Thursday, August 7, 2008

गड़बड़झाला

कोई जकड़ा ही रहता है,
कोई सब छोड़ जाता है।

कोई कुछ न समझता है,
कोई सबको समझाता है।

कोई करुणा का सागर है,
कोई हर पल सताता है।

कोई हर रोज़ मरता है,
शहादत कोई पाता है।

कोई तो प्यार करता है,
कोई करके जताता है।

कोई बस भूल जाता है,
कोई बस याद आता है।

मैं ऐसा हूँ या वैसा हूँ,
समझ मुझको न आता है।

फरिश्ता कोई कहता था,
कोई जालिम बताता है।

(अनुराग शर्मा)

Wednesday, August 6, 2008

आपके मुँह में घी-शक्कर

पुष्पे गन्धं तिले तैलं काष्ठेऽग्निं पयसि घृतम्।
इक्षौ गुडं तथा देहे पश्यात्मानं विवेकतः।।
भारत की ख्याति तो आज भी कम नहीं है मगर पश्चिमी सभ्यता के उत्थान से पहले की बात ही कुछ और थी। सारी दुनिया से छात्र और विद्वान् भारत आते थे ताकि कुछ नया सीखने को मिले। नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों की ख्याति दूर-दूर तक थी। ऐसा नहीं कि विदेशी यहाँ सिर्फ़ शिक्षा की खोज में ही आते थे। हमलावर यहाँ सोने और हीरे के लालच में आते थे। ज्ञातव्य है कि दक्षिण अफ्रीका व ब्राजील में हीरे मिलने से पहले हीरे सिर्फ़ भारत में ही ज्ञात थे और अठारहवीं शती तक शेष विश्व को हीरे के उद्गम के बारे में ठीक-ठीक ज्ञान नहीं था। व्यापारी आते थे मसालों और धन के लिए और धर्मांध जुनूनी हमलावरों के आने का उद्देश्य धन के अलावा हमारी कला एवं संस्कृति का नाश भी था।

बहुत से लेखक भी भारत में आए। कुछ हमलावरों के साथ आए तो कुछ अपनी ज्ञान पिपासा को शांत करने के लिए और कुछ अन्य भारतीय संस्कृति एवं धर्म का ज्ञान पाने के लिए। ग्रीक विद्वान् मेगास्थनीज़ भी एक ऐसा ही लेखक था। उसकी पुस्तक "इंडिका" में उस समय के रहस्यमय भारत का वर्णन है। बहुत सी बातें तो साफ़ ही कल्पना और अतिशयोक्ति लगती हैं मगर बहुत सी बातों से पता लगता है कि उस समय का भारत अन्य समकालीन सभ्यताओं से कहीं आगे था।

मेगास्थनीज़ ने लिखा है कि भारतीय लोग मधुमक्खियों के बिना ही डंडों पर शहद उगाते हैं। स्पष्ट है कि यहाँ पर लेखक गन्ने की बात कर रहा है। चूंकि उसके उन्नत देश को मीठे के लिए शहद से बेहतर किसी पदार्थ का ज्ञान नहीं था, शक्कर को शहद समझने में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। कहते हैं कि यह शक्कर सिकंदर के सैनिकों के साथ ही भारत से बाहर गयी।

हिन्दी/फारसी/उर्दू का शक्कर बना है संस्कृत के मूल शब्द शर्करा से। मराठी का साखर और अन्य भारतीय भाषाओं के मिलते-जुलते शब्दों का मूल भी समान ही है। इरान से आगे पहुँचकर हमारी मिठास अरब में सुक्कर और यूरोप में सक्कैरम हो गयी। इस प्रकार अंग्रेजी के शब्द शुगर व सैकरीन दोनों ही संस्कृत शर्करा से जन्मे।
हमसे पंगे मत लेना मेरे यार ... मीठे से निबटा देंगे संसार ...
आज जिस शक्कर से सारी दुनिया त्रस्त है, उसकी जड़ में हम भारतीय हैं - हमारी खाण्ड  कब कैंडी बनकर दुनिया भर के बच्चों की पसंद बन गई, पता ही न चला। बनाई हुई शर्करा के टुकडों को खण्ड (टुकड़े - pieces) कहा जाता था जिससे खांड और अन्य सम्बंधित शब्द जैसे खंडसाल आदि बने हैं। फारसी में पहुँचते-पहुँचते खण्ड बदल गया कन्द में और यूरोप तक जाते-जाते यह कैंडी में तब्दील हो गया।
वैसे शर्करा या गन्ने की बात आए तो अपने गिरमिटिया बंधुओं को याद करना भी बनता है जिनकी वजह से साखर संसार को सुलभ हो सकी। हाँ गन्ने के रस के आनंद से वंचित ही रहे विदेशी।
गन्ने के खेत आज भी मॉरिशस की पहचान हैं।
अब एक सवाल: खाण्ड और शक्कर तक तो ठीक है - गुड़, मिश्री और चीनी के बारे में क्या?

सावन

निर्मल शीतल निश्छल पावन
घटा बादल जल और सावन

झरर झरर झर झरता जाता
प्यासी पृथ्वी की प्यास बुझाता

होती सुखमय निर्जल धरती
प्यासे प्राणीजन की पीड़ा हरती

भूरे मटमैले घावों पर
हरियाले मरहम का लेपन

धूल तपन सब दूर हो गई
आया मदमाता सावन।

Saturday, August 2, 2008

बुद्धिमता के साइड अफेक्ट्स

अगर आपके मित्र आपको ताना देते हैं कि जब सारी दुनिया उत्तर की तरफ़ दौड़ रही हो तो आप दक्षिण दिशा में गमन कर रहे होते हैं तो दुखी न हों। मतलब डटे रहें, हटें नहीं। दरअसल आपका यह दुर्गुण आपके अधिक बुद्धिमान होने का साइड अफेक्ट हो सकता है।

बुद्धिमता के ऊपर दुनिया भर में अलग अलग तरह के प्रयोग होते रहे हैं। जब प्रयोग होते हैं तो उनसे तरह तरह के निष्कर्ष भी निकलते हैं। हम उन्हें पसंद करें या न करें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। ऐसे ही एक प्रयोग ने दर्शाया कि अधिक बुद्धिमान लोग सामान्य लोगों से १५ वर्ष तक अधिक जीते हैं। इटली के कालाब्रिया विश्वविद्यालय में पाँच सौ लोगों पर हुए इस अनुसंधान के अनुसार ऐसा बुद्धिमानी के लिए जिम्मेदार एक जीन 'एसएसएडीएच (SSADH) के कारण होता है। जिन लोगों में यह जीन अधिक सक्रिय नहीं होता, उनके 85 साल की उम्र के बाद जीने की संभावना कम होती है। जिन लोगों में यह जीन सक्रिय होता है, उनके 100 वर्ष की आयु तक जीने की संभावना रहती है। कुछ समझ आया कि हमारे पूर्वज शतायु क्यों होते थे?

