Wednesday, April 13, 2011

अखिल भारतीय नव वर्ष की शुभ कामनायें! एक और?

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लगता है कि भारत में नये साल का सीज़न चल रहा है। आरम्भ भारत के राष्ट्रीय पंचांग "श्री शालिवाहन शक सम्वत" से हुआ। फिर हमने क्रोधी/खरनामसम्वस्तर की युगादि मनाई और अब विशु और पुत्तण्डु। भारत और भारतीय संस्कृति से प्रभावित क्षेत्रों के सौर पंचांगों के अनुसार आज की संक्रांति नव-वर्ष के रूप में मनाई जाती है।

सौर नववर्ष की यह परम्परा केवल भारत तक ही सीमित नहीं है। विभिन्न क्षेत्रों में आज के नव वर्ष के लिये प्रयुक्त विभिन्न नाम या तो संस्कृत के शब्दों संक्रांति, वैशाखी या मेष से बने हैं या फिर इनके तद्भव रूप हैं। सूर्य की मेष राशि से संक्रांति और विशाखा नक्षत्र युक्त पूर्णिमा मास इस पर्व के विभिन्न नामों का उद्गम है।

विभिन्न क्षेत्रों से कुछ झलकियाँ

1.सोंगक्रान - थाईलैंड
2.वर्ष पिरप्पु, पुतंडु - तमिल नव वर्ष - वैसे तमिलनाडु सरकार ने 2008 में अपना सरकारी नव वर्ष अलग कर लिया है जोकि मकर संक्रांति (पोंगल) के दिन पडता है परंतु आज के दिन की मान्यता अभी भी उतनी ही है। ज्ञातव्य है कि मणिपुर राज्य का नववर्ष चैइराओबा भी मकर संक्रांति के साथ ही पडता है।
3.पोइला बोइसाख - बॉंग्गाब्दो (बंगाल, त्रिपुरा ऐवम् बांगलादेश)
4.रोंगाली बिहु - असम राज्य और निकटवर्ती क्षेत्र
5.विशुक्कणी, विशु नव वर्ष - केरल
6.बिखोती - उत्तराखंड
7.विशुवा संक्रांति, पोणा संक्रान्ति, नव वर्ष - उडीसा
8. बैसाखी, वैशाखी - समस्त उत्तर भारत
9. बिसु, तुलुवा नववर्ष - कर्नाटक
10. मैथिल नव वर्ष (जुडे शीतल?)
11. थिंग्यान संग्क्रान नव वर्ष - म्यानमार
12. अलुथ अवुरुधु - सिन्हल नव वर्ष - श्रीलंका
13. चोलच्नामथ्मे (Chol Chnam Thmey) - कम्बोडिआ

शुभ वैसाखी! है न अनेकता में एकता का अप्रतिम उदाहरण?


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कुसुमाकर कवि

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रंग भरे कुदरत ने इन्द्रधनुष प्यार का
याद तेरी हर तरफ मौसम ये बहार का

मुँह लगा के पीनी मुझे तो नागवार है
देखकर चढे नशा तौ जादू है खुमार का

हैसियत नहीं यहाँ से खाक भी उठा सकूँ
देखने चला हूँ रंग-रूप इस बज़ार का

खुद से मैं छिपा हुआ सामने न आ सकूँ
फटी जेब खाली हाथ आर का न पार का

छन्द लय और बहर कुछ मुझे पता नहीं
बोल आप से लिये कवि हूँ मैं उधार का


[कुसुमाकर कवि = जो कवि नहीं है लेकिन बहार के मौसम में कविता जैसा कुछ कहना चाहता है।]
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Saturday, April 9, 2011

घर और बाहर - लघुकथा

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" ... ऊँच-नीच से ऊपर उठे बिना क्रांति नहीं आयेगी। ... मैं और मेरा, यह सब पूंजीपतियों के चोंचले हैं। ... धर्म अफीम है। ... शादी, विवाह, परिवार जैसी रस्में हमें बान्धने के लिये, हमारी सोच को कुंद करने के लिये पिछड़े, धर्मभीरु समाजों ने बनाई थीं। ... अपना घर फूंककर हमारे साथ आइये।"

कामरेड का ओजस्वी भाषण चल रहा था। उनके चमचे जनता को विश्वास दिला रहे थे कि क्रांति दरवाज़े तक तो आ ही चुकी है। जिस दिन इलाके के स्कूल, कारखाने, थाने, और इधर से गुज़रने वाली ट्रेनों को आग लगा दी जायेगी, क्रांति का प्रकाश उसी दिन उनके जीवन को आलोकित कर देगा।

भाषण के बाद जब कामरेड अपनी कार तक पहुँचे तो देखा कि उनके नौकर एक अधेड़ को लुहूलुहान कर रहे थे।

"क्या हुआ?" कामरेड ने पूछा।

"हुज़ूर, चोरी की कोशिश में था ... शायद।"

"तेरी ये हिम्मत, जानता नहीं कार किसकी है?" कामरेड ने ज़मीन पर तड़पते हुए अधेड़ को एक लात लगाते हुए कहा और अपने काफिले के साथ निकल लिये। उनका समय कीमती था।

उस सर्द रात के अगले दिन एक स्थानीय अखबार के एक कोने में एक लावारिस भिखारी सड़क पर मरा पाया गया। दो भूखे अनाथ बच्चों पर अखबार की नज़र अभी नहीं पडी है क्योंकि वे अभी भी जीवित हैं।

मंत्री जी कमिश्नर से कह रहे थे, "कोई लड़का बताओ न! अपने कामरेड जी की बेटी के लिये। दहेज़ खूब देंगे, फैक्ट्री लगा देंगे, एनजीओ खुला देंगे। उत्तर-दक्षिण, देश-विदेश कहीं से भी हो शर्त बस एक है, लडका ऊँची जाति का होना चाहिये।"

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ऑडियो प्रस्तुतियाँ - आपके ध्यानाकर्षण के लिये
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उपाय छोटा काम बड़ा
बांधों को तोड़ दो
कमलेश्वर की "कामरेड"

Monday, April 4, 2011

नव सम्वत्सर शुभ हो!

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कमाल का राष्ट्र है अपना भारत। ब्राह्मी से नागरी तक की यात्रा में पैशाची आदि न जाने कितनी ही लिपियाँ लुप्त हो गयीं। आश्चर्य नहीं कि आज भारतभूमि तो क्या विश्व भर में कोई विद्वान सिन्धु-सरस्वती सभ्यता की मुहरों को निर्कूट नहीं कर सके हैं। हड़प्पा की लिपि तो बहुत दूर (कुछ सहस्र वर्ष) की बात है, एक महीना पहले जब विष्णु बैरागी जी ने "यह कौन सी भाषा है" पूछा था तो ब्लॉग-जगत की विद्वत्परिषद बगलें झाँक रही थी। जबकि वह भाषा मराठी आज भी प्रचलित है और वह लिपि मोड़ी भी 40 वर्ष पहले तक प्रचलित थी।

आज भले ही हम गले तक आलस्य, लोभ और भ्रष्टाचार में डूबे पड़े हों, एक समय ऐसा था कि हमारे विचारक मानव-मात्र के जीवन को बेहतर बनाने में जुटे हुए थे। लम्बे अध्ययन और प्रयोगों के बाद भारतीय विद्वानों ने ऐसी दशाधारित अंक (0-9) पद्धति की खोज की जो आज तक सारे विश्व में चल रही है। भले ही अरबी-फारसी दायें से बायें लिखी जाती हों, परंतु अंक वहाँ भी हमारे ही हैं, हमारे ही तरीके से लिखे जाते हैं, और हिंदसे कहलाते हैं।

जब धरा के दूसरे भागों में लोग नाक पोंछना भी नहीं जानते थे भारत में नई-नई लिपियाँ जन्म ले रही थीं, और कमी पाने पर सुधारी भी जा रही थीं। निश्चित है कि उनमें से अनेक अल्पकालीन/अस्थाई थीं और शीघ्र ही काल के गाल में समाने वाली थीं। आश्चर्य की बात यह है कि नई और बेहतर लिपियाँ आने के बाद भी अनेकों पुरानी लिपियाँ आज भी चल रही हैं, भले ही उनके क्षेत्र सीमित हो गये हों।

भारत की यह विविधता केवल लेखन-क्रांति में ही दृष्टिगोचर होती हो, ऐसा नहीं है, कालगणना के क्षेत्र में भी हम लाजवाब हैं। लिपियों की तरह ही कालचक्र पर भी प्राचीन भारत में बहुत काम हुआ है। जितने पंचांग, पंजिका, कलैंडर, नववर्ष आपको अकेले भारत में मिल जायेंगे, उतने शायद बाकी विश्व को मिलाकर भी न हों। भाई साहब ने भारतीय/हिन्दू नववर्ष की शुभकामना दी तो मुझे याद आया कि अभी दीवाली पर ही तो उन्होंने ग्रिगेरियन कलैंडर को धकिया कर हमें "साल मुबारक" कहा था।

आज आरम्भ होने वाला विक्रमी सम्वत नेपाल का राष्ट्रीय सम्वत है। वैसे ही जैसे "शक शालिवाहन" भारत का राष्ट्रीय सम्वत है। वैसे तमिलनाडु के हिन्दू अपना नया साल सौर पंचांग के हिसाब से तमिल पुत्तण्डु, विशु पुण्यकालम के रूप में या थईपुसम के दिन मनाते हैं। इसी प्रकार जैन सम्वत्सर दीपावली को आरम्भ होती है। सिख समुदाय परम्परागत रूप से विक्रम सम्वत को मानते थे परंतु अब वे सम्मिलित पर्वों के अतिरिक्त अन्य सभी दैनन्दिन प्रयोग के लिये कैनैडा में निर्मित नानकशाही कलैंडर को मानने लगे हैं। युगादि का महत्व अन्य सभी नववर्षों से अधिक इसलिये माना जाता है क्योंकि आज ही के दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि-सृजन किया था, ऐसी मान्यता है।

आज का दिन देश के विभिन्न भागों में गुड़ी पडवो, युगादि, उगादि, चेइराओबा (चाही होउबा), चैत्रादि, चेती-चाँद, बोहाग बिहू, नव संवत्सर आदि के नाम से जाना जाता है। यद्यपि उत्सव का दिन प्रचलित सम्वत और उसके आधार (सूर्य/शक/मेष संक्रांति या चन्द्रमा/सम्वत/चैत्र शुक्ल प्रतिपदा या दोनों) पर इधर-उधर हो जाता है। भारत और नेपाल में शक और विक्रमी सम्वत के अतिरिक्त भी कई पंचांग प्रचलित हैं। आज के दिन पंचांग और वर्षफल सुनने का परम्परागत महत्व रहा है। मुझे तो आज सुबह अमृतवेला में काम पर निकलना था वर्ना हमारे घर में आज के दिन विभिन्न रसों को मिलाकर बनाई गई "युगादि पच्चड़ी" खाने की परम्परा है।
हर भारतीय संवत्सर का एक नाम होता है और उस कालक्षेत्र का एक-एक राजा और मंत्री भी। संवत्सर के पहले दिन पड़ने वाले वार का देवता/नक्षत्र संवत्सर का राजा होता है और वैसाखी के दिन पड़ने वाले वार का देवता/नक्षत्र मंत्री होता है।
यही नव वर्ष गुजरात के अधिकांश क्षेत्रों में दीपावली के अगले दिन बलि प्रतिपदा (कार्तिकादि) के दिन आरम्भ होगा। जबकि काठियावाड़ के कुछ क्षेत्रों में आषाढ़ादि नववर्ष भी होगा। सौर वर्ष का नव वर्ष वैशाख संक्रांति (बैसाखी) के अनुसार मनाया जाता है और यह 14 अप्रैल 2011 को होगा। नव वर्ष का यह वैसाख संक्रांति उत्सव उत्तराखंड में बिखोती, बंगाल में पोइला बैसाख, पंजाब में बैसाखी, उडीसा में विशुवा संक्रांति, केरल में विशु, असम में बिहु और तमिलनाडु में थइ पुसम के नाम से मनाया जाता है। श्रीलंका, जावा, सुमात्रा तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों कम्बोडिआ, लाओस, थाईलैंड में भी संक्रांति को नववर्ष का उल्लास रहता है। वहाँ यह पारम्परिक नव वर्ष सोंग्रन या सोंक्रान के नाम से आरम्भ होगा।        

भारतीय सम्वत्सर साठ वर्ष के चक्र में बन्धे हैं और इस तरह विक्रम सम्वत के हर नये वर्ष का अपना एक ऐसा नाम होता है जो कि साठ वर्ष बाद ही दोहराया जाता है। साठ वर्ष का चक्र ब्रह्मा,विष्णु और महेश देवताओं के नाम से तीन बीस-वर्षीय विभागों में बँटा है। दक्षिण भारत (तेलुगु/कन्नड/तमिल) वर्ष के हिसाब से इस संवत का नाम खर है। जबकि आज आरम्भ होने वाला विक्रम सम्वत्सर उत्तर भारत में क्रोधी नाम है। (उत्तर भारत के विक्रम संवतसर के नाम के लिये अमित शर्मा जी का धन्यवाद)

अनंतकाल से अब तक बने पंचांगों के विकास में विश्व के श्रेष्ठतम मनीषियों की बुद्धि लगी है। युगादि उत्सव अवश्य मनाइये परंतु साथ ही यदि अन्य भारतीय (सम्भव हो तो विदेशी भी) मनीषियों द्वारा मानवता के उत्थान में लगाये गये श्रम को पूर्ण आदर दे सकें तो हम सच्चे भारतीय बन सकेंगे। अपना वर्ष हर्षोल्लास से मनाइये परंतु कृपया दूसरे उत्सवों की हेठी न कीजिये।

आप सभी को सप्तर्षि 5087, कलयुग 5113, शक शालिवाहन 1933, विक्रमी 2068 क्रोधी/खरनामसंवत्सर की मंगलकामनायें!

