Wednesday, August 8, 2012

दिल है सोने का, सोने की आशा

एमसी मेरीकॉम
अपनी श्रेणी में कई बार विश्वविजेता रहीं मणिपुर की मैरीकॉम से भारत को बड़ी उम्मीदें थीं। काँस्य लाकर भी उन्होंने देश को गर्व का एक अवसर तो दिया ही है साथ ही एक बार यह सोचने को बाध्य किया है कि ओलिम्पिक स्वर्ण पाने के लिये विश्वविजेता होना भर काफ़ी नहीं है। कुछ और भी चाहिये। वह क्या है? आम भारतीयों के बीच आपसी सहयोग और सहनशीलता का रिकॉर्ड देखते हुए दल के रूप में खेले जाने वाले खेलों में तो भारत को अधिक उम्मीद लगाना शायद बचपना ही होगा। लेकिन कम से कम अपनी खुद की ज़िम्मेदारी ले सकने वाली व्यक्तिगत स्पर्धाओं में भारतीयों के चमकने के अवसर बनाये जा सकते हैं। तैराकी जैसे खेलों में तो तकनीक की भूमिका इतनी अधिक है कि भारत जैसे अव्यवस्थित देश को अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुँचने के लिये यात्रा बहुत लम्बी है। हाँ, तीरन्दाज़ी, निशानेबाज़ी, भारोत्तोलन, कुश्ती, मुक्केबाज़ी आदि खेलों के लिये हमारे पास सक्षम खिलाड़ियों की कमी होनी नहीं चाहिये। फिर कमी कहाँ है? शायद हर जगह। खिलाड़ियों के चुनाव, प्रशिक्षण, सुविधायें, पोषण, चिकित्सा, प्रतिस्पर्धाओं से लेकर धन, आत्मविश्वास, राजनीति, और नीति-क्रियान्वयन तक हर जगह सुधार की बड़ी गुंजाइश है।

मैरीकॉम एक-दो बार नहीं पाँच बार (2002, 2005, 2006, 2008 और 2010) विश्व चैम्पियन रह चुकी हैं। लेकिन उन्होंने ये सभी स्वर्ण पदक 46 और 48 किलो की श्रेणियों में जीते है। वर्तमान ओलंपिक स्पर्धाओं में यह भार वर्ग है ही नहीं। यदि उन्हें खेलना होता तो अर्हता के लिये अपना भार बढाकर 51 किलो करना पड़ता जिससे वे फ्लाईवेट श्रेणी में भाग लेने की पात्र बनतीं। उन्होंने यही किया। मुझे नहीं पता कि उन्हें यह जानकारी कब मिली और अपना भार 10% बढाने के लिये उन्हें कितना समय और सहायता मिली। लेकिन इतना स्पष्ट है कि यह निर्णय लेने का मतलब है कि इस बार उनका सामना अपनी नियत श्रेणी से अगली श्रेणी के और अधिक भारी वर्ग के प्रतियोगियों से था जो कि उनकी स्पर्धा को और कठिन करता है। भविष्य में ऐसी चुनौतियों को देख पाने और बेहतर हैंडल करने की सुनियोजित रणनीति आवश्यक है।

दीपिका कुमारी
तीरंदाजी प्रतिस्पर्धा में झारखंड की 18 वर्षीय दीपिका कुमारी की कहानी इतनी मधुर नहीं रही। धनुर्विद्या में प्रथम सीडेड दीपिका को लंदन ओलम्पिक से खाली हाथ आना पड़ा यह खबर शायद उतनी खास नहीं है जितनी यह कि झारखंड के उप मुख्यमंत्री उनका प्रदर्शन देखने के लिये पाँच अन्य व्यक्तियों के साथ आठ दिन तक ब्रिटेन की यात्रा पर थे। एक ऑटो रिक्शा चालक शिव नारायण महतो की बेटी पेड़ों से आम तोड़ने के लिये घर पर बनाये तीर कमान से अपनी यात्रा आरम्भ करके प्रथम सीड तक पहुँच पाती है लेकिन उसका खेल "देखने" के लिये मंत्री जी की विदेश यात्रा से देश की खेल प्राथमिकतायें तो ज़ाहिर होती ही हैं।

एक अन्य स्पर्धा में अमेरिकी टीम द्वारा अपील करने पर पहले विजयी घोषित किये गये भारतीय खिलाड़ी को फ़ाउल्स के आधार पर हारा घोषित किया गया। भारतीय स्रोतों से कहा जा रहा है कि प्रतिद्वन्द्वी अमेरिकी खिलाड़ी ने भी बिल्कुल वही ग़लतियाँ की थीं। यदि यह बात सच है तब हमारे अधिकारी शायद अपना पक्ष सामने रखने में पीछे रह गये। स्पष्ट है कि खिलाड़ियों को खेल सिखाने के साथ अधिकारियों को अपील आदि के नियम सिखाना भी ओलम्पिक की तैयारी का ज़रूरी भाग होना चाहिये।

मिन क्षिया
खेलों में चीन की प्रगति के बारे में काफ़ी चर्चा होती है। 2004 में एथेंस और 2008 में बीजिंग में स्वर्ण जीतने के बाद 26 वर्षीया मिनक्षिया जब लंडन में गोताखोरी का स्वर्ण जीत चुकी तब उसके परिवार ने उसे खबर दी कि उसके दादा और दादी गुज़र चुके हैं तथा उसकी माँ पिछले आठ वर्षों से कैंसर का इलाज करा रही है। चीन के कड़े नियमों में जहाँ किसी परिवार को दूसरा बच्चा पैदा करने की आज्ञा भी नहीं है, किसी खिलाड़ी को ओलम्पिक स्पर्धा से पहले पारिवारिक हानि के समाचार सुनाना शायद खतरे से खाली नहीं होगा। यह घटना कितनी भी अमानवीय लगे यहाँ उल्लेख करने का अभिप्राय केवल यही दर्शाना है कि कुछ देशों के लिये अपने राष्ट्रीय गौरव के सामने नागरिकों के मानवीय अधिकारों को कुचलना सामान्य सी बात है। हमें चीन के स्तर तक गिरने की ज़रूरत नहीं लेकिन उससे पहले भी इतना कुछ है करने के लिये कि यदि हो जाये तो अनेक स्पर्धाओं - विशेषकर व्यक्तिगत - के पदक हमारी झोली में आ सकते हैं। वह दिन जल्दी ही आये, इंतज़ार है। शुभकामनायें!

[The images in this post have been taken from various news sources on Internet.]

Sunday, August 5, 2012

बलवानों को दे दे ज्ञान - इस्पात नगरी से [59]

हर रविवार की तरह जब आज सुबह भारतीय समुदाय के लोग ओक क्रीक, विस्कॉंसिन के गुरुद्वारे में इकट्ठे हुए तब उन्होंने सोचा भी नहीं था कि वहाँ कैसी मार्मिक घटना होने वाली थी। अभी तक जितनी जानकारी है उसके अनुसार गोरे रंग और लम्बे-चौडे शरीर वाले एक चालीस वर्षीय व्यक्ति ने गोलियाँ चलाकर गुरुद्वारे के बाहर चार और भीतर तीन लोगों की हत्या कर दी। इस घटना में कई अन्य लोग घायल हुए हैं। सहायता सेवा पर आये फ़ोन कॉल के बाद गुरुद्वारे पहुँचने वाले पहले पुलिस अधिकारी को दस गोलियाँ लगीं और वह अभी भी शल्य कक्ष में है। बाद में हत्यारा भी पुलिस अधिकारियों की गोली से मारा गया।

सरकार ने इस घृणा अपराध घटना को आंतरिक आतंकवाद माना है और इस कारण से इस मामले की जाँच स्थानीय पुलिस के साथ-साथ आतंकवाद निरोधी बल (ATF) और केन्द्रीय जाँच ब्यूरो (FBI) भी कर रहे हैं। हत्यारे के बारे में आधिकारिक जानकारी अभी तक जारी नहीं की गई है मगर पुलिस ने जिस अपार्टमेंट को सील कर जाँच की है उसके आधार पर एक महिला ने हत्यारे को वर्तमान निवास से पहले अपने बेटे के घर में किराये पर रहा हुआ बताया है। इस महिला के अनुसार हाल ही में इस व्यक्ति का अपनी महिला मित्र से सम्बन्ध-विच्छेद भी हुआ था।

यह घटना सचमुच दर्दनाक है। मेरी सम्वेदनायें मृतकों और घायलों के साथ हैं। दुख इस बात का है कि अमेरिका में हिंसा बढती दिख रही है। कुछ ही दिन पहले एक नई फ़िल्म के रिलीज़ के पहले दिन ही एक व्यक्ति ने सिनेमा हॉल में घुसकर सामूहिक हत्यायें की थीं। कुछ समय और पहले ठीक यहीं पिट्सबर्ग के मनोरोग चिकित्सालय में घुसकर एक व्यक्ति ने वैसा ही कुकृत्य किया था। हिंसा बढने के कारणों की खोज हो तो शायद हर घटना के बाद कुछ नई जानकारी सामने आये लेकिन एक बात तो पक्की है। वह है अमेरिका का हथियार कानून।

अधिकांश अमेरिकी आज भी बन्दूक खरीदने के अधिकार को व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जोड़कर देखते हैं। सामान्य पिस्तौल या रिवॉल्वर ही नहीं बल्कि अत्यधिक मारक क्षमता वाले अति शक्तिशाली हथियार भी आसानी से उपलब्ध हैं और अधिकांश राज्यों में कोई भी उन्हें खरीद सकता है। दुःख की बात यह है कि हथियार लॉबी कुछ इस प्रकार का प्रचार करती है मानो इस प्रकार की घटनाओं का कारण समाज में अधिक हथियार न होना हो। वर्जीनिया टेक विद्यालय की गोलीबारी की घटना के बाद हुई लम्बी वार्ता में एक सहकर्मी इस बात पर डटा रहा कि यदि उस घटना के समय अन्य लोगों के पास हथियार होते तो कम लोग मरते। वह यह बात समझ ही नहीं सका कि यदि हत्यारे को बन्दूक सुलभ न होती तो घटना घटती ही नहीं, घात की कमी-बेशी तो बाद की बात है।

आज की इस घटना ने मुझे डॉ. गोर्डन हडसन (Dr. Gordon Hodson) के नेतृत्व में हुए उस अध्ययन की याद दिलाई जिसमें रंगभेद, जातिवाद, कट्टरपन और पूर्वाग्रह आदि का सम्बन्ध बुद्धि सूचकांक (IQ) से जोड़ा गया था। यह अध्ययन साइकॉलॉजिकल साइंस में छपा है और इसका सार निःशुल्क उपलब्ध है। ब्रिटेन भर से इकट्ठे किये गये आँकड़ों में से 15,874 बच्चों के बुद्धि सूचकांक का अध्ययन करने के बाद मनोवैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि कम बुद्धि सूचकांक वाले बच्चे बड़े होकर भेदभाव और कट्टरता अपनाने में अपने अधिक बुद्धिमान साथियों से आगे रहते हैं। अमेरिकी आँकड़ों पर आधारित एक अध्ययन में कम बुद्धि सूचकांक और पूर्वाग्रहों का निकट सम्बन्ध पाया गया है। इसी प्रकार निम्न बुद्धि सूचकांक वाले बच्चे बड़े होकर नियंत्रणवाद, कठोर अनुशासन और तानाशाही आदि में अधिक विश्वास करते हुए पाये गये।

तमसो मा ज्योतिर्गमय ...
इस अध्ययन का निष्कर्ष है कि बेहतर समझ पूर्वाग्रहों का बेहतर इलाज कर सकती है। वर्जीनिया विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक डॉ. ब्रायन नोसेक (Dr. Brian Nosek) का कहना है कि अधिक बुद्धिमता तर्कों की असंगतता को स्वीकार कर सकती है जबकि कम बुद्धि के लिये यह कठिन है, उसके लिये तो कोई एक वाद या विचारधारा जैसे सरल साधन को अपना लेना ही आसान साधन है।

बुद्धि के विस्तार और व्यक्ति, वाद, मज़हब, क्षेत्र आदि की सीमाओं से मुक्ति के सम्बन्ध के बारे में मेरा अपना नज़रिया भी लगभग यही है। बुद्धि हमें अज्ञान से ज्ञान की ओर सतत निर्देशित करती रहती है। पूर्वाग्रहों से बचने के लिये अपने अंतर का प्रकाशस्रोत लगातार प्रज्ज्वलित रखना होगा। सवाल यह है कि ऐसा हो कैसे? बहुजन में बेहतर समझ कैसे पैदा की जाय? सब लोग नैसर्गिक रूप से एक से कुशाग्रबुद्धि तो हो नहीं सकते। तब अनेकता में एकता कैसे लाई जाये, संज्ञानात्मक मतभेद (Cognitive dissonance) के साथ रहना कैसे हो? मुझे तो यही लगता है कि स्वतंत्र वातावरण में पले बढे बच्चे नैसर्गिक रूप से स्वतंत्र विचारधारा की ओर उन्मुख होते हैं जबकि नियंत्रण और भय से जकड़े वातावरण में परवरिश पाये बच्चों को बड़े होने के बाद भी मतैक्य, कट्टरता, तानाशाही ही स्वाभाविक आचरण लगते हैं। इसलिये हमारा कर्तव्य बनता है कि बच्चों को वैविध्य की खूबसूरती और सुखी मानवता के लिये सहिष्णुता की आवश्यकता के बारे में विशेष रूप से अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करें। इस विषय पर आपके विचार और अनुभव जानने की इच्छा है।
सम्बन्धित कड़ियाँ
* गुरुद्वारा गोलीबारी में सात मृत
* अमेरिका में आग्नेयास्त्र हिंसा
* प्रकाशित मन और तामसिक अभिरुचि
* इस्पात नगरी से - श्रृंखला
अहिसा परमो धर्मः
संगच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्‌।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते॥ (ऋग्वेद 12.191.4)

