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Friday, June 7, 2013

सुखांत - एक छोटी कहानी

(कथा व चित्र: अनुराग शर्मा)

इंडिया शाइनिंग के बारे में ठीक से नहीं कह सकता लेकिन इतना ज़रूर है कि गांव बदल रहे हैं। धोती-कुर्ते की जगह पतलून कमीज़, चुटिया की जगह घुटे सिर से लेकर फ़िल्मस्टार्स के फ़ैशनेबल इमिटेशन तक, घोड़े, इक्के, बैलगाड़ी की जगह स्कूटर, मोटरसाइकिल और चौपहिया वाहन। किसी-किसी हाथ में दिखने वाले मरफ़ी या फिलिप्स के ट्रांज़िस्टर की जगह हर हाथ में दिखने वाले किस्म-किस्म के मोबाइल फोन।  अनजान डगर, तंग गलियाँ छोटा सा कस्बा। क्या ढूंढने जा रहा है? क्या खोया था? मन? क्या इतने वर्ष बाद सब कुछ वैसा ही होगा? बारह साल बाद तो कानूनी अधिकार भी समाप्त हो जाते हैं शायद। तो क्या लम्बे समय पहले खोया हुआ मन कभी वापस मिलेगा? न मिले, एक बार देख तो लेगा।

मुकेश का परिवार पास ही रहता था। तब वे दोनों बारहवीं कक्षा में एकसाथ ही पढते थे। मनोज अपने घर में अकेला था पर मुकेश की एक छोटी बहन भी थी, नीना। वह कन्या विद्यालय में दसवीं कक्षा में जाती थी। शाम को तीनों साथ बैठकर होमवर्क भी करते और दिनभर का रोज़नामचा भी देखते। प्राइवेसी की आज जैसी धारणा उनके समाज में नहीं थी। उनकी उम्र ज़्यादा नहीं थी, वही जो हाई स्कूल-इंटर के औसत छात्र की होती है लेकिन नीना के लिये रिश्ता ढूंढा जा रहा था। ऊँची जाति लेकिन ग़रीब घर की बेटी का रिश्ता हर बार जुड़ने से पहले ही दहेज़ की बलि चढ जाता।

एक शाम मनोज से गणित के सवाल हल करने में सहायता मांगते हुए अचानक ही पूछ बैठी मासूम। दादा, आप भी अपनी शादी में दहेज़ लेंगे क्या?

"कभी नहीं। क्या समझा है मुझे?"

"तो फिर आप ही क्यों नहीं कर लेते मुझसे शादी?"

यह क्या कह दिया था नीना तुमने? विचारों का एक झंझावात सा उठ खडा हुआ था। वह ज़माना आज के ज़माने से एकदम अलग था। उस ज़माने के नियमों के हिसाब से तो मुकेश की बहन मनोज की भी बहन होती थी। बल्कि पिछले रक्षाबन्धन पर तो वह राखी बांधने भी आयी थी, गनीमत यह थी कि मनोज उस दिन मौसी के घर गया हुआ था।

"यह सम्भव नहीं है नीना।"

"सब कुछ सम्भव है, आपमें साहस ही नहीं है।"

"पता है क्या कह रही हो? जो मुँह में आया बोल देती हो।"

"मुझे अच्छी तरह पता है, तभी कहा है। इतनी पागल भी नहीं हूँ मैं। आप तो वहीं करना जहाँ मोटा दहेज़ मिले।"

समय बीता। नीना की शादी भी हुई, पर हुई एक दुहाजू लड़के से। लड़का कहना शायद ठीक न हो। वर की आयु मनोज और नीना के पिता की आयु का औसत रही होगी। वर की आर्थिक स्थिति शायद नीना के पिता से भी गिरती हुई थी। हाँ दहेज़ का प्रश्न बीच में नहीं आया। एकाध बार मनोज के मन में कुछ चुभन सी हुई लेकिन छोटी जगह का भाग्यवादी माहौल। मनोज ने यही सोचकर मन को समझा लिया कि नसीब से अधिक किसे मिलता है।

कई वर्ष गुज़र गये। बीए करके मनोज को साधारण बीमा में पद मिल गया। माँ को साथ ही बुला लिया। गाँव का घर बेचकर कुछ पैसे भी मिल गये, जो माँ के नाम से बैंक में जमा करा दिये। पिछले दिनों मौसेरे भाई की शादी में गाँव जाने पर मुकेश मिला। पुराने किस्से खुले। पता लगा कि लम्बी बीमारी के बाद नीना के पति की मृत्यु हो गयी थी। तभी से दिल बेचैन था उसका ...

ज़्यादा ढूंढना नहीं पड़ा। नीना के पति का नाम बताने भर से काम हो गया। गन्दी गली का जर्जर घर। दरवाज़े की जगह टाट का पर्दा। सूखकर कांटा हो रही थी नीना लेकिन उस चिर-परिचित मासूम चेहरे को पहचानना बिलकुल भी कठिन न था। बड़ी-बड़ी आँखें कुछ और बड़ी हो गई थीं। बिना डंडी के कप में चाय पीते हुए मनोज बात कम कर रहा था, नीना उत्साह में भरी बोलती जा रही थी और मनोज उसके चेहरे में उसका खोया हुआ कैशोर्य और अपना खोया हुआ भाग्य ढूंढ रहा था। तभी वह आया, "नमस्ते!"

"जुग जुग जियो!" कहते कहते कराह सा उठा मनोज, "क्या हुआ है इसे?"

"बचपन से ही ऐसा है, चल नहीं सकता" नीना ने सहजता से कहा।

"गली भर में सबसे तेज़ दौड़ता हूँ मैं ..." कहते ही बच्चे ने उस छोटे से कमरे में हाथों के सहारे से तेज़ी से एक चक्कर लगाया और फिर मनोज को देख कर मुस्कुराया ।

शहर वापस तो आना ही था। काम-धाम तो छोड़ा नहीं जा सकता। मन कहीं भी फंसा हो, द शो मस्ट गो ऑन।
...
खंडहर भी महल हो जाते हैं कभी? बीते लम्हे मिल पाते हैं कभी?


अध्यापिका ने पूछा, "बच्चे का नाम?"

"रतन"

"माता पिता का नाम?"

मनोज के चेहरे पर मुस्कुराहट तैर गयी जब बड़ी-बड़ी आँखें बोलीं, "नीना और मनोज कुमार।"


[समाप्त]

Wednesday, May 29, 2013

दूरभाष वार्ता मुखौटों से

चेहरे पर चेहरा

- ट्रिङ्ग ट्रिङ्ग 

- हॅलो?

- नमस्ते जी!

- नमस्ते की ऐसी-तैसी! बात करने की तमीज़ है कि नहीं?

- जी?

- फोन करते समय इतना तो सोचना चाहिए कि भोजन का समय है

- क्षमा कीजिये, मुझे पता नहीं था

- पता को मारिए गोली। पता तो चले कि आप हैं कौन?

- जी ... मैं ... अमर अकबर एंथनी, ट्रिपल ए डॉट कॉम लिटरेरी ग्रुप से ...

