्हें हम हिन्दी में रीड और रैड जैसे लिखते हैं। पहचानने का प्रयास कीजिये कि "र" की ध्वनि हमारे "र" वाले किसी शब्द, जैसे "राम" या "रीमा" आदि से कितनी अलग है। नोटिस कीजिये कि R की ध्वनि कहने में जीभ हवा में है, "र" जैसे प्रहारावस्था में नहीं। यह उच्चारण निरंतरता के मामले में र की अपेक्षा ऋ के निकट है



यदि अभी भी अस्पष्टता है लेकिन अधैर्य नहीं, तो फिर खास आपके लिए है हिन्दी की यह ऑडियो क्लिप। सुनिए (विशेषकर जब RRRRRRRRRR बोला जा रहा है) और अपना फीडबैक दीजिये:

ऋ - डाउनलोड ऑडियो क्लिप

नोट: अपनी ही ऑडियो क्लिप स्वयं सुनने के बाद मुझे अब इस बात पर संशय है कि ऐसी ध्वनियों को केवल ऑडियो के माध्यम से समझाया जा सकता है। फोन पर अक्सर "स" और "फ" की ध्वनियाँ एक सी ही सुनाई देती हैं। इसलिए यदि अभी भी बात स्पष्ट न हो पाई हो तो कमी आपके समझने की नहीं, शायद मेरे समझाने की ही है जो कि व्यक्तिगत कक्षा में आसानी से दूर की जा सकती है।
* हिन्दी, देवनागरी भाषा, उच्चारण, लिपि, व्याकरण विमर्श *
अ से ज्ञ तक
लिपियाँ और कमियाँ
उच्चारण ऋ का
लोगो नहीं, लोगों
श और ष का अंतर

Thursday, July 3, 2014

आस्तीन का दोस्ताना - कविता


फूल के बदले चली खूब दुनाली यारों, 
बात बढ़ती ही गई जितनी संभाली यारों

दूध नागों को यहाँ मुफ्त मिला करता है, 
पीती है मीरा यहाँ विष की पियाली यारों

बीन हम सब ने वहाँ खूब बजा डाली थी, 
भैंस वो करती रही जम के जुगाली यारों 

दिल शहंशाह था अपना ये भुलावा ही रहा, 
जेब सदियों से रही अपनी तो खाली यारों

ज़िंदगी साँपों की आसान करी है हमने, 
दोस्ती अपनी ही आस्तीन में पाली यारों

Saturday, June 28, 2014

लिपियाँ और कमियाँ



स्वर
अ आ इ ई उ ऊ ऋ ॠ ऌ ॡ ऎ ए ऐ ऒ ऑ ओ औ अं अः

व्यञ्जन
क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल ळ व श ष स ह
क्ष त्र ज्ञ श्र क़ ख़ ग़ ज़ ड़ ढ़ फ़

मात्रायें व चिह्न
फिर कभी

सम्प्रेषण का एक माध्यम ही तो है लिपि। ध्वनियों को, संवाद, विचार, कथ्य, तथ्य, समाचार और साहित्य को रिकार्ड करने का एक प्रयास ताकि वह सुरक्षित रहे, देश-काल की सीमाओं से परे संप्रेषित हो सके। समय के साथ लिपियाँ बनती बिगड़ती रही हैं। कुछ प्रसारित हूईं, कुछ काल के गर्त में समा गईं। जहां सिन्धी, पंजाबी, कश्मीरी, जापानी, हिन्दी, संस्कृत आदि अनेक भाषायेँ एकाधिक लिपियों में लिखी जाती रही हैं, वहीं रोमन, देवनागरी आदि लिपियाँ अनेक भाषाओं के साथ जूड़ी हैं। रोचक है लिपि-भाषा का यह अनेकानेक संबंध। अचूक हो या त्रुटिपूर्ण, पिरामिडों के अंकन निर्कूट तो कर लिए गए हैं लेकिन सिंधु-सरस्वती सभ्यता की लिपि आज भी एक चुनौती बनी हुई है। द्वितीय विश्वयुद्ध में अमेरिका ने जर्मनों द्वारा पकड़े जा रहे सैन्य संदेशों को सुरक्षित रखने के लिए मूल अमेरिकी (नेटिव इंडियन) समुदाय की एक लगभग अप्रचलित भाषा चोकटा (Choctaw) का सफल प्रयोग किया जिसके लिए उस समय किसी लिपि का प्रयोग ज्ञात नहीं था। जर्मन उन संदेशों को भेद नहीं सके और इस प्रकार वह संदेश प्रणाली एक अकाट्य शस्त्र साबित हुई।  