साठ संवत्सर नाम

१. प्रभव
२. विभव
३. शुक्ल
४. प्रमुदित
५. प्रजापति
६. अग्निरस
७. श्रीमुख
८. भव
९. युवा
१०. धाता
११. ईश्वर
१२. बहुधान्य
१३. प्रमादी
१४. विक्रम
१५. विशु
१६. चित्रभानु
१७. स्वभानु
१८. तारण
१९. पार्थिव
२०. व्यय

२१. सर्वजित
२२. सर्वधर
२३. विरोधी
२४. विकृत
२५. खर
२६. नंदन
२७. विजय
२८. जय
२९. मन्मत्थ
३०. दुर्मुख
३१. हेवलम्बी
३२. विलम्ब
३३. विकारी
३४. सर्वरी
३५. प्लव
३६. शुभकृत
३७. शोभन
३८. क्रोधी
३९. विश्ववसु
४०. प्रभव

४१. प्लवंग
४२. कीलक
४३. सौम्य
४४. साधारण
४५. विरोधिकृत
४६. परिद्व
४७. प्रमादिच
४८. आनंद
४९. राक्षस
५०. अनल
५१. पिंगल
५२. कलायुक्त
५३. सिद्धार्थी
५४. रौद्र
५५. दुर्मथ
५६. दुन्दुभी
५७.रुधिरोदगारी
५८.रक्ताक्षी
५९. क्रोधन
६०. अक्षय
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* भारतीय काल गणना
* वर्ष और संवत्सर
* खरनाम सम्वत्सर पंचांग ऑनलाइन
* राष्ट्रीय नववर्ष - श्री शालिवाहन शक सम्वत 1933

Sunday, April 3, 2011

अनामी बेनामी गुमनामी ज़रा बच के रहें

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अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसे पसन्द नहीं है? ब्लॉगिंग हम सबका पसन्दीदा प्लैटफॉर्म शायद इसीलिये है कि इसमें अपने विचारों को निर्बन्ध प्रस्तुत किया जा सकता है। और जहाँ तक सम्भव है, अधिकांश ब्लॉगर्स इस स्वतंत्रता का पूर्ण लाभ उठा रहे हैं। परंतु जैसी कि कहावत है, अधिकार के साथ ज़िम्मेदारी भी बंधी होती है। हमारे अन्य कर्मों की तरह, हम क्या लिखते हैं इसकी पूरी ज़िम्मेदारी भी हमारी ही रहेगी।

सच तो यह है कि हमारे ब्लॉग की पूरी ज़िम्मेदारी हमारी ही है। मतलब यह कि हमारी पोस्ट्स के अलावा भी जो कुछ भी हमारे ब्लॉग पर लिखा जाता है उसकी ज़िम्मेदारी भी काफी हद तक हमारी ही है।

यदि हमारे ब्लॉग की विषय-वस्तु मर्यादित नहीं है या वयस्क-उन्मुख है तो हमें अपने ब्लॉग का समुचित वर्गीकरण करना चाहिये। ब्लॉग पर दिखने वाले लिंक, विज्ञापन, फ़ॉलोवर आदि के द्वारा भी कुछ लोग गन्दगी छोड सकते हैं अतः इन सबका नियमित अवलोकन और सफ़ाई आवश्यक है। यद्यपि मॉडरेशन से खफा होने वाले ब्लॉगरों की संख्या काफी है परंतु टिप्पणियों और फ़ोलोवर लिस्ट में छोडे गये स्पैम या अमर्यादित विज्ञापनों/कडियों से बचने के लिये मॉडरेशन सर्वश्रेष्ठ साधन है।

कई लोग जो अपने सेवा-नियमों या अन्य कारणों से अपनी असली पहचान छिपाकर ब्लॉगिंग कर रहे हैं उन्हें भी यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि पहचान छिपाने भर से उनकी ज़िम्मेदारी कम नहीं होती। यदि वे लिखने के लिये अनधिकृत हैं तो छद्मनाम होकर भी अनधिकृत ही हैं। साथ ही गलत लिखने का उत्तरदायित्व भी लेखक पर रहेगा ही, नाम असली हो या नक़ली। यह दुनिया आभासी हो सकती है लेकिन याद रहे कि इसकी हर रचना के पीछे एक वास्तविक व्यक्ति छिपा है।

एक और मुद्दा है बेनामी, अनामी, गुमनामी, ऐनोनिमस टिप्पणियों का। बेनामी और छद्मनामी ब्लॉग्स की सामग्री की तरह ही ऐसी टिप्पणियों की सामग्री के लिये भी इसके लेखक ज़िम्मेदार हैं। यदि आप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रयोग सभ्यता के साथ कर रहे हैं तब शायद इस बात से कोई अंतर नहीं पडता कि आपका नाम सामने है या नहीं। लेकिन यदि आप कुछ ऊलजलूल आक्षेप लगा रहे हैं, किसी की बेइज़्ज़ती कर रहे हैं, अश्लील भाषा का प्रयोग कर रहे हैं या किसी भी प्रकार से क़ानून का उल्लंघन कर रहे हैं तो अपना नाम छिपाने के बावज़ूद आपके कुकृत्य की पूरी ज़िम्मेदारी आप की ही है। आपकी आज़ादी वहीं समाप्त हो जाती है जहाँ दूसरे व्यक्ति का नाम शुरू होता है। राहज़नी करते समय नक़ाब लगाने से अपराध की गम्भीरता कम नहीं होती है।

हो सकता है कि जीवन में एक बार ऐसा अपराध करने वाला बच भी जाये, मगर आदतन बदमाशी करने वाले सावधान रहें क्योंकि आदमी हों या नारी, उनकी पहचान और पकड कहीं आसान है। 2007 में विस्कॉंसिन के एक अध्यापक की गिरफ्तारी ऐसा ही एक चर्चित उदाहरण है। कई बडी हस्तियों का मानना है कि इंटरनैट पत्रकारिता भी समय के साथ परिपक्व हो रही है और अब समय आ गया है कि असभ्य टीका-टिप्पणियों पर अंकुश लगे। बेनामी हो या नामी, सभ्यता तो किसी भी युग की आवश्यकता है। क्या कहते हैं आप?

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कुछ सम्बन्धित कडियाँ अंग्रेज़ी में
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बेनामी टिप्पणियों पर न्यूयॉर्क टाइम्स का एक आलेख
उत्तरदायित्व अभियान
बेनामी भडास के दिन पूरे

Saturday, March 26, 2011

शिक्षा और ईमानदारी

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पहले सोचा था कि आज लखनऊ विकास प्राधिकरण में ईमानदारी के साथ मेरे प्रयोग के बारे में लिखूंगा परंतु फिर पांडेय जी की पोस्ट
डिसऑनेस्टतम समय – क्या कर सकते हैं हम? पर भारतीय नागरिक की टिप्पणी पर ध्यान चला गया। इसमें और बातों के साथ एक विचारणीय मुद्दा शिक्षा का भी था:

"हम सब व्यापारी बन गये हैं. आजादी इसलिये मिल सकी कि लोग कम पढ़े-लिखे थे, एक आवाज पर निकल पड़ते थे. आज सब पढ़ गये हैं, सबने अपने स्वार्थमय लक्ष्य निर्धारित कर लिये हैं."

हम सभी अमूमन यह मानते हैं कि स्कूली शिक्षा हमें बुराइयों से बाहर निकालेगी। भारतीय नागरिक का अनुभव ऐसा नहीं लगता। मेरा अनुभव तो निश्चित रूप से ऐसा नहीं है। देश के प्रशासन में बेईमानी इस तरह रमी हुई है कि इससे गुज़रे बिना एक आम भारतीय का जीना असम्भव सा ही लगता है। प्रशासन की ज़िम्मेदारी पढे लिखे लोगों पर ही है। अगर शिक्षा ईमानदार बनाती तो यह शिक्षित वर्ग रोज़ ईमानदारी के नये उदाहरण सामने रख रहा होता और बेईमानी हमारे लिये विचार-विमर्श का विषय नहीं होती। कई लोग कहते हैं कि देश की जडें काटने का काम पढे लिखे लोगों ने सबसे अधिक किया है। अपने निहित स्वार्थ और सत्ता, पद और धन की लोलुपता के लिये देश का बंटवारा करके अलग पाकिस्तान बनाने की हिमायत करने वाले अनपढ लोग नहीं बल्कि बडे-बडे बैरिस्टर, शिक्षाविद, और साहित्यकार आदि थे। बस मैं गवर्नर-जनरल बन जाऊँ, चाहे इसके लिये मुझे "सारे जहाँ से अच्छा" वतन काटना पडे और इस विभाजन में चाहे दसियों लाख लोगों को अमानवीय स्थितियों से गुज़रना पडे। केवल स्कूली शिक्षा इस आसुरी विचार को काबू नहीं कर सकती है।

कुछ स्कूलों के पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा भले ही जोड दी गयी हो मगर "जिन बातों को खुद नहीं समझे, औरों को समझाया है..." का शायराना विचार वास्तविक जीवन में चलता नहीं है। बच्चे बडों को देखकर सीखते हैं। जब तक हम बडे मनसः वाचः कर्मणः ईमानदार होने का प्रयास नहीं करेंगे तब तक हम यह मूल्य अपने बच्चों तक नहीं पहुँचा सकते हैं। "कैसे कैसे शिक्षक" में मैने "तुम भी खर्चो तो तुम भी कर लेना" वाले शिक्षक का उदाहरण दिया था। उन्हीं के एक सहकर्मी थे एमकेऐस। भावुकहृदय कवि, चित्रकार, अभिनेता और अध्यापक। मैने इन कलाकार को अपने एक मित्र से कहते सुना, "एक नागरिक के रूप में मैं यह अवश्य चाहता हूँ कि मेरा बेटा ईमानदार बने परंतु एक पिता के रूप में मैं जानता हूँ कि दुनिया उसे ईमानदारी से जीने नहीं देगी इसलिये मैं उसे दुनियादारी (बेईमानी?) सिखाता हूँ। एक और अध्यापक जी अपने वेतन के बारे में शिकायत करते हुए कह रहे थे, "उन्होने हमें पैसे नहीं दिये, हमने उन्हें संस्कार नहीं दिये।" ये शिक्षक अपने छात्रों (और बच्चों) को डंके की चोट पर बेईमानी सिखा रहे हैं। शिक्षा व्यवस्था में से ऐसे लोगों की छँटाई की गहन आवश्यकता है।

अक्टूबर 2010 में टाटा समूह ने अमेरिका के प्रतिष्ठित हारवर्ड बिज़नैस स्कूल को पाँच करोड डॉलर (225 करोड रुपये) दान किये। ज़रा सोचिये कि इतने पैसे से गरीबी रेखा के नीचे रह रहे कितने भारतीयों की किस्मत बदली जा सकती थी। उनसे पहले इसी संस्था को महिन्द्रा समूह भी एक बडा दान दे चुका था। हारवर्ड की तरह ही एक और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय है, येल। 1861 में अमेरिका की पहली पीऐचडी सनद येल विश्वविद्यालय ने ही दी थी। 1718 में येल कॉलेज का नामकरण हुआ था इसके सबसे बडे दानदाता (500 पौंड) ईलाइहू येल के नाम पर। ईलाइहू येल भारत (मद्रास) में ईस्ट इंडिया कम्पनी का गवर्नर था। अधिकांश अंग्रेज़ अधिकारियों की तरह येल भी सिर से पैर तक भ्रष्ट था। उसके समय में मद्रास में बच्चों की चोरी और उन्हें गुलाम बनाकर बेचने की समस्या अचानक से बढ गयी थी। वैसे तो ईस्ट इंडिया कम्पनी में भ्रष्टाचार को पूरी सामाजिक मान्यता मिली हुई थी लेकिन येल इतना भ्रष्ट थी कि भ्रष्ट कम्पनी ने भी उसे भ्रष्टाचार के आरोप में नौकरी से निकाल दिया।

जिन्होने श्रीसूक्त पढा होगा वे लक्ष्मी और अलक्ष्मी शब्दों से परिचित होंगे। धन अच्छा या बुरा होता है। मगर शिक्षा? ईशोपनिषद का वाक्य है:

अन्धंतमः प्रविशंति येविद्यामुपासते, ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायाम् रताः

अविद्या के उपासक तो घोर अन्धकार में जाते ही हैं, विद्या के उपासक उससे भी गहरे अन्धकार में जाते हैं।