Thursday, July 26, 2012

मियाँमार की चीख-पुकार

सदाबहार मौसम वाले भाई संजय अनेजा ने खाचिड़ी की कहानी सुनाकर बचपन की याद दिला दी। अपना बचपन उतना धर्म-निरपेक्ष नहीं रहा था, शायद इसीलिये बचपन की चार सबसे पुरानी यादें उस जगह (रामपुर) की हैं जिसका नाम ही देश के एक आदर्श व्यक्तित्व "पुरुषोत्तम" के नाम पर है। इन यादों में से एक मन्दिर, एक गुरुद्वारा और एक पुस्तकालय की है। चौथी अपने एक हमउम्र मित्र के साथ शाम के समय पुलिया पर बैठकर समवेत स्वर में "बम बम भोले" कहने की है। श्रावणमास में "बम बम" भजने का आनन्द ही और है लेकिन लगता है कि मेरी जन्मभूमि अब उतनी धर्मनिरपेक्ष नहीं रही।

आज भी याद है कि बरेली में दिन का आरम्भ ही मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से होता था। अज़ान ही नहीं बल्कि अलस्सुबह उनपर धार्मिक गायन प्रारम्भ हो जाता था। आकाशवाणी रामपुर पर भी सुबह आने वाले धार्मिक गीतों के कार्यक्रम में कम से कम एक मुस्लिम भजन भी होता ही था। हिन्दू-मुसलमान दोनों ही समुदाय समान रूप से जातियों में विभाजित थे। हमारी गली में ब्राह्मण, बनिये और कायस्थ रहते थे। उस गली के अलावा हर ओर विभिन्न जातियों के मुसलमान रहा करते थे। भिश्ती, नाई, दर्ज़ी, बढई, घोसी, क़साई, राजपूत, और न जाने क्या-क्या? मुसलमानों के बीच कई जातियाँ - जिन्हें वे ज़ात कहते थे - ऐसी भी थीं जो हिन्दुओं में होती भी नहीं थीं। उस ज़माने में कुछ जातियों ने धर्म की दीवार तोड़कर जाति-सम्बन्धी अंतर्धार्मिक संगठन बनाने के प्रयास भी किये थे मगर मज़हब की दीवार शायद बहुत मजबूत है। अगर ऐसा न होता तो इस सावन पर बरेली के शाहाबाद मुहल्ले में साल में बस एक बार शिव के भजन बजाये जाने पर दिन में पाँच बार लाउडस्पीकरों पर नमाज़ पढने वाला वर्ग भड़कता क्यों? हर साल अपना समय बदलने वाला रमज़ान क्या हज़ारों साल से अपनी जगह टिके सावन को रोक देगा? यह कौन सी सोच है? यह क्या होता जा रहा है मेरे शहर को?

मेरा शहर? यह आग तो हर जगह लगी हुई है। बरेली के बाद फैज़ाबाद में दंगा होने की खबरें आईं। लेकिन जो खबर अपना ड्यू नहीं पा सकी वह थी असम में बंगलाभाषी मुसलमानों द्वारा हज़ारों मूलनिवासियों के गाँव के गाँव फूंक डालने की। ऐसा कैसे हो जाता है जब किसी क्षेत्र के मूल निवासी अपने ही देश, गाँव, घर में असुरक्षित हो जाते हैं? दूसरी भाषा, धर्म, प्रदेश और देश के लोग बाहर से आकर जो चाहे कर सकते हैं? और यह पहली बार तो नहीं है जब बंगाली मुसलमानों ने सामूहिक रूप से असमी आदिवासियों के साथ इस तरह का कृत्य किया है।

लगभग इसी प्रकार की हिंसा का विलोमरूप महाराष्ट्र में हिन्दीभाषियों के विरुद्ध हुई हिंसा के रूप में देखने को मिला था। हर समुदाय दूसरे समुदाय से आशंकित है। लेकिन इस आशंका के बीच भी कुछ समुदाय ऐसे क्यों हैं कि वे हिंसक भी हैं और फिर अपने को सताया हुआ भी बताते रहते हैं?

श्रावण के पहले सोमवार पर श्रीनगर के एक प्राचीन शिव मन्दिर में अर्चना करते दलाई लामा का एक चित्र इंटरनैट पर आने के मिनटों बाद ही मुसलमान नामों की प्रोफ़ाइलों से उनके ऊपर गाली-गलौज शुरू हो गई। कई गालीकारों ने म्यानमार के दंगों में मुसलिम क्षति की बात भी की थी। यह बात समझ आती है कि कम्युनिस्ट चीन के साये में पल रहे म्यानमार के तानाशाही शासन में न जाने कब से सताये जा रहे बौद्धों के दमन के समय मुँह सिये बैठे लोग मुसलमानों की बात आते ही मुखर हो गये लेकिन इस मामले से बिल्कुल असम्बद्ध दलाई लामा को विलेन बनाने का प्रयास किसने शुरू किया यह बात समझ नहीं आती। अपने देश में भी राष्ट्रीय समस्याओं से आँख मून्दकर अमन का राग अलापने वाले लोग अब म्यानमार में मुसलमानों के इन्वॉल्व होते ही मियाँमार-मियाँमार चिल्लाना शुरू हो गये हैं।

अवनीश कुमार देव
हिंसा-प्रतिहिंसा ग़लत है, निन्दनीय है। पर ऐसा क्यों होता है कि अपनी हिंसक मनोवृत्ति और हिंसक प्रतीकों को दूसरों से मनवाने की ज़िद लिये बैठे लोगों से भरे समुदाय को दुनिया भर में बस अपने धर्म के पालकों के प्रति हुआ अन्याय ही दिखता है? कोई आँख इतनी बदरंग कैसे हो सकती है? वैसे हिंसा और धर्म का एक और सम्बन्ध भी है। जहाँ एक वर्ग धर्मान्ध होकर हिंसा कर रहा है वहीं हिंसक-विचारधारा वाला एक दूसरा वर्ग किसी भी धर्म को बर्दाश्त नहीं कर सकता है। अपने को मज़दूरों का प्रतिनिधि बताने वाली इस विचारधारा ने अब तक न जाने कितने देशों में कम्युनिज़्म लाने के नाम पर इंसानों को कीड़ों-मकौड़ों की तरह कुचला है। ऐसे ही लोगों ने पिछले दिनों मनेसर में हिंसा का वह नंगा नाच किया है जिसकी किसी सभ्य समाज में कल्पना भी नहीं की जा सकती है। मारुति सुज़ूकी के मानव संसाधन महाप्रबन्धक अवनीश कुमार देव को मनेसर परिसर के अंदर चल रही वार्ता के दौरान जिस प्रकार जीवित जलाया गया उससे आसुरी शक्तियों के मन का मैल और उसका बड़ा खतरा एक बार फिर जगज़ाहिर हुआ है।

दिल्ली में मेट्रो स्टेशन के लिये गहरी खुदाई होने पर मृद्भांडों की खबर मिलते ही मुस्लिम समुदाय सभी नियम कानूनों को ताक़ पे रखकर, नियमों और न्यायालय के आदेश का खुला उल्लंघन करके न केवल सरकारी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लेता है बल्कि वहाँ रातों-रात एक नई मस्जिद भी बना दी जाती है। तब सिकन्दर बख्त का वह कथन याद आता है जिसमें उन्होंने ऐसा कुछ कहा था कि इस देश में बहुसंख्यक समाज डरकर रहता है क्योंकि अपने को अल्पसंख्यक कहने वालों ने देश के टुकड़े तक कर दिये और बहुसंख्यक उसे रोक भी न सके। तथाकथित अल्पसंख्यक और भी बहुत कुछ कर रहे हैं। मज़े की बात यह है कि यह "अल्पसंख्यक" वर्ग जैन, सिख, पारसी, बौद्ध और विभिन्न जनजातियों आदि जैसा अल्पसंख्यक नहीं है। विविधता भरे इस देश में यह समुदाय हिन्दुओं के बाद सबसे बड़ा बहुसंख्यक है।

समाज में हिंसा और असंतोष बढता जा रहा है इतना तो समझ में आता है। लेकिन दुख इस बात का है कि प्रशासन और व्यवस्था नफ़रत के इस ज़हरीले साँप को इतनी ढील क्यों दे रही है? समय रहते इसे काबू में किया जाये। रस्सी को इतना ढीला मत छोड़ो कि पूरा ढांचा ही भरभराकर गिर जाये। एक बार लोगों के मन में यह बात आ गयी कि प्रशासन के निकम्मेपन के चलते जनता को अपनी, अपने परिवार, देश, धर्म, संस्कृति, इंफ़्रास्ट्रक्चर, व्यवसाय की ज़िम्मेदारी व्यक्तिगत स्तर पर खुद ही उठानी है तो आज के अनुशासनप्रिय लोग भी आत्मरक्षा के लिये प्रत्याघात पर उतर आयेंगे और फिर हालात काफ़ी खराब हो सकते हैं।
गिरा के दीवारें जलाया मकाँ जो, मुड़ के जो देखा लगा अपना अपना
कोई वर्ग सताया हुआ क्यों होता है? लोग पीढियों तक क्यों रोते हैं? किसके किये का फल किसे मिलता है? लीबिया, सीरिया, ईराक़, ईरान, सूडान, सोमालिया और अफ़ग़ानिस्तान ही नहीं, बल्कि पख्तून फ़्रंटियर, पाक कब्ज़े वाला कश्मीर, बलूचिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश का हाल भी देखिये। जो लोग आज़ादी से पहले भारत तोड़ने के मंसूबे बांध रहे थे, उनकी औलादें आज भी उनकी करनी को और अपनी क़िस्मत को रो रही हैं। कम लोगों को याद होगा कि बाद में पाकिस्तानी दमन के प्रतीक बने शेख मुजीबुर्रहमान ने भारत तोड़कर पाकिस्तान बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। प्रकृति कैसे काम करती है, मुझे नहीं पता लेकिन इतना पता है कि स्वार्थी की दृष्टि संकीर्ण ही नहीं आत्मघातक भी होती है। जो लोग आज़ादी के दशकों बाद भी इस देश में आग लगाने के प्रयासों में लगे हैं उनकी कितनी आगामी पीढियाँ कितना रोयेंगी इसका अन्दाज़ भी उन्हें समय रहते ही लग जाये तो बेहतर है। जो लोग इतिहास की ग़लतियों से सबक़ नहीं लेते उन्हें वह सब फिर से भोगना पड़ता ही है।


किसका पाकिस्तान, किसका हिन्दुस्तान, किसकी धरती, किसका देश
(पाकिस्तानी पत्रकार हसन निसार)
सम्बन्धित कड़ियाँ
* जावेद मामू - कहानी
* क़ौमी एकता - लघुकथा
* हिन्दी बंगाली भाई भाई - कहानी
* मैजस्टिक मूंछें - चिंतन
* खजूर की गुलामी - शीबा असलम फ़हमी
* जामा मस्जिद में दलाई लामा - मानसिक हलचल
* मुस्लिम स्टूडेंट यूनियन ऑफ असम [मूसा]

Wednesday, July 18, 2012

1857 के महानायक मंगल पांडे

19 जुलाई सन 1827 को बलिया जिले के नगवा ग्राम में जानकी देवी एवं सुदृष्टि पाण्डेय् के घर उस बालक का जन्म हुआ था जो कि भारत के इतिहास में एक नया अध्याय लिखने वाला था। इस यशस्वी बालक का नाम रखा गया मंगल पाण्डेय। कुछ् सन्दर्भों में उनका जन्मस्थल अवध की अकबरपुर तहसील के सुरहुरपुर ग्राम (अब ज़िला अम्बेडकरनगर का एक भाग) बताया गया है और उनके माता-पिता के नाम क्रमशः अभय रानी और दिवाकर पाण्डेय। इन सन्दर्भों के अनुसार फ़ैज़ाबाद के दुगावाँ-रहीमपुर के मूल निवासी पण्डित दिवाकर पाण्डेय सुरहुरपुर स्थित अपनी ससुराल में बस गये थे। कुछ अन्य स्थानों पर उनकी जन्मतिथि भी 30 जनवरी 1831 दर्शाई गई है। इन सन्दर्भों की सत्यता के बारे में मैं अभी निश्चित नहीं हूँ। यदि आपको कोई जानकारी हो तो स्वागत है।