फेसबुक और कुछ काव्य मंचों पर हिन्दी शब्द लेखन की बारीकियों पर चल रही बहसों के मद्देनजर अपनी जानकारी में रहे कुछ तथ्य सामने रख रहा हूँ। स्पष्ट कर दूँ कि इस ब्लॉग की अन्य पोस्टों की तरह इस आलेख के पीछे भी केवल परंपरा से आई जानकारी मात्र है, हिन्दी का आधिकारिक अध्ययन नहीं, क्योंकि हिन्दी ब्लॉगिंग में उपस्थित हिन्दी शोधार्थियों के बीच अपनी हिन्दी केवल इंटरमीडिएट पास है। यह भी संयोग है कि इस ब्लॉग की छः साल पहले लिखी पहली पोस्ट संयुक्ताक्षर 'ज्ञ' पर थी।

सच यह है कि कमी किसी भी लिपि में हो सकती है। हाँ इतना ज़रूर है कि वाक और लिपि के अंतर की बात चलने पर देवनागरी में अन्य लिपियों की अनेक मौजूदा कमियाँ बहुत पहले ही दूर की जा चुकी हैं। sh जैसी ध्वनि के लिए भी श और ष जैसे अलग अक्षर रखना मामूली ध्वनिभेद को भी चिह्नित करने के प्रयास का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। ल तथा ळ का अंतर महान राष्ट्रीय नायक लोकमान्य बाल गंगाधर टिळक के कुलनाम को ही बदल देता है जबकि मराठी और हिन्दी की लिपि एक होने के कारण हम हिंदीभाषियों द्वारा उद्दंडता से यह गलती करते रहने का कोई कारण नहीं बनता। ध्वनि के कई अंतर उन अप्रचलित अक्षरों में निहित हैं जिनका ज्ञान किसी सरकारी या तथाकथित प्रगतिशील कारणवश हिन्दी कक्षाओं से क्षरता जा रहा है।

अगर हम किसी शब्द को गलत बोलते रहे हैं तो यह गलती हमारे बोलने की हुई लिपि की नहीं। लिपि की कमी तब होगी जब वह लिपि किसी भाषा में प्रयुक्त किसी ध्वनि/शब्द को यथावस्तु लिख न सके। एक जगह अमृतम् गमय को जोड़कर किसी ने अमृतंगमय लिख दिया था। पढ़ने वाले ने उसको अमृ + तङ्ग + मय करके पढ़ा तो यह लिपि की गलती नहीं, बल्कि लिखने और पढ़ने वाले का भाषा अज्ञान है। इसी प्रकार यदि "स्त्री" शब्द को इस्त्री या स्तर को अस्तर कहा जाये तो यह वाक-कौशल की कमी का हुई न कि लिपि की। कालिदास की कथा में वे उष्ट्र को उट्र कहते पाये गए थे। यदि उस समय लिपि होती या नहीं होती, उनके उच्चारण का दोष उनके उच्चारण का ही रहता, लिखने और पढे जाने के अंतर का नहीं। महाराष्ट्र के गाँव शिर्वळ को हर सरकारी, गैर-सरकारी बोर्ड पर शिरवल लिखा जाता था जो किसी भी अंजान व्यक्ति को पढ़ने में शिखल लगता था। पहले छापेखाने के सीमित अक्षरों और लेखकों, संपादकों व प्रकाशकों की लापरवाही से कई पुस्तकों, अखबारों में स्र को अक्सर स्त्र लिखा जाता देखा था। लिखे हुए को ब्रह्मवाक्य समझने वालों ने पढ़कर ही पहली बार जाने कई शब्दों, जैसे "सहस्र" आदि के उच्चारण इस कारण ही गलत समझे। आजकल कितनी कमियाँ हमारे कम्प्यूटरों/फोन आदि की आगम-लेखन-सुझाव क्षमताओं के कारण भी होते हैं क्योंकि इन क्षमताओं का अनुकूलन भारतीय लिपियों के लिए उतना भी नहीं हुआ है जितना सामान्य लेखन के लिए ज़रूरी है।