ईमानदारी किसी स्कूल में पढाई नहीं जाती, हालांकि पढाई जानी चाहिये। गुरुर्देवो भव: से पहले यह मातृदेव और पितृदेव की भी ज़िम्मेदारी है। ईमानदारी सृजन की, उत्पादन की, सक्षमता की बात है न कि कामचोरी, सीनाज़ोरी, पराक्रमण, कब्ज़ेदारी, या गुंडागर्दी की। हम जो काम करें उसमें अपना सर्वस्व लगायें, बिना यह गिने कि बदले में क्या मिला। जितना पाया, उससे अधिक देने की इच्छा ईमानदारी है न कि "जितना पैसा उतना (या कम) काम" की बात। भारतीय नागरिक की बात पर वापस आयें तो दैनन्दिन जीवन में लाभ-हानि की भावना से ऊपर उठे बिना ईमानदार होना असम्भव नहीं तो कठिन सा तो है ही। दुर्भाग्य से आज शिक्षा भी एक व्यवसाय बन गयी है जिसमें अंततः लाभ की बात आ ही जाती है। जहाँ लाभ सामने है वहाँ लोभ भी पीछे नहीं रहता। फिर शिक्षा ईमानदारी कैसे बरते और कैसे सिखाये? धन के बिना संस्थान चल नहीं सकता और धन का प्रश्न हटाये बिना ईमानदारी कैसे आयेगी? यही मुख्य प्रश्न है। हम सब को इसके बारे में सोचना है कि ईमानदारी एक आर्थिक मुद्दा है या व्यवहारिक? मेरी नज़र में ऐसी समस्यायें अति-आदर्शवाद से पैदा होती हैं जहाँ हम सांसारिकता और अध्यात्मिकता को दो विपरीत ध्रुवों पर रख देते हैं। जनजीवन में ईमानदारी लानी है तो इस अव्यवहारिकता से निपटना होगा। मुद्दा काफी स्थान मांगता है इसलिये अभी इतना ही कहकर आगे कहीं विस्तार देने का प्रयास करूंगा। इस विषय पर आपके विचारों का सदा स्वागत है।

अरविन्द मिश्र जी ने मेरी एक पिछली पोस्ट में टिप्पणी करते हुए कहा,

ईमानदारी बेईमानी व्यक्ति सापेक्ष है -हम सब किसी न किसी डिग्री में बेईमान हैं! क्या सरकारी सेवा में रहकर ज्ञानदत्त जी खुद की ईमानदारी का स्व-सार्टीफिकेट दे सकते हैं - यहाँ चाहकर भी इमानदार बने रह पाना मुश्किल हो गया है और अनचाहे भ्रष्ट होना एक नियति ..... इमानदारी एक निजी आचरण का मामला है -दूसरों के बजाय अपनी पर ज्यादा ध्यान दिया जाना उचित है और दंड विधान को कठोर करना होगा जिससे बेईमानी कदापि पुरस्कृत न हो जैसा कि आपने एक दो उदहारण दिये हैं!

दंड विधान की कठोरता, निजी आचरण और व्यक्ति सापेक्षता की बात एक नज़र में ठीक लगती है। जहाँ तक ईमानदार बने रहने की मुश्किलों की बात है, यह सच है कि ईमानदारी कमज़ोरों का खेल नहीं है, बहुत दम चाहिये। किसी व्यक्ति विशेष का नाम लेना तो शायद अविनय हो मगर मैं इस बात से घोर असहमति रखता हूँ कि सरकारी सेवा में रहना भर ही किसी इंसान को बेईमान करने के लिये काफी है। ऐसा कर्मी यदि प्राइवेट नौकरी में हो और स्वामी लोभी हो तब? ईस्ट इंडिया कम्पनी में ईलाइहू येल? तब तो बेईमानी का बहाना और भी आसान हो जायेगा। अगर कई नौकरपेशाओं के लिये ईमानदारी एक बडी समस्या बन रही है तो इसका हल खोजने में अधिक समय, श्रम और संसाधन लगाये जाने चाहिये। मगर असम्भव कुछ भी नहीं है। इस विषय पर आगे विस्तार से बात होगी। तो भी यहाँ दोहराना चाहूंगा कि ईमानदारी वह शय है जिसके बिना बडे-बडे बेईमानों का गुज़ारा एक दिन भी नहीं चल सकता है। ईमानदारी बडे दिल वालों का काम है, भले ही वे सरकारी नौकरी में हों या असरकारी पद पर हों।

[एक ईमानदार भारतीय ने लखनऊ विकास प्राधिकरण के बेईमानों के गिरोह का सामना कैसे किया, इस बारे में फिर कभी किसी अगली कडी में।]

Wednesday, March 23, 2011

ईमानदारी - जैसी मैने देखी

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कोई खास नहीं, कोई अनोखी नहीं, एक आम ईमानदार भारतीय परिवार की ईमानदार दास्ताँ, जो कभी गायी नहीं गयी, जिस पर कोई महाकाव्य नहीं लिखा गया। इस गाथा पर कोई फिल्म भी नहीं बनी, हिन्दी, अंग्रेज़ी या क्षेत्रीय। शायद इसकी याद भी नहीं आती अगर ज्ञानदत्त पांडेय जी ईमानदारी पर चर्चा को एक बार कर चुकने के बाद दोबारा आगे न बढाते। याद रहे, यह ऐसा साधारण और ईमानदार भारतीय परिवार है जहाँ ईमानदारी कभी भी असाधारण नहीं थी। छोटी-छोटी बहुतेरी मुठभेडें हैं, सुखद भी दुखद भी। यह यादें चाहे रुलायें चाहे होठों पर स्मिति लायें, वे मुझे गर्व का अनुभव अवश्य कराती हैं। कोई नियमित क्रम नहीं, जो याद आता जायेगा, लिखता रहूंगा। आशा है आप असुविधा के लिये क्षमा करेंगे।

बात काफी पुरानी है। अब तो कथा नायक को दिवंगत हुए भी कई दशक हो चुके हैं। जीवन भर अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। उनके कुनबे के अयोध्या से स्वयं-निर्वासन लेकर उत्तर-पांचाल आने की भी एक अजब दंतकथा है लेकिन वह फिर कभी। उनके पिताजी के औसत साथियों की कोठियाँ खडी हो गयीं मगर उनके लिये पैतृक घर को बनाए रखना भी कठिन था। काम लायक पढाई पूरी करके नौकरी ढूंढने की मुहिम आरम्भ हुई। बदायूँ छूटने के बाद ईमानदारी के चलते बीसियों नौकरियाँ छूटने और बीसियों छोडने के बाद अब वे गाज़ियाबाद के एक स्कूल में पढा रहे थे। वेतन भी ठीक-ठाक मिल रहा था। शरणार्थियों के इलाके में एक सस्ता सा घर लेकर पति-पत्नी दोनों पितृऋण चुकाने के लिये तैयार थे। विलासिता का आलम यह था कि यदि कभी खाने बनाने का मन न हो तब तन्दूर पर आटा भेजकर रोटी बनवा ली जाती थी।

पति स्कूल चले जाते और पास पडोस की महिलायें मिलकर बातचीत, कामकाज करते हुए अपने सामाजिक दायित्व भी निभाती रहतीं। सखियों से बातचीत करके पत्नी को एक दिन पता लगा कि राष्ट्रपति भवन में एक अद्वितीय उपवन है जिसे केवल बडे-बडे राष्ट्राध्यक्ष ही देख सकते हैं। लेकिन अब गरीबों की किस्मत जगी है और राष्ट्रपति ने यह उपवन एक महीने के लिये भारत की समस्त जनता के लिये खोल दिया है। पत्नी का बहुत मन था कि वे दोनों भी एक बार जाकर उस उद्यान को निहार लें। एक बार देखकर उसकी सुन्दरता को आंखों में इस प्रकार भर लेंगे कि जीवन भर याद रख सकें। बदायूँ में रहते हुए तो वहाँ की बात पता ही नहीं चलती, गाज़ियाबाद से तो जाने की बात सोची जा सकती है। वे घर आयें तो पूछें, न जाने बस का टिकट कितना होगा। कई दिन के प्रयास के बाद एक शाम दिल की बात पति को बता दी। वे रविवार को चलने के लिये तैयार हो गये। तैयार होकर घर से निकलकर जब उन्होने साइकल उठाई तो पत्नी ने सुझाया कि वे बस अड्डे तक पैदल जा सकते हैं। पति ने मुस्कुराकर उन्हें साइकल के करीयर पर बैठने को कहा और पैडल मारना शुरू किया तो सीधे राष्ट्रपति भवन आकर ही रुके।

पत्नी को मुगल गार्डैन भेजकर वे साइकल स्टैंड की तरफ चले गये। पत्नी ने इतना सुन्दर उद्यान पहले कभी नहीं देखा था। उन्हें अपने निर्णय पर प्रसन्नता हुई। कुछ तो उद्यान बडा था और कुछ भीड के कारण पति पत्नी बाग में एक दूसरे से मिल नहीं सके। सब कुछ अच्छी प्रकार देखकर जब वे प्रसन्नमना बाहर आईं तो चतुर पति पहले से ही साइकल लाकर द्वार पर उनका इंतज़ार कर रहे थे। साइकल पर दिल्ली से गाज़ियाबाद वापस आते समय हवा में ठंड और बढ गयी थी। मौसम से बेखबर दोनों लोग मगन होकर उस अनुपम उद्यान की बातें कर रहे थे और उसके बाद भी बहुत दिनों तक करते रहे। बेटी की शादी के बाद पत्नी को पता लगा कि जब वे उद्यान का आनन्द ले रही थीं तब पति बाग के बाहर खडे साइकल की रखवाली कर रहे थे क्योंकि तब भी एक ईमानदार भारतीय साइकल स्टैंड का खर्च नहीं उठा सकता था। लेकिन उस ईमानदार भारतीय परिवार को तब भी अपनी सामर्थ्य पर विश्वास और अपनी ईमानदारी पर गर्व था और उनके बच्चों को आज भी है।

Saturday, March 19, 2011

अक्षर अक्षर - एक कविता

[अनुराग शर्मा]

कागज़ी खानापूरी से
दिमागी हिसाब-किताब से
या वाक्चातुर्य से
परिवर्तन नहीं आता
क्योंकि
क्रांति का खाजा है
त्याग, साहस
इच्छा-शक्ति, पसीना
और मानव रक्त

कफन बांधकर
निकल पडते हैं
प्रयाण पर
शुभाकांक्षी वीर
जबकि
सुरक्षित घर में
छिपकर
कलम तोड़ते हैं
ठलुआ शायर

जान जाती है
बयार आती है
क्रांति हो जाती है
युग परिवर्तन होता है
खेत रहते हैं वीर
बिसर जाते हैं
वीर, त्यागी और हुतात्मा
कर्म विस्मृत हो जाते हैं
लिखा अमिट रहता है
अलंकरण पाते हैं
डरपोक कवि
क्योंकि
अक्षर अक्षर है।
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Thursday, March 17, 2011

नव शारदा - रंग ही रंग - शुभकामनायें!

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हर ओर उल्लास है। लकडियाँ इकट्ठी कर के आग लगायी गयी है। अबाल-वृद्ध सभी त्योहार के जोश में हैं। क्यों न हो। सन 2005 से वे अपना पर्व मनाने को स्वतंत्र हैं। तुर्की ने आखिर सन 2005 में कुर्द समुदाय को अपना परम्परागत उत्सव नव शारदा मनाने की छूट दे ही दी। भारत में पारसी, बहाई, शिया और कश्मीरी पण्डित (नवरेह के नाम से) तो यह त्योहार न जाने कब से मनाते आ रहे हैं। परंतु यह पर्व भारत के बाहर भी दूर-दूर तक मनाया जाता है। ईरान में अयातुल्लह खोमेनी की इस्लामी सरकार आने के बाद लेखकों कलाकारों की मौत के फतवे तो ज़ारी हुए ही थे, साथ ही ईरानियों के प्रमुख त्योहार नवरोज़ को भी काफिर बताकर प्रतिबन्धित कर दिया गया था। ठीक यही काम अफगानिस्तान में तालेबान ने किया। परंतु मानव की उत्सवप्रियता को क्या कभी रोका जा सका है? दोनों ही देशों की जनता हारी नहीं। पर्व उसी धूमधाम से मनता है।

जी हाँ, परम्परागत ईरानी नववर्ष नव शारदा का वर्तमान नाम नौरोज़, नवरोज़ और न्यूरोज़ है। पारसी परम्पराओं में इस नवरोज़ को जमशेदी नौरोज़ भी कहते हैं। क्योंकि यह उत्सव यमदेव/जमशेद के सम्मान में है। ईरानी जनता को मृत्यु की ठिठुरन से बचाने के बाद जब वे अपने रत्न-जटित सिंहासन समेत स्वर्गारूढ हो गये तब उनके लिये प्रसन्न होकर लोगों ने इस पर्व की शुरूआत की। इस साल यह पर्व 20 मार्च 2011 को पड रहा है।

20 मार्च को ही एक और त्योहार भी है "पूरिम" जिसमें नौरोज़ की तरह पक्वान्नों पर तो ज़ोर है ही साथ ही सुरापान की भी मान्यता है। यहूदियों के इस पर्व में खलनायक हमन के पुतले को सामूहिक रूप से आग लगाई जाती है, पोस्त की मिठाइयाँ बनती हैं और नाच गाना होता है।

22 मार्च को भारत सरकार के राष्ट्रीय पंचांग "शक शालिवाहन" सम्वत का आरम्भ भी होता है। इस नाते यह भारत का राष्ट्रीय नववर्ष हुआ, शक संवत 1933 की शुभकामनायें!

और अपनी होली के बारे में क्या कहूँ? दीवाली का प्रकाश तो यहाँ भी वैसा ही लगता है मगर होली की मस्ती के रंग फीके ही लगते हैं।

आप सभी को होली की मंगलकामनायें!