शोधकर्ता रिचर्ड लिन द्वारा ब्रिटेन में हुए एक अध्ययन ने यह निष्कर्ष निकाला कि अधिक बुद्धिमान व्यक्तियों के नास्तिक होने की संभावना आम लोगों से अधिक होती है। लिन का मानना है कि बुद्धिमानी नास्तिकता की ओर ले जाती है। विभिन्न धर्मों और बाबाओं के आधुनिक स्वरुप और आडम्बर को देखकर तो मुझे अक्सर ही यह विचार आता है कि यदि किसी बाबा या पीर के ये भक्त आस्तिक हैं तो आडम्बर से दूर रहने वाले सच्चे भक्त तो शायद आज नास्तिक ही कहलायेंगे।

गोली मारिये इस आस्तिक-नास्तिक की बहस को - अभी एक और रोचक अध्ययन भी हुआ है। तीस वर्षों तक ८००० से अधिक लोगों पर चले एक ब्रिटिश अध्ययन से अधिक बुद्धिमानों के एक और लक्षण का पता चला है। इस अध्ययन से पता लगा कि १० वर्ष की आयु में जिन ब्रिटिश बच्चों का आई क्यू (IQ) सबसे अधिक था वे ३० वर्ष की आयु तक पहुँचने तक शाकाहारी हो गए थे। यह अध्ययन डॉक्टर कैथरीन गेल द्वारा किया गया था और १०-वर्षीय बच्चों का सबसे पहला दल सन १९७० का था जो २००० में तीस वर्षीय थे।

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सम्बन्धित कडियाँ
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* ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में विस्तृत रिपोर्ट
* SSAHD Deficiency
* आप कितने बुद्धिमान हैं? (निरामिष)

Thursday, July 31, 2008

सम्प्रति वार्ताः श्रूयन्ताम - संस्कृत इज डैड

संस्कृत के बारे में अक्सर - विशेषकर भारत में - एक मृत भाषा का ठप्पा लगाने की कोशिश होती रहती है। अक्सर लोगों को कहते सुना है - "संस्कृत इज अ डैड लैंग्वेज।" कुछेक वार्ताओं में मैंने इस बहस को कड़वाहट में बदलते हुए भी देखा है मगर इसमें संस्कृत का दोष नहीं है। उन भागीदारों की तो हर बहस ही कड़वाहट पर ख़त्म होती है।

संस्कृत को मृत घोषित करने में कुछ लोगों का पूर्वाग्रह भी होता है मगर शायद अधिकाँश भोले-भाले लोग सिर्फ़ सुनी-सुनाई बात को ही दोहरा रहे होते हैं। १९९१ की जनगणना में भारत के ४९,७३६ लोगों की मातृभाषा संस्कृत थी जबकि २००१ की जनगणना में यह घटकर १४,००० रह गयी। मगर रूकिये, इस संख्या से भ्रमित न हों। संस्कृत पढने-बोलने वाले भारत के बाहर भी हैं - सिर्फ़ नेपाल या श्रीलंका में ही नहीं वरन पाकिस्तान और अमेरिका में भी। इन विदेशी संस्कृतज्ञों की संख्या कभी भी गिनी नहीं जाती है शायद।

मेरे जीवन की जो सबसे पुरानी यादें मेरे साथ हैं उनमें हिन्दी के कथन नहीं बल्कि संस्कृत के श्लोक जुड़े हैं। हिन्दी मेरी मातृभाषा सही, मैं बचपन से ही संस्कृत पढता, सुनता और बोलता रहा हूँ - भले ही बहुत सीमित रूप से -प्रार्थना आदि के रूप में। और ऐसा करने वाला मैं अकेला नहीं हूँ, विभिन्न भाषायें बोलने वाले मेरे अनेकों मित्र, परिचित और सहकर्मी रोजाना ही शुद्ध संस्कृत से दो-चार होते रहे हैं। अंग्रेज़ी का "अ" (E) भी ठीक से न बोल सकने वाले लोग भी अंग्रेजी को अपनी दूसरी भाषा समझते हैं परन्तु संस्कृत तो रोज़ ही पढने सुनने के बावजूद भी हम उसे मृत ही कहते हैं। ऐसी जनगणना में हमारे-आपके जैसे लोगों का कोई ज़िक्र नहीं है, कोई बात नहीं। संस्कृत पढाने वाले हजारों शिक्षकों का भी कोई ज़िक्र नहीं है क्योंकि उनकी मातृभाषा भी हिन्दी, मलयालम, मराठी या तेलुगु कुछ भी हो सकती है मगर संस्कृत नहीं। और इसी कारण से एक तीसरी (या दूसरी) भाषा के रूप में संस्कृत पढने और अच्छी तरह बोलने वाले लाखों छात्रों का भी कोई ज़िक्र नहीं है।

भारत और उसके बाहर दुनिया भर के मंदिरों में आपको संस्कृत सुनाई दे जायेगी. संगीत बेचने वाली दुकानों पर अगर एक भाषा मुझे सारे भारत में अविवादित रूप से मिली तो वह संस्कृत ही थी। तमिलनाड के गाँव में आपको हिन्दी की किताब या सीडी मुश्किल से मिलेगी। इसी तरह यूपी के कसबे में तामिल मिलना नामुमकिन है। अंग्रेजी न मिले मगर संस्कृत की किताबें व संगीत आपको इन दोनों जगह मिल जायेगा। जम्मू, इम्फाल, चेन्नई, दिल्ली, मुंबई या बंगलूरु ही नहीं वरन छोटे से कसबे शिर्वल में भी मैं संस्कृत भजन खरीद सकता था। क्या यह एक मृतभाषा के लक्षण हैं?

संस्कृत में आज भी किताबें छपती हैं, संगीत बनता है, फिल्में भी बनी हैं, रेडियो-टीवी पर कार्यक्रम और समाचार भी आते हैं। शायद पत्रिकाएं भी आती हैं मगर मुझे उस बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। हाँ इतना याद है कि कि संस्कृत की चंदामामा एक तेलुगुभाषी प्रकाशक द्वारा चेन्नई से प्रकाशित होती थी। वैसे तो संस्कृत में सैकडों वेबसाइट हैं मगर गजेन्द्र जी का एक संस्कृत ब्लॉग भी मैंने हाल ही में देखा है।

एक पिछली पोस्ट "हज़ार साल छोटी बहन" के अंत में मैंने एक सवाल पूछा था: क्या आप बता सकते हैं कि पहला संस्कृत रेडियो प्रसारण किस स्टेशन ने और कब शुरू किया था? जगत- ताऊ श्री रामपुरिया जी के अलावा किसी ने भी सवाल का कोई ज़िक्र अपनी टिप्पणी में नहीं किया है। मुझे लग रहा था कि कुछेक और लोग उत्तर के साथ सामने आयेंगे - खैर जवाब हाज़िर है - पहला नियमित संस्कृत प्रसारण कोलोन (Cologne) नगर से दोएचे वेले (Deutsche Welle = जर्मनी की वाणी) ने १९६६ में शुरू किया था।

इसका अब क्या मतलब?

संस्कृत और फारसी पर हुई पिछली दो वार्ताएं "हज़ार साल छोटी बहन" और "पढ़े लिखे को फारसी क्या?" बहुत सार्थक रही हैं। उन्हें आगे जारी रखेंगे। इस बीच में एक सत्रह साल पुराने मित्र की तरफ़ से एक पुरानी कविता सुनने का आग्रह ईमेल से आया था। उनके सम्मान में यह कविता यहाँ रख रहा हूँ। अच्छा कवि तो नहीं हूँ। पर ज़िंदगी से सीख रहा हूँ - अच्छी, बुरी जैसी भी लगे, कृपया बताएं ज़रूर। सुधार की जो भी गुंजाइश हो बेबाक लिखें। धन्यवाद!

मैं कौन था मैं कहाँ था, इसका अब क्या मतलब
चला कहाँ कहाँ पहुँचा, इसका अब क्या मतलब

ठिकाना दूर बनाया कि उनसे बच के रहें
कपाट तोड़ घुस आयें, इसका अब क्या मतलब

ज़हर भरा है तुम्हारे दिलो-दिमाग में गर
बस दिखावे की मुलाक़ात का अब क्या मतलब

किया क्यों खून से तर, मेरा क़त्ल किसने किया
गुज़र गया हूँ, सवालात का अब क्या मतलब

मुझे सताया मेरी लाश को तो सोने दो
गुज़र गया हूँ खुराफात का अब क्या मतलब।





Note: रामपुरिया जी, संस्कृत प्रसारण के बारे में मैं भूला नहीं हूँ। अगली पोस्ट में ज़रूर बात करेंगे। आपके प्यार के लिए आभारी हूँ।