दिल्ली में हर सरकारी साइन पर ड को ड़ लिखने की कुप्रथा थी, जिसमें हर रोड, रोड़ हो जाती थी। हद तो तब हो गई जब मंडी हाउस को भी पथ-चिह्नों में मंड़ी हाउस लिखा पाया। स्कूल को उत्तर प्रदेश में कितने लोग इस्कूल कहते हैं और पंजाब में अस्कूल भी कहते हैं। कई हिन्दी भाषी तो टीवी पर स्पष्ट को भी अस्पष्ट कहकर अर्थ का अनर्थ कर रहे होते हैं। उर्दू सहित अनेक बोलियों के आलस और फारसी, रोमन जैसी लिपियों की कमियों के कारण भी कितने ही संस्कृत शब्द समयान्तराल में अपना मूल रूप खो बैठे हैं। फेसबुक पर नागरी लिपि और हिन्दी भाषा के बारे में लिखे गए कुछ स्टेटस पढ़कर तो यही लगता है कि हिन्दी के मानकीकरण और शिक्षण पर और ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है, ताकि वाचन की क्षेत्रीय या व्यक्तिगत कमियों को लिपि की कमी न समझा जाये।

जब “र्“ व्यञ्जन की अपने बाद आने वाले किसी अन्य अक्षर से संधि होती है तो यह अगले अक्षर के ऊपर “र्क“, "र्ख" और “र्ट“ जैसे दिखाता है और संधि में जब र बाद में हो तो पिछले अक्षर के नीचे “क्र”, "ख्र" और “ट्र” जैसा दिखाता है। देवनागरी अपनाने वाली भाषाओं में "र्" से आरंभ होने वाले शब्द सीमित ही होंगे। कम से कम इस समय मुझे ऐसा कोई शब्द याद नहीं आ रहा है। लेकिन विदेशी भाषाओं में ऐसे शब्द सर्व सुलभ हैं जिन्हें लिखते और पढ़ते समय "र्" की संधि लिखने के पहले नियम के कारण अजीब सा लगता है। जैसे पक्वान्न के लिए प्रयुक्त होने वाला एक जापानी शब्द, जिसे रोमन में ryooree या ryuri जैसा लिखा जा सकता है, उसे नागरी में र्यूरी लिखते समय ध्यान न देने पर उच्चारण की गलती हो सकती है, यद्यपि यह लिपि की नहीं, बल्कि भाषा, लिपि और व्यक्ति के बीच की घनिष्ठता की कमी हुई। यह भी संभावना है कि इस शब्द का बेहतर लेखन र्यूरी न होकर ॠयूरी जैसा कुछ हो। एक ऑनलाइन नेपाली चर्चा में मैंने र्याल् (ryal) की ध्वनि को र्‍याल् लिखने का सुझाव देखा है। कंप्यूटर पर र्‍याल् कैसे लिखा कैसे जाएगा, यह नहीं पता चला। कोई संस्कृत विद्वान शायद अधिकार से स्पष्ट कर सकें। लेकिन हम सामान्य लोगों के लिए भी सत्यान्वेषण का पहला कदम तो अज्ञान के निराकरण का ही होना चाहिए।