Sunday, March 13, 2011

अनुरागी मन - कहानी - भाग 10

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अनुरागी मन - कहानी - भाग 1; भाग 2; भाग 3;
भाग 4; भाग 5; भाग 6; भाग 7; भाग 8; भाग 9
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क्षण भर में दुनिया कैसे बदल जाती है इस बात का मर्म वीरसिंह को उस एक दिन में पता चल गया था। अपने दादाजी की छत्रछाया में अपनी अप्सरा की गोद में सर रखे हुए बेफिक्र वीरसिंह का एक ही रात में कायाकल्प हो गया था। एक खिलंदड़े किशोर के जीवन में एक ही रात में इतने क़हर टूटे जिनको समझने में उसकी उम्र चली जानी थी। उस एक रात में जीवन ने उन्हें जो पाठ पढ़ाया वह अमूल्य था। कुछ देर पहले तक भाग्य उनकी मुट्ठी में था। वे जब जैसा चाहते थे बिल्कुल वैसा ही घट रहा था। अचानक से किस्मत कैसी करवट बैठ गयी। एक ही पल में दो प्रियजनों से एक झटके में सम्बन्ध टूट गया था। हाथ छुड़ाने वालों में से एक जन्म से भी पहले का प्रिय था और दूसरा? जन्म-जन्मांतर का साथी या केवल चार दिन का हमराही?

दादाजी का शोक प्रकट करने वासिफ भी आया था। साथ में झरना भी थी। आंखों में आँसू के झरने, काला दुपट्टा, काली कमीज़, काला शरारा। ऊपर से नीचे तक दुःख की कालिख में डूबी हुई। वासिफ ने कन्धा थपथपा कर सांत्वना दी, झरना गले लग कर रोई। लेकिन वीरसिंह पत्थर हो गये थे। वे प्रकृति के इस क्रूर खेल को स्वीकार तो कर चुके थे लेकिन अभी भी समझ नहीं पा रहे थे। वासिफ ने कुछ कहा जो वीर ने सुना ज़रूर पर समझ न सके। झरना ने कोई कागज़ दिया जो उन्होंने लिया ज़रूर पर उसके बारे में कुछ भी याद न रख सके।

दशमे की रस्म आज दिन में पूरी हो चुकी थी। तेरहवीं के बाद पिताजी को वापस जाना था। चान्दनी रात में पिता-पुत्र छत पर चुपचाप खडे शून्य में कुछ ढूंढ रहे थे। निक्की चाय देकर चुपचाप वापस चली गयी। वीर को पिताजी से सहानुभूति हो रही थी। अपने पिता के बिना न जाने कैसा खालीपन अनुभव कर रहे होंगे?

“माता-पिता को खोना कितना कठिन है। आप ठीक तो हैं न?” वीर ने साहस करके पूछा।

“हाँ, जो लोग साथ रहते हैं उन्हें ज़्यादा मुश्किल होती होगी शायद।”

“आप तो अंतिम समय पर देख भी नहीं पाये!”

“हम तो सिपाही हैं। हमारे लिये सरकार जहाज़ का टिकट नहीं दे सकती। छुट्टी मिली यही बहुत है।”

“ऐसा क्यों कह रहे हैं?” वीर ने आश्चर्य से पूछा। पता लगा कि सेना में सिपाहियों को कई बार ज़रूरी काम होने पर भी छुट्टी नहीं मिलती है। सारी सुविधायें भोगते हुए भी कुछ अधिकारी कई बार दुष्कर परिस्थितियों में रहते अपने सिपाहियों के प्रति क्रूरता की हद तक अमानवीय हो जाते हैं।

पिताजी को छुट्टी की समस्या नहीं आयी मगर महीने भर पहले उन्हीं की यूनिट में एक अधिकारी ने जब अपने सिपाही को कायर, झूठा और मक्कार कहते हुए मृत्यु के कगार पर पड़ी माँ को देखने की दर्ख्वास्त को फाड़कर फेंक दिया था तो उसी सिपाही ने रात में खूब शराब पीकर अधिकारी को गोली मार दी थी। सिपाही क़ैद में था और गाँव में उसकी माँ का शवदाह पडोसी कर रहे थे।

वीर को इस दुनिया और समाज से पूर्ण विरक्ति सी होने लगी। झरना ने उनके हृदय पर एक गहरा और अमिट ज़ख्म दिया था। उस रात की सभी दुखद घटनाओं के लिये वे अब तक उसे ही कारक मान रहे थे।

[क्रमशः]

Thursday, March 10, 2011

नया प्रदेश, युवा मुख्यमंत्री [इस्पात नगरी से-38]

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श्री गणेशाय नमः।

ज्ञानदत्त पाण्डेय जी की ताज़ी पोस्ट "डिसऑनेस्टतम समय" ने अपने पाठकों को काफी कुछ सोचने को मजबूर किया है। पांडेय जी के अधिकांश अवलोकनों और निष्कर्षों से असहमति की कोई गुंजाइश ही नहीं है। विशेषकर, जब वे कहते हैं कि "और तो बाहरी लोगों को लूटते हैं। ये घर को लूट रहे हैं। ऑनेस्टी पैरों तले कुचली जा रही है। ... ईमानदारी अब सामाजिक चरित्र नहीं है।"

उनकी इस पोस्ट ने नई-पुरानी कई बातें याद दिलाईं। दिल्ली में किसी आटोरिक्शा के पीछे लिखा देखा था:

100 में निन्यानवे बेईमान, फिर भी मेरा भारत महान!

स्कूल में एक सहपाठी को अक्सर कहते सुना था, "जो पकडा गया वह चोर! मतलब यह कि (हमारे देश में) चोर तो सभी हैं, कोई-कोई पकड में आ जाता है।"

नादिर शाह का ध्वज
बचपन में किसी हिन्दी फिल्म में मुकेश का गाया गीत "जय बोलो बेईमान की" बडा मशहूर हुआ था। लेकिन जो बात बडी शिद्दत से याद आयी वह यह कि हमारे बेईमान, न केवल बेईमानों में बेईमानी करते हैं, वे ईमानदारी की गंगा में रोज़ डुबकी लगाकर भी ईमानदार नहीं हो पाते। हाँ, गंगा मैली करने का प्रयास अवश्य करते हैं ताकि उनकी बेईमानी सामान्य लगने लगे।

पार्किंग में, आटो, टैक्सी आदि के किराये में बेईमानी मिलना तो आम बात है ही। दिल्ली में मैंने कितनी ही बार महंगी कार में बैठे सूट्बूटक नौजवानों को पास से गुज़रते ठंडे पेय के खुले ट्रक से बोतलें चुराते देखा है। एक ज़माने में अक्सर यह खबर सुनने में आती थी कि कोई प्रसिद्ध भारतीय अपनी विदेश यात्रा के दौरान किसी डिपार्टमेंटल स्टोर में चोरी करते हुए पकडा गया। मतलब यह कि धन-धान्य से भरपूर भारतीय मन भी बिना निगरानी का माल देखकर डोल ही जाता था। बेचारे मासूमों को यह नहीं पता होता था कि चोर कैमरे उनकी चोरी को रिकॉर्ड कर रहे होते थे।

जब विवेक कुन्द्रा के ओबामा के कम्प्यूटर सलाहकार बनने की खबर आयी थी तो भारतीय समुदाय बडा प्रसन्न हुआ था। कुछ ही दिनों में खबर आ गयी कि एक दशक पहले 21 वर्ष की आयु में कुन्द्रा जी "जे सी पैनी" स्टोर से कुछ कमीज़ें चुराते हुए पकडे गये थे। उनकी सज़ा: कमीज़ों का मूल्य, 100 डॉलर दण्ड और 80 घंटे की समुदाय सेवा। [पूरी खबर पढने के लिये यहाँ क्लिक कीजिये।]

लेकिन ताज़ी खबर इन सब छोटी-मोटी खबरों का बाप है। डेलावेयर में अंडर कवर एजेंटों ने भारतीय मूल के एक इलेक्ट्रॉनिक्स डीलर को एक स्टिंग ऑपरेशन द्वारा पकडा गया है। हथियारों के ईरानी दलाल आमिर अर्देबिल्ली को प्रतिबन्धित उपकरण (सैन्य इस्तेमाल में आने वाले माइक्रोवेव रेडियो) बेचने के आरोप को स्वीकार करके विक्रमादित्य सिंह ने अपनी सज़ा को 6 मास की नज़रबन्दी और एक लाख डॉलर के ज़ुर्माने तक सीमित कर दिया। सज़ा पूरी होने पर उन्हें देशनिकाला देकर भारत भेज दिया जायेगा।

वैसे तो खबर में ऐसा कुछ खास न दिखे परंतु 34 वर्षीय विक्रमादित्य सिंह राष्ट्रीय लोक दल के अमेरिका-शिक्षित अध्यक्ष और किसान नेता अजित सिंह के दामाद हैं। यदि निर्वासन के बाद वे सक्रिय राजनीति में आयें और अपने ससुर द्वारा मांगे जा रहे भविष्य के हरित प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो क्या आपको आश्चर्य होगा?

कुछ साल पहले एक भारतीय कार डीलर कर चोरी के लिये बहियों में हेरफेर करते हुए पकडे गये थे। पिछ्ले दिनों बॉस्टन के एक भारतीय व्यवसायी भारत के बैंकों में भेजी भारी रकम और उस पर होने वाली आमदनी को कर विभाग से छिपाने के प्रयास में कानून की गिरफ्त में आये थे। सोचता हूँ कि भारत स्वाभिमान ट्रस्ट की टक्कर पर कहीं अमेरिका स्वाभिमान ट्रस्ट न शुरू हो जाये।

श्री लक्ष्मी जी सदा सहाय नमः॥

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इस्पात नगरी से - सम्बन्धित कड़ियाँ
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Sunday, March 6, 2011

बबल्स कुमार (मार्च 2009 - फरवरी 2011)

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न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं
भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।

जून 2010 में जब मैंने "श्रीमान बबल्स कुमार की अदाएं" लिखा था, तब यह अहसास नहीं था कि जल्दी ही बबल्स पर एक और पोस्ट लिखनी पडेगी। सन 2009 में बबल्स हमारे घर आया था। अन्दाज़ यह है कि उसका जन्म मार्च 2009 में हुआ था। 13 फरवरी की शाम को उसने अपनी नश्वर देह त्याग दी।


बबल्स (कुमार) शर्मा (2009-2011)
(चित्रों में: बबल्स की अंतिम आरामगाह के दो दृश्य। खुश रहे तू सदा ...)

इसी बीच में हमारे पडोसी की बिल्ली मौली की एक आंख को किसी शरारती बच्चे ने रबड की गोली से आहत कर दिया है। इन्हीं दो घटनाओं की गूंज अभी मन में है। कुछ दिनों के अवकाश के बाद आज फिर थोडी बर्फ गिरी है। बबल्स के बारे में पिछली चित्रमयी पोस्ट पढने के इच्छुकों के लिये:
श्रीमान बबल्स कुमार की अदाएं


[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा Photos by Anurag Sharma]

Saturday, February 26, 2011

मैजस्टिक मूँछें [कहानी: अनुराग शर्मा]

नागोबा डुलाय लागला ...

बिल्कुल वही है। खाल के ऊपर रेंगता है। वही है। मैं भी तो वही हूँ। बैठा भी वहीं हूँ आज तक। तुम जबसे गयीं, निपट अकेला हूँ। वही शनिवार, वही तीसरा पहर, वही अड्डा, वही बेंच। वही आवाज़ें: तिकीट, तिकीट, तिकीट ... जवळे, शिर्वळ, सांगळी, खंडाळा ...। वही नारे: पानी घाळा1, दारू सोडा2, जय महाराष्ट्र ...। हज़ारों मील चला हूँ। फिर भी वहीं बैठा हूँ। यह कैसी उलटबांसी है? सनक गया हूँ क्या? मैं ही इक बौराना?3

"पुढ़े सरका शर्मा जी" ममता इसी बेंच पर मुझसे चिपककर बैठ गयी है। मैं सकुचाता हूँ तो शरारत से कोहनी मारकर कहती है, "शर्मा जी मुझसे इतना शर्माते क्यों हैं?"

अभी जाकर बस में बैठी है। मुझे अपलक देखकर मुस्कुरा रही है। बस चल पड़ी है। अब चेहरा नहीं दिखता। हाथ हिला रही है। वीजे की बस आ गई है। उतरा है। बिना इधर उधर देखे चला आ रहा है। केवल एक दिन रुककर कल चला जायेगा। ममता परसों वापस आ जायेगी। इन्होंने एक दूसरे को कभी देखा नहीं। पर जानते हैं। सुनते हैं मेरी बातें। चुप करूँ तो बारबार पूछते हैं। सप्ताह भर शरारत, सप्ताहांत भर टोकाटाकी। ट्वेंटी फोर सेवन, अराउंड द क्लॉक। लगातार, दिन रात।

"मूँछें कटा लो, बूर्ज्वा, ज़मीन्दार, महंत ..." हमेशा किसी न किसी बात पर टोकता है वीजे।

जाने कहाँ से तुम बीच में आ जाती हो। मंत्रमुग्ध सी कहती हो, "हमेशा ऐसी ही रखना। मैजिस्टिक लगते हो तुम।"

"सफेद हो जायेंगी तब तो कटा लूँ?"