- ओह, सॉरी जी, आपने तो हमें पुरस्कृत किया था ... हैलो! आप पहले बता देते, तो कोई ग़लतफ़हमी नहीं होती,  हे हे हे!

- जी, वो मैं ... आपके तेवर देखकर ज़रा घबरा गया था

- अजी, जब से आपने सम्मानित किया, अपनी तो किस्मत ही खुल गई। उस साल जब आपके समारोह गया तो वहाँ कुछ ऐसा नेटवर्क बना कि पिछले दो साल में 12 जगह से सम्मानपत्र मिल चुके हैं, दो प्रकाशक भी तैयार हो गये हैं, अभी - मैंने अग्रिम नहीं दिया है बस ...

- यह तो बड़ी खुशी की बात है। मैं यह कहना चाह रहा था कि ...

- इस साल के कार्यक्रम की सूची बन गई?

- जी, बात ऐसी है कि ...

- मेरा नाम तो इस बार और बड़े राष्ट्रीय सम्मान के लिये होगा न? इसीलिये कॉल किया न आपने?

- जी, इस बार मैं राष्ट्रीय पुरस्कार समिति में नहीं हूँ ...

- ठीक तो है, आप इस लायक हैं ही नहीं ...

- जी?

- रत्ती भर तमीज़ तो है नहीं, भद्रजनों को लंच के समय डिस्टर्ब करते हैं आप?

- लेकिन मैंने तो क्षमा मांगी थी

- मांगना छोड़िए, अब थोड़ा शिष्टाचार सीखिये

- हैलो, हैलो!

- कट, कट!

- लगता है कट गया। बता ही नहीं पाया कि इस बार मैं अंतरराष्ट्रीय सम्मान समिति (अमेरिका) का जज हूँ। अच्छा हुआ इनका नखरीलापन पहले ही दिख गया। अब किसी सुयोग्य पात्र को सम्मानित कर देंगे।

Sunday, December 2, 2012

यारी है ईमान - कहानी

ज़माना गुज़र गया भारत गए हुए, फिर भी उनका मन वहाँ की गलियों से बाहर आ ही नहीं पाता। जब भी जाते हैं, दिल किसी गुम हुई सी जगह को फिर-फिर ढूँढता है। कितनी ही बार अपने को शिरवळ के बस अड्डे पर अकेले बैठे हुए देखते हैं। कभी मुल्ला जी के रिक्शे पर शांति निकेतन जाता हुआ महसूस करते हैं तो कभी बाँस की झोंपड़ी में कविराज के मणिपुरी संगीत की स्वर लहरियाँ सुनते हुये। रामपुर के शरीफे का दैवी स्वाद हो या लखनऊ के आम की मिठास, बरेली में साइकिल से गिरकर घुटने छील लेना भी याद है और बदायूँ की रामलीला के संवाद भी। नन्दन से धर्मयुग और चंदामामा से न्यूज़वीक तक के सफर के बाद आज भी बालसभा की पहेलियाँ, इंद्रजाल कोमिक्स की रोमांचकारी दुनिया और दीवाना के गूढ कार्टून मनोरंजन करते से लगते हैं। स्कूल कॉलेज की यादों के साथ ही लखनऊ, दिल्ली और चेन्नई में शुरू की गई पहली तीन नौकरियों का उत्साह भी अब तक वैसा ही बना हुआ है।

पूना हो या पनवेल, कुछ यादें हल्की हैं और कुछ गहरी। लेकिन जो एक शहर अब भी उनके सपनों में लगभग रोज़ ही आता है वह है जम्मू! कितनी ही यादें जुड़ी हैं उस रहस्यमयी दुनिया से जो तब बन ही रही थी। जंगली फूलों की नशीली गंध से सराबोर पथरीली चट्टानों को काटकर बहती तवी नदी, और रणबीर नहर में तैरने जाना हो या पुराने पहाड़ी नगर के इर्दगिर्द बन रहे उपनगरीय क्षेत्रों में तलहटी में जाकर स्वादिष्ट लाल गरने चुनकर लाना। सुबह शाम स्कूल आते जाते समय आकाश को झुककर धरती छूते देखने का अनूठा अनुभव हो या जगमगाते जुगनुओं को देखकर आश्चर्यचकित होने की बारी हो, जम्मू की यादें छूटती ही नहीं।

भाषाई आधार पर राज्यों के निर्माण के बारे में बहुत बहसें हो चुकी हैं। लेकिन देशभर में रहने के बाद वे अब इस बात को गहराई से मानते हैं कि अलग इकाई बनाने की बात हो या अलग पहचान की, मानव-मात्र के लिए भाषा से बड़ी पहचान शायद मजहब की ही हो सकती है दूसरी कोई नहीं। भाषाएँ तोड़ती भी हैं और जोड़ती भी हैं। वे हमारी पहचान भी हैं और संवाद का साधन भी। वे जहाँ भी रहे, भाषा की समस्या रही तो लेकिन मामूली सी ही। अधिकांश जगहों पर लोगों को टूटी-फूटी ही सही, हिन्दी आती ही थी, कभी-कभी अङ्ग्रेज़ी भी। जम्मू में यह कठिनाई और भी आसान हो गई थी, लवलीन और रमणीक जैसे सहपाठी जो थे। हमेशा मुस्कराने वाली लवलीन जब किसी को उनकी भाषा या बोलने के अंदाज़ पर टिप्पणी करते देखती तो उसकी भृकुटियाँ तन जातीं और बस्स ... समझो किसी की शामत आयी। लंबा चौड़ा रमणीक उतना दबंग नहीं था। उससे दोस्ती का कारण था, हिन्दी पर उसकी पकड़। पूरी कक्षा में वही एक था जो उनकी बात न केवल पूर्णतः समझता था बल्कि लगभग उन्हीं की भाषा में संवाद भी कर सकता था।

पाठशाला जाने के लिए राजमहल परिसर से होकर निकलना पड़ता था। शाम को बस आने तक साथ के बच्चों के साथ अंकल जी की दुकान पर इंतज़ार। उसी बीच मे कई बार ऐसा भी हुआ जब रमणीक के साथ रघुनाथ मंदिर स्थित उसके घर भी जाना हुआ। वे लोग पक्के हिन्दूवादी साहित्यकार थे। शाखा के बारे मे पहली बार वहीं जाना और जनसंघ के बारे मे भी वहीं सुना। गोष्ठी से लेकर बाल भारती तक के शब्द पहली बार रमणीक के मुँह से ही पता लगे। खासकर अपना नाम बताते हुए जब वह सलीके से रमणीक गुप्त कहता था तो रमनीक गुप्ता पुकारने वाले सभी डोगरे बच्चे शर्मा जाते थे। लवलीन की बात और थी, वह उसे सदा ओए रमनीके कहकर ही बुलाती थी।