कुछ अन्य उच्चारण भी हैं जिन्हें ठीक न लिखे जाने पर संदेह की स्थिति उत्पन्न होती है। जैसे अकलतरा लिखने पर वह अक-लतरा भी पढ़ा जा सकता है और अकल-तरा भी। यद्यपि रोमन में तो वही शब्द अकलतरा (akaltara) लिखने पर तो नागरी से कहीं अधिक ही संभावित उच्चारण बन जाते हैं। जहां अङ्ग्रेज़ी की गलतियों पर हम अति भावुक हो जाते हैं वहीं भारतीय भाषा-लिपि में होने वाली गलतियों की उपेक्षा ही नहीं कई बार उन्हें इस खामोख्याली में उत्साहित भी करते हैं, मानो हिन्दी का अज्ञान स्वतः ही अङ्ग्रेज़ी का सुपर-ज्ञान मान लिया जाएगा। अच्छा यही होगा कि लिखते समय उच्चारण का ध्यान रखा जाये और चन्द्रबिन्दु आदि चिह्नों का समुचित प्रयोग हो। लिपि-पाठ में दुविधा की स्थिति के लिए मेरा सुझाव तो यही है कि संदेह की स्थिति में कोई भी निर्णय लेते समय यह ध्यान रहे कि गलतियाँ बोलने,लिखने और पढ़ने, तीनों में ही संभव हैं। क्षेत्रीय उच्चारण की भिन्नताएँ भी स्वाभाविक ही हैं। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वाक लेखन से पहले जन्मा है और बाद तक रहेगा। भाषा मूल है लिपि उसकी सहायक है।

काफी कुछ लिखना है इस विषय पर। ध्यान रहने और समय मिलने का संगम होते ही कुछ और ...
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Monday, June 9, 2014

सत्य पर एक नज़र - दो कथाओं के माध्यम से

1. दो सत्यनिष्ठ (संसार की सबसे छोटी बोधकथा)
चोटी पर बैठा सन्यासी चहका, "धूप है"।  तलहटी का गृहस्थ बोला, "नहीं, सर्दी है"।  ऊपर चढ़ते पर्वतारोही ने कहा, "ठंड घट रही है।"
2. निबंध - लघुकथा

बच्चा खुश था। उसने न केवल निबंध प्रतियोगिता में भाग लिया बल्कि इतना अच्छा निबंध लिखा कि उसे कोई न कोई पुरस्कार मिलने की पूरी उम्मीद थी। "एक नया दिन" प्रतियोगिता के आयोजक खुश थे। सारी दुनिया से निबंध पहुँचे थे, प्रतियोगिता को बड़ी सफलता मिली थी। आकलन के लिए निबंधों के गट्ठे के गट्ठे शिक्षकों के पास भेजे गए ताकि सर्वश्रेष्ठ निबंधों को इनाम मिल सके।

परीक्षक जी का हँस-हँस के बुरा हाल था। कई निबंध थे ही इतने मज़ेदार। उदाहरण के लिए इस एक निबंध पर गौर फरमाइए।

दिन निकल आया था। सूरज दिखने लगा। दिखता रहा। एक घंटे, दो घंटे, दस घंटे, बीस घंटे, एक दिन पाँच दिन, दो सप्ताह, चार हफ्ते, एक महीना, दो महीने, ....