Tuesday, July 29, 2008

हज़ार साल छोटी बहन

संस्कृत व फारसी की समानता पर लिखी मेरी पोस्ट "पढ़े लिखे को फारसी क्या?" आपने ध्यान से पढी इसका धन्यवाद। सभी टिप्पणीकारों का आभारी हूँ कि उन्होंने मेरे लेखन को किसी लायक समझा। एकाध कमेंट्स पढ़कर ऐसा लगा जैसे भाषाओं की समानता से हटकर हम कौन किसकी जननी या बहन है पर आ गए। दो-एक बातें स्पष्ट कर दूँ - भाषायें कोई जीवित प्राणी नहीं हैं और वे इंसानों जैसे दृढ़ अर्थ में माँ-बेटी या बहनें नहीं हो सकती हैं। बाबा ने शायद काल का हिसाब रखते हुए संस्कृत को माँ कहा था। याद रहे कि उनका कथन महत्वपूर्ण है क्योंकि वे दोनों भाषायें जानते थे। फिर भी, अब जब हमारे एक प्रिय बन्धु ने नया मुद्दा उठा ही दिया है तो इस पर बात करके इसे भी तय कर लिया जाय। जितने संशय मिटते चलें उतना ही अच्छा है। जब तक संशय रहेंगे हम मूल विषय से किनाराकशी ही करते रह जायेंगे। भाषाविदों के अनुसार संस्कृत और फ़ारसी दोनों ही भारोपीय (इंडो-यूरोपियन) परिवार के भारत-ईरान (इंडो-इरानियन) कुल में आती हैं। संस्कृत इस परिवार की प्राचीनतम भाषाओं में से एक है और सबसे कड़े अनुमानों के अनुसार भी ईसा से १५०० वर्ष पहले अस्तित्व में थी। अधिकाँश लोगों का विश्वास है कि बोली (वाक्) के रूप में इसका अस्तित्व बहुत पहले से है। इसके विपरीत ईरानी भाषा का प्राचीनतम रूप ईसा से लगभग ५०० वर्ष पहले अस्तित्व में आया। स्पष्ट कर दूँ कि यह रूप आज की फारसी नहीं है। आज प्रचलन में रही फारसी भाषा लगभग ८०० ईसवी में पैदा हुई। इन दोनों के बीच के समय में अवेस्ता की भाषा चलती थी. अगर इन तथ्यों को भारतीय सन्दर्भ में देखें तो फारसी का प्राचीनतम रूप भी महात्मा बुद्ध के काल में या उसके बाद अस्तित्व में आया. भाषाविदों में इस विषय पर कोई विवाद नहीं है कि भारतीय-ईरानी परिवार में संस्कृत से पुरानी कोई भाषा नहीं है जो संस्कृत हम आज बोलते, सुनते और पढ़ते हैं, उसको पाणिनिकृत व्याकरण द्वारा ४०० ईसा पूर्व में बांधा गया। ध्यान रहे कि यह आधुनिक संस्कृत है और भाषा एवं व्याकरण इससे पहले भी अस्तित्व में था। भाषाविद मानते हैं कि फारसी/पहलवी/अवेस्ता से पहले भी इरान में कोई भाषा बोली जाती थी। क्या अवेस्ता की संस्कृत से निकटता ऐसी किसी भाषा की तरफ़ इशारा करती है? ज्ञानदत्त जी के गुस्से को मैं समझ सकता हूँ और बहुत हद तक उनकी बात "फारसी को बराबरी पर ठेलने की क्या जरूरत थी" से सहमत भी हूँ। मगर सिर्फ़ इतना ही निवेदन करूंगा कि कई बार निरर्थक प्रश्नों में से भी सार्थक उत्तर निकल आते हैं। चिंता न करें, पुरखों की गाय पर भी चर्चा होगी, कभी न कभी। याद दिलाने का धन्यवाद। हमारे बड़े भाई अशोक जी ने आर्यों के मध्य एशिया से दुनिया भर में बिखरने का ज़िक्र किया है, आगे कभी मौका मिला तो इस पर भी बात करेंगे। लेकिन तब तक संस्कृत फ़ारसी की बहन है या माँ - इसका फैसला मैं आप पर ही छोड़ता हूँ। हाँ अगर बहन है तो दोनों बहनों में कम-स-कम एक हज़ार साल का अन्तर ज़रूर है। इसके अलावा फारसी में संस्कृत के अनेकों शब्द हैं जबकि इसका उलटा उदाहरण नहीं मिलता है। चलते चलते एक सवाल: क्या आप बता सकते हैं कि पहला संस्कृत रेडियो प्रसारण किस स्टेशन ने और कब शुरू किया था?

Monday, July 28, 2008

पढ़े लिखे को फारसी क्या?

हिन्दी की एक कहावत है "हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फारसी क्या?" छोटा था तो मुझे यह कहावत सुनकर बड़ा अजीब सा लगता था कि आजकल हम हिन्दी वाले जिस तरह अंग्रेजी के पीछे न्योछावर हुए जाते हैं उसी तरह सौ-डेढ़ सौ बरस पहले तक फारसी को पूजते थे। आख़िर अपनी भाषा के आगे विदेशी भाषा को इतना महत्व क्यों? मेरे सवाल का जवाब दिया मेरे बाबा (पितामह) ने।

बाबा एक बहुमुखी व्यक्तित्व थे। अपने जीवांकाल में उन्होंने बहुत से काम किए थे। वे अध्यापक थे, सैनिक थे, ज्योतिषी भी थे। द्वितीय विश्व युद्ध में लड़े थे। हिन्दी-अङ्ग्रेज़ी भी जानते थे और संस्कृत-फारसी भी। बाबा ने जो बताया वह मेरे जैसे छोटे (तब) बच्चे को भी आसानी से समझ में आ गया और आज तक याद भी रहा। उनके अनुसार, संस्कृत की बहुत सी बेटियाँ हुईं जिनमें से फारसी एक है। उन्होंने कुछ आसान से सूत्र भी बताये जिनसे पता लगता है कि फारसी के बिल्कुल अजनबी से लगने वाले शब्द भी दरअसल हमारे आम हिन्दी शब्दों का प्रतिरूप ही हैं। चूंकि भाषा या शब्दों में यह परिवर्तन पूर्वनियोजित नहीं था इसलिए इसके नियम भी बिल्कुल कड़े न होकर लचीले हैं। मगर थोड़े विवेक से काम लेने पर हमारा काम आसान हो जायेगा। आईये, कुछ सरल सिद्धांत देखें:
१) संस्कृत का स -> फारसी का ह
२) संस्कृत का ह -> फारसी का ज़/ज/द
३) संस्कृत का व -> फारसी का ब
४) संस्कृत का श -> फारसी का स

इसके अलावा शब्दों में ह की ध्वनि इधर से उधर हो जाती है। आईये देखें कुछ शब्द इन सिद्धांतों की रौशनी में:

सप्ताह -> हफ्ता - स का ह और अन्तिम ह त के पहले आ गया (प+ह=फ)

इसी प्रकार:
बाहु -> बाज़ू
जिव्हा -> जीभ
हस्त -> दस्त
शक्ति -> सख्ती


ये तो थे कुछ आसान शब्द। अब एक ऐसा शब्द लेते हैं जिसकी समानता आसानी से नहीं दिखती। यह है १००० यानी सहस्र (=स+ह+स+र)। ह को ज़ और दोनों स को ह कर दें तो बन जाता है हज्हर या हज़ार.

आज की फारसी तो बहुत बदल गयी है, यदि अवेस्ता की ईरानी भाषा को लें तो उपरोक्त कुछ सूत्रों के इस्तेमाल भर से अधिकाँश शब्दों को आराम से समझा जा सकता है। चलिए देखते हैं आप एक दिन में ऐसे कितने शब्द ढूंढ कर ला सकते हैं।

Sunday, July 27, 2008

बेंगलूरू और अमदावाद - दंगा - एक कविता

पिछले दो दिनों में देश में बहुत सी जानें गयीं। हम सब के लिए दुःख का विषय है। पीडितों के दर्द और उनकी मनःस्थिति को शायद हम पूरी तरह से कभी भी न समझ सकें लेकिन हम दिल से उनके साथ हैं। हमें यह भी ध्यान रखना है कि देशविरोधी तत्वों के बहकावे में आकर आपस में ही मनमुटाव न फैले। यह घड़ी मिलजुलकर खड़े रहने की है। नफरत के बीज से नफरत का ही वृक्ष उगता है। इसी तरह, प्यार बांटने से बढ़ता है। कुछ दिनों पहले दंगों की त्रासदी पर एक कविता सरीखी कुछ लाइनें लिखी थीं। आज, आपके साथ बांटने का दिल कर रहा है - 

* दंगा * 
प्यार देते तो प्यार मिल जाता 
कोई बेबस दुत्कार क्यूं पाता 

रहनुमा राह पर चले होते 
तो दरोगा न रौब दिखलाता 

मेरा रामू भी जी रहा होता 
तेरा जावेद भी खो नहीं जाता 

सर से साया ही उठ गया जिनके 
दिल से फिर खौफ अब कहाँ जाता 

बच्चे भूखे ही सो गए थक कर 
अम्मी होती तो दूध मिल जाता 

जिनके माँ बाप छीने पिछली बार 
रहम इस बार उनको क्यों आता? 