वे अक्सर सोचते थे कि उनके बचपन के साथी वे सब लोग अब न जाने कहाँ होंगे। उनकी यादें चेहरे पर मुस्कान लाती थीं। मन में सदा यही रहा कि किसी न किसी दिन जम्मू जाना ज़रूर होगा। तब ढूंढ लेंगे अपने नन्हे दोस्तों को। लवलीन का पूरा नाम, घर, ठिकाना कुछ भी नहीं मालूम, इसलिए कभी उसकी खोज नहीं की लेकिन रमणीक गुप्त से मुलाकात की उम्मीद कभी नहीं छूटी।

उस दिन तो मानो लॉटरी ही खुल गई जब रमणीक के छोटे भाई वीरभद्र का नाम इंटरनेट पर नज़र आया। पता लगा कि वह गुड़गांव की एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी में मुख्य सूचना अधिकारी है। फोन नंबर की खोज शुरू हुई। वीरभद्र गुप्त ने बड़े सलीके से बात की और नाम लेने भर की देर थी कि उन्हें पहचान भी लिया। पता लगा कि रमणीक भी ज़्यादा दूर नहीं है। वह राष्ट्रीय अभिलेखागार में एक महत्वपूर्ण पद पर लगा हुआ था। वीरभद्र से नंबर मिलते ही उन्होने रमणीक को कॉल किया।

हॅलो के जवाब में एक देहाती से स्वर ने जब उनका नाम, पता, वल्दियत आदि पूछना शुरू किया तो उन्होंने उतावली से अपना संबंध बताते हुए रमणीक को बुलाने को कहा। "मैं र-म-नी-क ही हूंजी!" अगले ने हर अक्षर चबाते हुए कहा, "... लेकिन मैंने आपको पहचाना नहीं।"

नगर, कक्षा, शाला आदि की जानकारी देने में थोड़ा समय ज़रूर लगा, फिर रमणीक को उनकी पहचान हो आई। कुछ देर तक बात करने के बाद उधर से सवाल आया, "लेकन आज हमारी याद कैसे आ गई, इतने दिन के बाद?"

"याद तो हमेशा ही थी, लेकिन संपर्क का कोई साधन ही नहीं था।"

"फिर भी, कोई वजह तो होगी ही ..." रमणीक ने रूखेपन से कहा, "बिगैर मतलब तो कोई किसी को याद नहीं करता!"

[समाप्त]

Wednesday, March 14, 2012

हिन्दी-बंगाली भाई-भाई

कार्यक्रम का आरम्भ "वन्दे मातरम" के उद्घोष से हुआ। बच्चों के गीत और नृत्यों के अतिरिक्त देशप्रेम के बारे में कई भाषणों के बाद समारोह के समापन से पहले राष्ट्रीय गान गाया गया। उसके बाद भोजन काल आरम्भ हुआ और भोजन के साथ ही लोग छोटे-छोटे दलों में बँट गये। पोड़्मो बाबू से मेरी मुलाकात ऐसे ही एक दल में हुई। भारतीयों की हर सभा में भारत देश की दशा पर तो बात होती ही है। फिर आज तो दिन भी गणतंत्र दिवस का था। पता लगा कि वे चिकित्सक हैं और दो वर्ष पहले ही कलकत्ता से यहाँ आये हैं।

अंग्रेज़ी में चल रही बात बातों-बातों में भारत की समस्याओं पर पहुँची। पोड़्मो बाबू इस बात पर काफ़ी नाराज़ दिखे कि "हम" हिन्दी वाले उन पर हिन्दी थोप रहे हैं। मैंने विनम्रता से कहा कि मैं कुछ हिन्दी अतिवादियों को जानता ज़रूर हूँ परंतु भारत में हिन्दी थोपे जाने जैसी बात होती तो हिन्दी की गति आज कुछ और ही होती। मेरी बात सुने बिना जब उन्होंने दोहराया कि हिन्दी वाले बंगाल पर हिन्दी थोप रहे हैं तो मैंने बात को मज़ाक में लेते हुए कहा कि उन थोपने वालों में मैं कहीं नहीं हूँ, बल्कि मेरे तो खुद के ऊपर हिन्दी थोपने वाले बंगाली हैं। बचपन से अब तक जुथिका रॉय, पंकज मल्लिक, हेमंत कुमार, मन्ना दे, सचिन देव बर्मन, राहुल देव बर्मन, किशोर कुमार, भप्पी लाहिड़ी, अभिजीत, शान आदि ने हिन्दी गाने सुना-सुनाकर मुझे हिन्दी में डुबो डाला।

पोड़्मो बाबू को मेरी बात अच्छी नहीं लगी तो मैंने कहना चाहा कि भाषाई विविधता के देश में सम्पर्क भाषायें बिना थोपे स्वतः भी विकसित हो सकती हैं। उन्हें मेरा यह प्रयास भी पसन्द नहीं आया। समारोह में मौजूद एक बांग्लादेशी अतिथि भी हमारा वार्तालाप सुनकर पास आ गयीं। उनका कहना था कि पाकिस्तान ने भी बांग्लादेश पर अपनी भाषा थोपी थी। मैंने कहा कि भारत और पाकिस्तान की परिस्थितियों की कोई तुलना नहीं है। पाकिस्तान ने तो चुनाव में हार के बावजूद बांगलादेश पर पहले अपना नेता थोपा था और फिर सैनिक दमन भी। लेकिन वे बोलती रहीं कि उनकी बंगाली भाषा पर दूसरी भाषा का थोपा जाना बर्दाश्त नहीं होगा, वह चाहे हिन्दी हो या उर्दू।

मैंने बताया कि हिन्दी वाले खुद अपने क्षेत्रों में हिन्दी नहीं थोप सके तो किसी और पर थोपने कैसे जायेंगे। आधे हिन्दी भाषियों को तो यह भी नहीं पता होगा कि देवनागरी में कितने स्वर व कितने व्यंजन हैं। जिन्हें ग़लती से इतना पता हो उन्हें यह नहीं पता होगा कि हिन्दी में 79 और 89 को क्या-क्या कहते हैं। बात चलती रही। हिन्दी वाले अपनी भाषा के प्रति कोई खास गम्भीर नहीं हैं यह बताने के लिये मैंने उन्हें देश के विभिन्न नगरों के नये (या पुराने?) नामकरण के उदाहरण देते हुए कहा कि कलकत्ता तो हिन्दी अंग्रेज़ी में भी कोलकाता हो गया मगर बनारस तो आधिकारिक हिन्दी में भी काशी नहीं हुआ और न ही लखनऊ किसी भी हिन्दी में लक्ष्मणपुर बना।