शुरुआत से आगे पढ़ा ही नहीं गया, रिजेक्ट करके एक किनारे पड़ी रद्दी की पेटी में डाल दिया।  

उत्तरी स्वीडन के निवासी बालक को यह पता ही न था कि कोई विद्वान उसके सच को कोरा झूठ मानकर पूरा पढे बिना ही प्रतियोगिता से बाहर कर देगा।

हमारे संसार का विस्तार वहीं तक है जहाँ तक हमारे अज्ञान का प्रकाश पहुँच सके।          

Thursday, June 5, 2014

लेखक बेचारा क्या करे? भाग 2

नोट: कुछ समय पहले मैंने यह लेखक बेचारा क्या करे? भाग 1 में एक लेखक की ज़िम्मेदारी और उसकी मानसिक हलचल को समझने का प्रयास किया था। उस पोस्ट पर आई टिप्पणियों से जानकारी में वृद्धि हुई। पिछले दिनों इसी विषय पर कुछ और बातें ध्यान में आयी, सो चर्चा को आगे बढ़ाता हूँ।
कालजयी ग्रन्थों की सूची में निर्विवाद रूप से शामिल ग्रंथ महाभारत में मुख्य पात्रों के साथ रचनाकार वेद व्यास स्वयं भी उपस्थित हैं। कोई लोग जय संहिता को भले आत्मकथात्मक कृति कहें लेकिन आज की आत्मकथाओं में अक्सर दिखने वाले एकतरफा और सीमित बयान के विपरीत वहाँ एक समग्र और विराट वर्णन है। मेरे ख्याल से समग्रता और विराट रूप अच्छे लेखन के अनिवार्य गुण हैं। यदि लेखन संस्मरणात्मक या आत्मकथनपरक लगे, और पाठक उससे अपने आप को जुड़ा महसूस करें तो सोने में सुहागा। लघुकथा के नाम पर अनगढ़ चुट्कुले या किसी उद्देश्यहीन घटना का सतही और आंशिक विवरण सामने आये तो निराशा ही होती है।

बदायूँ में अपने अल्पकालीन निवास के दौरान एक बार मैंने पत्राचार के माध्यम से अपने प्रिय लेखक उपेन्द्रनाथ अश्क से अच्छी कहानी के बारे में उनकी राय पूछी थी। अन्य बहुत से गुणों के साथ ही जिस एक सामान्य तत्व की ओर उन्होने दृढ़ता से इशारा किया था वह थी सच्चाई। उनके शब्दों में कहूँ तो, "अच्छी कहानियाँ सच्चाई पर आधारित होती हैं। कल्पना के आधार पर गढ़ी कहानियों के पेंच अक्सर ढीले ही रह जाते हैं।"
अच्छी कहानियाँ पात्रों से नहीं, लेखकों से होती हैं। सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ पात्रों या लेखकों से नहीं, पाठकों से होती हैं।
महाभारत का तो काल ही और था, छापेखाने से सिनेमा तक के जमाने में पाठक का लेखक से संवाद भी एक असंभव सी बात थी, पात्र की तो मजाल ही क्या। लेकिन आज के लेखक के सामने उसके पात्र कभी भी चुनौती बनकर सामने आ सकते हैं। बेचारा भला लेखक या तो अपना मुँह छिपाए घूमता है या अपने पात्रों का चेहरा अंधेरे में रखता है।

अपनी कहानियों के लिए, उनके विविध विषयों, रोचक पृष्ठभूमि और यत्र-तत्र बिखरे रंगों के लिए मैं अपने पात्रों का आभारी हूँ। मेरी कहानियों की ज़मीन उन्होंने तैयार की है। कथा निर्माण के दौरान मैं उनसे मिला अवश्य हूँ। कहानी लिखते समय मैं उन्हें टोकता भी रहता हूँ। वे सब मेरे मित्र हैं यद्यपि मैं उन सबको व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता हूँ। हमारा परिचय बस उतना ही है जितना कहानी में वर्णित है। बल्कि वहां भी मैंने लेखकीय छूट का लाभ यथासंभव उठाकर उनका कायाकल्प ही कर दिया है। कुछ पात्र शायद अपने को वहां पहचान भी न पायें। कई तो शायद खफा ही हो जाएँ क्योंकि मेरी कहानी उनका असली जीवन नहीं है। इतना ज़रूर है कि मेरे पात्र बेहद भले लोग हैं। अच्छे दिखें या बुरे, वे सरल और सहज हैं, जैसे भीतर, तैसे बाहर।