 ईश्वर दिवंगत आत्माओं को शान्ति, पीडितों को सहनशक्ति, नेताओं को इच्छाशक्ति, सुरक्षा एजेंसियों को भरपूर शक्ति और निर्दोषों का खून बहाने वाले दरिंदों को माकूल सज़ा दे यही इच्छा है मेरी!

Friday, July 25, 2008

रैंडी पौष का अन्तिम भाषण - Really achieving your childhood dreams

जो लोग डॉक्टर रैंडी पौष (रैण्डी पॉश) से पढ़े हैं या मिले भी हैं उनकी खुशनसीबी का तो क्या कहना। जिन लोगों ने सिर्फ़ उनका "अन्तिम भाषण" ही सुना-देखा, वे भी अपने को धन्य ही समझते हैं। पिट्सबर्ग में हुआ उनका "अन्तिम भाषण" एक करोड़ से अधिक लोगों द्वारा सुनने-देखने के कारण अपने आप में एक कीर्तिमान है।

23 अक्टूबर 1960 को जन्मे पौष जी पिट्सबर्ग में कार्नेगी मेलन विश्व विद्यालय में अध्यापन करते थे। 2006 में उन्हें पैंक्रियाज़ के कैंसर का पता लगा। बहुत अच्छा इलाज होने के बावजूद बीमारी शरीर के अन्य हिस्सों में भी फैलती रही। पिछले वर्ष उनके चिकित्सकों ने उनको पाँच महीने का समय दिया। 18 सितम्बर 2007 को कार्नेगी मेलन विश्व विद्यालय ने उनके मान में "अन्तिम भाषण" (The Last Lecture) का आयोजन किया।

बड़े लोगों की बड़ी-बड़ी बातों से प्रभावित होने के मामले में मेरी बुद्धि थोड़ी सी ठस है। लेकिन मुझे यह कहने में कोई झिझक नहीं है कि "अन्तिम भाषण" की कोटि का कुछ भी मैंने पिछले कई सालों में तो नहीं देखा, न सुना।

"अन्तिम भाषण" ज़िंदगी से हारे हुए, किसी पिटे हुए शायर का कलाम नहीं है। न ही यह मौत से भागने के प्रयास में किया गया करुण क्रंदन है। इसके विपरीत यह एक अति-सफल व्यक्ति का अन्तिम प्रवचन है - शायद वैसा ही जैसा अपने अन्तिम क्षणों में रावण ने राम को या भीष्म पितामह ने पांडवों को दिया था।


रीयली अचीविंग योर चाइल्डहुड ड्रीम्ज़

"अन्तिम भाषण" का आधिकारिक शीर्षक था - "अपने बचपन के सपनों को सार्थक कैसे करें" (Really achieving your childhood dreams)। प्रोफ़ेसर पौष ने इसको संपन्न करते हुए कहा कि यदि आप अपना जीवन सच्चाई से गुजारते हैं तो आपके कर्म (Karma) इस बात का ध्यान रखेंगे कि आपके सपने अपने आप हकीकत बनकर आप तक पहुँचे। पतंजलि ने योगसूत्र में इसी को सिद्धि कहा है जो कि पूर्णयोग से पहले की एक अवस्था है।

उनके भाषण में सफलता के कारक जिन गुणों पर ख़ास ज़ोर दिया गया है वे निम्न हैं: सपनों की खोज, खुश रहना, खुश रखना, ईमानदारी, अपनी गलती स्वीकार करना और उसको सुधारने के लिए दूर तक जाना, कृतज्ञता, वीरता, विनम्रता, सज्जनता, सहनशीलता, दृढ़ इच्छाशक्ति, दूसरों की स्वतन्त्रता का आदर, और इन सबसे ऊपर - दे सकने की दुर्दम्य इच्छाशक्ति।

"अन्तिम भाषण" पर आधारित उनकी पुस्तक एक साल से कम समय में ही 30 भाषाओं में अनूदित हो चुकी है। अगर आपने "अन्तिम भाषण" का यह अविस्मरणीय अवसर अनुभव नहीं किया है तो एक बार ज़रूर देखिये। ध्यान से सुनेंगे और रोशनी को अन्दर आने से बलपूर्वक रोकेंगे नहीं तो यह भाषण आपके जीवन की दिशा बदल सकता है।

आज सुबह चार बजे रैंडी पौष इस दुनिया में नहीं रहे। मेरी ओर से उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि। ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे। यूट्यूब पर उनके इस "अन्तिम भाषण" के अनेक अंश उपलब्ध है. एक यहाँ लगा रहा हूँ - यदि आप में से कोई देखना चाहें तो।


भाषण की पीडीऐफ़ फाइल डाउनलोड करने के लिये यहाँ क्लिक कीजिये

Monday, July 21, 2008

पाकिस्तान में एक ब्राह्मण की आत्मा

कुछ वर्ष पहले तक जिस अपार्टमेन्ट में रहता था उसके बाहर ही हमारे पाकिस्तानी मित्र सादिक़ भाई का जनरल स्टोर है। आते जाते उनसे दुआ सलाम होती रहती थी। सादिक़ भाई मुझे बहुत इज्ज़त देते हैं - कुछ तो उम्र में मुझसे छोटे होने की वजह से और कुछ मेरे भारतीय होने की वजह से। पहले तो वे हमेशा ही बोलते थे कि हिन्दुस्तानी बहुत ही स्मार्ट होते हैं। फिर जब मैंने याद दिलाया कि हमारा उनका खून भी एक है और विरासत भी तब से वह कहने लगे कि पाकिस्तानी अपनी असली विरासत से कट से गए हैं इसलिये पिछड़ गए।

धीरे-धीरे हम लोगों की जान-पहचान बढ़ी, घर आना-जाना शुरू हुआ। पहली बार जब उन्हें खाने पर घर बुलाया तो खाने में केवल शाकाहार देखकर उन्हें थोड़ा आश्चर्य हुआ फ़िर बाद में बात उनकी समझ में आ गयी। इसलिए जब उन्होंने हमें बुलाया तो विशेष प्रयत्न कर के साग-भाजी और दाल-चावल ही बनाया।

एक दिन दफ्तर के लिए घर से निकलते समय जब वे दुकान के बाहर खड़े दिखाई दिए तो उनके साथ एक साहब और भी थे। सादिक़ भाई ने परिचय कराया तो पता लगा कि वे डॉक्टर अनीस हैं। डॉक्टर साहब तो बहुत ही दिलचस्प आदमी निकले। वे मुहम्मद रफी, मन्ना डे, एवं लता मंगेशकर आदि सभी बड़े-बड़े भारतीय कलाकारों के मुरीद थे और उनके पास रोचक किस्सों का अम्बार था। वे अमेरिका में नए आए थे। उन्हें मेरे दफ्तर की तरफ़ ही जाना था और सादिक़ भाई ने उन्हें सकुशल पहुँचाने की ज़िम्मेदारी मुझे सौंप दी।

खैर, साहब हम चल पड़े। कुछ ही मिनट में डॉक्टर साहब हमारे किसी अन्तरंग मित्र जैसे हो गए। उन्होंने हमें डिनर के लिए भी न्योत दिया। वे बताने लगे कि उनकी बेगम को खाना बनाने का बहुत शौक है और वे हमारे लिए, कीमा, मुर्ग-मुसल्लम, गोश्त-साग आदि बनाकर रखेंगी। मैंने बड़ी विनम्रता से उन्हें बताया कि मैं वह सब नहीं खा सकता। तो छूटते ही बोले, "क्यों, आपमें क्या किसी बाम्भन की रूह आ गयी है जो मांस खाना छोड़ दिया?"