गोरा साहब हिन्दी क्षेत्र में (चित्र: हाइंज़ संग्रहालय पिट्सबर्ग से)
कुरेदने पर पता लगा कि डॉक्टर साहब की पूरी शिक्षा अंग्रेज़ी में हुई थी। मैंने नोटिस किया कि उनका लम्बा मूल कुलनाम भी अंग्रेज़ी ने ही काटकर आधा किया था। मैंने अंग्रेज़ी के इस थोपीकरण का उल्लेख बड़ी विनम्रता से किया मगर उन्होंने मुझ हिन्दीभाषी पर लगाये हुए आरोप पर कोई रियायत नहीं दी। ऐसे में मैंने तिनके का सहारा ढूंढने के लिये इधर-उधर मुंडी घुमाई तो मुझे आशा की एक किरण नज़र आयी। राजभाषा हिन्दी वाले स्वाधीन भारत में 25 साल बिताने के बावज़ूद हिन्दी का एक शब्द भी न जानने वाली तिरुमदि कन्नन पास ही खड़ी थीं। मैंने सोचा कि उन्हें बुलाकर पोड़्मो बाबू के सामने हिन्दी के न थोपे जाने का सबूत पेश कर दूँ।

मैंने तिरुमदि कन्नन को पोड़्मो बाबू का आरोप सुना दिया और उनके जवाब की प्रतीक्षा करने लगा। रसम का कटोरा गटककर उन्होंने पास की मेज़ पर रखा और तमिळ अन्दाज़ की अंग्रेज़ी में कहने लगीं, "हाँ, हिन्दी तो पूरे राष्ट्र पर थोप दी गयी है।" मैं भौंचक्का था मगर वे जारी रहीं, "हमारा राष्ट्रीय गान, राष्ट्रीय गीत, टैगोर, बंकिम, सब हिन्दी वाले हैं, तिरुवल्लुवर, दीक्षितर, और भरतियार में से किसी का कुछ भी नहीं लिया गया ..."

"टैगोर और बंकिम चन्द्र, दोनों ही हिन्दी नहीं हैं, उनकी भाषा बंगला है।" मैंने सुधार का प्रयास किया।

"हिन्दी, नेपाली, बंगाली, गुजराती, संस्कृत, सब एक ही बात है - नॉर्थ नॉर्थ है, साउथ साउथ है।"

मुझे उत्तर नहीं सूझा। मगर वे जारी रहीं, " ... बंगाली, हिन्दी भाई-भाई है तभी तो हिन्दी/बंगाली बांगलादेश बनाने के लिये केन्द्र सरकार खासे बड़े पाकिस्तान से लड़ गई जबकि मासूम तमिलों पर इतने अत्याचार होने के बावज़ूद छोटे से श्रीलंका का विरोध करने के बजाये शांतिसेना के नाम पर उनकी सहायता की।"

पोड़्मो बाबू रसगुल्ला खाने के बहाने निकल लिये और मैं आ बैल मुझे मार वाले अन्दाज़ में अपनी थाली में पोंगल और मिष्टि दोई लिये तिरुमदि कन्नन का क्रोध झेल रहा था, "आप उत्तर वाले हम पर हिन्दी बंगाली कल्चर थोप रहे हैं।"

Tuesday, February 28, 2012

भोला - कहानी

पहली बार एक स्थानीय मन्दिर में देखा था उन्हें। बातचीत हुई, परिचय हो गया। पता लगा कि जल्दबाज़ी में अमेरिका आये थे, हालांकि अब तो उस बात को काफ़ी समय हो गया। यहाँ बसने का कोई इरादा नहीं है, अभी कार नहीं है उनके पास, रहते भी पास ही में हैं। उसके बाद से मैं अक्सर उनसे पूछ लेता था यदि उन्हें खरीदारी या मन्दिर आदि के लिये कहीं जाना हो तो बन्दा गाड़ी लेकर हाज़िर है। शुरू-शुरू में तो उन्होंने थोड़ा तकल्लुफ़ किया, "आप बड़े भले हो, इसका मतलब ये थोड़े हुआ कि हम उसका फ़ायदा उठाने लगें।" फिर बाद में शायद उनकी समझ में आ गया कि भला-वला कुछ नहीं, यह व्यक्ति बस ऐसा ही है।

धीरे-धीरे उनके बारे में जानकारी बढ़ने लगी। पति-पत्नी, दोनों ही सरकारी उच्चाधिकारी थे, और अब रिटायरमैंट के आसपास की वय के थे। इस लोक में सफल कहलाने के लिये जो कुछ चाहिये - रिश्ते, याड़ी, आमदनी, बाड़ी, इज़्ज़त, गाड़ी - सभी कुछ था। और उस दुनिया का बेड़ा पार कराने के लिये - उनके पास एक बेटा भी था।

मगर जिस पर बेड़ा पार कराने की ज़िम्मेदारी हो, जब वही बेड़ा ग़र्क कराने पर आ जाये तो क्या किया जाये? महंगे अंग्रेज़ी स्कूलों में बेटे की विद्वता का झंडा गाढ़ने के बाद माँ-बाप ने बड़े अरमान से उसे आगे पढ़ने के लिये अमेरिका भेजा। मगर बेटे ने पढ़ाई करने के बजाये एक गोरी से इश्क़ लड़ाना शुरू कर दिया। खानदानी माता पिता भला यह कैसे बर्दाश्त कर लेते कि बहू तो आये पर दहेज़ रह जाये? सीधे टिकट कटाकर बेटे के एक कमरे के अपार्टमेंट में जम गये।

बेटा भी समझदार था, जल्दी ही मान गया। लड़की का क्या हुआ यह उन्होंने बताया नहीं, और मैंने बीच में टोकना ठीक नहीं समझा। लेकिन उस घटना के बाद से वे बेटे पर दोबारा यक़ीन नहीं कर सके। माताजी की बीमारी का कारण बताकर लम्बी छुट्टी ली और यहीं रुक गये। बॉस ने फटाफट छुट्टी स्वीकार की, सहकर्मी भी प्रसन्न हुए, ऊपरी आमदनी में एक हिस्सा कम हुआ।

इस इतवार को जब शॉपिंग कराकर उन्हें घर छोड़ने गया तो पता लगा कि बेटा घर में ताला लगाकर बाहर चला गया था। इत्तेफ़ाक़ से उस दिन आंटी जी अपनी चाभी घर के अन्दर ही छोड़ आई थीं। कई बार कोशिश करने पर भी बेटे का फ़ोन नहीं लगा। अगर उन्हें वहाँ छोड़ देता तो उन दोनों को सर्दी में न जाने कितनी देर तक बाहर प्रतीक्षा करनी पड़ती। वैसे भी लंच का समय हो चला था। मैंने अनुरोध किया कि वे लोग मेरे घर चलें। उन दोनों को घर अच्छी तरह से दिखाकर श्रीमती जी चाय रखकर खाने की तैयारी में लग गयीं। आंटीजी टीवी देखने लगीं और मैं अंकल जी से बातचीत करने लगा। इधर-उधर की बातें करने के बाद बात भारत में मेरी पिछली नौकरी पर आ गयी। वे सुनहरे दिन, वे खट्टी-मीठी यादें!