मेरी कहानियाँ मेरे पात्रों की आत्मकथाएँ नहीं हैं। लेकिन उन्हें मेरी आत्मकथा समझना तो और भी ज्यादती होगी। मेरी कहानियाँ वास्तविक घटनाओं का यथारूप वर्णन या किसी समाचारपत्र की रिपोर्ट भी नहीं हैं। मैं तो कथाकार कहलाना भी नहीं चाहता, मैं तो बस एक किस्सागो हूँ। मेरा प्रयास है कि हर किस्सा एक संभावना प्रदान करे , एक अँधेरे कमरे में खिड़की की किसी दरार से दिखते तारों की तरह। किसी सुराख से आती प्रकाश की एक किरण जैसे, मेरी अधिकाँश कहानियाँ आशा की कहानियाँ हैं। जहाँ निराशा दिखती है, वहां भी जीवन की नश्वरता के दुःख के साथ मृत्योर्मामृतंगमय का उद्घोष भी है।
एक लेखक अपने पात्रों का मन पढ़ना जानता है। एक सफल लेखक अपने पाठकों का मन पढ़ना जानता है। एक अच्छा लेखक अपने पाठकों को अपना मन पढ़ाना जानता है। सर्वश्रेष्ठ लेखक यह सब करना चाहते हैं ...
अरे, आप भी तो लिखते हैं, आपके क्या विचार हैं लेखन के बारे मेँ?

Sunday, May 25, 2014

क्यूँ नहीं - कविता

(चित्र व पंक्तियाँ: अनुराग शर्मा)

इंद्र्धनुष
है नाम लबों पर तो सदा क्यूँ नहीं देते,
जब दर्द दिया है तो दवा क्यूँ नहीं देते

ज़िंदा हूँ इस बात का एहसास हो सके
मुर्दे को मेरे फिर से हिला क्यूँ नहीं देते

है गुज़री कयामत मैं फिर भी न गुज़रा
ये सांस जो अटकी है हटा क्यूँ नहीं देते

सांस ये चलती नहीं है दिल नहीं धड़के,
जाँ से मिरी मुझको मिला क्यूँ नहीं देते

सपनों में सही तुमसे मुलाकात हो सके,
हर रात रतजगे को सुला क्यूँ नहीं देते


(प्रेरणा: हसरत जयपुरी की "जब प्यार नहीं है तो भुला क्यों नहीं देते")

 अहमद हुसैन और मुहम्मद हुसैन के स्वर में

Monday, May 19, 2014

ईमान की लूट - लघुकथा

लुटेरों के गैंग को उस बार लूट में अच्छी ख़ासी मात्रा में ईमानदारी मिल गई। लूट का माल बांटते समय झगड़ा होने लगा। कोई कहता कि मैं सबसे बड़ा हूँ इसलिए ईमानदारी में ज़्यादा हिस्सा लूँगा, कोई बोला कि सबसे चालाक होने के कारण सबसे बड़ा हिस्सा मुझे ही मिलना चाहिए।

सरदार ने कहा कि उसूलन तो आधा हिस्सा उसका है बाकी आधे में सारा गैंग जो चाहे करे। गांधीवादी ने कहा कि उसने सबसे अधिक थप्पड़ खाये हैं इसलिए उसे सबसे अधिक भाग का अधिकार  है। जिहादी बोला कि सबसे ज़्यादा सेकुलर होने के कारण उसका हक़ सबसे बड़ा है। माओवादी बोला कि उसने बम और IED फोड़कर अन्य सदस्यों से ज़्यादा खतरा उठाया है इसलिए उसका हक़ भी ज़्यादा है। मार्क्सवादी कहने लगा कि उसे 75% मिलना चाहिए क्योंकि बाकी जनता में तो सब बराबर के अधिकारी हैं, सो उन्हें 25% भी कम नहीं।