उनकी बात सुनकर मैं हँसे बिना नहीं रह सका। उन्होंने बताया कि उनके पाकिस्तान में जब कोई बच्चा मांस खाने से बचता है तो उसे मजाक में बाम्भन की रूह का सताया हुआ कहते हैं। जब मैंने उन्हें बताया कि मुझमें तो बाम्भन की रूह (ब्राह्मण की आत्मा) हमेशा ही रहती है तो वे कुछ चौंके। जब उन्हें पता लगा कि न सिर्फ़ इस धरती पर ब्राह्मण सचमुच में होते हैं बल्कि वे एक ब्राह्मण से साक्षात् बात कर रहे हैं तो पहले तो वे कुछ झेंपे पर बाद में उनके आश्चर्य और खुशी का ठिकाना न रहा।

Saturday, July 19, 2008

बाबाजी का भूत

करीम की आत्मा का ज़िक्र किया तो मुझे आत्मा का एक किस्सा याद आ गया। सोचा, आपके साथ बाँट लूँ।

स्कूल के दिनों में हमारे एक मित्र को आत्मा-परमात्मा आदि विषयों में काफी रुचि थी. इस बन्दे का नाम था... चलो छोड़ो भी, नाम में क्या रखा है? हम उसे बाबाजी कह कर बुलाते थे. यहाँ भी हम उसे बाबाजी ही पुकार सकते हैं. समूह के बाकी लोग भी कोई पूर्ण-नास्तिक नहीं थे. बाबाजी अक्सर कोई रोचक दास्तान लेकर आते थे. किस तरह उनके पड़ोसी ने पीपल के पेड़ से चुडैल को उतरते देखा. किस तरह भूतों के पाँव पीछे को मुड़े होते हैं. पिशाच पीछे पड़ जाए तो मुड़कर क्यों नहीं देखना चाहिए आदि किस्से हम सब बाबाजी से ही सुनते थे।

हम सब में बाबाजी सबसे समृद्ध थे. लखपति बनना हो या क्लास की सबसे सुंदर लडकी का दिल जीतना हो - बाबाजी के पास हर चीज़ का तंत्र था. मैं स्कूल में सबका चहेता था तो उनके तंत्र की वजह से. पुष्कर फर्स्ट आता था तो उनके तंत्र की वजह से. जौहरी साहब सस्पेंड हुए तो उनके तंत्र की वजह से. पांडे जी का हाथ टूटा तो उनके तंत्र की वजह से. कहने का अभिप्राय है कि हमारे स्कूल में उनके तंत्र की सहायता के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता था. और तो और, उनके पड़ोसी की गृह कलह भी उनके तंत्र की वजह से ही थी. अफ़सोस कि उनके पास बिना पढ़े पास होने का तंत्र नहीं था, बस।

उनके पास अपना निजी कमरा था जिसे हम बैठक कहते थे. और उससे भी ज़्यादा, उनके पास अपना टेप रिकार्डर था. अक्सर शाम को हम लोग उनके घर पर इकट्ठे होते थे. हम सब उनकी बैठक में बैठकर इधर उधर की तिकड़में किया करते थे. उनकी बैठक में बैठकर ही हमने अपने प्रिंसिपल का नाम ताऊजी रखा था जो हमारे स्कूल छोड़ने के बरसों बाद तक चलता रहा. उनके टेप रिकार्डर पर ही गज़लों से हमारा पहला परिचय हुआ. गुलाम अली और जगजीत सिंह तो मिले ही - अनूप जलोटा और पीनाज़ मसानी भी हम तक उनके टेप रिकार्डर द्वारा ही पहुँचे।

उस शाम को हम सब उनकी बैठक में इकट्ठे हुए तो वह हमें कुछ विशेष सुनाने वाले थे. हम सब उत्सुकता से देख रहे थे जब उन्होंने अपने काले थैले में से एक कैसेट निकाली. डरावने संगीत के साथ जब वह कैसेट चलनी शुरू हुई तो बाबाजी ने बताया कि वह एक भूत का इंटरव्यू था. काफी डरावना था. भूत ने हमें दूसरी दुनिया के बारे में बहुत सी जानकारी दी. उसने बताया कि शरीर के बिना रहना आसान नहीं होता है. चूंकि वह तीन सौ साल पहले मरा था इसलिए उसकी भाषा आज की बोलचाल की भाषा से थोड़ी अलग हटकर थी।

साक्षात्कारकर्ताओं के पूछने पर जब उसने अपनी मृत्यु का हाल बताना शुरू किया तो उसने उर्दू के आम शब्द इंतक़ाल का प्रयोग किया. इससे पहले मैंने इस शब्द को अनेकों बार सुना था मगर कभी कोई ख़ास तवज्जो नहीं दी थी. मगर इस भूत ने जब इस शब्द को तीन सौ साल पुराने अंदाज़ में अंत-काल कहा तो इंतक़ाल का भारतीय उद्गम एकदम स्पष्ट हो उठा. भूत के इंटरव्यू से रोमांच तो हम सभी को हुआ लेकिन मुझे और भी ज़्यादा खुशी हुई जब मैंने एक पुराने शब्द को एक बिल्कुल नए परिप्रेक्ष्य में देखा. अगले दिन जब मैंने अपने उर्दू गुरु जावेद मामू को इस नयी जानकारी के बारे में बताया तो वे भी उस भूत से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके.

Sunday, July 13, 2008

नसीब अपना अपना

पुराना किस्सा है। दरअसल जिंदगी में एक पड़ाव ऐसा भी आता है जब पुराने किस्से नए किस्सों को पीछे छोड़ जाते हैं। तो जनाब (और मोहतरिमा), यह किस्सा है शिरवल का। शिरवल नाम है उस छोटे से कसबे का जहाँ मैंने अपनी ज़िंदगी के हसीन चार महीने गुजारे। अनजान लोग, अनजान भाषा के बीच में भी इतना अपनापन मिल सकता है मुझे शिरवल ने ही सिखाया। शिरवल में रहता था और पास के गाँव में नौकरी करता था. नई नई नौकरी थी। अकेला ही था इसलिए समय की कोई कमी न थी. दफ्तर के साथी शाम को हाइवे पर एक चाय भजिया के ठेले पर बैठ कर अड्डेबाजी करते थे. पहले दिन से ही मुझे वहां लेकर गए. चाय भजिया और हरी मिर्च तो मुझे अच्छी लगी तो मैं भी रोज़ उनके साथ वहां जाने लगा. ठेले पर बहुत भीड़ रहती थी. ठेले वाले ने आस पास बहुत सी बेंच डालकर एक पूरा होटल जैसा ही बना डाला था.