प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के प्रथम सेनानी मंगल पाण्डेय सन 1849 में 22 वर्ष की उम्र में ईस्ट इंडिया कम्पनी की बेंगाल नेटिव इंफ़ैंट्री की 34वीं रेजीमेंट में सिपाही (बैच नम्बर 1446) भर्ती हो गये थे। ब्रिटिश सेना के कई गोरे अधिकारियों की तरह 34वीं इन्फैंट्री का कमांडेंट व्हीलर भी ईसाई धर्म का प्रचारक था। अनेक ब्रिटिश अधिकारियों की पत्नियाँ, या वे स्वयं बाइबिल के हिन्दी अनुवादों को फारसी और भारतीय लिपियों में छपाकर सिपाहियों को बाँट रहे थे। ईसाई धर्म अपनाने वाले सिपाहियों को अनेक लाभ और रियायतों का प्रलोभन दिया जा रहा था। उस समय सरकारी प्रश्रय में जिस प्रकार यूरोप और अमेरिका के पादरी बड़े पैमाने पर धर्मांतरण करने के लिये भारत में प्रचलित धर्मों का अपमान कर रहे थे, उससे ऐसी शंकाओं को काफ़ी बल मिला कि गोरों का एक उद्देश्य भारतीय संस्कृति का नाश करने का है। अमेरिका से आये पादरियों ने सरकारी आतिथ्य के बल पर रोहिलखंड में अपनी पैठ बनानी शुरू कर दी थी। फ़तहपुर के अंग्रेज़ कमिश्नर ने नगर के चार द्वारों पर खम्भे लगवाकर उन पर हिन्दी और उर्दू में दस कमेन्डमेंट्स खुदवा दिए थे। सेना में सिपाहियों की नैतिक-धार्मिक भावनाओं का अनादर किया जाने लगा था। इन हरकतों से भारतीय सिपाहियों को लगने लगा कि अंग्रेज अधिकारी उनका धर्म भ्रष्ट करने का भरसक प्रयत्न कर रहे थे।

सेना में जब ‘एनफील्ड पी-53’ राइफल में नई किस्म के कारतूसों का प्रयोग शुरू हुआ तो भारतीयों को बहुत कष्ट हुआ क्योंकि इन गोलियों को चिकना रखने वाली ग्रीज़ दरअसल पशु वसा थी और गोली को बन्दूक में डालने से पहले उसके पैकेट को दांत से काटकर खोलना पड़ता था। अधिकांश भारतीय सैनिक तो सामान्य परिस्थितियों में पशुवसा को हाथ से भी नहीं छूते, दाँत से काटने की तो बात ही और है। हिन्दू ही नहीं, मुसलमान सैनिक भी उद्विग्न थे क्योंकि चर्बी तो सुअर की भी हो सकती थी - अंग्रजों को तो किसी भी पशु की चर्बी से कोई फ़र्क नहीं पड़ता था। कुल मिलाकर सैनिकों के लिये यह कारतूस काफ़ी रोष का विषय बन गये। सेना में ऐसी खबरें फैली कि अंग्रेजों ने भारतीयों का धर्म भ्रष्ट करने के लिए जानबूझकर इन कारतूसों में गाय तथा सुअर की चर्बी का इस्तेमाल किया है।

इन दिनों देश में नई हलचल दिख रही थी। छावनियों में कमल और गाँवों में रोटियाँ बँटने लगी थीं। कुछ बैरकों में छिटपुट आग लगने की घटनायें हुईं। जनरल हीयरसे जैसे एकाध ब्रिटिश अधिकारियों ने पशुवसा वाले कारतूस लाने के खतरों के प्रति अगाह करने का असफल प्रयास भी किया। अम्बाला छावनी के कप्तान एडवर्ड मार्टिन्यू ने तो अपने अधिकारियों से वार्ता के समय क्रोधित होकर इन कारतूसों को विनाश की अग्नि ही बताया था लेकिन विनाशकाले विपरीत बुद्धि, दिल्ली से लन्दन तक सत्ता के अहंकार में डूबे किसी सक्षम अधिकारी ने ऐसे विवेकी विचार पर ध्यान नहीं दिया।

26 फरवरी 1857 को ये कारतूस पहली बार प्रयोग होने का समय आने पर जब बेरहामपुर की 19 वीं नेटिव इंफ़ैंट्री ने साफ़ मना कर दिया तो उन सैनिकों की भावनाओं पर ध्यान देने के बजाय उन सबको बैरकपुर लाकर बेइज़्ज़त किया गया। इस घटना से क्षुब्ध मंगल पाण्डेय ने 29 मार्च सन् 1857 को बैरकपुर में अपने साथियों को इस कृत्य के विरोध के लिये ललकारा और घोड़े पर अपनी ओर आते अंग्रेज़ अधिकारियों पर गोली चलाई। अधिकारियों के नज़दीक आने पर मंगल पाण्डेय ने उनपर तलवार से हमला भी किया। उनकी गिरफ्तारी और कोर्ट मार्शल हुआ। छह अप्रैल 1857 को उन्हें फांसी की सज़ा सुनाई गई।

This article was originally written by 
Anurag Sharma for pittpat.blogspot.com
मंगल पाण्डे की फांसी के लिए 18 अप्रैल की तारीख तय हुई लेकिन यह समाचार पाते ही कई छावनियों में ईस्ट इंडिया कम्पनी के खिलाफ असंतोष भड़क उठा जिसके मद्देनज़र अंग्रेज़ों ने उन्हें आठ अप्रैल (8 अप्रैल 1857) को ही फाँसी चढ़ा दिया। 21 अप्रैल को उस टुकड़ी के प्रमुख ईश्वरी प्रसाद को भी फाँसी चढ़ा दिया। अंग्रेज़ों के अनुसार ईश्वरी प्रसाद ने मंगल पाण्डेय को गिरफ़्तार न करके आदेश का उल्लंघन किया था। इस विद्रोह के चिह्न मिटाने के उद्देश्य से चौंतीसवीं इंफ़ैंट्री को ही भंग कर दिया गया। इस घटनाक्रम की जानकारी मिलने पर अंग्रेज़ों के अन्दाज़े के विपरीत भारतीय सैनिकों में भय के स्थान पर विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी। लगभग इसी समय नाना साहेब, तात्या टोपे और रानी लक्ष्मी बाई भी अंग्रेज़ों के खिलाफ़ मैदान में थे। इस प्रकार भारतीय स्वतंत्रता के प्रथम संग्राम के प्रथम नायक बनने का श्रेय मंगल पाण्डेय् को मिला।

एक भारतीय सिपाही मंगल पाण्डेय का साहस मुग़ल साम्राज्य और ईस्ट इंडिया कम्पनी जैसे दो बडे साम्राज्यों का काल सिद्ध हुआ जिनका डंका कभी विश्व के अधिकांश भाग में बजता था। यद्यपि एक वर्ष से अधिक चले संघर्ष में अंग्रेज़ों को नाकों चने चबवाने और अनेक वीरों के प्राणोत्सर्ग के बाद अंततः हम यह लड़ाई हार गये लेकिन मंगल पाण्डेय और अन्य हुतात्माओं के बलिदान व्यर्थ नहीं गये। 1857 में भड़की क्रांति की यही चिंगारी 90 वर्षों के बाद 1947 में भारत की पूर्ण-स्वतंत्रता का सबब बनी। स्वाधीनता संग्राम के सेनानियों ने सर्वस्व त्याग के उत्कृष्ट उदाहरण हमारे सामने रखे हैं। आज़ाद हवा में साँस लेते हुए हम सदा उनके ऋणी रहेंगे जिन्होंने दासता की बेड़ियाँ तोड़ते-तोड़ते प्राण त्याग दिये।

[आलेख: अनुराग शर्मा; चित्र: इंटरनैट से साभार]
सम्बन्धित कडियाँ
* अमर महानायक तात्या टोपे का लाल कमल अभियान
* प्रेरणादायक जीवन चरित्र
* यह सूरज अस्त नहीं होगा!
* शहीद मंगल पांडे के गाँव की शिनाख्त

Sunday, July 15, 2012

सावन का महीना - कविता

(शब्द और चित्र: अनुराग शर्मा)

पवन करे सोर ...
वृष्टि यहाँ
वृष्टि वहाँ

हँसता हुआ
भीगे जहाँ

खोजूँ जिसे
छिपता कहाँ

बढता रहे
दर्द ए निहाँ

मंज़िल मेरी
वो है जहाँ

-=<>=-
चार पंक्तियाँ राष्ट्रकवि रामधारी सिंह "दिनकर" के "पावस गीत" से
दूर देश के अतिथि व्योम में
छाए घन काले सजनी,
अंग-अंग पुलकित वसुधा के
शीतल, हरियाले सजनी!

Tuesday, July 10, 2012

प्रेम की चुभन - कविता

हम थे वो थीं, और समाँ रंगीन ...
(चित्र व रचना: अनुराग शर्मा)

बेक़रारी मेरे दिल को क्या हो गई
आँख ही आँख में आप क्या कह गये

नज़रों की ज़ुबाँ हमको महंगी पड़ी
सभी समझे मगर इक वही रह गये

पलकें झपकाना भूले हैं मेरे नयन
जादू ऐसा वे तीरे नज़र कर गये

पास आये थे हम फिर ये कैसे हुआ
दर्म्याँ उनके मेरे फ़ासले रह गये

ज़िन्दगानी मेरी काम आ ही गई
जीते जी हम भी घायल हुए मर गये



राष्ट्र पर न्योछावर प्राण - भगवतीचरण वोहरा!

भाई भगवतीचरण वोहरा
4 जुलाई 1904 - 28 मई 1930
जुलाई का महीना भीषण उमस और गर्मी भरा तो है ही, यह याद दिलाता है सूर्य के तेज की। धरती पर उदित सभी प्रकार के जीवन के रक्षक सूर्य के तेज की याद दिलाने के लिये "भाई" भगवती चरण वोहरा से अधिक उपयुक्त उदाहरण कौन सा हो सकता है? समकालीन क्रांतिकारियों में भाई के नाम से प्रसिद्ध आदरणीय श्री भगवती चरण वोहरा हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोशिएशन के एक प्रमुख सदस्य थे। इसके पहले वे नौजवान भारत सभा के सह-संस्थापक और प्रथम महासचिव भी रहे थे। सरदार भगत सिंह, यशपाल आदि सेनानियों के पथप्रदर्शक माने जाने वाले वोहरा जी पंजाब के क्रांतिकारियों के संरक्षक भी थे। आगरा के एक अति-धनी परिवार के वारिस वोहराजी का कोष स्वाधीनता संग्राम के सरफ़रोशों के लिये सदा खुला रहता था। लाहौर का उनका निवास स्थल अनेक क्रांतिकारी योजनाओं, ऐतिहासिक विमर्शों और निर्णयों का साक्षी था। आयरन लेडी के नाम से जानी जाने वाली उनकी पत्नी श्रीमती दुर्गावती वोहरा उर्फ दुर्गा भाभी भी ख्यातिनाम सेनानी रही हैं।

मार्च 1926 में भगवती चरण वोहरा व भगत सिंह ने मिलकर नौजवान भारत सभा का प्रारूप तैयार किया और फिर रामचंद्र कपूर के साथ मिलकर संयुक्त रूप से इसकी स्थापना की।
भाई भगवतीचरण उन गिने चुने स्वाधीनता सेनानियों में से एक थे जिनके पास भगवान का दिया हुआ सब कुछ था। सुन्दर व्यक्तित्व, सुलझे विचार, अकूत धन-सम्पदा, अद्वितीय लेखन प्रतिभा, अतुल्य साहस और इन सबसे बढकर वीरता, उदारता और दिशा-निर्देशन की अद्वितीय क्षमता। वे अपने समय के सर्वप्रमुख क्रांतिकारी विचारक और लेखक थे। लाहौर कांग्रेस में बांटा गया "हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोशिएशन का घोषणा पत्र" उन्होंने ही लिखा था। भारतीय क्रांतिकारियों का दृष्टिकोण बताता हुआ "बम का दर्शन-शास्त्र (फ़िलॉसॉफ़ी ओफ़ द बॉम)" नामक पत्र भी भाई द्वारा ही लिखित था। यही वह आलेख था जिसके बाद कॉंग्रेस व अन्य धाराओं में भी क्रांतिकारियों के प्रति जुड़ाव की भावना उत्पन्न हुई। इससे पहले के क्रांतिकारी अपनी धुन में रमे अकेले ही चल रहे थे।
हमें ऐसे लोग चाहिये जो निराशा के गर्त में भी निर्भय और बेझिझक होकर युद्ध जारी रख सकें। हमें ऐसे लोग चाहिये जो प्रशस्तिगान की आशा रखे बिना उस मृत्यु के वरण को तैयार हों, जिसके लिये न कोई आंसू बहे और न ही कोई स्मारक बने। ~ भाई भगवतीचरण वोहरा
उस समय में भी लाखों की सम्पत्ति और हज़ारों रुपये के बैंक बैलैंस होते हुए भी भाई भगवतीचरण ने अपने देशप्रेम हेतु अपने लिये साधारण और कठिन जीवन चुना परंतु साथी क्रांतिकारियों के लिये अपने जीते-जी सदा धन-साधन सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति निस्वार्थ भाव से की। लाहौर में तीन मकानों के स्वामी भाई भगवतीचरण ने अपने क्रांतिकर्म के लिये उसी लाहौर की कश्मीर बिल्डिंग में एक कमरा किराये पर लेकर वहाँ बम-निर्माण का कार्य आरम्भ किया था।