वकील बोला कि गैंग को बचाने के लिए झूठ बोलते-बोलते उसकी ईमानदारी सबसे पहले खर्च हो जाती है वहीं प्रोफेसर ने छात्रों को फुसलाकर केडर भर्ती करने के काम को सबसे कठिन बताया। अर्थगामी ने लारा दिया कि जितनी ज़्यादा ईमानदारी उसे मिलेगी, वह दल को निवेश पर उतना ही अधिक लाभांश दिलवाएगा। पत्रकार का कहना था कि प्रचार के लिए उसे ईमानदारी खसोटने में प्राथमिकता मिलनी चाहिए।

सबने एक दूसरे पर बंदूकें तान दीं। गोलियां चलीं तो कुछ मर-खप गए। बचे हुए लुटेरे गंभीर रूप से घायल होकर भाग लिए। लुटे-पिटे सरदार अकेले रह गए। अब उनकी ईमानदारी भी सब खर्च हो गई है। सो ईमानदारी बैंक पर अगला ज़्यादा बड़ा हाथ मारने की सोच रहे हैं। तब तक उनके छिटके हुए गैंग पर कब्जा करने के लिए कई अन्य घायल अपनी अपनी ईमानदारी का बचा-खुचा कटोरा लिए नज़रें गढ़ाए बैठे हैं।

देखते हैं जनता किसकी ईमानदारी से लहलोट होने वाली है। जोतखी बाबा बोले कि बिना किसी भेदभाव के, पुराने ईमानदारी-लूट गैंग के जिस प्रमाणित सदस्य की किस्मत बुलंदी पर होगी, सरदार वही बनेगा।

Sunday, May 18, 2014

राजनैतिक व्यंग्य की दो लाइनाँ

संसार के सबसे बड़े लोकतन्त्र में जनमत की विजय के लिए हर भारतीय मतदाता को बधाई  
ताज़े-ताज़े लोकसभा चुनावों ने बड़े-बड़ों के ज्ञान-चक्षु खोल दिये। कई चुनाव विशेषज्ञों के लिए मोदी और भाजपा की जीत में हर विरोधी का सफाया हो जाना 1977 की चुनावी क्रान्ति से भी अधिक अप्रत्याशित रहा। रविश कुमार नामक रिपोर्टर को टीवी पर मायावती की एक रैली का विज्ञापन सा करते देखा था तब हँसी आ रही थी कि आँख के सामने के लट्ठ को भी तिनका बताने वालों की भी पूछ है हमारे भारत में। अब मायावती के दल का पूर्ण सफाया होने पर शायद रवीश पहली बार अपनी जनमानस विश्लेषण क्षमता पर ध्यान देंगे। क्योंकि खबर गरम है कि हाथी ने इस बार के चुनाव में अंडा दिया है।

इसी बीच अपने से असहमत हर व्यक्ति को फेसबुक पर ब्लॉक करने के लिए बदनाम हुए ओम थानवी पर भी बहुत से चुट्कुले बने। कुछ बानगी देखिये,
  • आठवें चरण के चुनाव में थानवी जी ने 64 सीटों को ब्लाक कर दिया
  • थानवी जी की लेखन शैली की वजह से जनसत्ता के पाठकों में इतना इजाफा हुआ कि आज उसे दो लोग पढ़ते हैं, एक हैं केजरीवाल और दुसरे हैं संपादक जी खुद। बाकी सब को थानवी जी ने ब्लॉक कर दिया है।
  • 16 मई को अगर मोदी पीएम बने तो थानवी जी भारत देश को ब्लाक करके पाकिस्तान चले जायेगे। 