"नहीं, तब तो और भी सुन्दर लगोगे। कटाना मत और रंगना भी मत, नैवर ऐवर!" तुम्हारी अंग्रेज़ी भी तुम्हारे रूप जैसी निर्दोष है।

"मूँछें छोड़, अपनी बता ..." मैं वीजे के कंधे पर धौल जमाता हूँ।

"महानता नहीं है, महानता का क्षुद्र भाव है यह मूँछ ..."

"काका से सुलह हुई क्या?"

"बात मत करो बुड्ढे की। जवान लड़के के बाप को शादी की सूझी है।"

"होता है, होता है, अभी तूने दुनिया देखी कहाँ है।"

"नहीं कटाओगे? अरे, मॉडर्न दिखो। भैया ही रहोगे हमेशा?"

"तू भी भैया ही है ... माया का भैया, भैया जी। बड़ा आया भैया वाला।"

"आय ऐम घाटे, मैनेजर ऑफ दिस ब्रांच। बोले तो ... एचआर को कोई समझ भी है क्या? पहाड़ के झरनों से उठाकर आपको सीधा यहाँ सात तारों के बंजर घाट में भेज दिया। चार महीने में मेरे जैसे भुजंग हो जायेंगे।"

मेजेस्टिक मूँछें
अन्दर तक क्यों दिख जाता है मुझे? साफ दिख रहा है घाटे का डर। कहीं गाँव वालों को पता न लग जाये कि मैं यूपी से हूँ। नया अफसर एक भैया है? पंजाब हो या महाराष्ट्र, यूपी के सब भैये। ये सब तारण के अधिकारी? अभी तो मेरा पहाड़ यूपी में ही हैं। पर, कब तक यूपी में रहेगा? यूपी, उत्तराखंड, उत्तरांचल, कूर्मांचल? यहाँ आने से पहले मैं पहाड़ में रहा ज़रूर था मगर मुझे पहाड़ी कौन कहेगा? पहाड़ी लोग तो मुझे देखते ही मैदान वाला बता देंगे। मैदान, मतलब नीची ज़मीन, तराई, तलहटी, वादी। वादी ... मतलब नर्क4?

कौन हूँ मैं? भोटिया, रंग, नेवारी, गढ़वाली, कुमायूँनी, घाटी, पठान, मंगोल, कोई भी तो नहीं हूँ। पुरखे तो पहाड़ से ही थे। पर वे पहाड़ दूसरे थे - गर्वोन्नत, असीमित, अनंत। तुम्हारे शब्दों में कहूँ तो मैजेस्टिक! लोहित कुण्ड से कश्यप सागर तक, पुरखों के चिह्न आज भी मौजूद हैं। पुरखों के चिह्न? चिह्न तो सब परायी मिल्कियत हैं अब। बस, पुरखे अभी भी हमारे ही हैं। उनको कौन लेगा? सम्पत्ति की कीमत है, बनाने वाले का क्या? ब्रहमपुत्र तुम्हारी हुई, परशुराम हमारे रहे। रेणुका तीर्थ तुम्हारा, रेणु माँ हमारी। खीर तुम्हारी, भवानी हमारी। च्यवनप्राश, अमीरीप्राश, राजभोगप्राश, कोई नाम रख लो, वह सब तुम्हारा, च्यवन बाबा हमारे। आज़ादी तुम्हारी, फाँसी हमारी। अब तो ज्योतिष भी व्यवसाय हो गया है। हर चैनल पर, अखबार में, ज्योतिष की दुकान तुम्हारी, आस बंधाने का दोष हमारा। मन्दिर का धन, संचालन, नियंत्रण तुम्हारा, पूजा हमारी। दान पेटी तुम्हारी, निर्जला व्रत हमारा।

"जेहि विधि राखे राम ...." दादाजी मगन होकर मन्दिर में भजन गा रहे हैं।

हर किसी को अपना अलग घर चाहिये। पाकिस्तान, बांगलादेश, नागालैंड, गोरखालैंड, खालिस्तान, तमिलनाडु, तेलुगु देशम, तेलंगाना, विदर्भ, हरित प्रदेश। और, पुत्रोहम पृथिव्या? अपने ही घर में बेघर! लेकिन ... क्षीरभवानी को भोग कौन लगायेगा? बमियान बुद्धा को भोग कौन लगाता है मूर्ख? भगवान नहीं, तो भोग भी नहीं। मतलब नास्तिक? नहीं! नास्तिक नहीं! दैत्य नास्तिक नहीं, धर्मद्रोही होते हैं। पहले नास्तिकों का साथ लेकर धर्मात्माओं को  मारेंगे। धर्मात्माओं के मिटते ही, अब निर्बल हुए नास्तिकों को भी मिटा देंगे। निश्चिंत धर्मद्रोही फिर अपनी मूर्तियाँ लगायेंगे। मन्दिर विवादित ढांचे हो जायेंगे पर नियंत्रणवादी तानाशाहों की मूर्तियाँ अटल रहेंगी। संघे शक्ति कलयुगे। सेंट पीटर्सबर्ग एक झटके में लेनिनग्राद हो गया, वोल्गोग्राद, स्टालिनग्राद बना! क्या लेनिनग्राद फिर से कभी सेंट पीटर्सबर्ग हो सकता है5? बर्लिन की दीवार अटूट है।6 सद्दाम मामू7 अमर रहें। दानव अजेय हैं8

शिन्दे आता है, विशालकाय। "अरे आप तो ममता मैडम जैसे नाज़ुक हैं। मुम्बई में एक शर्मा दोस्त था मेरा, मुझे लगा वैसे ही होंगे, लम्बे तगड़े" वह कहता नहीं पर उसकी निराशा सुनाई दे रही है कि यह कल का मुळगा यूपी से आ गया अफसरशाही चलाने। हमेशा से यही होता है। श्रीमंत ने कन्नौज से कोटपाल बुलाया था। तब तो हम कुछ नहीं कर पाये थे लेकिन अब बदला ले रहे हैं। हड़ताल कराते हैं। नाटक भी लिखते हैं उसके खिलाफ। बेकार नहीं हैं नाटक। ये नाटक कल इतिहास बदल देंगे। लोग नाटक को इतिहास और इतिहास को कल्पना कहेंगे। वे कहेंगे कि कोटपाल ज़ालिम था। मन्दिर कभी नहीं था। राम भी नहीं थे। अयोध्या नहीं थी। बुद्ध भी नहीं थे। बमियान भी नहीं था। है कोई सबूत तुम्हारे पास? खुदाई करो, दिखाओ कुछ। बमियान के मलबे से भगवान बुद्ध का कंकाल निकालकर अदालत के सामने पेश किया जाये। दूर के इतिहासकारों ने सिद्ध कर दिया है कि बमियान में बुद्ध कभी नहीं थे, अगर कभी थे भी तो उन्हें वैदिक हिंसा से उडाया गया था - 5000 साल पहले। तालेबान सर्व-धर्म समभाव सिखाता है। उम्मत बनाता है, वसुधैव कुटुम्बकम सिखाता है। जिहादी धर्मान्धों की बारूदी सुरंगें चीनी कम्युनिस्ट धर्महंताओं से खरीदी जाती हैं। नया इतिहास लिखो। आर्य-द्रविड़ संघर्ष की कल्पना रचो। अहिंसा परमो धर्मः के सत्य में धर्म हिंसा तथैव च का झूठा पुछल्ला चिपका दो। कलम तोड़ो, बारूद और पैसे से नया इतिहास लिखो। परंतु लिखने को पैसा कहाँ से आयेगा? अपहरण करेंगे, जो मिलेगा उसका, स्त्रियों का, बच्चों का, कर्मचारियों का, पूंजीपतियों का। पूंजी का विरोध? पूंजी के अपहरण से? वाह बेटा वाह! भविष्य देख नहीं सकते, वर्तमान छू नहीं सकते, इतिहास ज़रूर लिखेंगे, ये मौकापरस्त कीड़े।

इतिहास का कीड़ा पास आ गया है। सरदारजी बोल रहे हैं, "पुच्छमित्तर छुंग"। ब्लैकबोर्ड पर लिख रहे हैं, "पुष्यमित्र शुंग"। बोलने का इतिहास अलग, लिखने का अलग, भोगने का अलग। घर की ईमानदारी अलग, दफ्तर की अलग। मन्दिर का धर्म दूसरा, दुकान का तीसरा? फिर चौथा, पाँचवाँ ...? पाँव पर किसी के रेंगने का वह चिपचिपा, लिजलिजा अहसास। पानी घाळा नारू टाळा9। घर-घर में नारू का प्रकोप है। नारू का कीड़ा, खाल में घुसकर शरीर भर में घूमता रहता है। कैसा लगता होगा? पानी उबालेंगे तो नारू नहीं आयेगा। पर जो आ गया, वह नहीं जायेगा। पर यह नारू नहीं है। अज़गर है क्या? नहीं, यह नाग है। अज़गर जैसे कसता नहीं, डसता है। नारू के जैसे खाल के अन्दर छिपता नहीं, दबंगई से ऊपर रेंगता है।

भोले-भाले, सरल लोग हैं। कभी भी कहीं भी खाने लगते हैं। कभी भी कहीं भी दाँत मांजने लगते हैं। अभी-अभी रुकी बस में बैठी बहिनी कोयले के चूरे से दाँत साफ कर खिड़की से बाहर थूक रही है। थुंको नका। थुंको नका।

एक सुन्दरी मेरे पास आकर कुछ पूछती है। थोड़ी मराठी समझने लगा हूँ पर वह मराठी नहीं बोलती है। फिर भी उसकी मांग समझ आती है। हाथ बढ़ाता हूँ, वह बोतल ले लेती है। मुँह से छुए बिना, साँस रोककर पूरी बोतल पी जाती है। तृप्त हुई। अमृत अधरों से होकर गर्दन भिगोता हृदय तक आता है। मैं सामान्य क्यों नहीं हूँ? अन्दर तक क्यों दिखता है मुझे? उसकी नज़र बचाकर वीजे मुझे आँख मारता है। अचानक गर्मी का अहसास होता है। लेकिन बोतल अब खाली है। कमाल है, पूरे बस अड्डे पर पानी का इंतज़ाम बिल्कुल नहीं है। लोग प्यासे हैं, बेचैन हैं। उनकी प्यास के लिये प्रशासन नहीं मनु ज़िम्मेदार हैं। यहाँ कैसे हो, पानी तो गंगा, यमुना, कावेरी, कहीं भी नहीं बचा है। सब नदियाँ नाला भईं! उसके लिये चाणक्य ज़िम्मेदार है। उसी ने भरा की जड़ में मट्ठा डाला था। पानी को भूल जाओ, मनु को गाली दो, चाणक्य का पुतला जलाओ। उफ़्फ़, सुई जैसा कुछ चुभा अचानक।

शिन्दे बता रहा है, "पोटनीसांचे वड़गाँव10 आज भी दूर दूर तक मशहूर है। बहुत खुशहाली थी यहाँ। गांधीवध के बाद खड़े खेत जला डाले। गांधीद्रोही, देशद्रोही कहकर उजाड़ दिया ब्राह्मणों के घरों को, तोड़ दिया खलिहानों को।"

ब्राह्मण खत्म हुए। जो बचे वे पुणे, मुम्बई, दिल्ली, लंडन चले गये। पोटनीस अब कभी भी वापस नहीं आयेंगे। उनके बनाये ताल, बांध, सब मिटा दिये गये। 1948 में पहली बार सूखा पड़ा था यहाँ। तब से अब तक सब बर्बाद हो गया है। बस्ती के बाहर उजड़े मन्दिर की दशा आज भी वही दास्ताँ बयान करती है। गाँव के नाम से पोटनीसांचे हटाने का आन्दोलन चल रहा है। नया नाम शायद ज्योतिबाफुलेग्राम होगा। मन्दिर का जलकुंड सूख चुका है। लोग प्यासे हैं। मन्दिर की जगह किसी राजनेता की मूर्ति लगेगी। पुरखों के चिह्न?

पंडितों के दरवाज़ों पर कोयले से निशान लगाये जा रहे हैं। "धर, कल यह घर खाली चाहिये।" 1989 में पहली बार काली बर्फ गिरी थी। बकवास है, बर्फ कभी काली नहीं होती। पण्डित कभी कश्मीर में नहीं रहते थे। पण्डित नेहरू को गौस अली ग़ाज़ी का रिश्तेदार बता दो। बाकी काम अपने आप हो जाएगा। वादी ... मतलब नर्क। भूखे नंगे शरीर गैस चैम्बर में लाये जा रहे हैं। क्या हिटलर कभी हारेगा? यहूदियों को उनका इसराइल वापस मिलेगा? क्या वे शांति से रह पायेंगे? इस्राइल बन भी गया तो क्या यहूदियों से भी अधिक सताये गये रोम11 और डोम12 लोगों को अपना घर मिलेगा? क्या रोम यूरोप में और डोम मध्य-पूर्व में अनंत काल तक भटकेंगे? त्रिशंकु को चैन कब मिलेगा?