समस्त वोहरा परिवार
विशालहृदय के स्वामी वोहरा जी और दुर्गा भाभी ने देश की स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व दिल खोलकर न्योछावर किया। सां‌न्डर्स हत्याकांड के बाद भगत सिंह को लाहौर से सुरक्षित निकालने की योजना उन्हीं की थी। शचीन्द्रनाथ वोहरा को गोद लिये भगत सिंह की पत्नी के रूप में दुर्गा भाभी और साथ में नौकर की भूमिका में राजगुरु ट्रेन में कलकत्ता तक गये जहाँ वोहरा जी स्वागत के लिये पहले से मौजूद थे। चन्द्रशेखर आज़ाद एक साधु के वेश में तृतीय श्रेणी में इन सबकी सुरक्षा के उद्देश्य से साथ थे।

श्री भगवती चरण वोहरा का जन्म 4 जुलाई सन 1904 को आगरा के एक प्रतिष्ठित राष्ट्रभक्त और सम्पन्न परिवार में श्री शिवचरण नागर "वोहरा" के घर हुआ था। वोहरा परिवार स्वतंत्र भारत के सपने में पूर्णतया सराबोर था। देशप्रेम, त्याग और समर्पण की भावना समस्त परिवारजनों में कूट-कूट कर भरी थी। विदेशी उत्पाद और मान्यताओं से बचने वाले इस परिवार में केवल खादी के वस्त्र ही स्वीकार्य थे। देश की राजनैतिक और देशवासियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिये इस परिवार का हर सदस्य जान न्योछावर करने को तैयार रहता था।

दुर्गा भाभी
पब्लिक सेफ्टी और ट्रेड डिस्प्यूट बिल की बदनीयती पर ध्यान आकर्षित करने के लिये क्रांतिकारियों के बनाये कार्यक्रम के अनुसार बटुकेश्वर दत्त और भगतसिंह द्वारा सेंट्रल एसेंबली में कच्चा बम फेंकने के बाद भगतसिंह ने घटनास्थल पर ही गिरफ़्तारी दी और इस सिलसिले में बाद में कई अन्य क्रांतिकारियों की गिरफ़्तारी हुई। शहीदत्रयी (राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह) द्वारा न्यायालय में पढ़े जाने वाले बयान भी "भाई" द्वारा ही पहले से तैयार किये गये थे।

अदालत की बदनीयती के चलते जब यह आशंका हुई कि अंग्रेज़ सरकार शहीदत्रयी को मृत्युदंड देने का मन बना चुकी है तब भाई (भगवती चरण वोहरा) और भैया (चंद्रशेखर आजाद) ने मिलकर बलप्रयोग द्वारा उन्हें जेल से छुड़ाने की योजना बनाई। चन्द्रशेखर आज़ाद द्वारा भेजे गये दो क्रांतिकारियों और अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर उन्हीं बमों के परीक्षण के समय 28 मई 1930 को रावी नदी के किनारे हुए एक विस्फोट ने वोहरा जी को हमसे सदा के लिये छीन लिया।
एक हाथ कलाई से उड़ गया था दूसरे की उंगलियाँ कट गयी थीं। सबसे बड़ा घाव पेट में था जिससे कुछ आँतें बाहर निकल आई थीं ... मैंने रूँधे कण्ठ से इतना ही कहा, "भैया, ये आपने क्या किया?" उत्तर में वही हठीली मुस्कान, वही शांत मधुर वाणी, "यह अच्छा ही हुआ। यदि तुम दोनों में से कोई घायल हो जाता तो मैं भैया (आज़ाद) को मुँह दिखाने लायक न रहता।" आत्मबलिदान का कितना महान आदर्श।  ~ क्रांतिकारी विश्वनाथ वैशम्पायन
मृत्यु पर आँसू बहाने की बात तो दूर, चैन से सोती दुनिया को शायद इस अमर शहीद के शव का भी पता न लगता। कहा जाता है कि शहीदत्रयी पर हुई क़ानूनी कार्यवाही के समय चली गवाहियों के बीच भाई की शहादत की बात सामने आयी और तब रावी नदी के किनारे समर्पित अस्थियों को खोदकर न्यायालय में प्रस्तुत किया गया था। भाई के दुखद अवसान के बाद भी दुर्गाभाभी एक सक्रिय क्रांतिकारी रहीं। स्वतंत्रता के बाद दुर्गा भाभी ने में अध्यापन कार्य किया और वोहरा परिवार की त्याग की परम्परा को बनाये रखते हुए लखनऊ का स्कूल और अपनी अचल सम्पत्ति सरकार को दान करके अपने पुत्र शचीन्द्र के साथ अपने अंतिम समय तक ग़ाज़ियाबाद में रहीं।

वोहरा जी को नमन और श्रद्धांजलि! साथ ही उन मित्रों को प्रणाम जिन्हें आज भी वोहरा जी सरीखे हुतात्माओं की याद है, विशेषकर उस मित्र का आभार जिसने मुझे फिर से उन पर लिखने का अवसर दिया। आज इस वीर सेनानी के जन्मदिन पर आइये हम भी देशप्रेम और त्याग की प्रेरणा लें। अमर हो स्वतंत्रता! सत्यमेव जयते!
सम्बन्धित कड़ियाँ
* अमर क्रांतिकारी भगवतीचरण वोहरा
* श्रद्धेय वीरांगना दुर्गा भाभी के जन्मदिन पर
* हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोशिएशन का घोषणा पत्र 
* महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद"
* शहीदों को तो बख्श दो
* नेताजी के दर्शन - तोक्यो के मन्दिर में
* 1857 की मनु - झांसी की रानी लक्ष्मीबाई
* नायकत्व क्या है - एक विमर्श
* अमेरिका को स्वाधीनता दिवस की बधाई

Sunday, July 1, 2012

चुटकी भर सिन्दूर

कल इंडियन आयडल पर आशा भोसले को देखा पूरे शृंगार और आभूषणों के साथ, मन को बहुत अच्छा लगा कि इस आयु में भी किसी समारोह में जाते समय वे प्रेज़ेंटेबल होना पसन्द करती हैं। उसी बात पर गांधी और टैगोर के बीच का वह सम्वाद याद आया जब टैगोर ने मलिन होकर दूसरों के सामने जाने को हिंसा का ही एक रूप बताया था। अधिकांश व्यक्ति सुन्दर दिखना चाहते हैं। सफ़ेद बाल वाले उन्हें रंगने पर लगे हैं, झुर्रियों वाले बोटॉक्स या फेसलिफ़्ट की शरण में जा रहे हैं। प्राकृतिक रूप से या फिर कीमोथेरेपी आदि के प्रभाव से बाल गिर जाने पर लोग विग, वीविंग या केश-प्रत्यारोपण आदि अपना रहे हैं। कितने लोग तो कद बढाने के लिये अति-कष्टप्रद और खर्चीली हड्डी-तोड़ शल्यक्रिया भी करा रहे हैं। गोरेपन की क्रीम की तो बात ही क्या की जाये, उसे हम भारतीयों से बेहतर कौन पहचानता है।

भारतीय संस्कृति की विविधता उसकी परम्पराओं में झलकती है। लगभग दो दशक पहले की माधुरी पत्रिका में लता मंगेशकर का मांग भरा चित्र देखकर हिन्दी क्षेत्रों में अफ़वाहों का बाज़ार गर्म हो गया था। असलियत जानने पर बहुत से लोग बगले झाँकते नज़र आये थी। गांगेय क्षेत्र में जहाँ मांग भरना सुहाग का प्रतीक बन गया है वहीं अधिकांश महाराष्ट्र में एक नन्हीं बच्ची भी शृंगार के रूप में मांग भर सकती है। रुहेलखण्ड में तो मुसलमान विवाहितायें भी सुनहरी अफ़शाँ या चन्दन से मांग भरती हैं। लेकिन दक्षिण भारतीय विवाह पद्धति में वैवाहिक स्थिति का प्रदर्शन सिन्दूर से नहीं बल्कि मंगलसूत्र से होता है। हाँ, मंगलसूत्र को कभी-कभी रोचना से अलंकृत किया जाता है।

सिन्दूर प्रसाधन है?
ठीक से पता नहीं कि भारत में सिन्दूर कब और कहाँ नारी की वैवाहिक स्थिति का प्रतीक बन गया लेकिन इतना तो हम सब को मानना पड़ेगा कि विवाह संस्कार की ही तरह कर्णछेदन, मुंडन और यज्ञोपवीत भी कभी एक बड़े समुदाय के सांस्कारिक जीवन का महत्वपूर्ण भाग रह चुके हैं। जहाँ कई माँएं स्वयं ही बढ़-चढ़कर बचपन में ही अपनी बेटियों के नाक कान छिदवा देती हैं वहीं आजकल लड़कों का कर्णछेदन - जोकि शास्त्रानुसार लड़के, लड़की सभी के लिये समान था - अव्वल तो होता ही नहीं, यदि हो भी तो कान सचमुच नहीं छेदा जाता है। इसी प्रकार पुरोहितों के अतिरिक्त आजकल शायद ही कोई पुरुष शिखाधारी दिखता हो। यज्ञोपवीत भी कम से कम उत्तर भारत से तो ग़ायब ही होता जा रहा है।


वस्त्रों की बात आने पर भी यही दिखता है कि स्त्रियाँ तो फिर भी साड़ी आदि के रूप में भारतीय परिधान को बचाकर रखे हुए हैं परंतु पुरुष न जाने कब के धोती छोड़ पजामा और फिर पतलून और जींस आदि में ऐसे लिपटे हैं कि एक औसत भारतीय मर्द को अचानक धोती बांधना पड़ जाये तो शायद वह उसे तहमद की तरह लपेट लेगा। कौन क्या पहनता है इससे मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता लेकिन जब खुद पतलून पहनने वाले साड़ी का, टाई लगाने वाले दाढी का, या ब्रेसलैट पहनने या न पहनने वाले बिछुए का आग्रह करते हैं तो अजीब ज़रूर लगता है।

यह सारी बातें शायद यहाँ लिखने की ज़रूरत नहीं पड़ती यदि पिछले 8-10 दिनों में मेरे द्वारा पढे जाने वाले ब्लॉग्स पर शृंगार, परम्परा और व्याधि से सम्बन्धित विषयों पर तीन अलग-अलग प्रविष्टियाँ पढने को नहीं मिलतीं। अधिकांश व्यक्ति स्वयं भी सुन्दर दिखना चाहते हैं और जाने-अनजाने अपने आसपास भी सौन्दर्य देखना चाहते हैं यह समझने के लिये हमें सौन्दर्य सम्बन्धित व्यवसायों के आंकड़े देखने की ज़रूरत नहीं है। स्त्रियों को शृंगारप्रिय बताने वाले पुरुषों को भी दर्ज़ी, नाई, आदि की व्यवसायिक सेवायें लेते हुए देखा जा सकता है। उनकी उंगली में अंगूठी और गले में सोने की लड़ या हाथ में डिज़ाइनर घड़ी होना आजकल कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यदि माथे का बेना/टीका शृंगार है तब टाई को क्या कहेंगे? आखिर इस सब को किसी जेंडर विशेष या व्याधि या परम्परा से बांधा ही क्यों जाये? व्यक्तिगत विषयों को हम व्यक्तिगत निर्णयों पर क्यों नहीं छोड़ देते, खासकर तब जब हमारे देश में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सांस्कृतिक विविधता की दीर्घकालीन परम्परा रही है।  

एक पल रुककर विचारिये, और हमारे महान राष्ट्र की महानतम परम्परा का और अपने अन्य देशवासियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का आदर कीजिये, धन्यवाद!
निरामिष पर ताज़ा आलेख: भोजन में क्रूरता: 1. प्रस्तावना - फ़ोइ ग्रा
रेडियो प्लेबैक इंडिया की प्रस्तुति: बिम्ब एक प्रतिबिम्ब अनेक: शब्दों के चाक पर - 5
* सम्बन्धित कड़ियाँ * 
* लड़कियों को कराते और लड़कों को तमीज़
* भारतीय संस्कृति के रखवाले
* कितने सवाल हैं लाजवाब?
* ब्राह्मण कौन?
* विश्वसनीयता का संकट

Tuesday, June 26, 2012

आभासी सम्बन्ध और ब्लॉगिंग

आभासी सम्बन्धों के आकार-प्रकार पर हमारे राज्य के पेन स्टेट विश्वविद्यालय के एक शोध ने यह तय किया है कि फेसबुक जैसी वैबसाइटों पर मित्रता अनुरोध अस्वीकार होने या नजरअंदाज किये जाने पर सन्देश प्रेषक ठुकराया हुआ सा महसूस करते हैं। इस अध्ययन से यह बात तो सामने आई ही है कि अनेक लोगों के लिए यह आभासी संसार भी वास्तविक जगत जैसा ही सच्चा है। साथ ही इससे यह भी पता लगता है कि कई लोग दूसरों को आहत करने का एक नया मार्ग भी अपना रहे हैं।

मेरी नन्ही ट्विटर मित्र
आपके तथाकथित मित्र फेसबुक या गूगल प्लस पर आपकी ‘फ्रैंड रिक्वैस्ट’ ठुकरा कर, या अपने ब्लॉग पर आपकी टिप्पणियों को सेंसर करके या फिर इससे दो कदम आगे जाकर आपके विरुद्ध पोस्ट पर पोस्ट लिखते हुए आपकी जवाबी टिप्पणियाँ प्रकाशित न करके या फिर टिप्पणी का विकल्प ही पूर्णतया बन्द करके आपको चोट पहुँचाते जा रहे हैं तो आपको खराब लगना स्वाभाविक ही है। आपकी फेसबुक वाल या गूगल प्लस पर कोई आभासी साथी आकर अपना लिंक चिपका जाता है। आप क्लिक करते हैं तो पता लगता है कि पोस्ट तो केवल आमंत्रित पाठकों के लिये थी, लिंक तो आपको चिढाने के लिये भेजे जा रहे थे। किसी हास्यकवि ने विवाह के आमंत्रण पत्र पर अक्सर लिखे जाने वाले दोहे की पैरोडी करते हुए कहा था:

भेज रहे हैं येह निमंत्रण, प्रियवर तुम्हें दिखाने को
हे मानस के राजकंस तुम आ मत जाना खाने को
ताज़े अध्ययन का लब्बो-लुआब यह है कि आभासी जगत में होने वाला अपमान भी उतना ही दर्दनाक होता है जितना वास्तविक जीवन में होने वाला अपमान।

लेकिन गुस्से में आग-बबूला होने से पहले ज़रा एक पल रुककर इतना अवश्य सोचिये कि क्या इन सब से सदा आहत होने की प्रक्रिया में हमारा कोई रोल नहीं है? अंग्रेज़ी की एक कहावत है कि इंसान अपनी संगत से पहचाना जाता है। यदि हमारे आसपास के अधिकतर लोग जोश को होश से आगे रखते हैं तो हमारे भी वैसा ही होने की काफ़ी सम्भावना है। शायद हम अपवाद हों, लेकिन यह जाँचने में हर्ज़ ही क्या है?