हीरो या ज़ीरो?
जहाँ केजरीवाल के राखी बिडलान और सोमनाथ भारती जैसे साथी अपने अहंकार और बड़बोलेपन के कारण पहचाने गए वहीं स्वयं केजरीवाल ने अल्प समय में भारतीय राजनीति के विदूषक समझे जाने वाले लालू प्रसाद को गुमनाम कर दिया। केजरीवाल की फूहड़ हरकतों और उनसे लाभ की आशा में जुटे गुटों की जल्दबाज़ी ने कार्टूनिस्टों को बड़ा मसाला प्रदान किया। उनका हर असहमत के लिए, "ये सब मिले हुए हैं जी" कहने की अदा हो, अपने साथियों के मुँह पर खाँसते रहने का मनमोहक झटका, हर विरोधी को बेईमान कहने और अपने साथियों को ईमानदारी के प्रमाणपत्र बाँटने का पुरस्कारी-लाल अंदाज़ हो,  या फिर हर वायदे से पलटने का केजरीवाल-टर्न, जनता का मनोरंजन जमकर हुआ। वैसे तो वे 49 दिन के भगोड़े भी समझे जाते हैं लेकिन अपने पहले ही लोकसभा चुनाव में 400 जमानत जब्त कराने का जो अभूतपूर्व करिश्मा उन्होने कर दिखाया है उसके लिए उनके पार्टी सदस्य और देश कि जनता उन्हें सदा याद रखेंगे।

आज कुछ सीरियस लिखने का मूड नहीं है सो प्रस्तुत है इन्हीं चुनावों के अवलोकन से उपजा कुछ निर्मल हास्य। अगर आपको लगता है कि प्रस्तुत पोस्ट वन्य प्राणियों के लिए अहितकर है तो कृपया अपना मत व्यक्त करें, समुचित कारण मिलने पर पोस्ट हटा ली जाएगी।

दिल्ली छोड़ काशी को धावै,
सीएम रहै न पीएम बन पावै

खाँसियों  का  बड़ा सहारा है
फाँसियों ने तो सिर्फ मारा है

सूली से भय लगता है, थप्पड़ से काम चलाते हैं,
जब तक मूर्ख बना सकते जनता को ये बनाते हैं

टोपी मफ़लर फेंक दियो, झाड़ू दई छिपाय
न जाने किस मोड़ पे मतदाता मिल जाय।

पहले साबरमती उबारी
आई अब गंगा की बारी

इल्मी हारे, फ़िल्मी हारे, हारे बब्बर राज
लोकतन्त्र ऐसा चमका मेरे भारत में आज

स्विट्जरलैंड की खोज में बाबा हुए उदास
कालाधन की खान हैं सब दिल्ली के पास



संबन्धित कड़ियाँ
* क्यूरियस केस ऑफ केजरीवाल
आशा की किरण

Thursday, May 8, 2014

कहाँ गई - कविता

(अनुराग शर्मा)

कभी गाड़ी नदी में, कभी नाव सड़क पर - पित्स्बर्ग का एक दृश्य
यह सच नहीं है कि
कविता गुम हो गई है
कविता आज भी
लिखी जाती है
पढ़ी जाती है
वाहवाही भी पाती है
लेकिन तभी जब वह
चपा चपा चरखा चलाती है

कविता आज केवल
दिल बहलाती है
अगर महंगी कलम से
लिखी जाये तो
दौड़ा दौड़ा भगाती है
थोड़ा-थोड़ा मंगाती है
नफासत की चाशनी में थोड़ी
रूमानियत भी बिखराती है

कविता आजकल
दिल की बात नहीं कहती
क्योंकि तब मित्र मंडली
बुरा मनाती है
इसलिए कविता अब
दिल न जलाकर
जिगर से बीड़ी जलाती है

कविता सक्षम होती थी
गिरे को उठा सकती थी
अब इतिहास हुई जाती है
इब्नबबूता से शर्माती है
बगल में जूता दबाती है
छइयाँ-छइयाँ चलाती है
व्यवसाय जैसे ही सही
अब भी लिखी जाती है


कविता की चिंता छोडकर सुनिए मनोरंजन कर से मुक्त बाल-फिल्म किताब का यह मास्टरपीस