कमनीय लड़की चली गयी है। कन्नड़ बोल रही थी। लेकिन, ... कन्नड़ तो मुझे अच्छी तरह आती है। ठीक तो है, तभी तो समझ सका उसकी बात। प्यास को किसी भाषा की ज़रूरत नहीं होती। दोष जल-प्रबन्धन का नहीं है। दोष जाति का है, क्षेत्र का है। दोष भाषा का है। तुम तो अंग्रेज़ी और तमिळ बोलती थीं। हिन्दी का एक शब्द भी नहीं जानती थीं। सीखी भी नहीं। हमारा संवाद फिर भी था। कैसे? संस्कृत वाक्? तमिळ संगम? मौन रागम्? मुझसे क्यों डरती थीं तुम? हम तुम्हारी भाषा, संस्कृति क्यों मिटायेंगे? हमारी तो स्वयम् की भाषा, संस्कृत, संस्कृति सब मिट गयी। अपने ही देश में बेगाने हो गए। हाशिये पर भेजकर धीरे धीरे शांत कर दिये गए। ॐ शांतिः शांतिः शांतिः! यह कोई मामूली सुई नहीं, तीक्ष्ण तीर है। पाँव पर रेंगते नाग ने मुझे डस लिया है शायद। फुफकार तो सुनाई नहीं दी। काल की लाठी बेआवाज़ होती है। क्या यह नाग मेरा काल है?

गीत चल रहा है, "यम के दूत बडे मरदूतैं, यम से पड़ा झमेला... उड़ जायगा... हंस अकेला"।13 वीजे को कुमार गंधर्व पसन्द नहीं हैं। वह मेरे कमरे में खड़ा नाक भौं सिकोड़ रहा है। उसके मूँछ नहीं है।

"हंस अकेला ... ये क्या रोन्दू गाने सुनते रहते हो?" वीजे हमेशा टोकता रहता है।

"हवा हवा, खालेद, पॉप? पाकिस्तान, अरब, अमेरिका? क्या चाहिए?"

"आजकल ग़ज़ल का चलन है" वह कैसेटों के ढेर में छिप सा गया है।

"ये लो ग़ुलाम अली, जगजीत सिंह .... सब तो हैं।"

शिन्दे अपने दोस्त शर्मा के बारे में बताते हुए तैश में आ गया है, "मुम्बई में शर्मा क्यों नहीं होगा? गुजराती, बंगाली, अन्ना, बाबा सब है वहाँ, बस मराठा माणस नहीं है। है भी तो फक्त हम्माली (शारीरिक श्रम) करता है। घाटी (पहाड़ी/मराठी) शब्द तो एक गाली है मुम्बई में।"

देश में कहीं भी चले जाओ, स्थानीय आदमी अबला ही है। सदा का सताया हुआ, सहमा हुआ, शोषित, पद-दलित। घर का जोगी जोगड़ा, ठग बाहर का सिद्ध! सताया हुआ आदमी कोई भी अपराध कर सकता है। उसे सज़ा नहीं होती, उससे वार्ता होती है। उसके लिये पैकेज बनते हैं। पैकेज से समृद्धि आती है। यह विकास का मार्ग है। विकासमार्गी, प्रगतिशील, उन्नत वर्ग की दिशा-दशा। इसीलिये आम आदमी को विद्रोह करने के लिये तैयार करते हैं ये नरभक्षी। उसे सुसाइड बॉमर बनाते हैं। भूसा तैयार है। जिस किसी के पास दियासलाई की एक तीली हो, आ के जला दे। अरे, कोई है?

इस मुल्क ने जिस शख्स को जो काम था सौंपा,
उस शख्स ने उस काम की माचिस जला के छोड़ दी14

शिन्दे चाय लेने अन्दर चला गया है। दीवार पर भीमराव आम्बेडकर की बड़ी सी तस्वीर है। मैं ध्यान से देखता हूँ। वाद-विवाद में हमेशा प्रथम आता था मैं। नर्सरी से कॉलेज तक, कभी भी लिखा हुआ भाषण नहीं पढ़ा। आम्बेडकर पर प्रतियोगिता थी। भाषण प्रतियोगिता में दस हज़ार रुपये का इनाम? पहले कभी सुना नहीं था। पहली बार स्टेशन जाकर आम्बेडकर पर एक किताब खरीदी थी। कितनी मेहनत करके भाषण की तैयारी की थी। जीवन का सबसे अच्छा भाषण उसी दिन दिया था। मुझे कोई इनाम नहीं मिला। जो जीते वे तो सांत्वना पुरस्कार के लायक भी नहीं थे। एक निर्णायक ने बाद में मुझे बाहर ले जाकर कहा, "एक शर्मा को इनाम देना तो उलटबाँसी हो जाता।" तुम्हें क्या मालूम उलटबाँसी क्या होती है? उलटबाँसी में विरोधाभास नहीं होता है। तुमने कबीर को केवल पढ़ा है। हम तो दिन रात कबीर को जीते हैं। पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ ...।

चर्बी का चलता फिरता ढेर अपने झोले में से टॉर्च निकालकर ग़रीब किसान-मज़दूरों को आशा की किरण दिखा रहा है। मज़दूर सम्मोहित से बैठे हैं। मुझे स्पष्ट दिख रहा है कि झोले के अन्दर बंधी हुई आशा छटपटाकर चिल्लाने की कोशिश कर रही है। जब तक मैं कुछ करूँ चर्बी के ढेर ने उसका गला दबा दिया है। मैं बेंच से उठना चाहता हूँ परंतु मेरा दर्द बढ़ता जा रहा है। क्या मेरा दर्द आशा के दर्द से, मज़दूरों की मजबूरी से बड़ा है? मज़दूरों को अभी भी किरण की आशा है। मेरी चुभन और बढ़ गयी है। मुझे लगा था कि नाग अपना ज़हर मुझमें उड़ेलेगा मगर यह तो उलटा मेरा खून पीने लगा है। हवा तेज़ हो गयी है। हवा में उड़ते कूड़े में सुन्दरी की फेंकी खाली बोतल भी है। दर्द असहनीय हो गया है।

"ग़ज़लें तो अच्छी सुना करो, जैसे कि पंकज उद्हास...।"

"देखो वह है तो एक, उधर ..."

"यह उसकी सबसे बेकार ऐलबम है ... अरे कुछ नशा, शराब, मय....पीना, पिलाना ..."

"पीजिये," शिन्दे चाय लेकर आता है, मुझे चित्र देखता पाकर झेंपता हुआ कहता है, "अम्बेडकर की तस्वीर मैंने नहीं लगाई है। वह तो मकानमालिक ने पहले से ही लगाकर रखी थी। ... हम वो नहीं हैं जो आप समझ रहे हैं।"

मैं उठकर चलने का प्रयास करता हूँ मगर हिल भी नहीं पाता। बैंच और मैं एकाकार हो गये हैं। नहीं, यह असम्भव है। नाग ने मुझे जकड़ रखा है। वह मज़े से मेरा खून पी रहा है। ख़बरें आती जा रही हैं, उत्तराखंड अलग हो गया है। नन्द ऋषि की दरगाह अब चरारे-शरीफ़ कहलायेगी। परशुरामपुरी का नया नाम कुल्हाड़ा पीर है। सम्पत्ति तुम्हारी हो गयी तो क्या, पुरखे तो मेरे हैं। उनका नाम मत छीनो। वड़गाँव ले लो, दरगाह ले लो परंतु नन्द ऋषि को मत मारो, धर और पोटनीस को बेघर मत करो।

लोग प्यासे हैं। अब प्लास्टिक की बोतल में पानी है, मगर गन्दा, नाले का पानी। लेबल पर अभी भी अंग्रेज़ी में गैंजेस लिखा है। नाग मुझे छोड़ देता है। वह झूम रहा है। मानो नशे में हो। अब मैं ठीक हूँ। बेंच से उठ भी सकता हूँ शायद। मगर उठता नहीं। तुम जो पास नहीं हो। अलगाव ज़रूरी था क्या?

नाग मदमस्त होकर गा रहा है, "विलांची नागिन निगाली, नागोबा डोलाय लागला15!"

तुम गुस्से में कहती हो, "डोन्ट इम्पोज़ हिन्दी ऑन अस।"

वीजे हँसकर कहता है, "मूँछें कटा लो।"


[समाप्त]
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1 पानी घाळा = पानी उबालो (मराठी)
2 दारु सोडा = शराब छोडो (मराठी)
3 सगरी दुनिया भई सयानी, मैं ही इक बौराना ~ संत कबीर (विप्रमतीसी)
4 नर्क = नीची ज़मीन (संस्कृत)
5,6,7,8 तब का सच अब झूठ साबित हो चुका है
9 पानी घाळा नारू टाळा = पानी उबालने से नारू (हुकवर्म) से बच सकते हैं।
10 पोटनीस ब्राह्मणों का वड़गाँव
11 रोम (gypsy) = महमूद गज़नबी, मुहम्मद गौरी और तैमूर लंग के हमलों के समय भारत से विस्थापित हुई वे जनजातियाँ जो आज तक यूरोप में सताई जा रही हैं। इनकी भाषा रोमानी है।
12 डोम = रोम (gypsy) की वे शाखाएँ जो मध्य-पूर्व में गन्धार, उज़्बेकिस्तान और ईरान से लेकर फिलिस्तीन, सीरिया और तुर्की तक पाई जाती है। यह शिल्पकार लोग आज भी मौलिक मानवाधिकारों से वंचित हैं। इनकी अपनी बोलियों (डोमरी, चूड़ेवाली, मेहतर, कराची) के शब्द आज की हिन्दी जैसे ही हैं।
13 संत कबीर की एक रचना
14 पीयूष मिश्र का संवाद, गुलाल फिल्म से (इसे फिल्म की सिफारिश न समझें)
15 एक मराठी लोकगीत
[Hindi Short Fiction: Majestic Moustache]

Monday, February 21, 2011

डीसी डीसी क्या है? [इस्पात नगरी से-37]

संसद भवन
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न्यू योर्क और वाशिंग्टन डीसी के रिक्शा के बारे मै मेरी एक पिछ्ली पोस्ट पर एक मित्र का प्रश्न था, "यह डीसी क्या है?" बहुत अच्छा सवाल था, काफी लोगो के मन मे हो सकता है| मैने सोचा कि एक पोस्ट लिखकर बता दिया जाये तो बेह्तर रहेगा| वाशिंगटन डी सी (Washington DC) संयुक्त राज्य अमेरिका की राष्ट्रीय राजधानी का नाम है| यहाँ डीसी का अर्थ है डिस्ट्रिक्ट ऑफ़ कोलंबिया (DC = District of Columbia) |

वाशिंगटन डी सी की स्थापना १६ जुलाई १७९० को हुई| उन दिनों अमेरिका के लिए काव्यमय नाम "कोलंबिया" प्रचलित था इसलिए इस नए नगर का नाम "टेरिटरी ऑफ़ कोलंबिया" रखा गया था| देश के प्रथम राष्ट्रपति जोर्ज वाशिंगटन के नाम पर इस नगर का नामकरण हुआ "वाशिंगटन - डिस्ट्रिक्ट ऑफ़ कोलंबिया" या सूक्ष्म रूप में वाशिंगटन डीसी|

विश्व युद्ध स्मारक
यह नगर १७ नवम्बर १८०० को अमेरिका की राजधानी बना| इससे पहले न्यू योर्क और फिलाडेल्फिया नगरों को राष्ट्रीय राजधानी रहने का गौरव प्राप्त है|
न्यू योर्क - ४ मार्च सन १७८९ से ५ दिसंबर १७९० तक
फिलाडेल्फिया - ६ दिसंबर १७९० से १४ मई १८०० तक

पोटोमाक नदी के उत्तरी किनारे पर स्थित यह नगर वर्जिनिया और मेरीलैंड से छूता है. नयी दिल्ली और चण्डीगढ़ की तरह डीसी भी किसी राज्य का हिस्सा न होकर एक केंद्र शासित क्षेत्र के रूप में अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखता है|

वाशिंगटन स्मारक
इस नगर का क्षेत्रफल लगभग १७७ वर्ग किलोमीटर है| स्मारकों से भरे इस नगर का पांचवां भाग उद्यान क्षेत्र है| एक मेयर के नेतृत्व में एक तेरह सदस्यीय नगर पालिका डीसी का प्रशासन संभालती है परन्तु केंद्र सरकार इस नगर पालिका के किसी भी निर्णय को पलट सकती है| संयुक्त राज्य अमेरिका की राष्ट्रीय संसद में डी सी से एक नामित सांसद के अतिरिक्त कोई चुना हुआ प्रतिनिधि नहीं होता है| १९६१ में हुए २३ वें संविधान संशोधन से पहले यहाँ के नागरिकों को राष्ट्रपति चुनाव में मतदान का अधिकार तक नहीं था|
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सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा::Photos by Anurag Sharma
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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Wednesday, February 16, 2011

वाट्सन आया [इस्पात नगरी से -36]


1964 में आरम्भ हुआ कार्यक्रम जेपर्डी (Jeopardy!) टीवी पर आने वाले सबसे पुराने सामान्य ज्ञान प्रहेलिका कार्यक्रमों में से एक है। कठिनाई से ही टीवी के सामने बैठने वाला मैं भी अपनी श्रीमती जी के कठोर अनुशासन में इस कार्यक्रम को नियमित सपरिवार देखता हूँ। ऐलेक्स ट्रेबैक की यजमानी वाले इस कार्यक्रम में तीन प्रतिस्पर्धी होते हैं जो विभिन्न श्रेणियों में पूछे गये अलग-अलग मूल्य के प्रश्नों के उत्तर देकर नकद पुरस्कार पाते हैं।

इस बार के कार्यक्रम में पिछ्ली प्रतियोगिताओं के दो महान चैम्पियन ब्रैड रटर (Brad Rutter) और कैन जेनिंग्स(Ken Jennings) को बुलाया गया था वाटसन (Watson) से मुकाबला करने। कार्यक्रम का यह प्रकरण क्रांतिकारी था क्योंकि वाटसन कोई व्यक्ति नहीं बल्कि आईबीएम द्वारा निर्मित ऐसा विशालकाय कम्प्यूटर (supercomputer) है जो मानव भाषा में पूछे गये प्रश्नों का निर्णायक उत्तर देने की क्षमता रखता है। तो क्या गूगल सर्च के बेतुके उत्तरों के दिन पूरे हो गये? आइये देखते हैं कि वाटसन ने कार्यक्रम में क्या किया?