मेरे बारे में तो आप ही बेहतर बता पायेंगे लेकिन ब्लॉग जगत भ्रमण करते हुए मैंने जो कुछेक खिझाने वाली बातें देखी हैं उन्हें यहाँ लिख रहा हूँ। इनमें कई बातें ऐसी हैं जो अभासी जगत के अज्ञान के कारण पैदा हुई हैं लेकिन कई ऐसी भी हैं जिनसे हमारे भौतिक जीवन की वास्तविकता ज़ाहिर होती है।

किसी ब्लॉग पर कमेंट करने चलो तो यह मौलिक शिष्टाचार है कि हिन्दी की पोस्ट पर टिप्पणी हिन्दी में ही की जाये। लेकिन टिप्पणी लिखने के ठीक बाद आपका सामना होता है वर्ड वेरिफ़िकेशन के दैत्य से जिसके कैप्चा अंग्रेज़ी में होते हैं और कई बार आपके लिखे अक्षर अस्वीकृत होने के बाद आपको अपनी ग़लती का अहसास होता है और आप अपना कीबोर्ड हिन्दी से अंग्रेज़ी में वापस बदलते हैं। अगली पोस्ट पर फिर एक परिवर्तन ...। आप कहेंगे कि यह चौकसी के लिये है। ऐसा होता तो क्या ग़म था। दुःख तब होता है जब उसी पोस्ट पर आपको स्पैम कमेंट भी आराम से रहते हुए दिखते हैं।

कुछ ब्लॉग ऐसे हैं कि आप पढना तो चाहते हैं मगर आपके शांत पठन में बाधा डालने का इंतज़ाम ब्लॉग लेखक ने खुद ही कर दिया है एक ऐसा ऑडियो लगाकर जिसका ऑफ़ बटन या तो होता ही नहीं या ऐसी जगह पर छिपा होता है कि ढूंढते-ढूंढते थक जाने पर पन्ना पलटने से पहले आप उस ब्लॉग पर दोबारा कभी न आने का प्रण ज़रूर करते हैं। आश्चर्य नहीं कि उस ब्लॉग पर अगली पोस्ट पाठकों की तोताचश्मी पर होती है।

इन सदाबहार ऑडियो वालों के विपरीत वे ब्लॉगर हैं जिनके ब्लॉग पर आप जाते ही ऑडियो सुनने (या विडियो देखने) के लिये हैं लेकिन यदि सुनते-सुनते ही आपने कुछ लिखने का प्रयास किया तो टिप्पणी बॉक्स उसी पेज पर होने के कारण आपका ऑडियो रिफ़्रेश हो जाता है। अब सारी कसरत शुरू कीजिये एक बार फिर से ... इतना टाइम किसके पास है भिड़ु? मणि कौल की फ़िल्में देखने से बचता हूँ, हर बार यही बात दिमाग़ में आती है कि निर्देशक को अपने दर्शकों के समय का आदर तो करना ही चाहिये।

सताने वाले ब्लॉगर्स का एक और प्रकार है। ये लोग दिन में पाँच पोस्ट लिखते हैं। हर पोस्ट का ईमेल पाँच हज़ार लोगों को भेजने के अलावा हर ऑनलाइन माध्यम पर उसे पाँच-पाँच बार (पब्लिक, मित्र, विस्तृत समूह आदि) पोस्ट करते हैं। हर रोज़ 25 वाल पोस्ट हाइड करते वक़्त आप यही सोचते हैं कि यह बन्दा आपकी मित्र सूची में घुसा कैसे। फिर एक दिन चैट पर वही व्यक्ति आपको पकड़ लेता है और अपनी दारुणकथा सुनाकर द्रवित कर देता है कि किस तरह उसके सभी अहसान-फ़रामोश मित्र एक एक करके उसे अपनी सूची से बाहर कर रहे हैं। हाय राम, एक साल में 90% टिप्पणीकारों ने साथ छोड़ दिया।

मित्र के दुःख से दुखी आप उसे यह भी नहीं बता सकते कि उसकी कोई पोस्ट पढने लायक हो तो भी शायद लोग झेल लें, मगर वहाँ तो बिना किसी भूमिका के उस समाचार का लिंक होता है जो आज के सभी समाचार पत्रों में आप पहले ही पढ चुके थे। इससे मिलती जुलती श्रेणी उन भाई-बहनों की है जो हज़ार बार पहले पढे जा चुके चेन ईमेल, चुटकुले, चित्र आदि ही चिपकाते रहते हैं।

जागरूक ब्लॉगर्स का एक वर्ग वह है जो अपने ब्लॉग पर न सिर्फ़ कॉपीराइट नोटिस और कानूनी तरदीद लगाकर रखते हैं बल्कि काफ़ी मेहनत करके ऐसा इंतज़ाम भी रखते हैं कि आप उनके ब्लॉग का एक शब्द भी (आसानी से) कॉपी न कर सकें। वैसे इस प्रकार के अधिकांश ब्लॉगरों के यहाँ से कुछ कॉपी करने की ज़रूरत किसी को होती नहीं है क्योंकि इन ब्लॉगों पर अधिकांश लिंक, जानकारी और चित्र पहले ही यहाँ-वहाँ से कॉपी किये हुए होते हैं। मुश्किल बस इनके उन्हीं मित्रों को होती है जो टिप्पणी लेनदेन की सामाजिक ज़िम्मेदारी निभाने के लिये "बेहतरीन" लिखने से पहले उनकी पोस्ट की आखिरी दो लाइनें भी चेपना चाहते हैं।

एक और विशिष्ट प्रजाति है, हल्लाकारों की। ये समाज की नाक में नकेल डालकर उसे सही दिशा की अरई से हांकने के एक्स्पर्ट होते हैं। अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल में भेजने वाले हल्लाकार गुरुकुल पद्धति लाने का नारा बुलन्द करते हैं और हिन्दीभाषी कस्बे में रहते हुए भी खुद कॉंवेंट में पढे हल्लाकार तमिलनाडु में तमिल हटाकर हिन्दी लाने का लारा देते हैं। इस वर्ग को भारत के इतिहास-भूगोल का पूर्ण अज्ञान होते हुए भी भारतीय संस्कृति के सम्मान के लिये अमेरिका-यूरोप की नारियों को बुरके और घूंघट में लपेटना ज़रूरी मालूम पड़ता है। अपने को बम समझने वाले ये असंतोष के गुब्बारे फ़टने के लिये इतने आतुर रहते हैं कि कोई भी गुर्गा खाँ या मुर्गा देवी इनका जैसा चाहें वैसा प्रयोग कर सकते हैं। ऐसे अधिकांश हल्लाकार अपने आप को तुलसीदास से लेकर गांधी तक, राष्ट्रीय गान से लेकर राष्ट्र ध्वज तक और रामायण से लेकर भारतीय संविधान तक किसी का भी अपमान करने का अधिकारी मानते हैं। ये लोग अक्सर संस्कृत या अरबी के उद्धरण ग़लत याद करने और अफ़वाहों को पौराणिक महत्व देने के लिये पहचाने जाते हैं। यह विशिष्ट वर्ग आँख मूंदकर हाँ में हाँ मिलाने वालों के अतिरिक्त अन्य सभी को अपना शत्रु मानता है।

ब्लॉगर्स के अलावा फ़ेसबुक आदि पर मुझे वे छद्मनामी लोग भ्रमित करते हैं जो अपना परिचय देने की ज़हमत किये बिना आपको मित्रता अनुरोध भेजते रहते हैं, अब आप सोचते रहिये कि ब्लेज़ पैस्कल रहता कहाँ है या सृजन साम्राज्ञी आपसे कब मिली थी। ग़लती से अगर आपने रियायत दे दी तो ये विद्वज्जन किसी वीभत्स चित्र या किसी स्वतंत्रता सेनानी की झूठी वंशावली से रोज़ आपकी दीवार लीपना शुरू कर देंगे। अल्लाह बचाये ऐसे क़दरदानों से!

यह लेख किसी व्यक्ति-विशेष के बारे में नहीं है बल्कि सच कहूँ तो किसी भी व्यक्ति या ब्लॉगर की बात न करके केवल उन असुविधाओं का ज़िक्र करने का प्रयास भर है जिनसे हम सब आभासी जगत में दो चार होते हैं। वैसे भी सहनशक्ति की सीमायें, कार्य, अनुभव और मैत्री के स्तर के अनुसार कम-बढ होती हैं। इंसान गलती का पुतला है, जैसे हमें झुंझलाहट होती है वैसे ही हमारे अनेक कार्यों से अन्य लोगों को भी परेशानी होती हो यह स्वाभाविक ही है। हाँ, यदि प्रयास करके चिड़चिड़ाहट का स्तर कम से कम किया जा सके तो उसमें सबका हित है।

Thursday, June 21, 2012

व्यवस्था - कहानी

(कथा व चित्र: अनुराग शर्मा)

हाथ में गुलदस्ता लेकर वह कमरे में घुसी तो वहाँ का हाल देखकर भौंचक्की रह गई। सब कुछ बिखरा पड़ा था। बिस्तर कपड़ों से भरा था, कमीज़ें, पतलूनें, बनियान, पाजामा, मोज़े आदि तो थे ही, सूट और टाइयाँ भी मजगीले से पड़े थे। गुड़ी-मुड़ी से पड़े साफ़ कपड़ों के बीच एकाध पहने हुए कपड़े भी थे। ग़नीमत यही थी कि पहनी हुई ज़ुराबें कमरे के एक कोने में इकट्ठी थीं। अलमारियों के अलावा भी हर ओर किताबें, नोटबुकक्स, डायरियाँ, रजिस्टर, सीडी, डीवीडी और ब्लू रे आदि डिस्क जमा थीं। और पढने की मेज़? राम, राम! हर आकार के बीसियों कागज़ जिनपर तरह-तरह के नोट्स लिखे हुए थे।

अनेक फ़्लैश ड्राइव्स, पैन, पैंसिलें, एलर्जी और दर्द की दवाओं की डब्बियाँ, पेपर-कटर, हथौड़ी, पेंचकस जैसे छोटे मोटे औज़ार नेल-कटर, कैंची, टेप डिस्पैंसर आदि से प्रतियोगिता कर रहे थे। मेज़ पर चश्मों, बटुओं, पासबुकों, चैकबुकों और रोल किये हुए कई पोस्टरों के बीच अपने लिये जगह बनाते हुए किंडल, टैबलैट, फ़ोन और लैपटॉप पड़े थे। मेज़ के नीचे रखे वर्कस्टेशन से न जाने कितने तार निकलकर मेज़ पर ही रखी हुई कई बाहरी हार्ड डिस्क ड्राइवों को जोड़कर एक अजीब सा मकड़जाल बना रहे थे। उसके ऊपर दो-तीन पत्रिकायें भी पड़ी थीं। साथ की छोटी सी मेज़ पर एक बड़ा सा प्रिंटर रखा था जिस पर कार्डबोर्ड के दो डिब्बे भी एक के ऊपर एक भिड़ाये हुए थे। साथ में ही डाक में आने-जाने वाले पत्रों को छाँटने के लिये एक पोर्टेबल दराज ज़बर्दस्ती अड़ा दिया गया था जोकि अब गिरा तब गिरा की हालत में अपने को संतुलित करने का प्रयास कर रहा था।

बुकशेल्व्स पर किताबों के अलावा भी जिस किसी चीज़ की कल्पना की जा सकती है वह सब मौजूद थी। अपने खोल से कभी निकाले न गये अखबारों के रोल, डम्बल्स, कलाकृति सरीखी मोमबत्तियाँ, देश-विदेश से जमा किया गया कबाड़। कितनी तो कलाई घड़ियाँ ही थीं। पाँच छः तरह के हैड फ़ोन पड़े थे। लैपटॉप के पहियों वाले दो बैग कन्धे पर टांगने वाले थैले को कोने की ओर खिसका रहे थे। कपड़ों की अलमारी के दोनों पट खुले हुए थे और वहाँ से भी काफ़ी कुछ बाहर आने की प्रतीक्षा में था। चाय, कॉफ़ी द्वारा अन्दर से काले पड़े कप, तलहटी में दूध का निशान छोड़ते हुए गिलास और सेरियल की कटोरियाँ। पास पड़ा कूड़ेदान कागज़ों में गर्दन तक डूबा हुआ था।

"हे भगवान! ये क्या हाल बना रखा है?"