वह मेरी पहली नौकरी थी। घर के सुरक्षित वातावरण के बाहर के किस्म-किस्म के लोगों से पहली मुठभेड़! बैंक की नौकरी, पब्लिक डीलिंग का काम। सौ का ढेर, निन्यानवे का फेर। तरह-तरह के ग्राहक और वैसे ही तरह-तरह के सहकर्मी। एक थे जोशीजी, जिन्होंने हर महीने डिक्लेरेशन देने भर से मिलने वाले पर्क्स भी कभी नहीं लिये। एक बार एक नई टीशर्ट पहनकर आये। मैंने कुछ अधिक ही तारीफ़ कर दी तो अगले दिन ही बिल्कुल वैसी एक टीशर्ट मेरे लिये भी ले आये। बनशंकरी जी थीं जो रोज़ सुबह सबसे छिपाकर मेरे लिये कभी वड़े, कभी कुड़ुम, दोसा और कभी उत्पम लेकर आती थीं। अगर मैं उन्हें भूलकर काम में लग जाता तो याद दिलातीं कि ठन्डे होने पर उनका स्वाद कम हो जायेगा।

घर आये लुटेरों का मुकाबला करने के लिये पिस्तौल चलाने के किस्से से मशहूर हुई मिसेज़ पाहवा शाखा में आने वाली हर सुन्दर लड़की के साथ मेरा नाम जोड़कर मुझे छेड़ती रहती थीं। तनेजा भी था जो कैश में बैठने के अलावा कुछ भी नहीं कर सकता था। और था भोपाल, जिसकी नज़र काम में कम, आने वाली महिलाओं के आंकलन में अधिक रहती थी। बहुत बड़ी शाखा थी। काम तो था ही। फिर भी कुछ लोग बैंकिंग संस्थान की परीक्षाओं की तैयारी करते रहते थे, और कुछ लोग प्रोन्नति परीक्षा की। कुछ लंच में और उसके बाद भी लम्बे समय तक टेबल टेनिस आदि खेलते थे। एक दल के बारे में अफ़वाह थी कि वे बैंक में जमा के लिये आये रोकड़े में से कुछ को प्रतिदिन ब्याज़ पर चलाते थे और शाम को सूद अपनी जेब में डालकर बैंक का भाग ईमानदारी से जमा करा देते थे।

चित्र व कहानी: अनुराग शर्मा
अनिता मैडम इतनी कड़क थीं कि उनसे बात करने में भी लोग डरते थे। रेखा मैडम व्यवहार में बहुत अच्छी थीं, और ग़ज़ब की सुन्दर भी। शादी को कुछ ही साल हुए थे। पति नेवी में थे और इस समय दूर किसी शिप पर थे। वे सामान्यतः अपने काम से काम रखती थीं। कभी-कभी वे भी घर से मेरे लिये खाने को कुछ ले आती थीं।

बैंक और शाखा का नाम सुनकर अंकल जी का चेहरा चमका, "कमाल है, इनका भतीजा चंकी भी वहीं काम करता है। बड़ा नेक बन्दा है। इंडिया में हमारे घर की देखभाल भी उसी के ज़िम्मे है, वर्ना वहाँ तो आप जानते ही हो, दो दिन घर खाली रहे तो किसी न किसी का कब्ज़ा हो जाना है।"

बैंक की यादें थीं कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थीं। एक कर्मचारी और ग्राहक की लड़ाई में दोनों के सर फट गये थे। रावत ने मेरे नये होने का लाभ उठाकर कुछ हज़ार रुपये की हेरफ़ेर कर ली थी जो बाद में मेरे सिर पड़ी। तनेजा अपने सस्पेंशन ऑर्डर पब्लिक होने से पहले लगभग हर कर्मचारी से 5-6 सौ रुपये उधार ले चुका था। पीके की शायरी और वीपी की डायरी के भी मज़ेदार किस्से थे।

"चंकी इनको कहाँ पता होगा ..." आंटी जी ने कहा, फिर मुझसे मुखातिब हुईं, "बड़ा ही नेक बच्चा है।"

उधार लेने से पहले तनेजा ने सबसे यही कहा था कि वह बस एक उसी व्यक्ति से उधार ले रहा है। उसने किसी को यह भी नहीं बताया कि विभागीय जाँच के चलते उसका ट्रांसफ़र ऑर्डर आ चुका है और उसी दिन इंस्टैंट रिलीविंग है। जैन का बहुत सा पैसा स्टॉक मार्केट में डूबा था। मेरे खाते में जितना था वह तनेजा मार्केट में डूबा। बनशंकरी जी उस दिन मेरे लिये मुर्कु और उपमा लाई थीं, जिसका स्वाद अभी तक मेरी ज़ुबान पर है।

"चंकी का असली नाम है नटवर, किस्मत वालों के घर में होते हैं ऐसे नेक बच्चे" आंटी जी ने कहा।

एक दिन रेखा मैडम के हाथ पाँव काँप रहे थे, मुँह से बोल नहीं निकला। मामूली बात नहीं थी। पिंकी ने देखा तो दौड़कर पहुँची। फिर सभी महिलाएँ इकट्ठी हुईं। उस दिन रेखा मैडम सारा दिन रोती रही थीं और सारा लेडीज़ स्टाफ़ उन्हें दिलासा देता रहा था। मगर बात महिलामंडल के अन्दर ही रही।

एक बार जब माँ बैंक में आईं तो डिसूज़ा उनसे मेरी शिकायत लगाते हुए बोला, "इनकी शादी करा दीजिये, घर से भूखे आते हैं और सारा दिन हम लोगों को डाँटते रहते हैं।" मेरी रिलीविंग के दिन लगभग सभी महिलाएँ रो रही थीं। मिसेज़ पाहवा ने उस दिन मुझसे बहुत सी बातें की थीं। उन्होंने ही बताया था कि नटवर ने काउंटर पर चाभी फेंकी थी।

"बड़ा अच्छा है मेरा भांजा! " आंटी जी खूब खुश थीं।"

सोखी की मुस्कान, खाँ साहब की मीठी ज़ुबान और रावल साहब की विनम्रता सब वैसी ही रही। मिसेज़ पाहवा बोलीं कि वे होतीं तो गोली मार देतीं।

मेरे पास आकर आंटी ने मेरे सर पर हाथ फेरते हुए कहा, "... मेरा बच्चा एकदम भोला है।"

मुझे रेखा मैडम का पत्ते की तरह काँपना याद आया और साथ ही याद आये मिसेज़ पाहवा द्वारा बताये हुए नटवर के शब्द, "मेरे अंकल बहुत बड़े अफ़सर हैं, आजकल बेटे के पास अमेरिका में हैं। उनका बहुत बड़ा फ़्लैट है। फ़ुल-फ़र्निश्ड, एसी-वीसी, टिप-टॉप, जनकपुरी में ... एकदम खाली ... ये पकड़ चाभी, ... आज शाम ... जितना भी मांगेगी ... "

गर्व से उछल रही आंटी की बात जारी थी, "एकदम भोला है मेरा चंकी ...बिल्कुल आपके जैसा!"