रोज़ जाता था तो आसपास नज़र डालना भी स्वाभाविक ही था, वैसे भी मेरे जानकार कहते हैं कि मुझे वह भी दिखता है जो किसी को नहीं दिख पाता. मैंने देखा कि इस ठेले के सामने ही एक पति-पत्नी भी भजिया बेचते थे. इस ठेले के विपरीत उन्होंने सड़क पर कब्ज़ा भी नहीं किया हुआ था। उनकी पक्की दुकान में बड़ा सा ढाबा था। आंधी पानी से बचाव के लिए एक छत भी थी. मगर मैंने कभी भी किसी ग्राहक को उनकी दुकान पर जाते हुए नहीं देखा. परंपरागत महाराष्ट्री वेशभूषा में दोनों पतिपत्नी रोजाना अपने ढाबे के बाहर ग्राहकों के इन्तेज़ार में खड़े रहते थे. टूरिस्ट बसें रूकती थीं मगर सभी लोग सड़क घेरकर खड़े हुए ठेलों पर ही आ जाते थे और वे दोनों बस ताकते रहते थे. शायद यह उनकी किस्मत थी या शायद उनकी वेशभूषा या फ़िर उनकी बढ़ी हुई उम्र - कुछ कहा नहीं जा सकता।

रोज़ उनकी मायूसी को देखता था मगर कभी ख़ुद भी उठकर सड़क पार नहीं कर सका. शायद उस अल्पवय में मैं कुछ ज़्यादा ही सोचता था. ठेलेवाला जो अब मेरा मित्र था बुरा मानेगा - मैं अकेला उस दुकान पर बैठा अजीब सा दिखूंगा - वे बुजुर्ग महाराष्ट्रियन दंपत्ति मेरे साथ बात ही नहीं कर पायेंगे आदि जैसे अनेकों कारण दिमाग में आते थे. सौ बात की एक बात यह कि न तो मैं ख़ुद कभी उस दुकान पर गया और न ही कभी किसी और को ही जाते देखा।

उस दिन मेरी खुशी का ठिकाना न रहा जब मैंने देखा कि फटे पुराने कपडों वाला एक मजदूर उस दुकान की और बढ़ा। यह ठेलेवाला तो शायद उस तरह के कपड़े वाले व्यक्ति को दूर से ही दुत्कार देता। उन दोनों ने उसे हाथों हाथ लिया और साफ़ सुथरी मेज पर बिठाकर उसकी आवभगत शुरू कर दी। अच्छा लगा कि कोई ग्राहक तो आया. तभी एक बस रूकी और बड़े सारे लोग उतरकर उसी दुकान की तरफ़ जाने लगे। पति पत्नी दौड़कर उन सवारियों को लेने आगे बढे तभी एक सवारी की नज़र फटे कपडों वाले ग्राहक पर पड़ी. उसने नाक भौं सिकोड़ीं और पीछे हटा। उसकी देखा देखी बाकी लोग भी रूक गए. उन्होंने इधर उधर देखा और सीधे सड़क पार कर इस ठेले पर आ गए। दो मिनट पहले जो मजदूर मुझे उनका भाग्यविधाता लग रहा था अब उसके वहाँ जाने का परिणाम देखकर मेरे मुँह से बस इतना ही निकला - नसीब अपना अपना. मेरे वहाँ प्रवास के चार महीनों में उस एक मजदूर के अलावा मैंने कभी किसी और को उस दुकान पर नहीं देखा।

Tuesday, July 1, 2008

गुलाब जामुन की आज़ादी

एक दफ्तर में पाँच लोग काम करते हों, पाँचों अलग अलग देश में पैदा हुए हों, दो का जन्म एक ही दिन हुआ हो और एक तीसरे का बाकी दो से सिर्फ़ एक दिन पहले। आश्चर्य की बात है न! मेरे लिए नहीं। मेरे पिछले काम में ऐसा ही था। मैं उन दो में से एक हूँ। मेरी जापानी सहकर्मी का जन्मदिन मेरे साथ ही था और हमारे बंगलादेशी मित्र हम दोनों से एक दिन बड़े थे। मेरे बुजुर्ग इराकी साथी और नौजवान अमेरिकी दोस्त उम्र के पैमाने के दो सिरों पर हम तीनो से काफी दूर खड़े थे।

जन्मदिन साथ होने का फायदा यह है कि एक ही दिन की पार्टी में ज़िम्मेदारी निबट जाती है। उपहार तथा बाकी खुशियों के साथ साथ लंच में एक साथ कहीं बाहर जाने का भी रिवाज़ जैसा हो गया है। वैसे तो सारे समूह में मैं ही अकेला शाकाहारी था। परन्तु वे सभी लोग जब भी मेरे साथ निकलते थे तो शाकाहारी स्थलों पर ही जाने का आग्रह करते थे। मुझे भी अच्छा लगता था वरना तो मन में डर सा ही रहता है कि न जाने किस चीज़ में क्या निकल आए। और कुछ नहीं तो खाद्य तेल की जगह पशु चर्बी तो आसानी से हो ही सकती है।

खैर, उस बार हम सब एक भारतीय ढाबे में खाने गए। हमारे इराकी मित्र करीम को पहली बार किसी भारतीय के साथ बैठकर भारतीय खाना खाने का मौका मिला था। उसके पास वैसे भी भारत से जुड़े हुए बहुत से सवाल होते थे। इस बार तो पापी पेट का सवाल था - बल्कि सवालात थे - और बेइंतिहा थे। वह पूछते गए और हम खाते गए - नहीं, बताते गए। भूख वर्धकों (appetisers) से शुरू होकर मुख्य कोर्स से चलते हुए आखिरकार हमारा जन्म दिन भोज अपने अन्तिम पड़ाव यानी मिठाई तक पहुँच ही गया। यहाँ तक मैंने करीम के सभी सवालिया गेंदों पर चौके लगा डाले। जब करीम ने मिठाई को सामने देखा तो उसका नाम पूछा। मैंने बताया - गुलाब जामुन।

"गुलाम जामुन?" उसने पक्का किया।

"नहीं, गुलाब जामुन," मैंने सुधारा।

"ओ हो, गुलाम जामुन!" उसने फिर से कहा।

"गुलाम नहीं गुलाब," मैंने ब पर ज़ोर देकर कहा, "हम आदमखोर नहीं है।"

उसकी समझ में नहीं आया। वह अभी भी "गुलाम" को ही पकड़े हुए था।

"गुलाम मेरी भाषा का शब्द है" वह चहका।

"हाँ, गुलाम का मतलब है दास।।।" हमने भी अपना भाषा ज्ञान बघार दिया। बोलते बोलते हमें गुलाम नबी आज़ाद याद आ गए जो एक ही शरीर में रहते हुए गुलाम भी हैं और आज़ाद भी।

"नहीं, गुलाम का मतलब है लड़का" करीम ने हमारी बात काटते हुए कहा।

जवाबी तीर फैंकने से पहले हमने अपने दिमाग का सारा दही जल्दी से मथा। हमारे हिन्दुस्तान में गुलाम कुछ भी अर्थ रखता हो, अरबी करीम की मातृभाषा थी। हमारे भेजे ने तुंरत ही उसके सही होने की संभावना को हमसे ज्यादा प्राथमिकता दे डाली। वह सारे रास्ते पूछता रहा कि लड़के के जामुन की मिठाई का क्या मतलब है। आख़िरकार हमारे बंगलादेशी मित्र इस बंगाली मिठाई का नाम लगातार बिगाड़े जाने से झल्ला गए और मिठाई का सही नाम बताने का जिम्मा स्वतः ही उनके पास चला गया।

दफ्तर वापस पहुँचने तक करीम गुलाब जामुन से पूर्ण परिचित हो चुके थे और मेरा दिमाग गुलाम शब्द के अर्थ में उलझता जा रहा था। इन्टरनेट पर खोजा तो गुलाम शब्द की खोज में सारे परिणाम भारत से ही थे और अधिकांश किसी न किसी के नाम से सम्बंधित थे। दिल्ली के गुलाम वंश का भी ज़िक्र आया और उसका अंग्रेज़ी अनुवाद दास वंश (slave dynasty) लिखा था जो कि करीम के बताए अर्थ से अलग था।

मैंने करीम की सहायता से इस शब्द के अरब से भारत तक के सफर को जानने की कोशिश की। इस प्रयास में हमने जो भी सीखा, वह आपके सामने है।

भारत की तरह अरब में भी सैनिक युवा ही होते थे और जैसे हम उन्हें फौजी जवान कहते हैं वैसे ही वे भी उन्हें जवान या लड़का कहते थे। एक समय ऐसा भी आया जब उनकी सेना में अनेकों टुकडियाँ दास सैनिकों की भी थीं। दास के लिए अरबी शब्द है अब्द। अश्वेतों के लिए तब का अरबी शब्द था हब्शी। गुलाम इन दोनों से अलग अपने स्वतंत्र अर्थ में चलता रहा और अरब जगत में आज भी उसी अर्थ में प्रयुक्त होता है।