"समय नहीं मिला, अगले इतवार को सब ठीक कर दूंगा।"

"आज क्यों नहीं? आज भी तो इतवार ही है।"

"कर ही देता, लेकिन सामान रखने की जगह ही नहीं बची है। न जाने लोग कैसे स्पेस मैनेज करते हैं। लगता है इस काम में मुझे विशेषज्ञ की सहायता की ज़रूरत है।"

"थिंक ऑउट ऑफ़ द बॉक्स!"

"वाह, मेरा ही वाक्यांश मेरे ही सर पर!"

"बेसमेंट में रख दें?"

" ... लेकिन मुझे तो इन सब चीज़ों की ज़रूरत रोज़ ही पड़ती है, ... इसी कमरे में रखना पड़ेगा।"

"तो फिर ... कुछ बॉक्स लेकर ..."

"अरे हाँ, क्लीयर प्लास्टिक के दो बड़े डब्बे ले आता हूँ। उनसे सब सामान व्यवस्थित भी जायेगा और मुझे दिखता भी रहेगा।"

तीन हफ़्ते बाद वह फिर आयी तो कमरे के स्वरूप में अंतर था। उस अव्यवस्था के बीच आड़े-टेढे पड़े दो खाली डब्बे भी अब बाकी सामान के साथ अपने रहने की जगह बना चुके थे।

[समाप्त]

Friday, June 15, 2012

प्रेम, न्याय और प्रारब्ध - कविता

छोड़ फूलों को परे कांटे जो उठाते हैं
ज़ख्म और दर्द ही हिस्से में उनके आते हैं
(चित्र व शब्द: अनुराग शर्मा)

बेदर्दी है हाकिम निठुर बँटवारा
ज़मीं हो हमारी गगन है तुम्हारा

जहाँ का हरेक ज़ुल्म हँस के सहा
प्यार में बुज़दिली कैसे होती गवारा

सभी कुछ मिटाकर चला वो जहाँ से
उसका रहा तन पर दिल था हमारा

तेरे नाम पर थी टिकी ज़िन्दगानी
नहीं तेरे बिन होगा अपना गुज़ारा

वो दामे-मुहब्बत नहीं जान पाया
बिका कौड़ियों में दीवाना बेचारा


Sunday, May 27, 2012

ब्राह्मण कौन?

(आलेख व चित्र: अनुराग शर्मा)
ज्ञानी जन तौ नर कुंजर में, सम भाव धरत सब प्रानिन में। 
सम दृष्टि सों देखत सबहिं, गौ श्वानन में चंडालन में ॥
 [डॉ. मृदुल कीर्ति - गीता पद्यानुवाद]
जब से बोलना सीखा, दिल की बात कहता आया हूँ। मेरे दिल की बात क्या है, कुछ मौलिक नहीं, वही सब जो अपने आसपास सुना, पढा, समझा और सीखा है। सब कुछ सही होने का दावा नहीं कर सकता हाँ इतना प्रयास अवश्य रहता है कि सत्य अपनाया जा सके और उसे प्रिय और श्रेयस्कर मान सकूँ।

उपनिषदों में जाबालि ऋषि सत्यकाम की कथा है जो जाबाला के पुत्र हैं। जब सत्यकाम के गुरु गौतम ने नये शिष्य बनाने से पहले साक्षात्कार में उनके पिता का गोत्र पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया कि उनकी माँ जाबाला कहती हैं कि उन्होंने बहुत से ऋषियों की सेवा की है, उन्हें ठीक से पता नहीं कि सत्यकाम किसके पुत्र हैं। ज्ञानवृत्ति के पालक ऋषि सत्य को सर्वोपरि रखते आये हैं। सत्यकाम की बात सुनते ही गौतम ऋषि उन्हें सत्यव्रती ब्राह्मण स्वीकार करके जाबालि गोत्र का नाम देकर पुकारते हैं।
खून से ही वंश की परम्परा नहीं चलती, जो विश्वास वहन करता है, वही होता है असली वंशधर ~ सत्यकाम फ़िल्म से (रजिन्दर सिंह बेदी लिखित) एक सम्वाद 
बात की शुरुआत हुई एक मित्र के फ़ेसबुक स्टेटस से जिसका शीर्षक था "बन्दउँ प्रथम महीसुर चरना :)" संलग्न लिंक था टाइम्स ऑफ़ इंडिया की एक खबर से जिसमें चर्चा थी उस ट्रेंड की जहाँ निसंतान भारतीय दम्पत्तियों की पहली पसन्द ब्राह्मण संतति प्राप्त करना पाई गयी थी। ब्राह्मण शब्द पर ज़ोर था। काफ़ी दिन बाद फिर से ध्यान गया उस शब्द पर जिसकी चर्चा अक्सर होती है पर उसका अर्थ शायद अलग-अलग लोगों के लिये अलग ही रहा है। एक बुज़ुर्ग भारतीय मित्र हैं जो जाति पूछे जाने पर अपने को "जन्मना ब्राह्मण" कहते थे क्योंकि तथाकथित ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के बावजूद उन्होंने अपने को कभी ब्राह्मण नहीं माना। एक अन्य जन्मना ब्राह्मण मित्र हैं जो अक्सर जन्मना ब्राह्मणों को कोसते दिखाई देते हैं। विद्वान हैं, कई बातें सही भी हैं लेकिन कई बार यह विघ्नकारी हो जाता है।

अली सैयद जी के ब्लॉग उम्मतें की एक पोस्ट "कभी यहां तुम्हें ढूंढा...कभी वहां देखा...!" पढते समय ध्यान गया कि शास्त्रों के काल से लेकर आज तक भले ही भृगु, विश्रवा, च्यवन आदि ब्रह्मर्षियों की बात हो या वर्तमान समाज में देखें तो अरुणा आसफ़ अली, सरोजिनी नायडू, इन्दिरा गांधी जैसे स्वाधीनता सेनानियों की, भारत में यदि कोई एक जाति अंतर्जातीय सम्बन्धों में आगे रही है तो वह ब्राह्मण जाति ही है। ब्राह्मण परिवार में जन्मी पॉप गायिका पार्वती खान का नाम कई पाठकों को याद होगा। पढ़ने में आता है कि डॉ भीमराव अंबेडकर की पत्नी डॉ शारदा कबीर (माई सविता अंबेडकर) भी एक ब्राह्मण परिवार में जन्मी थीं। मैं अपने आसपास के अंतर्जातीय विवाहों पर नज़र दौड़ाता हूँ तो जन्मना ब्राह्मणों को अग्रणी पाता हूँ। प्रेम की तरह शायद कट्टरता के भी कई रूप होते हैं, एक सर्वभूतहितेरतः वाला और दूसरा अहमिन्द्रो न पराजिग्ये वाला। 

प्रथम ब्राह्मण रेजिमेंट (1776-1931) भारतीय सेना
ब्राह्मण यानी द्विज यानी दूसरे जन्म याने संस्कार से बना हुआ व्यक्ति। मतलब यह कि ब्राह्मण जन्म से नहीं होता। ब्राह्मण होने का मतलब ही है आनुवंशिकता के महत्व को नकारकर ज्ञान, शिक्षा और संस्कार के महत्व को प्रतिपादित करना। विश्व के अन्य राष्ट्रों की तरह भारतीय जातियाँ पितृकुल से भी हैं, मातृकुल से भी। लेकिन भारत के ब्राह्मण गोत्र संसार भर से अलग एक अद्वितीय प्रयोग हैं। ब्राह्मण मातृकुल, पितृकुल, कम्यून आदि से बिल्कुल अलग ऐसी परिकल्पना है जो गुरुकुल से बनी है। जातिवाद और ब्राह्मणत्व दो विरोधी प्रवृत्तियाँ हैं। इनका घालमेल करना निपट अज्ञान ही नहीं, एक तरह से भारतीय परम्परा का निरादर करना भी है।

गुरुकुल शब्द ही ब्राह्मणों के कुल के अनानुवंशिक होने का प्रमाण है। न माता का, न पिता का, गुरु का कुल - ब्राह्मणों के एक नहीं, न जाने कितने गोत्र ऐसे हैं जहाँ पिता और पुत्र के चलाये हुए गोत्र अलग हैं उदाहरणार्थ वसिष्ठ का अपना गोत्र है और उनके पौत्र पराशर का अपना - यदि आनुवंशिक आधार होता तो ये दो गोत्र अलग नहीं होते। इसी प्रकार भृगु का अपना गोत्र भी है और उनकी संततियों के अपने-अपने। सभी शिष्य अपने गुरु का कुल चलाते हैं। इस विशाल समुदाय में गुरु के अपने भी एकाध बच्चे होंगे, मगर भूसे के ढेर को उसमें पड़ी एक सुई से परिभाषित नहीं किया जा सकता। शुनःशेप का गोत्र परिवर्तन भी गुरुकुल के सिद्धांत को ही प्रतिपादित करता है।

भारतीय संस्कृति संस्कारों में विश्वास करती है। सभी संस्कार सबके लिये हैं मगर उपनयन किये बिना द्विज नहीं बना जा सकता, मतलब यह कि ब्राह्मणत्व केवल वंश आधारित नहीं हो सकता है। ब्राह्मण परिवार के बाहर जन्मे विश्वामित्र का ब्रह्मर्षि बनना ब्राह्मणत्व के जन्म से मुक्त होने का एक दृष्टांत है। विश्वामित्र का हिंसक क्रोध बना रहने तक वशिष्ठ उन्हें ब्रह्मर्षि स्वीकार नहीं करते। इन्हीं विश्वामित्र का पश्चात्ताप वसिष्ठ द्वारा उनके ब्राह्मणत्व को मान्यता देने का आधार बनता है। यह संयोग मात्र नहीं कि विश्वामित्र को ब्राह्मणत्व प्रदान करने वाले वसिष्ठ स्वयं भी किसी ब्राह्मणी के नहीं बल्कि अप्सरा उर्वशी के पुत्र हैं। उनके अतिरिक्त व्यास, कौशिक, ऋष्यशृंग, अगस्त्य, जम्बूक आदि ऋषियों के अब्राह्मण जन्म की कथायें शास्त्रों में मिलती हैं परंतु उन सबका ब्राह्मणत्व सुस्थापित और सर्वमान्य हैं।

बुद्ध के शब्दों में ब्राह्मण अकिंचनं अनादानं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं॥
जो अकिंचन है, अपरिग्रही और त्यागी है, उसे ही मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
वारि पोक्खरपत्ते व आरग्गे रिव सासपो।
यो न लिम्पति कामेसु तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं॥
कमल के पत्ते पर जल की बूंद और आरे की धार पर सरसों के दाने की तरह भोगों से निर्लिप्त रहने वाले को मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
निधाय दंडं भूतेसु तसेसु ताबरेसु च।
यो न हन्ति न घातेति तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं॥
चर-अचर, किसी प्राणी को जो दंड नहीं देता, न मारता है, न हानि पहुँचाता है वही ब्राह्मण कहलाएगा।

आज ब्राह्मण जाति की उपस्थिति देश के लगभग हर क्षेत्र में हैं परंतु असम का ब्राह्मण पंजाबी ब्राह्मण के मुकाबले एक असमी से अधिक मिलता हुआ होता है और यह बात तमिळ, नेपाली, कश्मीरी, गुजराती सब ब्राह्मणों के बारे में कमोबेश सही है। हाँ राष्ट्रभर में बिखरा हुआ यह समुदाय वैचारिक रूप से अवश्य एकरूप हुआ है मगर उसका कारण संस्कार, दीक्षा, दृष्टि और परिवेश है न कि आनुवंशिकता। ब्राह्मण अलग वर्ण अवश्य है लेकिन अलग आनुवंशिक जाति कदापि नहीं।

गीता के मेरे प्रिय श्लोकों में से एक है:
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि
शुनिचैव श्वपाके चः पंडिताः समदर्शिनः
ज़र्रे-ज़र्रे में एक ही ईश्वर का अंश देखने वाली भारतीय परम्परा में हर प्राणी के लिये समदर्शी होने में कोई अनोखी बात नहीं है। गाय, हाथी, ब्राह्मण, कुत्ता और यहाँ तक कि कुत्ता खाने वाले में भी समानता देखने वाली परम्परा में मज़हब, भाषा आदि जैसी दीवारों के नामपर बँटवारा और फ़िरकापरस्ती के लिये कोई जगह नहीं है। एक ओर हम भेदभाव विहीन समाज की मांग करते हैं, वहीं दूसरी ओर अपने परिवार के विवाह सम्बन्ध ढूंढते समय, बच्चे गोद लेते समय और टाइम्स ऑफ़ इंडिया के समाचार के अनुसार उससे भी एक क़दम आगे बढकर जाति में गौरव ढूंढते हैं, यह कैसा विरोधाभास है?