आज जब पूछा गया कि किस भाषा की 4000 वर्ष पुरानी एक बोली "वैदिक" कहलाती है तो वाटसन ने तुरंत संस्कृत कहा। इस्पात नगरी से सम्बन्धित प्रश्न (सही उत्तर: पिट्सबर्ग) में वाटसन के सम्भावित उत्तरों में एक जमशेदपुर भी था। तीन दिन चले इस कार्यक्रम के दौरान कई रोचक तथ्य भी सामने आये। मसलन, कल के कार्यक्रम में "अमेरिकी नगरों" की श्रेणी में एक प्रश्न के उत्तर में वाटसन ने टोरंटो लिखा। सही उत्तर शिकागो था। शायद हम सभी एक स्वर में टोरंटो को "कैनाडा का नगर" कहेंगे परंतु सच्चाई यह है कि कैनाडा में केवल एक टोरंटो है जबकि सं. रा. अमेरिका में आठ नगरों का नाम टोरंटो है। उत्तर गलत था परंतु उस श्रेणी में वाटसन ने अपने अज्ञान को आंकते हुए केवल $947 का मामूली खतरा लिया था और कुल $35,734 जीतकर दोनों मानवों से आगे रहा। दोनों मानवों ने मिलाकर कुल $15,200 जीते। आश्चर्य नहीं कि वाटसन आज भी जीता और एक बडे अंतर के साथ इस प्रतियोगिता का चैम्पियन घोषित हुआ है। तीन दिन चले कार्यक्रम में तीनों विजेताओं की कुल आय क्रमशः $77,147 (वाटसन), $24,000 (केन) और $21,600 (ब्रैड) रही।

आइबीएम ने वाटसन के तीन दिन का विजेता होने के दस लाख डॉलर समेत समस्त पुरस्कार राशि को वर्डविज़न नामक स्वयंसेवी संस्था को दान देने की घोषणा की है। अन्य प्रतिस्पर्धी भी इस बार के कार्यक्रम की अपनी आय का आधा अपनी चहेती संस्थाओं को दान करेंगे।

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
आई बी एम वाटसन का आधिकारिक पृष्ठ
जेपर्डी - आधिकारिक पृष्ठ
जेपर्डी पर अंग्रेज़ी विकीपीडिया पृष्ठ
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Monday, February 14, 2011

टोड - कहानी - अंतिम भाग

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मैं चिंटू के साथ बाहर आया तो देखा कि लॉन के एक कोने में एक बड़े से टोड के सामने तीन छोटे टोड बैठे थे। नन्हें बच्चे की कल्पनाशीलता से होठों पर मुस्कान आ गयी। सचमुच बच्चों के सामने टोड मास्टर जी बैठे थे।

टोड कहानी का भाग एक पढने के लिये यहाँ क्लिक करें
अब आगे की कहानी:

दिन बीते, एक रविवार को मैं दातागंज में था। उसी जूनियर हाई स्कूल के बाहर जहाँ की एक एक ईंट किसी पशु का नाम ले-लेकर मेरी कल्पनाशीलता पर तंज़ कस रही थी। सुनसान इमारत। बाहर मैदान में कुछ आवारा पशु घूम रहे थे। मैं स्कूल के फ़ोटो ले रहा था तभी लाठी लिये एक बूढे ने पास आकर कहा, "हमरा भी एक फोटू ले ल्यो।"

मुझे तो बैठे-बिठाये एक अलग सा फ़ोटो मिल गया था। मैंने अपने नये सब्जेक्ट को ध्यान से देखा, "अरे, तुम मूखरदीन हो क्या?"

"हाँ मालिक, आपको कैसे पता लगो?

"मैं यहाँ पढता था, आरपी रंगत जी कहाँ रहते हैं आजकल?"

"आरपी... रंगत..." वह सोचने लगा, "अच्छा बेSSS, बे तौ टोड हैंगे।"

"अबे तू भी तो मुर्गादीन था" मैंने कहना चाहा परंतु उसकी आयु के कारण शब्द मुँह से बाहर नहीं निकल सके, "हाँ, वही। कहाँ रहते हैं?"

"साहूकारे मैं, उतै जाय कै, पकड़िया के उल्ले हाथ पै" उसने हाथ के इशारे से बताया। मैने उसका फ़ोटो कैमरा के स्क्रीन पर दिखाया तो वह अप्रसन्न सा दिखा, "निरो बेकार हैगो। ऐते बुढ़ाय गये का हम? कहूँ नाय, तुमईं धल्ल्यो जाय।"

मैं तेज़ कदमों से साहूकारे की ओर बढ़ा। कभी हमारा भी एक घर था वहाँ। आज तो शायद ही कोई पहचानेगा मुझे। चौकीदार के बताये पाकड़ के पेड के सामने कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। "आरपी रंगत" का नाम किसी ने नहीं सुना था। जब मैने बताया कि वे जूनियर हाई स्कूल में पढाते थे तो सभी के चेहरे पर अर्थपूर्ण मुस्कान आ गयी और वे एक दूसरे से बोले, "अबे, टोड को पूछ रहे हैं ये।"

एक लड़का मुझे पास की गली में एक जर्जर घर तक ले गया। कुंडी खटकाई तो मैली धोती में एक कृषकाय वृद्ध बाहर आया। अधनंगे बदन पर वही खुरदुरी त्वचा।

"किससे मिलना है?" आवाज़ में वही चिरपरिचित स्नेह था।

"नमस्ते सर! सकल पदारथ हैं जग माही..." मैने अदा के साथ कहा।

"अहा! होइहै वही जो राम रचि राखा..." उन्होने उसी अदा के साथ जवाब दिया, "अरे अन्दर आओ बेटा। तुम तो निरे गंजे हो गये, पहचानते कैसे हम?"

लगता था जैसे उनकी सारी गृहस्थी उसी एक कमरे में समाई थी। एक कुर्सी, एक मेज़, और ढेरों किताबें। कांपते हाथों से उन्होंने खटिया के पास एक कोने में पडे बिजली के हीटर पर चाय का पानी रखा और फिर निराशा से बोले, "अभी है नहीं बिजली।"

मैं एक स्टूल पर बैठा सोच रहा था कि बात कहाँ से शुरू करूँ कि उन्होंने ही बोलना शुरू किया। पता लगा कि उनके कोई संतान नहीं थी। पत्नी कबकी घर छोडकर चली गयीं क्योंकि वे जहाँ भी जातीं आवारा और उद्दंड लडकों के झुन्ड के झुन्ड उन्हें "मिसेज़ टोड" कहकर चिढाते रहते थे।

जब तक नौकरी रही, लड़कों के व्यंग्य बाण सुने-अनसुने करके विद्यालय जाते रहे। अब तो जहाँ तक सम्भव हो घर में ही रहते हैं।

"ज़िन्दगी नरक हो गयी है मेरी" उनका विषाद अब मुझे भी घेरने लगा था।

वे अपनी बात कह रहे थे कि एक गेंद खिड़की से अन्दर आकर गिरी। शायद उन्हीं लडकों की होगी जो बाहर नुक्कड़ पर क्रिकेट खेल रहे थे। गेन्द की आमद से उनकी कथा भंग हुई। उन्होंने एक क्षण के लिये गेन्द को देखा फिर उठकर मेरी ओर आये और बोले, "तुम तो सबके चहेते छात्र थे। तुम्हें ज़रूर पता होगा। बताओ, मेरे साथ यह गन्दा मज़ाक किसने किया?"

"मेरा नाम टोड किसने रखा था?"

तभी दरवाज़ा खुला और एक 7-8 वर्षीय लड़का अन्दर आकर बोला, "हमारी गेन्द अन्दर आ गयी है टोड।"

[समाप्त]

Sunday, February 13, 2011

टोड - कहानी - भाग एक

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"देखो, देखो, वह टोड मास्टर और उसकी क्लास!" चिंटू खुशी से उछलता हुआ अन्दर आया।

मैंने उसे देखा और मुस्करा दिया। वह इतने भर से संतुष्ट न हुआ और मेरा हाथ पकड़कर बाहर खींचने लगा।

"बस ये दो पन्ने खत्म कर लूँ फिर आता हूँ" मैंने मनुहार के अन्दाज़ में कहा।

"तब तक तो क्लास डिसमिस भी हो जायेगी..." उसने हाथ छोड़े बिना अपनी मीठी वाणी में कहा।

"देख आओ न, बच्चे कॉलेज चले जायेंगे तब अकेले बैठकर तरसोगे इन पलों के लिये..." चिंटू की माँ ने रसोई में बैठे-बैठे ही तानाकशी का यह मौका झट से लपक लिया।

"अकेले रहें मेरे दुश्मन! मैं तो तुम्हें सामने बिठाकर निहारा करूंगा" मैं भी इतनी आसानी से आउट होने वाला नहीं था।

"हाँ, मैं बैठी रहूंगी और बना बनाया खाना तो आसमान से टपका करेगा शायद" उन्होंने नहले पे दहला जड़ा।

मैं चिंटू के साथ बाहर आया तो देखा कि लॉन के एक कोने में एक बडे से टोड के सामने तीन छोटे टोड बैठे थे। नन्हें बच्चे की कल्पनाशीलता से होठों पर मुस्कान आ गयी। सचमुच बच्चों के सामने टोड मास्टर जी बैठे थे।

टोड मास्टर जी कक्षा के बाहर अपनी कुर्सी पर बैठे हैं। सभी बच्चे सामने घास पर बैठे हैं। मैं, दिलीप, संजय, प्रदीप, कन्हैया, सभी तो हैं। सर्दियों में कक्षा के अन्दर काफी ठंड होती है सो धूप होने पर कई अध्यापकगण अपनी कक्षा बाहर ही लगा लेते हैं। टोड जी भी ऐसे ही दयालुओं में से एक हैं। वैसे उनका वास्तविक नाम है आर.पी. रंगत मगर आजकल वे सारे स्कूल में अपने नये नाम से ही पहचाने जाने लगे हैं।

प्रायमरी स्कूल की ममतामयी अध्यापिकाओं की स्नेहछाया से बाहर निकलकर इस जूनियर हाई स्कूल के खडूस, कुंठित और हिंसक मास्टरों के बीच फंस जाना कोई आसान अनुभव नहीं था। गेंडा मास्साब ने एक बार संटी से मार-मारकर एक छात्र को लहूलुहान कर दिया था। छिपकल्ली ने एक बार जब डस्टर फेंककर मारा तो एक बच्चे की आंख ही जाती रही थी।

सारे बच्चे इन राक्षसों से आतंकित रहते थे। डरता तो मैं भी था परंतु रफी हसन के साथ मिलकर मैंने बदला लेने का एक नया तरीका निकाल लिया था। हम दोनों ने इस जंगलराज के हर मास्टर को एक नया नाम दे दिया था। उनके नाक-नक्श, चाल-ढाल और जालिम हरकतों के हिसाब से उन्हें उनके सबसे नज़दीकी जानवर से जोड़ दिया था।

जब हमारे रखे हुए नाम हमारी आशा से अधिक जल्दी सभी छात्रों की ज़ुबान पर चढने लगे तो हमारा जोश भी बढ गया। आरम्भ में तो हमने केवल आसुरी प्रवृत्ति के शिक्षकों का नामकरण किया था परंतु फिर धीरे-धीरे सफलता के जोश में आकर हमने एक सिरे से अब तक बचे हुए भले मास्टरों को भी नये नामों से नवाज़ दिया। हमारे अभियान के इसी दूसरे चरण में श्रीमान आरपी रंगत भी अपनी खुरदुरी त्वचा के कारण मि. टोड हो गये।

तालियाँ बजाते चिंटू के उत्साह को दिल की गहराइयों तक महसूस करने के बावज़ूद न जाने क्यों मुझे आरपी रंगत के प्रति किये हुए अपने बचपने पर एक शिकायत सी हुई। उस हिंसक जूनियर हाई स्कूल के परिसर में एक वे ही तो थे जो एक आदर्श अध्यापक की तरह रहे। अन्य अध्यापकों की तरह मारना-पीटना तो दूर उन्होंने अपने घर कभी भी ट्यूशन नहीं लगाई। विद्यार्थी कमरुद्दीन की किताबों का खर्च हो चाहे चौकीदार मूखरदीन की टॉर्च की बैटरी हो, सबको पता था कि ज़रूरत के समय उनकी सहायता ज़रूर मिलेगी।