ईरान व अफगानिस्तान आते-आते इसका अर्थ हरम के रक्षक में बदल गया जो कि अमूमन अफ्रीका से लाये हुए दास ही होते थे। भारत पहुँचने तक ईरानी, अरब व तुर्क शासक सम्माननीय हो गए और वे सैनिक होने पर भी लड़का नहीं वरन सरदार आदि खिताबों से नवाजे जाने लगे और सिर्फ़ दास सैनिक गुलाम रह गए। समय के साथ, भारत में यह शब्द दास सैनिक के अर्थ में ही प्रयुक्त होने लगा। बाद के काल में, भारत में इसका अर्थ बदलकर सिर्फ़ दास तक ही सीमित रह गया। हम भारतीय तो पहले से ही अपने नाम में दास लगते थे यथा सूरदास, तुलसी दास, कबीर दास आदि। सो धीरे धीरे रामदास जैसे नामों से चलकर राम गुलाम जैसे नामों से होते हुए हम गुलाम अली और गुलाम नबी आजाद तक आ गए।

और इस तरह पूरा हुआ एक अरबी शब्द का सफर भारत भूमि तक। भूल चूक की माफी चाहूंगा। आपकी टिप्पणियों का इंतज़ार रहेगा। विदा, अगली पोस्ट तक।

Thursday, June 19, 2008

अ से ज्ञ तक - From A to Z

क्या आप बता सकते हैं कि मराठी के द्नयानेश्वर, पंजाबी के ग्यानी जी, उर्दू के अन्जान, गुजराती के कृतग्नता और संस्कृत के ज्ञानपीठ में क्या समानता है? बोलने में न हो परन्तु लिखने में यह समानता है कि इन सभी शब्दों में संयुक्ताक्षर ज्ञ प्रयोग होता है।

भारतीय लिपियों में संभवतः सर्वाधिक विवादस्पद ध्वनि "ज्ञ" की ही है। काशी तथा दक्षिण भारत में इसकी ध्वनि [ज + न] की संधि जैसी होती है. हिन्दी, पंजाबी में यह [ग् + य] हो जाता है। गुजराती में यह [ग् + न] है और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में [द् + य + न] बन जाता है। खुशकिस्मती से नेपाली भाषा ने इसके मूल स्वरुप को काफी हद तक बचा कर रखा है. संस्कृत में यह [ज्+ न्+अ] है, हालांकि कई बार विभिन्न अंचलों के लोग संस्कृत पढ़ते हुए भी मूल ध्वनि को विस्मृत कर अपनी आंचलिक ध्वनि का ही उच्चारण करते हैं।

ज्ञ युक्त शब्दों की व्युत्पत्ति भी देखें तो भी यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि इसकी प्रथम ध्वनि ज की है न कि द या ग की। उदाहरण के लिए ज्ञान का मूल ज (knowledge) है। इसी प्रकार यज्ञ का मूल यज धातु है।

यदि 'ज्ञान' शब्द का शुद्ध उच्चारण ढूँढा जाय तो यह कुछ कुछ 'ज्नान' जैसा सुनाई देगा। संज्ञा को 'संज्+ ना' पढ़ा  जायेगा, प्रज्ञा 'प्रज्ना' हो जायेगा और विज्ञान 'विज्नान' कहलायेगा। यदि आपने यहाँ तक पढ़ते ही उर्दू के "अन्जान" और संस्कृत के "अज्ञान" (उच्चारण: 'अज्नान') में समानता देख ली है तो कृपया अपने कमेन्ट में इसका उल्लेख अवश्य करें और मेरा नमस्कार भी स्वीकार करें। हिन्दी का ज्ञान सम्बन्धी शब्द समूह यथा जान, अन्जान, जानना आदि भी ज्ञान से ही निकला है। वैसे, मेरा विश्वास है कि अतीत की अंधेरी ऐतिहासिक गलियों में नोलेज (kn-क्न), नो (know), डायग्नोसिस (diagnosis), प्रॉग्नोसिस (prognosis), व नोम (gnome) आदि का सम्बन्ध भी इस ज्ञान से मिल सकता है।

मुझे पता है कि आपमें से बहुत से लोगों को मेरी बात पर यकीन नहीं हो रहा होगा। बचपन से पकड़ी हुई धारणाओं से बाहर आना आसान नहीं होता है। अगली बार जब भी आप ज्ञ लिखा हुआ देखें तो पायेंगे कि मूलतः यह ज ही है जिसके सिरे पर न भी चिपका हुआ है। बेहतर होगा कि एक बार खुद ही ज्ञ को अपने हाथ से लिखकर देखिये।

आपके सुझावों और विचारों का स्वागत है। यदि मेरी कोई बात ग़लत हो तो एक अज्ञानी मित्र समझकर क्षमा करें मगर गलती के बारे में मुझे बताएँ अवश्य। धन्यवाद!
Devanagari letters for Hindi, Nepali, Marathi, Sanskrit etc.


* हिन्दी, देवनागरी भाषा, उच्चारण, लिपि, व्याकरण विमर्श *
अ से ज्ञ तक
लिपियाँ और कमियाँ
उच्चारण ऋ का
लोगो नहीं, लोगों
श और ष का अंतर

अनुराग शर्मा की हिंदी कवितायें

ऊर्ध्वमूलम् अधःशाखम् अश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥
 
  1. बदनुमा धब्बे
  2. लेन देन
  3. भय
  4. अहम् ब्रह्मास्मि
  5. उठ दीवार बन
  6. सत्य के टुकड़े
  7. ख्याल अपना अपना
  8. नव वर्ष
  9. भोर का सपना
 10. पतझड़ - कुंडली
 11. माँ
 12. शैशव
 13. इत्मीनान
 14. वक़्त
 15. कुछ और शेर
 16. चंद अशआर
 17. क्या मतलब
 18. मर्म
 19. काश
 20. बहाना
 21. तुम्हारे बगैर
 22. आग मिले
 23. वसंत
 24. ज़माने की बातें
 25. जीवन कैसा है?
 26. साथ तुम्हारा
 27. आलस्य
 28. तुम बिन
 29. सत्यमेव जयते
 30. बिखरा मन
 31. रहने दो
 32. खोया पाया
 33. पतझड़
 34. नहीं होता
 35. टीस
 36. सब तेरा है
 37. तुम्हारे बिना
 38. क्या होगा?
 39. सताती हो
 40. अनजाने लोग
 41. ट्रांसलिटरेशन
 42. गड़बड़झाला
 43. सावन
 44. क्या मतलब?
 45. दंगा
 46. साधारण जन
 47. हाल बुरा है
 48. नानृतम्
 49. व्यावहारिकता
 50. आपकी गज़ल
 51. याद तेरी आयी तो
 52. अक्षर अक्षर
 53. कुसुमाकर कवि
 54. नाउम्मीदी
 55. यूँ ही एक कामना
 56. दीपावली
 57. तू मेरा बन
 58. बेहतर हो
 59. जब से गये तुम
 60. उत्सव की रोशनी
 61. सीमा
 62. अकेला
 63. अंतर्मन
 64. कच्ची दीवार
 65. मैं भी एक कवि बन पाता
 66. खट्टे अंगूर
 67. चक्रव्यूह
 68. इतना भी पास मत आओ
 69. बदले ज़माने देखो
 70. गहरे गह्वर गहराता
 71. प्रेम, न्याय और प्रारब्ध
 72. प्रेम की चुभन
 73. सावन का महीना
 74. दिल यूँ ही पिघलते हैं
 75. भारत बोध
 76. दुखी मन से
 77. वादा
 78. प्रेमिल मन (दिल क्या चाहे)
 79. एक उदास नज़्म
 80. कालचक्र
 81. कहाँ गई?
 82. राजनीतिक व्यंग्य
 83. क्यूँ नहीं?
 84. आस्तीन का दोस्ताना
 85. अपना अपना राग
 86. तल्खी और तकल्लुफ
 87. हम क्या हैं?
 88. सीमित जीवन
 89. अस्फुट मंत्र
 90. कबाड़
 91. 2016 की शुभकामनायें!
 92. मेरा दर्द न जाने कोय
 93. याद के बाद
 94. शिकायत
 95. शाब्दिक हिंसा
 96. ये दुनिया अगर
 97. अनंत से अनंत तक
 98. स्वप्न
99. फ़िरकापरस्त
100. असलियत
101. डर लगता है
102. ग़ज़ल?
103. घोंसले
104. एक नज़र
105. चले गये
106. आदमी (ग़ज़ल)
107. रोशनाई (ग़ज़ल)
108. व्यथा कथा (गीत)
109. संवाद रहे (ग़ज़ल)
110. दोस्त (द्विपदी)
111. सत्य
112. दादी माँ
113. अनुनय
114. मुझे याद है
115. विभाजन (ग़ज़ल)
116. कुआँ और खाई
117. मरेंगे हम किताबों में
118. भूल रहा हूँ
119. पछताना क्या क्या यूँ रोना (ग़ज़ल)
120. घर के वृद्ध
121. मैत्री
122. निर्वाण
123. प्रेम के हैं रूप कितने
124. मुक्ति
125. एकाकी कोना
126. वफ़ा
127. महाकवियों के बीच हम
128. भाव-बेभाव
129. बीती को बिसार के...
130. बेगाने इस शहर में
131. हम अच्छे हैं
132. दुनिया को जताते हैं, पर हमसे छिपाते हैं (ग़ज़ल)
133. खिलाते नहीं (ग़ज़ल)