रेखाचित्र: अनुराग शर्मा
इसी प्रकार कुछ लोग जात-पाँत को सही ठहराने के लिये प्राचीन वर्ण व्यवस्था का नाम लेते हैं। वे भूल जाते हैं कि वर्ण व्यवस्था वास्तव में वर्णाश्रम व्यवस्था थी। आश्रम के आग्रह के बिना वर्ण के आग्रह का कोई अर्थ नहीं रहता। दूसरे, शास्त्रसम्मत चार वर्ण और आज की भेदभावपरक हज़ारों जातियाँ दो अलग-अलग बातें हैं। और फिर प्राचीन व्यवस्था में से कितनी अन्य बातें आज हमने बचाकर रखी हैं? उस पर यह भी एक तथ्य है कि ब्राह्मण भले ही वर्णाश्रम-व्यवस्था का अंग हों, विभिन्न जातियाँ भारत में सभी धर्मों में स्पष्ट और गहराई से गढी हुई दिखाई देती हैं। मुसलमानों में अशरफ़, अजलाफ़, अरजाल आदि समूहों में बंटी सैकड़ों जातियाँ मिल जायेंगी। बल्कि मुसलमानों में अनेक ऐसी जातियाँ भी हैं जो हिन्दुओं में नहीं होतीं। सिखों में जाट, खत्री, मज़हबी समूहों के अतिरिक्त हिन्दू जातियों में पाये जाने वाले कुलनाम मिलेंगे और ईसाई समुदाय में तो अपने को दलित, सीरियन, सारस्वत आदि मानकर भिन्नता बरतने वाले आसानी से दिखाई देते हैं। इस प्रकार, जातियाँ आनुवंशिक, क्षेत्रीय या दोनों हो सकती हैं जबकि ब्राह्मण इन दोनों से ही अलग हैं। इसी प्रकार जातियाँ हिन्दूओं से इतर मान्यता वाले समूहों में भी उपस्थित हैं जबकि ब्राह्मण नहीं।

जन्मना जायतेशूद्र: संस्कारात् द्विज उच्यते:
शास्त्र का वचन है कि जन्म से सभी मनुष्य शूद्र हैं। ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से यज्ञोपवीत लेकर शिक्षा लेने वाला मनुष्य द्विज कहलाता है। अर्थात ब्राह्मण वह है जो ज्ञान प्राप्ति द्वारा समाज के उत्थान हेतु अपने जन्म, जाति, देश, अस्तित्व आदि के बन्धनों का त्याग करता है।

सामवेद शाखा के वज्रसूचिकोपनिषद (वज्रसूचि उपनिषद) में ब्राह्मण विषय पर विस्तार से वार्ता हुई है। प्रश्न हैं, सम्भावनायें हैं, उनका सकारण खंडन है और फिर परिभाषा भी है:
क्या जीव ब्राह्मण है? नहीं!
क्या शरीर ब्राह्मण है? नहीं!
क्या जाति ब्राह्मण है? नहीं!
क्या ज्ञान ब्राह्मण है? नहीं!
क्या कर्म ब्राह्मण है? नहीं!
क्या (सत्कर्म का) कर्ता ब्राह्मण है? नहीं!

तब फिर ब्राह्मण है कौन? जिसे आत्मा का बोध हो गया है, जो जन्म और कर्म के बन्धन से मुक्त है, वह ब्राह्मण है। ब्राह्मण को छह बन्धनों से मुक्त होना अनिवार्य है - क्षुधा, तृष्णा, शोक, भ्रम, बुढ़ापा, और मृत्यु। एक ब्राह्मण को छह परिवर्तनों से भी मुक्त होना चाहिये जिनमें पहला ही जन्म है। इन सब बातों का अर्थ यही निकलता है कि जन्म और भेद में विश्वास रखने वाला ब्राह्मण नहीं हो सकता। ब्राह्मण वह है जिसकी इच्छा शेष नहीं रहती। सच्चिदानन्द की प्राप्ति (या खोज) ब्राह्मण की दिशा है। ब्राह्मण समाज के उत्थान के लिये कार्य करता है। ब्राह्मण का एक और कार्य ब्रह्मदान या ज्ञान का प्रसार है। इसी तरह, असंतोष के रहते कोई ब्राह्मण नहीं रह सकता, भले ही उसका जन्म किसी भी परिवार में हुआ हो। ऐसा लगता है कि "संतोषः परमो धर्मः" भी ब्राह्मणत्व की एक ज़रूरी शर्त है।

आपका क्या विचार है?
ब्लॉगअड्डा ने मेरा एक साक्षात्कार प्रकाशित किया है, यदि आपकी रुचि हो तो यहाँ क्लिक करके पढ सकते हैं, आभार!
* सम्बन्धित कड़ियाँ *
* वज्रसूचि उपनिषद्
* चार वर्ण (गायत्री परिवार)
* बॉस्टन ब्राह्मण
* पाकिस्तान में एक ब्राह्मण
* हू इज़ अ ब्राह्मण (धम्मपद)
* जन्मना (रमाकांत सिंह) 

Friday, May 25, 2012

गहरे गह्वर गहराता - कविता

बसेरा चार दिन का है :(
(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)

वह आता
मद छाता
मन गाता

मन भाता
सुख पाता
उद्गाता*

वह जाता
उजियारा
हट जाता

अन्धियारा
घिर आता
पछताता

सूना मन
क्या पाता
दुःखदाता

जो आता
पल भर में
सब जाता

सुख लगता
छल जाता
औ' बिसराता

जब दुःख
गहरे गह्वर
गहराता ...
--------
*उद्गाता = 1. सन्ध्या/अग्निहोत्र में वेदमंत्रों का गायक,
2. यज्ञ में वेदमंत्र गायक ऋत्विजों का नायक, 3. प्राण, 4. वायु

Tuesday, May 15, 2012

बदले ज़माने देखो - कविता

(कविता व चित्र अनुराग शर्मा)


रंग मेरे जीवन में, तुमने भी सजाये हैं
याद से हटते नहीं गुज़रे ज़माने देखो।
सूनी आँखों में बसे दोस्त पुराने देखो॥

प्यार की जीत सदा नफ़रतों पे होती है।
हर तरफ़ महके मेरे शोख फ़साने देखो॥

ग़लतियाँ हमने भी सरकार बड़ी कर डालीं।
चाहते क्या थे चले क्या-क्या कराने देखो॥

कोशिशें करने से भी वक़्त ही जाया होगा।
भर सकेंगे न कभी दिल के वीराने देखो॥

सारा दिन दर्द के काँटों पे ही गुज़रा था।
रात आयी है यहाँ ख्वाब सजाने देखो॥

आखिरी बूंद मेरे खून की बहने के बाद।
ताल खुद आये मेरी प्यास बुझाने देखो॥

साँस रोकी थी मेरी जिसने ज़ुबाँ काटी थी।
मर्सिया पढ़ता वही बैठ सिरहाने देखो॥

Saturday, May 12, 2012

मातृ दिवस पर सभी माताओं को हार्दिक नमन!

मेरे एक मित्र ने एक बार यह कथा सुनाई थी। वही क़िस्सा आज मातृदिवस के अवसर पर आपकी सेवा में प्रस्तुत है।
मातृ देवो भवः, पितृ देवो भवः, आचार्य देवो भवः, अतिथि देवो भवः॥

एक बार एक पहुँचे हुए सत्पुरुष ने सिनाई पर्वत पर ईश्वर का साक्षात्कार किया। ईश्वर ने उन्हें बताया कि अमुक स्थान में रहने वाला एक वधिक स्वर्ग में उनका साथी होगा। एक वधिक, स्वर्ग में, उनका साथी? सत्पुरुष को आश्चर्य तो हुआ पर बात ईश्वर की थी सो उसका रहस्य जानने के उद्देश्य से वे इस वार्ता के बाद, अपनी पहचान गुप्त रखते हुए उस वधिक को मिले। अतिथि की सेवा करने के उद्देश्य से वह वधिक उन्हें अपने घर ले गया। घर पहुँचकर उन्हें बिठाकर कुछ देर इंतज़ार करने के लिये कहकर यजमान अपनी वृद्ध और जर्जर माँ के पास पहुँचा और उनके हाथ पाँव धोकर बाल संवारे फिर अपने हाथ से खाना खिलाया। तृप्त होकर वृद्धा कुछ बुदबुदाई जिस पर यजमान ने तथास्तु कहा।
माँ - एक कविता 
जब यजमान अतिथि के पास वापस पहुँचा तो सत्पुरुष ने उससे वृद्धा और उसकी कही बात के बारे में पूछा। यजमान ने हँसते हुए बताया कि माँ अपने बेटे के स्नेह में कुछ भी बोल देती है और मैं तो माँ की भावना का आदर करते हुए तथास्तु कहता हूँ। वरना, जो वह कहती है, वैसा संभव नहीं है।

अतिथि ने जानने का इसरार किया तो यजमान ने शर्माते हुए बताया कि माँ कहती है कि जन्नत में मूझे हज़रत मूसा का साथ मिलेगा, माँ की ममता को जानते हुए हाँ कह देता हूँ। वर्ना कहाँ एक वधिक, कहाँ स्वर्ग और कहाँ हज़रत मूसा।

तब अतिथि ने कहा, "तुम्हारी माँ की प्रार्थना स्वीकार हो चुकी है, मैं स्वर्ग में तुम्हारा साथी मूसा हूँ।"

पाकिस्तान में रहनेवाले डॉ क़ुरेशी से यह कथा सुनने के बाद मेरे मन में पहला विचार यही आया कि वन्दे-मातरम पर हम भारतीयों का एकाधिकार नहीं है। अन्य संस्कृतियों में भी जन्नत माँ के चरणों में ही मानी जाती है।

अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रुच्यते। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥

मूल आलेख की तिथि: रविवार, 12 मई 2012, मातृदिवस (Mother's Day)

Tuesday, May 8, 2012

इतना भी पास मत आओ - कविता

 (कविता व चित्र: अनुराग शर्मा)

ज़िन्दगी प्रेम का राग है
मार तेरे प्यार की हमने प्रिये हँसकर सही है।
शब्द मिटते जा रहे पर अर्थ तो फिर भी वही है॥

सर झुका लेते हैं जब भी देखते हैं हम तुम्हें।
रास्ते में छेड़ना तुम ही कहो कितना सही है॥

है सफ़र मुश्किल अगर गुज़रें रक़ीबों की गली।
मेरी डगर के ज़िक्र पे तुमने सदा कड़वी कही है॥

सह सकूँ हर ज़ुल्म तेरा चाहत ए दिल है यही।
दर्द से चिल्ला पड़ा इतनी शिकायत तो रही है॥

खिड़की खुले तो हो सके रोशन जो घर अन्धेरा है।
सियाही कब से इस चौखट में जमती जा रही है॥

Saturday, May 5, 2012

चक्रव्यूह - कविता

आर्ट कनेक्शन 2012 से साभार
(कविता व चित्र: अनुराग शर्मा)

यादों के बंधन
बंधन के बांध
बांध की सीमायें
सीमा पर अन्धकार
अन्धकार का अज्ञान
और उस
अज्ञान की यादें
कभी तो यह चक्र टूटे
कभी तो टूटे ...