राम का गायन हो, आफताब की कला प्रतिभा, कृष्ण का अभिनय या मेरी वाक्शैली, इन सब को पहचानकर विभिन्न समारोहों का आकर्षण बनाने का काम भी उन्होंने ही किया था। अधिक विस्तार में जाने की ज़रूरत नहीं है परंतु एक बार जब परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि निरपराध होते हुए भी मुझे विद्यालय से रस्टीकेट होने का समय आया तो मेरी बेगुनाही पर उनके विश्वास के चलते ही मैं बच सका था। यह सब ध्यान आते ही मुझे अपने ऊपर क्रोध आने लगा। अगर मेरे पास उनका फोन नम्बर आदि होता तो शायद मैं उसी समय उनसे अपनी करनी की क्षमा मांगता। परंतु नम्बर होता कैसे? मैने तो वह स्कूल छोड़ने के बाद वहाँ की किसी भी निशानी पर दोबारा नज़र ही नहीं डाली थी।

चिंटू की माँ कहती है कि मेरा चेहरा मेरे मन का हर भाव आवर्धित कर के दिखाता रहता है। पूछने लगी तो मैंने सारी कहानी कह डाली। उन्होंने तुरंत ही यह ज़िम्मेदारी अपने सर ले ली कि इस बार भारत जाने पर वे मुझे अपने पैतृक नगर अवश्य भेजेंगी, केवल रंगत जी से मिलकर क्षमा मांगने के लिये।

[क्रमशः]

Saturday, February 12, 2011

याद तेरी आयी तो - कविता

(अनुराग शर्मा)


सुरमयी यादों की बात ही निराली है
भंडार है अनन्त जेब भले खाली है।

परदे के पीछे से झांक झांक जाती थी
हृदय में रहती वह षोडशी मतवाली है।

थामा था हाथ जो ओठों से चूमा था
रूमानी शाम थी आज भी हरियाली है।

याद तेरी आयी तो सहरा शीतल हुआ
चतुर्मास की सांझ घिरी घटा काली है।

दृष्टि क्षीण हो भले रजतमय केश हों
आज भी अधरों पे याद वही लाली है।

Thursday, February 10, 2011

आपकी गज़ल - इदम् न मम्

व्यवहारिकता शीर्षक से लिखी मेरी पंक्तियों पर आई आपकी सारगर्भित टिप्पणियों को देखकर मन प्रसन्न हो गया। आपने गलतियों को बडप्पन के साथ नज़रअन्दाज़ भी किया और ध्यान भी दिलाया गया तो उतने ही बडप्पन और प्यार से। साथ ही आप की टिप्पणियों से उस रचना के आगे की पंक्तियाँ भी मिलीं। आप सभी का धन्यवाद। सर्वश्री संजय अनेजा, संजय झा, राजेश नचिकेता, प्रतुल वसिष्ठ, सुज्ञ जी, राहुल जी, अली जी और वर्मा जी के योगदान से बनी नई रचना कहीं अधिक रोचक है| आइये आपकी सम्मिलित कृति का आनन्द लेते हैं।

वंचित फल सुगन्ध छाया से
तरु ऊँचा क्या और बौना क्या

जब ज़ाग़* देश को लूट रहे
तो आँख खोलकर सोना क्या

शबनम से क्षुधा मिटाता है
उसे सागर क्या और दोना क्या

काँटों का ताज लिया सिर पर
फिर कठिन घड़ी में रोना क्या

जिस नगर में हम बेभाव बिके
वहाँ माटी क्या और सोना क्या

बहता जल अनिकेत यायावर
वसुधा अपनी कोई कोना क्या

जग सत्य नहीं बस मिथ्या है
इसे पाना क्‍या और खोना क्‍या

जब कर्म की गठरी छूट गयी
खाली घट को संजोना क्या
(*ज़ाग़ = कौव्वे। अली जी, क्या ज़ाग़ शब्द और इसके प्रयोग के बारे में कुछ लिखेंगे?)

धन्यवाद!
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ये शाहिद कबीर कौन हैं?
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Tuesday, February 8, 2011

व्यावहारिकता - कविता


(अनुराग शर्मा)

वो खुद है खुदा की जादूगरी
फिर चलता जादू टोना क्या

जो होनी थी वह हो के रही
अब अनहोनी का होना क्या

जब किस्मत थी भरपूर मिला
अब प्यार नहीं तो रोना क्या

गर प्रेम का नाता टूट गया
नफरत के तीर चुभोना क्या

जज़्बात की ही जब क़द्र नहीं
तो मुफ्त में आँख भिगोना क्या

[क्रमशः]

Tuesday, February 1, 2011

नानृतम् - कविता

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क्या हुआ सब तेज
गुम हुआ वह ओज
मुख मलिन है
ग्रहण जो है
आन्धी घनी औ' धुन्ध भी
गहरा रही है
पूर्वप्रसवा है कुपोषित
दिख रही निष्प्राण सी है
पर हटेगी नहीं
वह टिकेगी यहीं
और जन्म देगी
एक सुन्दर स्वस्थ
नव आशा किरण को
दुश्मन भले फैला रहे
अफवाह झूठी ला रहे
कि चिरयुवा स्थूलकाय
रोज़ नौ सौ चूहे खाय
उस झूठ का इक पाँव
भारी है अभी भी।

Wednesday, January 26, 2011

अनुरागी मन - कहानी भाग 9

पूर्वकथा:
एक अलौकिक सुन्दरी बार-बार दिखती है, वासिफ के घर उससे एक नाटकीय भेंट भी होती है और आशाओं पर तुषारापात भी। हवेली के बाहर आकर वे खो गये थे। आँखों में लाली और हाथों में कुल्हाड़ियाँ लिये दो बाहुबली जब उनकी ओर बढ़े तो उन्हें साक्षात काल का स्पर्श महसूस हुआ। अचानक ही मूसलाधार वर्षा शुरू हो गयी। उनका पाँव कीच भरे एक गड्ढे में पड़ा और धराशायी होने से पहले ही वे अपने होश खो बैठे।

पिछले अंक
भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4; भाग 5; भाग 6; भाग 7; भाग 8

अब आगे:

जब वीर की आँख खुली तो दादाजी के मंत्रोच्चार की जगह कान में किसी के सुबकने की आवाज़ पडी। उन्होने उठने का प्रयास किया तो दायें पंजे से कमर तक पीडा की एक असहनीय तरंग दौड गयी।

"हिलो मत बेटा" यह तो माँ की आवाज़ है। माँ को सिरहाने बैठा देखकर वीरसिंह दंग रह गये।

"मैं तो नई सराय में था माँ, घर कैसे आ गया? यह कोई सपना तो नहीं?"

"भगवान करे सपना ही हो बेटा" माँ ने आंचल से अपने आँसू पोंछते हुए अपूर्व शांति से कहा।

"अरे आप जग गये! अभी चाय लाती हूँ" यह तो रात वाली वही छोटी बच्ची थी। मगर वह तो नई सराय में थी। क्या वे सचमुच जग गये हैं या अभी कोई सपना देख रहे हैं? दिमाग पर ज़्यादा ज़ोर देने की ज़रूरत नहीं पडी। एक नज़र आसपास डालने भर से यह स्पष्ट हो गया कि वे दादाजी के घर में ही थे। उन्हें ध्यान आया कि रात में उस बच्ची के साथ पडोस के भट्ट जी थे। जब तक बच्ची उनके लिये चाय का प्याला लेकर वापस आयी उन्हें उसकी शक्ल भी पहचान में आने लगी थी।

"बरखा?" भट्ट जी की पोती निक्की का नाम यही था।

"जी हाँ, मैं! कल आप घर आने की बजाय वहाँ क्यों घूम रहे थे ... "

"तुम अब घर जाओ बेटा, थोडा आराम करो, आँखों में कितनी नीन्द भरी है!" माँ ने उलाहना सा देते हुए चाय का प्याला बरखा के हाथ से छीन सा लिया।

बरखा चुपचाप कमरे से बाहर निकल गयी। मित्रों को आगे की बात बताते हुए वीर सिंह का गला रुन्ध आया था। माँ से पता लगा कि रात में उन्हें दादाजी के विश्वासपात्र पुत्तू और लखना गड्ढे से निकालकर लाये थे। टांग तो तब तक टूट ही चुकी थी। लेकिन वे दोनों अचानक वहाँ कैसे पहुँचे और फिर कुल्हाडी वालों का क्या हुआ? माँ यहाँ कैसे आयी? भट्ट जी रात में खाना किसके लिये ला रहे थे? निक्की ने घर आने के बजाय "वहाँ" घूमने की बात क्यों की? और फिर निक्की के साथ माँ का अजीब सा व्यवहार! क्या इन सबको परी के बारे में पता चल गया है? धीरे-धीरे पता लगा कि अप्सरा का रहस्य अभी भी किसी पर खुला नहीं था।

परंतु उस भयावह रात की घटनायें जो अभी तक किसी चमत्कार सरीखी लग रही थीं, अब एक एक करके उघड़नी आरम्भ हो गयी थीं। जब वीरसिंह और झरना की कहानी अपने दुखद मोड़ पर थी तभी किसी समय दादाजी को भयंकर हृदयाघात हुआ था। जब तक कोई समझ पाता, उनके प्राणपखेरू उड चुके थे। पिताजी उस समय पूर्वोत्तर के मोर्चे पर विद्रोही आतंकियों से जूझ रहे थे। उन्हें खबर तो कर दी गयी थी मगर उनके समय पर पहुँचने की कोई आशा नहीं थी। वीर के लिये सारी नई सराय में ढुंढेरा पड रहा था। माँ को अपने मायके से यहाँ तक आने में दो घंटे लगे थे। वे दादाजी के दुख के साथ वीर के लिये भी चिंतित थीं। वीर की अनुपस्थिति में दादीजी की इच्छानुसार देर किये बिना शवदाह पुत्तू और लखना के हाथों कराया गया था। वही दोनों दादाजी द्वारा अभी भी पहनी हुई सोने की अंगूठियों के लिये रात में चौकीदारी कर रहे थे जब वीर अनजाने ही भटककर श्मशानघाट पहुँचे थे। आखिर दादा ने अपनी चिता पर से अपने प्यारे पोते को देख ही लिया।

[क्रमशः].

Sunday, January 23, 2011

यथार्थ में वापसी

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snow clad hill
दिसंबर २०१० में भारत आने से पहले मैंने बहुत कुछ सोचा था - भारत में ये करेंगे, उससे मिलेंगे, वहाँ घूमेंगे आदि. जितना सोचा था उतना सब नहीं हो सका.

पुरानी लालफीताशाही, अव्यवस्था और भ्रष्टाचार से फिर एकबारगी सामना हुआ. मगर भारतीय संस्कृति और संस्कार आज भी वैसे ही जीवंत दिखे. एक सभा में जब देर से पहुँचने की क्षमा मांगनी चाही तो सबने प्यार से कहा कि "बाहर से आने वाले को इंतज़ार करना पड़ता तो हमें बुरा लगता."


बर्फीली सड़कें
व्यस्तता के चलते कुछ बड़े लोगों से मुलाक़ात नहीं हो सकी मगर कुछ लोगों से आश्चर्यजनक रूप से अप्रत्याशित मुलाकातें हो गयीं. कुछ अनजान लोगों से मिलने पर वर्षों पुराने संपर्कों का पता लगा. अपने तीस साल पुराने गुरु और उनकी कैंसर विजेता पत्नी के चरण स्पर्श करने का मौक़ा मिला.
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२ अंश फहरन्हाईट
दिल्ली की गर्मजोशी भरी गुलाबी ठण्ड के बाद पिट्सबर्ग की हाड़ कंपाती सर्दी से सामना हुआ तो लगा जैसे स्वप्नलोक से सीधे यथार्थ में वापसी हो गयी हो. वापस आने के एक सप्ताह बाद आज भी मन वहीं अटका हुआ है. लगता है जैसे अमेरिका मेरे वर्तमान जीवन का यथार्थ है और भारत वह स्वप्न जिसे मैं जीना चाहता हूँ
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बर्फ का आनंद उठाते बच्चे
जिस रात दिल्ली पहुँचा था घने कोहरे के कारण दो फीट आगे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था और जिस शाम पिट्सबर्ग पहुँचा, हिम-तूफ़ान के कारण हवाई अड्डे से घर तक का आधे घंटे का रास्ता तीन घंटे में पूरा हुआ क्योंकि लोग अतिरिक्त सावधानी बरत रहे थे. मगर स्कूल बंदी होने के कारण बच्चों की मौज थी. उन्हें हिम क्रीड़ा का आनंद उठाने का इससे अच्छा अवसर कब मिलेगा?
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मिट्टी के डाइनासोर
बिटिया ने अपने पापा के स्वागत में मिट्टी के नन्हे डाइनासोर बनाकर रखे थे. बहुत सी किताबें साथ लाया हूँ. कुछ खरीदीं और कुछ उपहार में मिलीं. मित्रों और सहकर्मियों के लिए भारत से छोटे-छोटे उपहार लाया और अपने लिए लाया भारत माता का आशीर्वाद.

Sunday, January 9, 2011

डाटागंज से कुछ डेटा

रुहेलखंड प्रवास के कुछ चित्र

दातागंज, रामपुर, बरेली, बदायूँ, पापड, फीरोज़पुर आदि की एक चित्रमय यात्रा
गली के मोड पे, सूना सा ... 

सर्दी में वसंत 

राजमार्ग पर यातायात पुलिस
बरेली में पौष के चिल्ला जाडे 
बरेली का प्रसिद्ध मांझा
अपने गाँव की बिल्लियाँ 
गाँव का सूरज

गाँव के खेत में बजरबट्टू 

मेरा विद्यालय - सात वर्षों का गहन नाता

[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photos by Anurag Sharma]