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(अनुराग शर्मा)

Hindi Poetry by Anurag Sharma

कुछ कहानियाँ - अनुराग शर्मा

कहानी कहानी होती है, उसमें लेखक की आत्मकथा ढूँढना ज्यादती है. ~ अनुराग शर्मा
1. वह कौन था
2. खून दो

3. खाली प्याला
4. जावेद मामू
5. सौभाग्य (स्वर: डॉ. मृदुल कीर्ति)

6. एक दिन श्रमिक का
7. कर्मा जी की टुन्न-परेड

8. गरजपाल की चिट्ठी

9. लागले बोलबेन

10. बिच्छू
i)
ii)
11. हत्या की राजनीति

12. गदा का रहस्य
13. जाके कभी न पडी बिवाई (स्वर: अर्चना चावजी)

14. एक और इंसान
15. माय नेम इज खान

16. असीम
24. मैं एक भारतीय

25. नसीब अपना अपना

26. गंजा – लघु कथा

27. गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु... (कैसे कैसे शिक्षक?)

28. अग्नि समर्पण - व्यंग्य

29. आती क्या खंडाला?

30. टोड

31. अनुरागी मन
32. मैजस्टिक मूंछें

33. घर और बाहर

34. डैडी
35. छोटे मियाँ

36. बेमेल विवाह

37. सैय्यद चाभीरमानी और हिंदुत्वा एजेंडा
38. तहलका तहलका तहलका
39. सैय्यद चाभीरमानी और शाहरुख़ खान
40. ओसामा जी से हैलोवीन तलक - सैय्यद चाभीरमानी
41. कोकिला, काक और वो ...
42. एक शाम बार में

49. गन्धहीन
50. भोला

51. हिन्दी बंगाली भाई भाई
52. व्यवस्था
53. यारी है ईमान
54. सच्चे फांसी चढ़दे वेक्खे
55. मुखौटों से वार्ता
56. सुखांत
57. मार्जार मिथक गाथा
58. भविष्यवाणी
59.ईमान की लूट

60.सत्य - सबसे छोटी बोधकथा
61.गुरु - लघुकथा

62.दीपशलाका बालिका - हाँस क्रिश्चियन एंडरसन

63.जोश और होश - बोधकथा
64.खान फ़िनॉमिनन

65.कंजूस मक्खीचूस

66.किनाराकशी - लघुकथा
67.मुफ्तखोर - लघुकथा
68.खिलखिलाहट - लघुकथा
69.पुरानी दोस्ती - लघुकथा
70.ऊँट, पहाड़, हिरण, शेर और शाकाहार
71.सांप्रदायिक सद्भाव - लघुकथा
72.सच या झूठ - लघुकथा
73.बुद्धू - लघुकथा
74.अहिंसा - लघुकथा
82. विदेह

83. बिग क्लाउड 2068

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रेडियो सलाम नमस्ते पर अनुराग शर्मा का साक्षात्कार
Hindi Interview with Anurag Sharma on Radio Salam Namaste




मॉरिशस टीवी पर अनुराग शर्मा का साक्षात्कार
Anurag Sharma's Interview on Mauritius TV

यह भी कैसी विचित्र विडम्बना है कि दूसरों की कहानियाँ रचते समय मुझे सामने वाले को उसकी सम्पूर्णता के साथ अपने में मिलाना पड़ता था और इस हद तक मिलाना पड़ता था कि ‘स्व’ और ‘पर’ के सारे भेद मिटकर दोनों एकलय, एकाकार हो जाते थे। पर अपनी कहानी लिखते समय तो मुझे अपने को अपने से ही काटकर बिल्कुल अलग कर देना पड़ा। यह निहायत ज़रूरी था और इस विधा की अनिवार्यता शर्त, तटस्थता, की माँग भी लिखनेवाली मन्नू और जीनेवाली मन्नू के बीच पर्याप्त फासला बनाकर रख सकूँ। अब इसमें कहाँ तक सफल हो सकी हूँ, इसके निर्णायक तो पाठक ही होंगे...। मुझे तो न इसका दावा है, न दर्प! ~ मन्नू भंडारी (एक कहानी यह भी)
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Sunday, June 1, 2008

इस्पात नगरी से - श्रृंखला

पिट्सबर्ग पर आधारित यह कड़ी मेरे वर्तमान निवास स्थल से आपका परिचय कराने का एक प्रयास है। संवेदनशील लोगों के लिए यहाँ रहने का अनुभव भारत के विभिन्न अंचलों में बिताये हुए क्षणों से एकदम अलग हो सकता है। कोशिश करूंगा कि समानताओं और विभिन्नताओं को उनके सही परिप्रेक्ष्य में ईमानदारी से प्रस्तुत कर सकूं। आपके प्रश्नों के उत्तर देते रहने का हर-सम्भव प्रयत्न करूंगा, यदि कहीं कुछ छूट जाए तो कृपया बेधड़क याद दिला दें, धन्यवाद!

* पिट्सबर्ग के खूबसूरत ऑर्किड्स
* और वह पत्थर हो गया
* तितलियाँ
* पिट्सबर्ग का अंतर्राष्ट्रीय लोक महोत्सव (2011)
* डीसी डीसी क्या है?
* वाट्सन आया
* आभार दिवस
* नया प्रदेश, युवा मुख्यमंत्री
* क्वांज़ा का पर्व
* पतझड़ का सौंदर्य
* मुद्रण का भविष्य
* बुरे काम का बुरा नतीज़ा
* अमेरिका में शिक्षा
* पीड़ित अपराधी
* रजतमय धरती
* कार के प्रकार
* हनूका 2010
* हनूका 2009
* प्रेत उत्सव
* तमसो मा
* जी-२०
* डैलस यात्रा
* स्वतंत्रता दिवस
* ज्योतिर्गमय
* ड्रैगन नौका उत्सव
* आह पुलिस
* ग्राहक मेरा देवता
* वाह पुलिस
* २३ घंटे
* दिमागी जर्राही
* सिक्सबर्ग
* अनोखा परिवहन
* पिट्सबर्ग का पानी
* आग और पानी
* दंत परी
* तीन नदियाँ या चार?
* क्रिसमस
* मेरी खिड़की से
* १९ जून
* बॉस्टन ब्राह्मण
* बॉस्टन में भारत
* स्वतंत्रता दिवस (2010) की शुभकामनाएं!
* स्वतंत्रता दिवस (2009) की शुभकामनाएं!

Postcards from Pittsburgh in Hindi