[समाप्त]

Tuesday, November 29, 2011

इमरोज़, मेरा दोस्त - लघुकथा

फ़्लाइट आने में अभी देर थी। कुछ देर हवाई अड्डे पर इधर-उधर घूमकर मैं बैगेज क्लेम क्षेत्र में जाकर बैठ गया। फ़ोन पर अपना ईमेल, ब्लॉग आदि देखता रहा। फिर कुछ देर कुछ गेम खेले, विडियो क्लिप देखे। इसके बाद आते जाते यात्रियों को देखने लगा और जब इस सबसे बोर हो गया तो मित्र सूची को आद्योपांत पढकर एक-एक कर उन मित्रों को फ़ोन करना आरम्भ किया जिनसे लम्बे समय से बात नहीं हुई थी।

जब कनवेयर बेल्ट चलनी शुरू हो गयी और कुछ लोग आकर वहाँ इकट्ठे होने लगे तो अन्दाज़ लगाया कि फ़्लाइट आ गयी है। जहाज़ से उतरते समय कई बार अपरिचितों को लेने आये लोगों को अतिथियों के नाम की पट्टियाँ लेकर खड़े देखा था। आज मैं भी यही करने वाला था। इमरोज़ को कभी देखा तो था नहीं। शार्लट के मेरे पड़ोसी तारिक़ भाई का भतीजा है वह। पहली बार लाहौर से बाहर निकला है। लोगों को आता देखकर मैंने इमरोज़ के नाम की तख़्ती सामने कर दी और एस्केलेटर से बैगेज क्लेम की ओर आते जाते हर व्यक्ति को ध्यान से देखता रहा। एकाध लोग दूर से पाकिस्तानी जैसे लगे भी पर पास आते ही यह भ्रम मिटता गया। सामान आता गया और लोग अपने-अपने सूटकेस लेकर जाने भी लगे। न तो किसी ने मेरे हाथ के नामपट्ट पर ध्यान दिया और न ही एक भी यात्री पाकिस्तान से आया हुआ लगा। धीरे-धीरे सभी यात्री अपना-अपना सामान लेकर चले गए। बैगेज क्लेम क्षेत्र में अकेले खड़े हुए मेरे दिमाग़ में आया कि कहीं ऐसा तो नहीं कि इमरोज़ के पास चेक इन करने को कोई सामान रहा ही न हो और वह यहाँ आने के बजाय सीधा एयरपोर्ट के बाहर निकल गया हो।

मैं एकदम बाहर की ओर दौड़ा। दरवाज़े पर ही घबराया सा एक आदमी खड़ा था। देखने में उपमहाद्वीप से आया हुआ लग रहा था। इस कदर पाकिस्तानी, या भारतीय कि अगर कोई भी हम दोनों को साथ देखता तो भाई ही समझता। मैंने पूछा, "इमरोज़?"

"अनवार भाई?" उसने मुस्कुराकर कहा।

"आप अनवार ही कह लें, वैसे मेरा नाम ..." जब तक मैं अपना नाम बताता, इमरोज़ ने आगे बढकर मुझे गले लगा लिया। हम दोनों पार्किंग की ओर बढे। उसका पूरा कार्यक्रम तारिक़ भाई ने पहले ही मुझे ईमेल कर दिया था। कॉलेज ने उसका इंतज़ाम डॉउनटाउन के हॉलिडे इन में किया हुआ था। आधी रात होने को आयी थी। पार्किंग पहुँचकर मैंने गाड़ी निकाली और कुछ ही देर में हम अपने गंतव्य की ओर चल पड़े। ठंड बढने लगी थी। हीटिंग ऑन करते ही गला सूखने का अहसास होने लगा। रास्ते में बातचीत हुई तो पता लगा कि उसने डिनर नहीं किया था। अब तक तो सारे भोजनालय बन्द हो चुके होंगे। अपनी प्यास के साथ मैं इमरोज़ की भूख को भी महसूस कर पा रहा था। डाउनटाउन में तो वैसे भी अन्धेरा घिरने तक वीराना छा जाता है। अगर पहले पता होता कि बाहर निकलने में इतनी देर हो जायेगी तो मैं घर से हम दोनों के लिये कुछ लेकर आ जाता।

जीपीएस में देखने पर पता लगा कि इमरोज़ के होटल के पास ही एक कंवीनियेंस स्टोर 24 घंटे खुला रहता है। होटल में चैकइन कराकर फिर मैं उन्हें लेकर स्टोर में पहुँचा। पता लगा कि वे केवल हलाल खाते हैं, इसलिये केवल शाकाहारी पदार्थ ही लेंगे। मैंने उनके लिये थोड़ा पैक्ड फ़ूड लिया। पूछने पर पता लगा कि फलों के रस उन्हें खास पसन्द नहीं सो उनके लिये कुछ सॉफ़्ट ड्रिंक्स लिये और साथ में अपने सूखते गले के लिये अनार का रस और पानी की एक बोतल।

पैसे चुकाकर मैं स्टोर से बाहर आया तो वे पीछे-पीछे ही चलते रहे। होटल के बाहर सामान की थैली उन्हें पकड़ाते हुए जब तक मैं अपने लिये ली गयी बोतलें निकालने का उपक्रम करता, वे थैली को जकड़कर "अल्लाह हाफ़िज़" कहकर अन्दर जा चुके थे।

घर पहुँचा तो रात बहुत बीत चुकी थी। गला अभी भी सूख रहा था बल्कि अब तो भूख भी लगने लगी थी। थकान के कारण रसोई में जाकर खाना खोजने का समय नहीं था, बनाने की तो बात ही दूर है। वैसे भी सुबह होने में कुछ ही घंटे बाकी थे। 6 बजे का अलार्म लगाकर सोने चला गया। रात भर सो न सका, पेट में चूहे कूदते रहे। सुबह उठने तक सपने में भाँति-भाँति के उपवास रख चुका था। जल्दी-जल्दी तैयार होकर सेरियल खाया और इमरोज़ को साथ लेने के लिये उनके होटल की ओर चल पड़ा।

इमरोज़ जी होटल की लॉबी में तैयार बैठे थे। मेरी नमस्ते के जवाब में मेरे हाथ में बिस्कुट का एक पैकेट और रस की बोतल पकड़ाते हुए रूआँसे स्वर में बोले, "आपका जूस तो मेरे पास ही रह गया था। आपको रास्ते में प्यास लगी होगी, यह सोचकर मैं तो रात भर सो ही न सका।"

30 नवम्बर 2011: कोलकाता विश्व विद्यालय में आगंतुक प्रवक्ता और विश्वप्रसिद्ध अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन का १७६ वां जन्मदिन
[समाप्त]

Tuesday, November 22, 2011

आधुनिक बोधकथा – न ज़ेन न पंचतंत्र

आभार
यह लघुकथा गर्भनाल के नवम्बर अंक में प्रकाशित हुई थी। जो मित्र वहां न पढ़ सके हों उनके लिए आज यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। कृपया बताइये कैसा रहा यह प्रयास।
... और अब कहानी