Monday, April 30, 2012

बॉस्टन में वसंत का जापानी महोत्सव - इस्पात नगरी से [58]

एक पार्क का दृश्य
उत्तरी गोलार्ध में वसंतकाल अभी चल रहा है। कम से कम उत्तरपूर्व अमेरिका तो इस समय पुष्पाच्छादित है। पूरे-पूरे पेड़ रंगों से भरे हुए हैं। साल में दो बार प्रकृति इस प्रकार र्ंगीली छटा में नहाई दिखती है। यहाँ बहार और पतझड़ दोनों ही दर्शनीय होते हैं। अंतर इतना ही है कि एक सृजन का सौन्दर्य है और एक विदाई का। एक प्रातः है और दूसरी साँय। लेकिन सौन्दर्य में कोई कमी नहीं है। यह समय नव-पल्लवों का है जबकि वह समय पत्तों के सौन्दर्य का है जो जाते-जाते भी विदाई को यादगार बना जाते हैं। बाज़ार फ़िल्म के एक गीत की उस मार्मिक पंक्ति की तरह जहाँ संसार त्यागने का मन बना चुकी नायिका अपने प्रिय से कहती है:
याद इतनी तुम्हें दिलाते जायें, 
पान कल के लिये लगाते जायें, 
देख लो आज हमको जी भर के

जापान में भी कुछ समय पहले सकूरा का समय था। मुनीश भाई ने इस विषय पर तोक्यो से बहुत सुन्दर चित्रालेख लगाये थे। उनके शब्दों को दोहराऊँ तो सकूरा में जापानी संस्कृति का रहस्य छिपा है। भले ही कुछ देर के लिये खिलो, लेकिन ऐसे खिलो कि संसार वाह कर उठे। सकूरा का समय तो अब पूरा हुआ। मेरे आंगन का सकूरा (क्वांज़न चेरी ब्लॉसम) भी अपने सारे पुष्पों की वर्षा कर के अब हरे पत्तों से लदा हुआ है। लेकिन अन्य बहुत से पेड़ प्रकृति का सौन्दर्य संतुलन बनाने में जी-जान से लगे हुए हैं। प्रकृति में कहाँ से आते हैं इतने रंग? कौन भरता है जीवन में उल्लास। हम भारतीय तो उत्सव-प्रिय लोग हैं मगर वसंत उत्सव पर हमारा एकाधिकार नहीं है। सर्दी में सोई पड़ी प्रकृति के एक अंगड़ाई लेते ही संसार भर में वसंत की खुशबू बिखर जाती है और लोग निकल पड़ते हैं उत्सव मनाने।

अमेरिका की विशेषता है यहाँ की विविधता। भारतीय संस्कृति अपने उत्कर्ष पर थी तब जिस प्रकार कभी भारत में संसार भर से लोग आया करते थे उसी प्रकार आज अमेरिका विश्व का चुम्बक है। इस महान लोकतंत्र में आज आपको हर देश, जाति, संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाले मिल जायेंगे। बेशक, इस विविधता ने अमेरिका को वह ऊँचाई प्रदान की है जिसे पाने के लिये संसार के अन्य राष्ट्र ललक रहे हैं। अनेकता में एकता का एक उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अमेरिका की निरपेक्ष संस्कृति ने हर राष्ट्रीयता को अपनी विशेषतायें बनाये रखने और उनकी उन्नति करने का अवसर दिया है।

यहाँ आपको तिब्बती या अफ़ग़ान ढाबा भी आराम से मिल जायेगा और योग प्रशिक्षण केन्द्र भी। मन्दिर, मस्ज़िद तो हैं ही, विभिन्न भाषा-भाषियों और राष्ट्रीयता वाले अनेक चर्च भी मिल जायेंगे। अगर कोई भारतीय समूह अपने देवता या बाबा की प्रतिष्ठा में हर सप्ताह जगह किसी चर्च से किराये पर लेता हो तो उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मैंने खुद कई सरकारी स्कूलों में न जाने कितने रविवार को उपनिषदों पर प्रवचन सुने हैं। प्राचीन भारत और आधुनिक अमेरिका इस बात के सशक्त उदाहरण हैं कि सहिष्णुता और उदारता किसी राष्ट्र के उत्थान में कितनी आवश्यक है।

जब विविध राष्ट्रीयतायें और विभिन्न समुदाय हैं तो उनके अपने सांस्कृतिक उत्सव होना स्वाभाविक है। इस सप्ताहांत कुछ मित्रों ने बॉस्टन का जापानी वसंत महोत्सव देखने बुलाया। मेरे पास भी उस दिन कुछ खास काम नहीं था। नियत समय पर पहुँच गया नगर के एक प्राचीन चर्च के मैदान में। जाते ही नज़र पड़ी किमोनो स्टाल पर जहाँ बड़ी महिलाओं से लेकर नन्हीं बच्चियाँ तक सभी के ट्राय करने के लिये जापानी परिधान किमोनो उपलब्ध थे। ये दो स्त्रियाँ एक बच्ची को किमोनो पहना रही हैं जिससे हम आगे मिलेंगे।
इस स्टाल पर ये लोग अखबार और पुराने पत्र-पत्रिकाओं के कागज़ से विभिन्न वस्तुयें बनाकर आगंतुकों को दे रहे थे, साथ ही जापानी हिरागाना लिपि में उनके नामपट्ट और बुकमार्क भी बना रहे थे। कुछ बूथ पर कैलिग्राफ़ी और चित्रकला का प्रदर्शन भी था। बच्चे मगन होकर रंगों को मनचाहे रूप प्रदान कर रहे थे।
जापानी परिधान और नीली छतरी में पोज़ देती यह षोडषी निश्चित रूप से जापानी नहीं है। मगर विविधता का यही सौन्दर्य है। जहाँ आप न केवल विभिन्न संस्कृतियों को देखते हैं बल्कि उन्हें महसूस करते हैं और उनका भाग बनने में खुशी का अनुभव करते हैं। भिन्नता से भय नहीं बल्कि मानवता के एक होने का अहसास उपजता है। अफ़्रीकी मूल की युवती को जापानी परिधान में देखना मुझे अच्छा लगा। और भी बहुत से लोग थे जो जापानी वेशभूषा में थे। मौसम अच्छा था शायद इसलिये भीड़ बहुत थी। इतनी भीड़ कि किसी भारतीय मेले की याद आ जाये। किसी भी चित्र का बड़ा रूप देखने के लिये उस पर क्लिक कर सकते हैं।
चर्च के बाहर बने स्टेज पर गीत, संगीत और नृत्य के विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम चल रहे थे। मज़े की बात ये थी कि यहाँ भी भाग लेने वालों में जापानी मूल के लोगों के साथ बहुत से लोग अन्य जातियों, राष्ट्रीयताओं वाले थे। समूह गान और ढोल के प्रदर्शनों में भी स्थानीय प्रशिक्षण केन्द्र और स्थानीय छात्रों की कई लाजवाब प्रस्तुतियाँ थीं। दर्शकों की संख्या इतनी अधिक होने की मुझे कतई उम्मीद नहीं थी। ग़नीमत यह थी कि अधिकांश लोग जापानी मूल के थे इसलिये उनकी अद्वितीय विनम्रता के दर्शन हर ओर हो रहे थे।

किस्म-किस्म के स्टाल हैं। जापानी कलाकृतियाँ और चित्रों की बहुतायत है। जापान की यात्रा और जापानी शिक्षा देने वालों की भी कोई कमी नहीं दिखती। बच्चों के लिये बहुत से खेल और मुखौटे भी। यह देखिये जापानी परिधान में एक भारतीय ढोल। यह किसी महिला मंडल का स्टाल था जिसमें अधिकांश जापानी महिलाओं के साथ यह भारतीय युवती मगन होकर ढोल बजाने में व्यस्त थीं। आगे कुछ और झलकियाँ।
जैसे भारत में धार्मिक-सांस्कृतिक समारोहों में देवी-देवता की रथयात्रा या झांकियाँ निकालने की रीति है वैसे ही जापान में भी पालकी पर किसी मन्दिर के अधिष्ठाता देव की यात्रा निकाली जाती है। यह यात्रा जापानी उत्सवों का एक अभिन्न अंग है। इस पालकी को मिकोशी कहते हैं। बॉस्टन का यह जापानी वसंतोत्सव भी मिकोशी के बिना कैसे सम्पन्न होता। सो यहाँ भी एक मिकोशी सजाई गयी और फिर शाम को उसकी यात्रा निकाली गयी।
जाने कहाँ से आ रही थी इतनी भीड़। कार्यक्रम शुरू होने के दो घंटे बाद भी लोग कम होने के बजाय बढते ही जा रहे थे। कुछ ही देर में भोजन समाप्त हो गया। जापान एयर लाइंस वाले तोक्यो तक के मुफ़्त टिकट के लिये रैफ़ल निकाल रहे थे, न जाने कितने लोग उसके लिये भी किस्मत आज़माने में लगे थे।  स्टेज पर इस समय जापानी ड्रम ताइको वादन का प्रदर्शन शुरू होने वाला है जिसके लिये मैं विशेषतौर पर यहाँ आया था। आप मेला देखिये मैं तब तक ताइको  पर यागीबुशी का आनन्द लेता हूँ।
विशालकाय ढोलों पर गज़ब का अधिकार प्रदर्शित करती हुई छोटी लड़कियाँ। मधुर स्वरलहरी के साथ-साथ हमारे डांडिया का अहसास कराती नृत्य गतियाँ भी। बीच-बीच में जापानी में कुछ उद्घोष सा भी जो सुनने में सॉरे जैसा लगता है। उस समय अपने जापानी मित्रों से पूछने का याद नहीं रहा। बाद में कभी पूछकर सही शब्द लिख दूंगा।  लेकिन उस सबके बारे में फिर कभी। अभी तो आपके लिये एक चित्र और है ...

यह हैं इस समारोह के सबसे आकर्षक व्यक्ति का खिताब जीतने वाली प्यारी सी गुड़िया। जय हो!


अब देखिये एक झलकी जापानी ढोलवाद्य की। यह क्लिप यूट्यूब से ली है, जापान के नरिता में हुए एक प्रदर्शन से

* सम्बन्धित कड़ियाँ *
* इस्पात नगरी से - श्रृंखला
* झलकियाँ जापान की - श्रृंखला

Thursday, April 26, 2012

परशु का आधुनिक अवतार - इस्पात नगरी से [57]


माँ बाप कई प्रकार के होते हैं। एक वे जो बच्चों की उद्दंडता को प्रोत्साहित करते हैं जबकि एक प्रकार वह भी है जो अपने बच्चे की ग़लती होने पर खुद भी शर्मिन्दा होकर क्षमायाचना करते हैं। एक माता पिता बच्चों के पढाई में ध्यान न देने पर उन्हें डराते हैं कि पढोगे नहीं तो घास काटनी पड़ेगी। हमारे यहाँ गर्मी का मौसम रहने तक लगभग प्रत्येक गृहस्वामी/स्वामिनी हफ़्ता दस दिन में अपने लॉन में घास काटता ही नज़र आता है। बेशक, हम भी शनिवार की कई दोपहरी यही महान कार्य करते बिताते हैं। मन में यह भी ख्याल आता है कि कहीं ज़्यादा पढ लेते तो शायद इस काम के भी न रहते। :(
एक दिन घास काटते-काटते देखा कि मेपल का एक छोटा वृक्ष बिजली, केबल, फ़ोन आदि के तारों तक पहुँचने लगा है। सोचा कि समय रहते छाँट दिया जाये तो बेहतर रहेगा। फिर भी मन में दुविधा थी। एक तो यह कि बोनसाई तो सैकड़ों बनाई थीं लेकिन बड़ा पेड़ काटने का कोई अनुभव नहीं था। दूसरी बात यह कि भरे पूरे वृक्ष पर चिड़ियों के घोंसले होने की पूरी सम्भावना थी। सर्दियों में ताम्बई लाल पत्ते पीले होकर गिर जाते हैं। हर तरफ़ प्रकृति के शांत रंगों की बहार सी छा जाती है। ठंड अधिक बढने पर काले कौवों व छोटी गौरय्या के अलावा कोई चिड़िया यहाँ नहीं दिखती है। पेड़ काटने के लिये वही समय उपयुक्त लगा।
मौसम बदलने का इंतज़ार किया। पतझड़ आने पर जब चिड़ियाँ दक्षिण दिशा को और पत्ते रसातल को चले गये तब एक दिन परशुराम जी की जय बोलकर एक आधुनिक परशु, मेरा मतलब है कि एक चेन वाली आरी (चेनसॉ) खरीदी गई। लेकिन सिर मुंडाते ओले पड़ने वाली कहावत का पालन करते हुए जब आरी आई तो बर्फ़ गिरनी शुरू हो गयी। लेकिन अल्लाह के फ़ज़ल से इस बार सर्दियाँ हल्की रहीं और ऐसे कई सप्ताहांत आये जब बर्फ़ का नामोनिशाँ न था। जब कभी मौसम ठीक था तब या तो हम शहर में नहीं थे या घर पर नहीं थे। एक दिन जब पेड़ पूर्णतया पर्णहीन था, आसमान साफ़ था और हम भी ठलुआ थे, सोचा काग़ज़ी कविताई करने के बजाय कुछ ठोस काम किया जाये।
उस शुभ दिन हमने अपने लॉन के सबसे छोटे मेपल पर हाथ आज़मा लिया। आरी वाकई बहुत सशक्त है। पच्चीस फ़िट ऊँचे पेड़ का मुख्य तना काटने में कुछ सेकंड ही लगे। यद्यपि बाद में तने और शाखाओं को छोटे टुकड़ों में काटने में अधिक समय लगा और फिर हमारे आलस के चलते उन्हें हटाने में और भी समय लगा। कुल मिलाकर एक नया अनुभव। कुछ समय तक तो पेड़ का ठूंठ अजीब सा दिखता रहा। वसंत में सब वृक्षों पर नई पत्तियाँ आईं तो यह मेपल भी फिर से खिलखिलाने लगा है।



मेपल के नवपल्लव

मेपल छाँटने से पहले के इस आकाशीय परिदृश्य में वह छोटा मेपल और अन्य सारे वृक्ष दिख रहे हैं। इस मेपल के अलावा तीन अन्य मेपल हैं जो कि खासे बड़े हैं और उनके तने की परिधि 4-5 फ़ुट की होगी यद्यपि इस चित्र में उनमें से बड़े वाले दो अपने से कहीं बड़े ओक वृक्षों से ढंके होने के कारण पूरे दिखाई नहीं दे रहे। यह चित्र अभय जी और दराल जी की टिप्पणियों के बाद प्रश्नोत्तर कार्यक्रम के अंतर्गत जोड़ा गया है।   


... और यह है हमारा तड़ित-परशु मौका-ए-वारदात पर। सात किलो वज़न,  डेढ फ़ुट का फल और कड़ी से कड़ी लकड़ी को मक्खन की तरह काटने में सक्षम।
* सम्बन्धित कड़ियाँ *