आधुनिक बोधकथा – न ज़ेन न पंचतंत्र
जब लोमडी को आदमी के बच्चों के मांस का चस्का लगा तो उसने बाकी कठिन शिकार छोड़कर भोले और कमज़ोर मनु-पुत्रों को निशाना बनाना शुरू किया। गाँव के बुज़ुर्गों को चिंता हुई तो उन्होंने बच्चों को गुलेल चलाना सिखा दिया। अभ्यास के लिये बच्चों ने जब गुलेल को ऊपर चलाया तो आम, जामुन और न जाने क्या-क्या अमृत वर्षा हुई। अभ्यास के लिये नीचे नहीं भी चलाया बस खुद चले तो भी कीचड़ और अन्य प्रकार की अशुद्धियाँ और मल आदि में सने। बच्चों ने सबक यह सीखा कि सज्जनों से पंगा भी हो जाय तो उसमें भी सब का भला होता है और दुर्जनों से कितनी भी दूरी रखो, बचा नहीं जा सकता।

उधर बच्चों के सशस्त्र होते ही लोमड़ी बेचैन सी इधर-उधर घूमने लगी। जब भी बच्चों की ओर मुँह मारती, पत्थर मुँह पर पड़ते। थक हारकर बिना कुछ सोचे-समझे एक गुफ़ा के सामने खेलते नन्हें शावकों पर झपट पड़ी और शावकों के पिता सिंह जी वनराज का भोजन बनी। शावकों ने सबक यह सीखा कि भूखी और बेचैन होने पर लोमड़ियों को अपनी खाल के अन्दर सुरक्षित रह पाने लायक बुद्धि नहीं बचती।

[समाप्त]

Wednesday, August 4, 2010

सम्बन्ध - लघुकथा

कल शनिवार की छुट्टी थी लेकिन वे तरणताल में नहीं थे। पूरा दिन कम्प्यूटर पर बैठकर अपने बचपन के चित्र लेकर उनके सम्पादन और छपाई पर हाथ साफ करते रहे। आज भी कल का बचा काम पूरा किया है। घर होता तो माँ अब तक कई बार कमरे से बाहर न निकलने का उलाहना दे चुकी होती। शायद चाय भी बनाकर रख गयी होती। अब यहाँ परदेस में है ही कौन उनका हाल पूछने वाला। कितनी बार तो कहा है माँ-बाबूजी को कि बस एक बार आकर देख तो लीजिये कैसा लगता है। किस तरह वसंत में पेड़ों से इतने फूल झड़ते हैं जैसे कि आकाश से देव पुष्प वर्षा कर रहे हों। और सड़क के दोनों ओर के हरे-भरे जंगलों से अचानक बीच में आ गये हरिणों के झुंड देखकर बचपन में पढे तपोवनों के वर्णन साक्षात हो जाते हैं। गर्मियों की दोपहरी में लकडी की डैक पर बैठ जाओ तो कृष्णहंस से लेकर गरुड तक हर प्रकार का पक्षी दिखाई दे जाता है। ऐसा मनोरम स्थल है। लेकिन कोई फायदा नहीं। बाबूजी हंसकर कहते हैं, "जंगल में मोर नाचा, किसने देखा?" माँ कहेंगी कि बाबूजी के बिना अकेले कैसे आयेंगी। और घूमफिर कर बात वहीं पर आ जाती है जहाँ वे इस समय अकेले बैठकर काम कर रहे हैं।

चालीस के होने को हैं लेकिन अभी तक अकेले। अमेरिका में कोई आश्चर्य की बात नहीं है। उनके जैसे कितने ही हैं यहाँ पर। किसी ने एक बार भी शादी नहीं की और किसी ने कुछ साल शादीशुदा रहकर आपसी सहमति से अलग होने का निर्णय ले लिया बिना किसी चिकचिक के। वे कभी-कभी सोचते हैं तो आश्चर्य होता है कि भारतीय समाज में विवाह कितना ज़रूरी है। रिश्वती, चोर-डाकू, हत्यारे, बलात्कारी, जीवन भर चाहे कितने भी कुकर्म करते रहें कोई बात नहीं मगर जहाँ किसी को अविवाहित देखा तो सारे मुहल्ले में अफवाहों का बाज़ार गर्म हो जाता है। यहाँ भी उनके भारतीय परिचित जब भी मिलते हैं, एक ही सवाल करते हैं, "शादी कब कर रहे हो? कब का मुहूर्त निकला है? किसी गोरी को पकड़ लो। अबे इंडिया चला जा ..." आदि-आदि।

शुरू-शुरू में वे सफाई देते थे। वैसे सफाई की कोई आवश्यकता नहीं थी। उनके एक मामा और एक चाचा भी अविवाहित रहे थे। नानाजी के एक भाई तो गांव भर में ब्रह्मचारी के नाम से प्रसिद्ध थे। बुआ-दादी मरने तक अविवाहित रहीं। जिस लड़के को दिल दिया था वह भारी दहेज़ के लोभ में तोताचश्म हो गया। किसी दूसरे के साथ रहने को मन नहीं माना। "मिले न फूल तो कांटों से दोस्ती कर ली" गाते-गाते ही जीवन बिता दिया।

प्रारम्भ में सोचा था कि कुछ पैसा इकट्ठा करके वापस चले जायेंगे। लेकिन दूसरे बहुत से सपनों की तरह यह सपना भी जल्दी ही टूट गया। एक साल भी वहाँ रह नहीं सके। दिन रात सरकारी-अर्धसरकारी विभागों और अखबारों के चक्कर काटने के बावजूद घर के दरवाज़े पर यमलोक के द्वार की तरह खुले पड़े मैनहोल भी बन्द नहीं करवा सके। मकान मालिक के घर में चोरी हुई तो इलाके के थानेदार ने उन्हें सिर्फ इस बात पर चोरों की तरह जलील किया कि उन्होने कोई आहट क्यों नहीं सुनी। और फिर जब स्कूल जाती बच्चियों से छेड़छाड़ करने से रोकने पर कुछ गुंडों ने बीच बाज़ार में ब्लेड से उनकी कमर पर चीरा लगा दिया और रोज़ दुआ सलाम करने वाले दुकानदारों और राहगीरों ने उस समय बीच में पड़ने के बजाय बाद में बाबूजी को समझाना शुरू किया कि इसे वापस भेज दो, विदेश में रहकर सनक गया है, हमारी दुकानदारी चौपट कराएगा तो भयाक्रांत माता-पिता ने भी यही उचित समझा। अब तक उनका मन भी काफी खट्टा हो चुका था सो बिना स्यापा किये वापस आ गये।

खुश ही है यहाँ। अपना घर है, नौकरी भी ठीक-ठाक सी ही है। हाँ, माँ-बाबूजी साथ होते तो उल्लास ही उल्लास होता। छोटी सी कम्पनी है। कुल जमा पांच लोग। पूरे दफ्तर में वह अकेले मर्द हैं। एक बार भारत में चार लड़कियों के बीच काम करना पडा था तो हमेशा सचेत रहना पड़ता था। कभी अंजाने में मुँह से कुछ गलत न निकल जाये। यहाँ ऐसा कुछ चक्कर नहीं है। सच कहूँ तो पांचों के बीच उन्हीं की भाषा सबसे संयत है। यहाँ की संस्कृति भारत-पाक से एकदम अलग है। न ऑनर किलिंग है, न खाप अदालतें। लड़कोंकी तरह लड़कियाँ भी कभी भी अकेले घर से बाहर निकलने में सुरक्षित महसूस करतई हैं। अपना जीवन साथी भी स्वयम ही ढूँढना पड़ता है। स्वयँवर – वैदिक स्टाइल? कई बार लड़कियों ने उनसे भी इस बाबत बात की है परंतु जब उन्होने अरुचि दिखाई तो अपना रास्ता ले लिया।

दिन यूं ही गुज़र रहे थे मगर अब कुछ तो बदलाव आया है। पिछली नौकरी में पाकिस्तानी सहकर्मी करीना के साथ अच्छा अनुभव नहीं रहा था सो वहाँ से त्यागपत्र देकर यहाँ आ गये। यहाँ किसी को भी उनकी वैवाहिक स्थिति के बारे में पता नहीं है। फिर भी पिछ्ले कुछ दिनों से सोन्या उनके साथ बैठने का कोई न कोई बहाना ढूंढती रहती है, वह भी अकेले में। जब कोई साथ न हो तो उनके पास आकर अपने पति की शिकायत सी करती रहती है। शुरू में तो उन्होने अपने से आधी आयु की लड़की की बात को सामान्य बातचीत समझा। वैसे भी बचपने की दोस्ती में प्यार कम शिकायतें ज़्यादा होती हैं। बाबूजी हमेशा कहते हैं, "नादान की दोस्ती, जी का जंजाल"। जब उन्होने भारतीय अन्दाज़ में सोन्या को समझाया कि बच्चा होने पर घर गुलज़ार हो जायेगा तो सोन्या भड़क गयी, "मुझे उसका बच्चा नहीं पैदा करना है, उसके जैसा ही होगा।"

एक दिन सुबह जब कोई नहीं था तो उनके पास आकर कहने लगी, "आप तो इतने सुन्दर और बुद्धिमान हैं, आपके बच्चे भी बहुत होशियार होंगे।" वह तो अच्छा हुआ कि तभी उनको छींक आ गयी और वे बहाने से गुसलखाने की ओर दौड़ लिये। बात आयी गयी हो गयी। परसों कहने लगी, "आपमें कितना सब्र है, आप बहुत अच्छे पिता सिद्ध होंगे।" तब से उनका दिल धक-धक कर रहा है। दो दिन लगाकर तीन चार चित्र छापे हैं। सुन्दर चौखटों में जड़कर लैप्टॉप के थैले में रख लिये हैं। सोमवार को सोन्या कोई प्रश्न करे इससे पहले ही मेज़ पर धरे यह चित्र स्वयम ही उनका पितृत्व स्थापित कर देंगे और साथ ही एक नये रिश्ते में अनास्था भी। उन्होने मुस्कराकर शाबाशी की एक चपत खुद ही अपनी गंजी होती चान्द पर लगा ली और सोने चल दिये।

Thursday, June 19, 2008

कुछ कहानियाँ - अनुराग शर्मा

कहानी कहानी होती है, उसमें लेखक की आत्मकथा ढूँढना ज्यादती है. ~ अनुराग शर्मा
1. वह कौन था
2. खून दो

3. खाली प्याला
4. जावेद मामू
5. सौभाग्य (स्वर: डॉ. मृदुल कीर्ति)

6. एक दिन श्रमिक का
7. कर्मा जी की टुन्न-परेड

8. गरजपाल की चिट्ठी

9. लागले बोलबेन

10. बिच्छू
i)
ii)
11. हत्या की राजनीति

12. गदा का रहस्य
13. जाके कभी न पडी बिवाई (स्वर: अर्चना चावजी)

14. एक और इंसान
15. माय नेम इज खान

16. असीम
24. मैं एक भारतीय

25. नसीब अपना अपना

26. गंजा – लघु कथा

27. गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु... (कैसे कैसे शिक्षक?)

28. अग्नि समर्पण - व्यंग्य

29. आती क्या खंडाला?

30. टोड

31. अनुरागी मन
32. मैजस्टिक मूंछें

33. घर और बाहर

34. डैडी
35. छोटे मियाँ

36. बेमेल विवाह

37. सैय्यद चाभीरमानी और हिंदुत्वा एजेंडा
38. तहलका तहलका तहलका
39. सैय्यद चाभीरमानी और शाहरुख़ खान
40. ओसामा जी से हैलोवीन तलक - सैय्यद चाभीरमानी
41. कोकिला, काक और वो ...
42. एक शाम बार में

49. गन्धहीन
50. भोला

51. हिन्दी बंगाली भाई भाई
52. व्यवस्था
53. यारी है ईमान
54. सच्चे फांसी चढ़दे वेक्खे
55. मुखौटों से वार्ता
56. सुखांत
57. मार्जार मिथक गाथा
58. भविष्यवाणी
59.ईमान की लूट

60.सत्य - सबसे छोटी बोधकथा
61.गुरु - लघुकथा

62.दीपशलाका बालिका - हाँस क्रिश्चियन एंडरसन

63.जोश और होश - बोधकथा
64.खान फ़िनॉमिनन

65.कंजूस मक्खीचूस

66.किनाराकशी - लघुकथा
67.मुफ्तखोर - लघुकथा
68.खिलखिलाहट - लघुकथा
69.पुरानी दोस्ती - लघुकथा
70.ऊँट, पहाड़, हिरण, शेर और शाकाहार
71.सांप्रदायिक सद्भाव - लघुकथा
72.सच या झूठ - लघुकथा
73.बुद्धू - लघुकथा
74.अहिंसा - लघुकथा
82. विदेह

83. बिग क्लाउड 2068

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रेडियो सलाम नमस्ते पर अनुराग शर्मा का साक्षात्कार
Hindi Interview with Anurag Sharma on Radio Salam Namaste




मॉरिशस टीवी पर अनुराग शर्मा का साक्षात्कार
Anurag Sharma's Interview on Mauritius TV

यह भी कैसी विचित्र विडम्बना है कि दूसरों की कहानियाँ रचते समय मुझे सामने वाले को उसकी सम्पूर्णता के साथ अपने में मिलाना पड़ता था और इस हद तक मिलाना पड़ता था कि ‘स्व’ और ‘पर’ के सारे भेद मिटकर दोनों एकलय, एकाकार हो जाते थे। पर अपनी कहानी लिखते समय तो मुझे अपने को अपने से ही काटकर बिल्कुल अलग कर देना पड़ा। यह निहायत ज़रूरी था और इस विधा की अनिवार्यता शर्त, तटस्थता, की माँग भी लिखनेवाली मन्नू और जीनेवाली मन्नू के बीच पर्याप्त फासला बनाकर रख सकूँ। अब इसमें कहाँ तक सफल हो सकी हूँ, इसके निर्णायक तो पाठक ही होंगे...। मुझे तो न इसका दावा है, न दर्प! ~ मन्नू भंडारी (एक कहानी यह भी)
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